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अचानक बाढ़ और सूखे जैसे हालात से प्रभावित हो रही है असम की खेती

साल 2018 में भारतीय हिमालय क्षेत्र (IHR) के लिए किए गए जलवायु की अनिश्चितता के आकलन के मुताबिक, असम सबसे ज्यादा संवेदनशील राज्य है। तस्वीर: बंदिता बरुआ।

साल 2018 में भारतीय हिमालय क्षेत्र (IHR) के लिए किए गए जलवायु की अनिश्चितता के आकलन के मुताबिक, असम सबसे ज्यादा संवेदनशील राज्य है। तस्वीर: बंदिता बरुआ।

  • सालाना औसत बरसात के आंकड़ों में लगातार कमी आने के बावजूद असम में मॉनसून से पहले और मॉनसून के समय की बारिश की वजह से भारी बारिश की घटनाएं असमय और बार-बार हो रही हैं। इसके चलते कुछ जिलों में पहले बाढ़ फिर सूखा जैसी परिस्थितियां पैदा हो रही हैं।
  • अचानक आने वाली बाढ़ और सूखे की वजह से किसानों को अपनी फसल बचाने के लिए कई बार तकनीकी मदद लेनी पड़ रही है। इसके चलते पर्यावरणीय चुनौतियां पैदा हो रही हैं। जैसे कि कीड़े-मकोड़ों की संख्या बढ़ना।
  • जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की अस्थिरता काफी हद तक वनों के खत्म होने और जमीन के इस्तेमाल के पैटर्न पर निर्भर है और इसका असर फसल के उत्पादन पर भी देखने को मिलता है।

साल 2022 में असम में हुई रिकार्ड तोड़ बारिश के बाद आई बाढ़ पिछले एक दशक में राज्य में आई सबसे भयावह बाढ़ थी। इसके ठीक पहले असम के कुछ जिलों में सूखे जैसे हालत थे और किसानों की फसलों की बुवाई भी देरी से हो पा रही थी। एक साल बाद 2023 के मार्च महीने में प्री-मॉनसून के मौसम में असम में जरूरत से ज्यादा बारिश हो चुकी है। ऐसे में किसान उस समय को याद करते हैं जब सूखे और बाढ़ ने उन्हें खूब परेशान किया था।

साल 2022 में मार्च से मई के बीच प्री मॉनसून के समय 40 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई। इसके चलते लोग विस्थापित हुए, फसलों को नुकसान हुआ, जमीन कट गई, भूस्खलन के साथ और बाढ़ आई, बांध टूटे और कई ब्रिज भी तबाह हो गए। हर साल किसान प्री-मॉनसून का इंतजार करते हैं तब वे धान की खेती के लिए नर्सरी तैयार करते हैं जिसे बाद में खेतों में लगा दिया जाता है। साल 2022 में खराब मौसम और प्री-मॉनसून के समय जोरदार बारिश की वजह से नर्सरी की तैयारी में ही देरी हो गई।

जब तक धान की पौध रोपाई के लिए तैयार हुई तब तक मॉनसून थोड़ा पहले जून के महीने में ही आ गया और 15 दिन के अंदर घनघोर बारिश हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि असम के ढेमाजी, लखीमपुर, चिरांग, कामरूप ग्रामीण, बोंगाईगांव, बक्सा, बरपेटा, उदलगुरी, गोलपाड़ा, कोकराझार, कछार और करीमगंज में 69 प्रतिशत से 171 प्रतिशत तक ज्यादा बारिश हुई और बाढ़ आ गई।

जनवरी 2023 की सर्दियों में उथली नजर आती ब्रह्मपुत्र नदी। तस्वीर- बंदिता बरुआ।
जनवरी 2023 की सर्दियों में उथली नजर आती ब्रह्मपुत्र नदी। तस्वीर- बंदिता बरुआ।

