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नई रिपोर्ट में वैश्विक तापमान बढ़ने की आशंका, भारत में लू बनेगी घातक

गर्मी के मौसम में दिल्ली के मयूर विहार में नारियल पानी बेचता एक व्यक्ति। तस्वीर- अंकुर जैन/विकीमीडिया कॉमन्स

गर्मी के मौसम में दिल्ली के मयूर विहार में नारियल पानी बेचता एक व्यक्ति। तस्वीर- अंकुर जैन/विकीमीडिया कॉमन्स

  • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ/WMO) का नया अपडेट बताता है कि साल 2023 और 2027 के बीच वैश्विक तापमान कम से कम एक साल के लिए पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा हो सकता है।
  • विशेषज्ञ का मानना है कि डब्ल्यूएमओ ने जिन सालों का जिक्र किया है, उनमें खास कर साल 2024 में भारत में लू की तीव्रता और उसकी अवधि बढ़ सकती है।
  • जानकार लू को आपदा घोषित करने और इससे निपटने के लिए बेहतर योजना तैयार करने पर भी जोर दे रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट ने आशंका जताई है कि अगले पांच साल अब तक के सबसे गर्म हो सकते हैं। इस दौरान वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर सकती है।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने ये अपडेट जारी किया है। इसमें अल-नीनो के असर पर भी चर्चा की गई है। अपडेट में कहा गया है कि गर्मी बढ़ाने वाली ग्रीनहाउस गैसों के साथ अल-नीनो के असर के चलते साल 2023 और 2027 के बीच वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा होने की आशंका है। ऐसी स्थिति कम से कम एक साल के लिए बनेगी।

पूर्व-औद्योगिक स्तर, औद्योगिक क्रांति शुरू होने से पहले किसी भी अवधि में तापमान का स्तर है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) की विशेष रिपोर्ट पूर्व-औद्योगिक तापमान के लिए साल 1850-1900 की अवधि का संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल करती है।

पिछले साल औसत वैश्विक तापमान 1850-1900 के औसत से लगभग 1.15 डिग्री सेल्सियस ज्यादा था। बीते तीन सालों में ला-नीना की स्थिति से पैदा होने वाले ठंड के असर ने अस्थायी रूप से लंबे समय तक गर्म होने की प्रवृत्ति को कुछ धीमा किया था। लेकिन ला-नीना मार्च 2023 में खत्म हो गया। अब  आने वाले महीनों में अल-नीनो के विकसित होने का अनुमान है। डब्ल्यूएमओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि आमतौर पर अल नीनो जिस साल बनता है, उसके बाद वाले साल में तापमान बढ़ाता है। इस तरह वह साल 2024 होगा।

रिपोर्ट के प्रमुख और मौसम कार्यालय के विशेषज्ञ वैज्ञानिक डॉ. लियोन हर्मनसन ने कहा, “वैश्विक औसत तापमान में बढ़ोतरी जारी रहने की भविष्यवाणी की जाती है, जो हमें उस जलवायु से और दूर ले जाती है जिसके हम आदी हैं।”

रिपोर्ट आर्कटिक में बदल रहे तापमान के बारे में भी बात करती है। इसमें कहा गया है, “आर्कटिक का गर्म होना अनुपात के हिसाब से अधिक है। 1991-2020 के औसत की तुलना में, तापमान में विसंगति का अनुमान वैश्विक औसत विसंगति के तीन गुना से ज्यादा होने का अनुमान है, जो अगले पांच उत्तरी गोलार्ध में विस्तारित सर्दियों में औसत होता है।

पहले किए गए अध्ययनों से पता चला है कि आर्कटिक में गर्म और ठंडी जलवायु परिस्थितियों ने भारत में अनियमित मानसून पैटर्न को जन्म दिया है। एक जलवायु पुनर्निर्माण अध्ययन में पाया गया कि गर्म आर्कटिक की स्थिति भारतीय उपमहाद्वीप में तेज बारिश का कारण बनी थी, जबकि आर्कटिक में ठंड की स्थिति पिछले एक हजार सालों में भारतीय उपमहाद्वीप में कम बारिश होने से जुड़ी थी।

भारत के लिए इसका मतलब

वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के चलते भारत में लू वाले दिन लगातार बढ़ रहे हैं। यही नहीं, अल-नीनो सदर्न ऑसिलेशन (ईएनएसओ/ENSO) आने के साथ, लू की अवधि भी लंबी होने की आशंका है।

ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद के वरिष्ठ कार्यक्रम प्रमुख विश्वास चितले ने कहा,डब्ल्यूएमओ अपडेट के नतीजे का पूरे भारत में लू की मौजूदा परिस्थितियों के साथ बहुत ज्यादा मेल है। 2023 लगातार दूसरा साल है जब भारत ने बेमौसम लू देखी है। पिछले साल मार्च महीना औसत से ज्यादा गर्म था। वहीं इस साल भारत में फरवरी औसत से ज्यादा गर्म रहा। भारत में मौसम का रिकॉर्ड 1900 के दशक की शुरुआत से रखा जा रहा है। 

गर्मियों के दौरान ओडिशा में सड़क किनारे भीड़-भाड़ वाले बाजार का एक दृश्य। भारत में खेती के तरीके शारीरिक श्रम पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं, जिसके चलते बहुत ज्यादा मजदूरों को चिलचिलता धूप में काम करना पड़ता है। तस्वीर- माइली वेंसेल/विकिमीडिया कॉमन्स।
गर्मियों के दौरान ओडिशा में सड़क किनारे भीड़-भाड़ वाले बाजार का एक दृश्य। भारत में खेती के तरीके शारीरिक श्रम पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं, जिसके चलते बहुत ज्यादा मजदूरों को चिलचिलता धूप में काम करना पड़ता है। तस्वीर- माइली वेंसेल/विकिमीडिया कॉमन्स।

उन्होंने कहा, “वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में साल 2022 में लू की तीव्रता इंसानी गतिविधियों के चलते होने वाले जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप 30 गुना ज्यादा होने की आशंका थी।”

भारत और पाकिस्तान सहित दक्षिण एशिया के कई हिस्सों में 2022 के मार्च और अप्रैल के दौरान लंबे समय तक गर्म मौसम का अनुभव हुआ। भारत में मार्च का महीना 1901 के बाद से सबसे गर्म था।  भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) की एक रिपोर्ट से पता चला कि तापमान लगातार औसत से तीन डिग्री सेल्सियस से आठ डिग्री सेल्सियस तक ऊपर रहा। इस अवधि के दौरान ओडिशा, मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और झारखंड राज्य गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे।

पृथ्वी वैज्ञानिक टी.सी. चक्रवर्ती ने कहा, रिकॉर्ड के हिसाब से साल 2022 पांचवां सबसे गर्म साल होने के साथ, भारत की जलवायु ऐतिहासिक रूप से गर्म हुई है। यह इंसानी गतिविधियों के चलते होने वाले जलवायु परिवर्तन का असर है। इसके अलावा, अल्पकालिक ईएनएसओ विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में साल-दर-साल जलवायु में बदलाव करता है। अल-नीनो के विकास के साथ, यह संभव है कि साल 2024 रिकॉर्ड में देश के लिए गर्म सालों में से एक हो। 

भारत में बेहतर तैयारी की जरूरत

वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी से न सिर्फ गर्मी के दौरान बल्कि पूरे साल इंसानी जीवन पर नकारात्मक असर पड़ेगा।

डब्ल्यूएमओ के महासचिव प्रोफेसर पेटेरी तालस ने कहा, “आने वाले महीनों में गर्मी बढ़ाने वाला अल-नीनो विकसित होने की उम्मीद है  और यह इंसानी गतिविधियों से हो रहे जलवायु परिवर्तन के साथ मिलकर वैश्विक तापमान को उस ओर ले जाएगा, जिसके बारे में हम नहीं जानते हैं।” उन्होंने कहा, “इससे स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, जल प्रबंधन और पर्यावरण पर दूरगामी असर होंगे। हमें तैयार रहने की जरूरत है।”


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भारत में बहुत ज्यादा गर्मी के चलते पिछले साल देश में गेहूं का उत्पादन भी प्रभावित हुआ। हालात ऐसे बने कि खाद्य सुरक्षा बनाए रखने के लिए सरकार को गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगाने पर मजबूर होना पड़ा। भारत ने 2022 में 11.132 करोड़ टन के अपने लक्ष्य के मुकाबले गेहूं उत्पादन में लगभग 45 लाख टन की कमी देखी।

