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जलवायु अनुकूल पारंपरिक बीज और कृषि उपज का जश्न मनाता थिरुनेली का सीड फेस्टिवल

थिरुनेली सीड फेस्टिवल में दर्शाई गईं चावल की विभिन्न किस्में। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

थिरुनेली सीड फेस्टिवल में दर्शाई गईं चावल की विभिन्न किस्में। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

  • केरल के वायनाड का ‘थिरुनेली सीड फेस्टिवल’ पारंपरिक धान के बीज और अन्य उपज का सम्मान करने के लिए हर साल मनाया जाने वाला उत्सव है। इसे साल 2013 से आयोजित किया जा रहा है।
  • व्यावसायिक खेती के चलते स्वदेशी बीज और फसलें गायब हो रही हैं। लेकिन वे जिन बीजों का इस्तेमाल कर रहे हैं वे टिकाऊ, जलवायु के अनुकूल और खेती के लिए महत्वपूर्ण हैं।
  • किसानों और स्वदेशी लोगों ने समृद्ध, विविध फसलों को न सिर्फ बोया बल्कि उन्हें लुप्त होने बचाया और दूसरों के साथ साझा भी किया है। ये बीज उनके जीवन, आजीविका और उत्सवों का एक खास हिस्सा हैं।
  • थिरुनेली सीड फेस्टिवल जैसे कार्यक्रम स्थानीय बीज किस्मों के संरक्षण के लिए किसानों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं, कृषि वैज्ञानिकों, संरक्षणवादियों और सहायक संगठनों को एक साथ लेकर आते हैं।

पंचरिमेलम की संगीत मंडली ने त्योहार की गूंज को केरल के मंदिर में सुरों के रंगों से सजाया हुआ था। वहीं खड़े एक बुजुर्ग अपने युवा प्रशंसकों से बीज के संरक्षण की पवित्र परंपरा को आगे बढ़ाने के बारे में बात कर रहे थे। उन्होंने हमेशा की तरह भगवा सारोंग और सफेद शर्ट पहनी हुई थी और लोग उन्हें प्यार से विट्टाचन (बीज पिता) कहकर बुला रहे थे।

चेरुवयाल रमन नामक ये बुजुर्ग अपनी उम्र के 70 वें पड़ाव के शुरुआती दौर में है और भारत के शीर्ष नागरिक सम्मानों में से एक पद्म श्री से 2023 में सम्मानित किये जा चुके हैं। उनके 150 साल पुराने मिट्टी के घर के बरामदे में कई स्मृति चिन्ह और पदक रखे हुए थे। उन्होंने चावल की 55 देशी किस्मों का किस तरह से संरक्षण किया हुआ है, वह अपने इसी सफर के बारे में लोगों को बता रहे थे। उन्होंने किसानों से कहा, “अब आपकी बारी है।”  उन्हें घेर कर खड़े लोगों में से कई आदिवासी, डाक्टरी पेशे से जुड़े लोग, वैज्ञानिक, संरक्षणवादी और जिज्ञासु आगंतुक थे। ये सभी केरल और कर्नाटक में फैले जंगलों के किनारे बसे थिरुनेली पंचायत (स्थानीय स्वशासन निकाय) के कट्टुकुलम गांव में एकत्र हुए थे। 

साल 2023 में, 10 से 12 फरवरी तक चले थिरुनेली सीड फेस्टिवल में लगभग 350 चावल की किस्में, 70 तरह का बाजरा, 243 केले के पौधे, 138 कंद, 60 पत्तेदार सब्जियां और जैविक कपास से बने हैंडलूम कपड़े विभिन्न स्टालों में प्रदर्शित किए गए थे। स्थानीय दुग्ध सहकारी समितियों ने आइसक्रीम का स्टॉल लगाया था। तो वहीं ब्रह्मगिरी नामक एक स्थानीय खाद्य प्रसंस्करण कंपनी ने जैविक कॉफी और सूखे मांस के व्यंजन बेचे। मेले में सरकारी विभाग, बैंक और यहां तक कि एक मोबाइल सॉयल टेस्टिंग लैब भी थी। लगभग 5,000 लोगों ने उत्सव में शिरकत की थी।