बाढ़ से ग्रामीण और शहरी दोनों इलाके प्रभावित हुए थे। वहीं, दीमा हजाओ, पूर्वी और पश्चिमी कार्बी आंगलॉन्ग, नगांव और होजाई जिले बुरी तरह प्रभावित हुए थे। पूरे राज्य में में खेती वाली जमीन बाढ़ से तबाह हो गई थी। रेलवे ट्रैक बह गए थे और बांध और पुल जैसी चीजें भी टूट गई थीं।

इसके बाद बारिश रुकी तो धीरे-धीरे पानी का स्तर कम होना शुरू हुआ। किसानों के अंदर एक हड़बड़ी सी मची हुई थी। बाढ़ और विस्थापन के सदमे से गुजर रहे किसानों को जल्द से जल्द अपनी फसलों की बुवाई करनी थी।

तकनीकी और पर्यावरणीय गड़बड़ियां

इस तरह अचानक आने और जाने वाली बारिश के बीच फसलों के लिए जमीन में पर्याप्त नमी बनाए रखने के लिए जरूरी है कि खेतों की जुताई की जाए। जल्दी में यह काम करने के लिए पारंपरिक हलों के बजाय आधुनिक ट्रैक्टरों का इस्तेमाल किया जाता है और कुछ ही घंटों में पूरे खेत की जुताई हो जाती है। असम में मुख्यमंत्री समग्र ग्राम उन्नयन योजना (CMSGUY) के मुताबिक, हर गांव में कम से कम एक ट्रैक्टर जरूर है। सब्सिडी के तहत मिलने वाली छूट के सहारे किसानों ने और ट्रैक्टर खरीद लिए हैं। इसके अलावा, जो किसान ट्रैक्टर खरीद नहीं सकते वे कुछ 100 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से किराए पर ट्रैक्टर लेकर जुताई करवाते हैं। 

पहले के समय में जुताई एक दिन का का नहीं होती थी। पहले बैल या गाय के सहारे चलने वाले हलों से जमीन को पलट दिया जाता था जिससे कीड़े-मकोड़े धूप में मर जाते थे। दूसरी और तीसरी जुताई तक जमीन फसल की बुवाई के लिए पूरी तरह तैयार हो जाती थी। पूर्व कृषि अधिकारी बिनॉय साइकिया कहते हैं, पहले जमीन की जांच करने के लिए लोग पान, सुपाड़ी, तंबाकू और चूने के मिश्रण को चबाकर थूक देते थे। अगर थूका हुआ मिश्रण जमीन में काला हो जाता तो यह माना जाता था कि जमीन फसल की बुवाई के लिए तैयार है।’

जो किसान ट्रैक्टर खरीद नहीं सकते वे कुछ 100 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से किराए पर ट्रैक्टर लेकर जुताई करवाते हैं। खराब मौसम और अनिश्चितता ने किसानों को ट्रैक्टर के इस्तेमाल के लिए मजबूर कर दिया है। तस्वीर- बंदिता बरुआ।
जो किसान ट्रैक्टर खरीद नहीं सकते वे कुछ 100 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से किराए पर ट्रैक्टर लेकर जुताई करवाते हैं। खराब मौसम और अनिश्चितता ने किसानों को ट्रैक्टर के इस्तेमाल के लिए मजबूर कर दिया है। तस्वीर- बंदिता बरुआ।

पिछले कुछ समय में भारी बारिश और अनिश्चित समय पर होने वाली बारिश, दोनों ने खेतों में ट्रैक्टर के इस्तेमाल को जरूरी कर दिया है। ट्रैक्टरों का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं किया जा रहा है कि वे सुविधाजनक, नए या आसान हैं बल्कि अब ट्रैक्टरों का इस्तेमाल मौसम की बदलती परिस्थितियों, बाढ़ और सूखे की वजह से भी होने लगा है। उदाहरण के लिए, ऐसे इलाके जहां लंबे समय तक बारिश नहीं होती वहां पर बारिश शुरू होने पर जुताई के लिए ट्रैक्टर का ही सहारा होता है।