लोगों की सेहत पर जलवायु परिवर्तन के असर को बेहतर तरीके से तय करने के लिए, चक्रवर्ती हवा के तापमान और आर्द्रता दोनों को देखने की जरूरत पर जोर देते हैं, जो देश के कई हिस्सों में, खासकर तटीय इलाकों में ज्यादा हो सकते हैं।

“हालांकि कई परिस्थितियों में ऐतिहासिक रूप से गर्म होने वाली जलवायु ने उसी हिसाब से ढलने की रणनीतियों में सुधार किया है। जैसे एयर कंडीशनिंग तक पहुंच और गर्मी को लेकर बेहतर एडवाइजरी। हालांकि इसमें लागत भी आती है। इसके अलावा, ये लाभ मोटी तनख्वाह लेने वाले श्रमिकों, आधुनिक घरों में रहने वाले लोगों और परिवहन के वातानुकूलित विकल्पों (निजी वाहनों सहित) तक पहुंच वाले लोगों के लिए ज्यादा संबंधित हैं। भारत में बहुत से लोग झुग्गियों, बिना बिजली वाले गांवों जैसी जगहों में रहते हैं, जहां इस तरह के आधुनिक बुनियादी ढाँचे उपलब्ध नहीं हैं।

उदाहरण के तौर पर, अनुमान है कि साल 207 तक ग्रेटर मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली की क्रमशः 41%, 30%, 28%, और 15% आबादी झुग्गियों में रहती थी। भारत की खेती भी कम आधुनिक है, जो श्रमिकों को बाहरी परिस्थितियों के संपर्क में आने की ओर ले जाती है। कुल मिलाकर, वर्तमान और भविष्य में घर से बाहर के तापमान का प्रभाव कई पश्चिमी देशों की तुलना में भारत और अन्य पड़ोसी देशों में आबादी के एक बड़े हिस्से द्वारा महसूस किया जाएगा।

चेन्नई के कोयम्बेडु मार्केट में चिलचिलाती धूप में मार्केट लोडिंग एरिया में केलों को ले जाते श्रमिक। तस्वीर- मैके सैवेज/ विकिमीडिया कॉमन्स।
चेन्नई के कोयम्बेडु मार्केट में चिलचिलाती धूप में मार्केट लोडिंग एरिया में केलों को ले जाते श्रमिक। तस्वीर- मैके सैवेज/ विकिमीडिया कॉमन्स।

बार-बार चलने वाली लू और बढ़ते तापमान से निपटने के लिए भारत के कई राज्यों और शहरों की अपनी योजनाएं हैं। लेकिन विशेषज्ञों ने ज्यादातर स्थानीय संदर्भ और खतरे के अतिसरलीकृत दृष्टिकोण के संदर्भ में उनकी व्यवहार्यता पर सवाल उठाए हैं।

चितले ने कहा, नीतिगत स्तर पर, भारत को लू से बचाने के अपने एक्शन प्लान (एचएपी) को मजबूत करने की जरूरत है। इसमें आर्द्रता सहित गर्मी से जुड़े जोखिम का आकलन करना और तापमान से जुड़े अहम सूचकांकों को शामिल करना है, ताकि गर्मी से होने वाली मौत को कम किया जा सके। इसके अलावा, मौजूदा आपदा राहत कोष के दिशा-निर्देशों में धन के इस्तेमाल के लिए योग्य आपदा के रूप में लू को शामिल नहीं किया गया है। राज्य स्थानीय संदर्भमें लू को एक आपदा के रूप में घोषित कर सकते हैं, लेकिन यह उनकी खर्च करने की क्षमता को कुल धन के केवल 10 प्रतिशत तक सीमित कर देता है। नोडल आपदा और मौसम विज्ञान एजेंसियों को बेहतर तैयारी के लिए इन कमियों को दूर करना चाहिए।

उन्होंने कहा, “बेहतर तैयारी करने के लिए अब इन चरम स्थितियों से जुड़ी और जटिल घटनाओं को समझना जरूरी है। अलग-अलग क्षेत्रों में जलवायु से होने वाली दिक्क्तों का विश्लेषण और स्थानीय संदर्भों के अनुकूल लचीली कार्य योजना बनाना सामुदायिक स्तर पर इन खतरों से पार पाने में अहम भूमिका निभा सकता है।” 

 

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बैनर तस्वीर: गर्मी के मौसम में दिल्ली के मयूर विहार में नारियल पानी बेचता एक व्यक्ति। तस्वीर– अंकुर जैन/विकीमीडिया कॉमन्स

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