कुरिचिया आदिवासी रमन के पूर्वज किसान और प्रसिद्ध तीरंदाज थे। उन्होंने किसी जमाने में मालाबार के स्वतंत्रता सेनानी पजहस्सी राजा के साथ अंग्रेजों का मुकाबला किया था। रमन को भी उनकी तरह किसी की गुलामी करना पसंद नहीं था। सो, उन्होंने सरकारी नौकरी के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए, अपने मामा की सलाह पर 40 एकड़ के अपने खेत में काम करना पसंद किया। कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों और आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों से लड़ने की कसम खाई। फिलहाल तो इस उत्सव का प्रमुख आकर्षण केरल की प्रसिद्ध मार्शल आर्ट कलरीपयट्टु का प्रदर्शन और रस्साकशी प्रतियोगिता रही थी।

किसानों ने मेले में आए मेहमानों के लिए बिना पॉलिश किए हुए चावल के दलिया के साथ पुज़ुक्कू परोसा था। यह कंदों से बना और नारियल के मिश्रण में लिपटा एक व्यंजन है। साथ ही पायसम मिठाई या कहे कि गुड़ के साथ मीठा स्थानीय चिपचिपा चावल भी था। यह खेतों से जुड़ी जड़ों को याद करने का दिन था।

निजी वन भूमि के एक छोटे से हिस्से पर स्थानीय कंद, सब्जियों और औषधीय जड़ी-बूटियों का संरक्षण करने वाला आदिवासी महिलाओं का एक समूह। बाएं से: लक्ष्मी डीके, रानी एम, बिंदु पीएम, शरण्या डीसी, शरण्या एम, और सरसु जी। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे 
निजी वन भूमि के एक छोटे से हिस्से पर स्थानीय कंद, सब्जियों और औषधीय जड़ी-बूटियों का संरक्षण करने वाला आदिवासी महिलाओं का एक समूह। बाएं से: लक्ष्मी डीके, रानी एम, बिंदु पीएम, शरण्या डीसी, शरण्या एम, और सरसु जी। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

चावल की पारंपरिक किस्में जलवायु के अनुकूल 

थिरुनेली सीड फेस्टिवल की शुरुआत 2013-14 में संरक्षण एनजीओ थानाल द्वारा की गई थी। इसे ‘हमारे चावल बचाओ’ अभियान और कुछ अन्य बीज-बचत समूहों और व्यक्तियों के साथ, पंचायत व सरकार द्वारा संचालित नेटवर्क ‘कुडुम्बश्री’ के सहयोग से आयोजित किया गया था। ‘कुडुम्बश्री’ एक स्थानीय महिला स्वयं सहायता समूह है। कोविड-19 महामारी के दौरान इस मेले का कुछ समय तक आयोजित नहीं किया गया था। इस साल मेले के संयोजक और सह-आयोजन समूह थिरुनेली एग्री प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड (टीएपीसीओ) के सीईओ राजेश कृष्णन ने कहा, “इस तरह से यह एक बड़े किसान मेले में बदलकर सामने आया है।”

थानाल की निदेशक और सह-संस्थापक उषा सूलापानी ने कहा, “हम 10,000 साल की परंपरा को संरक्षित कर रहे हैं।” देश की कभी फलती-फूलती फसल जैव विविधता के पीछे के रहस्य को उजागर करते हुए उन्होंने समझाया कि भारत में खेती के शुरुआती दिनों से लोग कृषि-जलवायु क्षेत्रों की ओर जाने लगे थे। वे अपने साथ बचे हुए बीजों को ले जाते और उन्हें वहां बोते। इस तरह से समृद्ध और लचीली जैव विविधता फैलाते हुए उन्होंने सबसे योग्य और जलवायु के अनुकूल बीजों को बचाए रखा। उन्होंने कहा, “1960 के दशक से पहले, भारत में चावल की एक लाख प्रजातियां थीं।”  खास जगहों पर उगाई जाने वाली पारंपरिक फसल किस्में लैंडरेस’ को कुछ चुनिंदा किसानों की पीढ़ियों अपने खेतों में उगाती आई हैं। 1960 के दशक में खाने की कमी के समाधान के तौर पर हरित क्रांति की ओर देखा गया। भूखे लोगों तक पौष्टिक भोजन की पहुंच के इस महत्वाकांक्षी प्रयास के अनपेक्षित परिणाम रहे। इन परिणामों में स्वदेशी अनाज और बाजरा की खेती को एक तरफ कर देना भी शामिल था।