ट्रैक्टरों से खेतों की जुताई एक ही दिन में हो जाती है और अगले ही दिन फसलों की बुवाई भी शुरू हो जाती है। हालांकि, इससे जमीन के तैयार होने की प्रक्रिया प्रभावित होती है और जमीन में कीड़े-मकोड़े बचे रह जाते हैं। 

बिनॉय साइकिया कहते हैं, “लोग जमीन के तैयार होने पर ध्यान नहीं देते हैं। ट्रैक्टर कीड़ों को मारने में मददगार नहीं होते हैं। ऐसे में जमीन में रहने वाले कीड़ों की संख्या और बढ़ जाती है और इससे पूरा खेत प्रभावित होता है।” वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के एक लेख के मुताबिक, इस तरह से कीड़े मरते नहीं हैं और वे जमीन में मौजूद रहते हैं। गर्मी बढ़ने के साथ ही इन कीड़ों की फिजियोलॉजिकल गतिविधियां बढ़ जाती हैं और उनका मेटाबॉलिज्म अच्छा हो जाता है जिससे वे ज्यादा खाते हैं और तेजी से बढ़ने लगते हैं। लेख में आगे कहा गया है, “ऐसे में इस तरह के कीड़ों की जनसंख्या वृद्धि की दर बढ़ जाती है। अब वे खुद तेजी से बढ़ते हैं तो प्रजनन भी तेजी से करते हैं। उनकी संख्या कई गुना बढ़ती जाती है और इससे फसल पर और भी बुरा असर पड़ता है।”

सूखे जैसी स्थिति

फसल की बुवाई के बाद, असम के लगभग 10 जिलों में जुलाई और अगस्त के महीने में पर्याप्त बारिश ही नहीं हुई। आमतौर पर बुवाई के बाद, धान के खेत में 40 दिन से लेकर दो महीने तक पानी बना रहना चाहिए जिससे फसल की सेहत अच्छी हो। इसके बाद पानी की उतनी जरूरत नहीं रह जाती। बक्सा जिले में रहने वाला 42 वर्षीय सबन खखलारी कहते हैं, “मेरे पास 5 बीघा खेत हैं। प्री-मॉनसून के समय मेरी पंजाब जोहा (धान की एक प्रजाति) की पूरी कोठिया (धान के पौधे) खराब हो गई। उसके बाद मैंने बासमती (धान की एक और किस्म) की पौध तैयार की लेकिन मेरे पूरे खेत में दरारें पड़ गईं। पानी बिल्कुल नहीं था।”

बक्सा जिले के बुगलामारी गांव के एक और किसान रुतुम खखलारी कहते हैं, “खेतों में दरारें तो थी हीं, पानी न होने की वजह से घास भी तेजी से बढ़ने लगी। जब घास बढ़ती है तो यह फसलों से सारे पोषक तत्व चूस लेती है। ऐसे में धान की फसल अच्छे से बढ़ नहीं पाती है।”

मुस्सलपुर में सरसों के खेती। तस्वीर- बंदिता बरुआ। 
मुस्सलपुर में सरसों के खेत। तस्वीर- बंदिता बरुआ।

कई जगहों पर बारिश की कमी की वजह से धान की फसल पीली पड़ गई और इससे धान की पैदावार पर भी असर पड़ा। किसानों के संगठन कृषक मुक्ति संग्राम समिति के महासचिव बिद्युत साइकिया ने कहा कि बाढ़ के बाद आई सूखे जैसी स्थिति असम के हर जिलों में एक जैसी नहीं थी। उन्होंने कहा, “मेरे जिले गोलाघाट में सभी इलाके प्रभावित नहीं हुए थे लेकिन सरुपथार में इतने बुरे हालात थे पूरी धनसिरी विधानसभा को ही सूखा प्रभावित क्षेत्र घोषित किया गया।”