सूलापानी ने तर्क देते हुए कहा कि बाजार आधारित एग्री-इकोसिस्टम में ऊर्जा और कार्बन का बेहद इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह की खेती 30% से अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। खेत और मवेशी उत्पादन, लैंड यूज परिवर्तन जैसे कि वनों की कटाई, पूर्व और उत्पादन के बाद की प्रक्रियाएं, खपत और खाद्य निपटान – ये सभी गतिविधियां कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और फ्लोराइड युक्त गैसों का उत्सर्जन करती हैं। हालांकि, स्थानीय, हार्डी किस्में को उगाने में कम संसाधनों का उपयोग किया जाता हैं और ये मौसम की अनियमितताओं को झेल पाने में भी सक्षम हैं। सुलापानी ने कहा, “स्वदेशी किस्में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लक्ष्यों के लिए काफी हद तक कारगर हैं।”

प्राचीन बीजों को फिर से जिंदा करना

उत्सव के दौरान लोहे की चादर की एक बड़ी टेंटनुमा छत के नीचे खड़े ओ.वी. जॉनसन, एक सेवानिवृत्त स्कूली शिक्षक हैं। TAPCO के अध्यक्ष और सर्वश्रेष्ठ जैविक किसान के लिए राज्य पुरस्कार के विजेता ने अपनी कहानी सुनाई। उन्होंने पढ़ाना छोड़ दिया था। उनके पैतृक गांव को पड़ोस में बने कोचीन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे ने काफी शोरगुल वाला और व्यस्त बना दिया था। इसके चलते वह 15 साल पहले अपना गांव छोड़कर वायनाड चले आए। अब वह चावल और सब्जियों की किस्मों का संरक्षण करते हैं, शहद की खेती करते हैं, अपने अनौपचारिक स्कूल में आदिवासी बच्चों को पढ़ाते हैं और कृषि उत्सवों को प्रायोजित करते हैं। कंबाला नट्टी के त्योहार के समय अलग-अलग गांव के लोग एक साथ मिलते हैं, पौधे रोपते समय नाचते और गाते हैं, और फिर मेजबान द्वारा परोसे गए भोजन का स्वाद लेते हैं। अपने खेत से निकले पायसम और तरबूज के टुकड़े परोसते हुए जॉनसन ने कहा कि वह खुद की खोज कर रहे हैं।

जॉनसन के खेत में 50 प्रकार के चावल का संरक्षण होता है, जिसमें वायनाड के कुछ मूल किसानों द्वारा बचाई गईं किस्में भी शामिल हैं, जैसे कि सुगंधित जीरकशाला और गंधकशाला। उनके कलेक्शन में आयुर्वेदिक उपचार में इस्तेमाल होने वाला नवारा, लाल रक्तशाली चावल, सुगंधित मुल्लांकिमा, कल्लादियारन और ओक्कापुंज भी शामिल हैं।

(ऊपर बाईं ओर से क्लॉकवाइज) पीजे मैनुअल कंदों का संरक्षण करते हैं। उनका मानना है कि कंद खाद्य सुरक्षा की कुंजी हैं। एनजीओ थानाल की निदेशक उषा सूलापानी कहती हैं, स्थानीय, जैविक खेती जलवायु परिवर्तन के अनुकूल है और इसके असर को कम करने का एक कारगर उपाय है। पुरस्कार विजेता आदिवासी चावल संरक्षणवादी चेरुवयाल रमन के काफी प्रशंसक हैं। पीके राधा अपनी रसोई में स्थानीय सब्जियों के बीजों को राख और धुंए से उपचारित कर उनका संरक्षण और वितरण करती हैं। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे 
(ऊपर बाईं ओर से क्लॉकवाइज) पीजे मैनुअल कंदों का संरक्षण करते हैं। उनका मानना है कि कंद खाद्य सुरक्षा की कुंजी हैं। एनजीओ थानाल की निदेशक उषा सूलापानी कहती हैं, स्थानीय, जैविक खेती जलवायु परिवर्तन के अनुकूल है और इसके असर को कम करने का एक कारगर उपाय है। पुरस्कार विजेता आदिवासी चावल संरक्षणवादी चेरुवयाल रमन के काफी प्रशंसक हैं। पीके राधा अपनी रसोई में स्थानीय सब्जियों के बीजों को राख और धुंए से उपचारित कर उनका संरक्षण और वितरण करती हैं। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

सिर्फ अनाज ही नहीं

मेले में मौजूद एक और पुरस्कार विजेता संरक्षणवादी पीजे मैनुअल ने कहा कि खेती गरीबी और भूख से बाहर निकलने का सबसे सुरक्षित तरीका है। वह एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जो 1930 के दशक के अंत में गरीबी से बचने के लिए दक्षिण केरल के किसानों के सामूहिक प्रवास के हिस्से के रूप में वायनाड चले आए थे। मैनुअल का जन्म 1948 में हुआ था। उन्हें आज भी याद है कि उनके स्कूल में बच्चों को गेहूं का आटा और दूध दिया जाता था। ये सब खाने का सामान अमेरिका से सहायता के रूप में आता था। मैनुअल ने याद करते हुए कहा, “शाम को उबला हुआ कसावा बड़ी राहत देता था।” उस समय कसावा केरल के निम्न-आय वाले परिवारों के लिए एक प्रमुख भोजन और आय का जरिया था।


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मैनुअल ने कंद और जड़ों का संरक्षण शुरू किया और अब उनके खेत में 60 किस्में हैं। मौजूदा समय में वह खाने की आदतों में आमूल-चूल बदलाव का समर्थन करते हैं, जो काफी हद तक अनाज पर आधारित है। खाद्य असुरक्षा को कम करने के तरीके के रूप में वह कंद, जड़ और केले खाने की वकालत करते हैं। मैनुअल ने कहा, “राजमार्गों और हवाई अड्डों ने धान के खेतों पर कब्जा कर लिया है। लेकिन हमारे पास बहुत सारे अंतर्देशीय भूखंड हैं, जहां हम इनकी खेती कर सकते हैं।” वह आगे कहते हैं, “उदाहरण के तौर पर आप एक ही पेड़ के चारों ओर 25 काचिल (रतालू का एक प्रकार) पौधे उगा सकते हैं। हर एक काचिल आपको 2 किलो तक की उपज देगा। करीब 50 किलो काचिल से आप 1,000 रुपये कमा सकते हैं। अपना संदेश फैलाने के लिए, वह वायनाड में अपने गांव में एक और बीज उत्सव आयोजित करते हैं जिसे एडवाका कहा जाता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि केरल की जलवायु कसावा, अरबी, रतालू और शकरकंद जैसी कंद फसलों के लिए अनुकूल है। यूनिवर्सिटी कॉलेज, तिरुवनंतपुरम में वनस्पतिशास्त्री शशिकुमार सोमन ने कहा, “यैम  की एक लम्बी शेल्फ लाइफ होती है, और ये लोगों को भोजन की कमी से बचा सकते हैं। कई अफ्रीकी देशों में यह एक मुख्य भोजन है, और आदिवासी अभी भी इसका काफी हद तक सेवन करते हैं। हमारे प्रकाश के त्योहार कार्तिका के दौरान यैम व्यंजन तैयार करने की परंपरा है।” 

इन कहानियों से प्रेरित होकर स्थानीय बीटा कुरुबा के दस आदिवासी महिलाओं के एक समूह ने पास की एक वन भूमि के 75 फीसदी हिस्से को साफ किया और दर्जनों कंद, सब्जियां और कई मसालों की जैविक खेती शुरू की। मेले में नूरंकिज़हंगु (फिजी यैम) के एक विशाल टुकड़े के सामने तस्वीरें खिंचवाते हुए समूह की एक सदस्य सुनीता ने कहा, “हमारे पूर्वजों ने इनमें से कई को मुख्य भोजन और दवा के रूप में इस्तेमाल किया था।”

थिरुनेली बीज महोत्सव परिसर का मुख्य द्वार। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे 
थिरुनेली बीज महोत्सव परिसर का मुख्य द्वार। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

भविष्य के लिए काम करना

कई विशेषज्ञ समूह ऐसी पहलों का समर्थन कर रहे हैं। कीस्टोन फाउंडेशन एक संरक्षण एनजीओ है, जो लगभग 200 एकड़ में चावल की किस्मों को बढ़ावा दे रहा है। इसके एक प्रवक्ता ने बताया, “कुलन थोंडी जैसी देशी किस्में बाढ़ प्रतिरोधी, पोषक तत्वों से भरपूर और कम समय में अच्छी उपज देने वाली होती हैं।” ह्यूम सेंटर फॉर इकोलॉजी एंड वाइल्डलाइफ बायोलॉजी कोचीन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वायुमंडलीय वैज्ञानिकों के सहयोग से किसानों को स्थानीय मौसम के पूर्वानुमान के बारे में बताता है।

पुरस्कार विजेता एनजीओ ‘स्वयं शिक्षण प्रयोग’ महिलाओं के नेतृत्व वाली जलवायु के अनुकूल खेती को बढ़ावा दे रहा है और स्थानीय महिलाओं के साथ केरवृक्ष (नारियल का पेड़) नामक एक कृषि उपज स्टार्ट-अप और छोटे उद्यमों को संचालित करता है। 

सत्तर साल की कार्त्यानियाम्मा अपने खेत के चावल के आटे, टर्की बेरी, लहसुन और अन्य औषधीय जड़ी बूटियों से लड्डू बनाकर बेचती हैं। गांव की एक अन्य बुजुर्ग महिला पीके राधा, राख, धुएं और गाय के गोबर से उपचारित सब्जियों के बीज वितरित करती हैं। ये सब बीजों को कीटों से दूर रखते हैं। उन्हें यह तकनीक उनके पूर्वजों ने सिखाई थी। उनके दोस्तों का कहना है कि जल्द ही उसे विथम्मा (मातृ बीज) कहा जाएगा। एक युवा कुरिचिया आदिवासी महिला श्रीजीशा ने एक शुरुआत की है जिसे तकनीकी रूप से एक-एकड़ मॉडल कहा जाता है। वह धान की फसल कटने के बाद अपने खेतों में अदल-बदल कर सब्जियों की फसलें उगाती हैं। कार्तयानयम्मा ने कहा, “हालांकि, सबसे बड़ी चुनौती जंगली सूअर, अजगर, बंदरों और तेंदुओं को दूर रखना है।” 

ये महिलाएं अपने रोल मॉडल रमन की राह देख रही हैं। वह उनके हाथों अपने स्टार्ट-अप के एक नए आउटलेट ‘सुलापानी’ का उद्घाटन कराना चाहती है। इन छोटे कदमों को वो मुख्यधारा की कृषि विधियों के लिए एक पर्यावरण-अनुकूल, कम कार्बन विकल्प के रूप में देखती हैं। हालांकि, कृष्णन ने उनके इस नजरिए का विरोध करते हुए कहा, “हम ही मुख्यधारा हैं।”

 

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बैनर तस्वीरः थिरुनेली सीड फेस्टिवल में दर्शाई गईं चावल की विभिन्न किस्में। तस्वीर- मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

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