साल 2005-06 और 2008-09 में आए ज्यादातर सूखे की वजह थी कि मॉनसून के महीने में बारिश ही कम हुई। बोरझार में स्थित क्षेत्रीय मौसम केंद्र ने अपनी हालिया रिपोर्ट में बताया है कि साल 2022 के मॉनसून के समय असम में 16 प्रतिशत कम बारिश हुई। असम के 13 जिलों में बहुत कम बारिश हुई और बाकी के 13 जिलों में सामान्य बारिश हुई।

ऊपरी असम के जिलों जैसे कि डिब्रूगढ़ में हालात लगभग इसके विपरीत थे। वैसे तो किसानों की फसल को नुकसान पहुंचा लेकिन यह बारिश की कमी की वजह से नहीं बल्कि प्री मॉनसून के समय हुई बारिश की वजह से ज्यादा पानी हो जाने की वजह से हुआ।

रमई गांव में 15 बीघे की खेती करने वाले एक परिवार की सुशीला गोगोई (63) कहती हैं, “यह जरूरी होता है कि जून के आखिर में आहार के सातवें दिन से हम फसलों के लिए जुताई शुरू कर दें लेकिन इस बार हम अगस्त के महीने में जुताई शुरू कर पाए।”

एक और किसान सुरजीत चेतिया (38) बताते हैं कि निचले इलाकों के खेतों में तो जुताई हो ही नहीं पाई क्योंकि उनमें पानी भरा हुआ था। वह कहते हैं, “हमें अगस्त तक इंतजार करना पड़ा लेकिन तब तक कोठिया पूरी तैयार होकर या तो सड़ गई या फिर खराब हो गई। मुझे कम से कम 20 से 30 गुच्छों का नुकसान हुआ।” खुद का ट्रैक्टर रखने वाले सुरजीत कहते हैं कि अगस्त में जैसे ही बारिश हुई मैंने तुरंत जुताई की और फसल लगा दी।

अनिश्चितता और जलवायु परिवर्तन

साल 2018 में भारतीय हिमालय क्षेत्र (IHR) के लिए किए गए जलवायु की अनिश्चितता के आकलन के मुताबिक, हिमालय क्षेत्र में मॉनसून में होने वाली बारिश में अंतर हो रहा है और खराब मौसम जैसे कि बाढ़ और सूखे की घटनाएं बढ़ रही हैं, जिससे कि वर्तमान और भविष्य की जलवायु की विविधता के लिए यह क्षेत्र काफी संवेदनशील होता जा रहा है।

चार व्यापक सूचकांकों- 1- सामाजिक आर्थिक, जनसांख्यिकीय स्थिति और सेहत, 2- कृषि उत्पादन की संवेदनशीलता, 3- वन आधारित आजीविका और 4- सूचना सेवाएं और मूलभूत सुविधाएं और 16 उप सूचकांकों के आधार पर इस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि हिमालयी पर्वतीय क्षेत्रों वाले राज्यों में से असम सबसे ज्यादा संवेदनशील राज्य है।

असम के लिए छः अहम कारणों में से सबसे बड़ा यह है कि सिंचित क्षेत्र सबसे कम है, प्रति 1000 घरों पर वन क्षेत्र सबसे कम है, अन्य राज्यों की तुलना में लोन लेने वाले किसानों की संख्या सबसे कम है और फसल बीमा के अंतर्गत कवर किए जाने वाले क्षेत्रफल के मामले में असम सबसे पीछे है।

ये रुझान इसी तरह से जारी हैं और साल 2022 में प्री-मॉनसून में हद से ज्यादा बारिश के बाद असम में सूखे मॉनसून का असर भी देखने को मिला।

राहमारिया में अपने सब्जी के खेतों में काम करते भूटेन साइकिया। तस्वीर: बंदिता बरुआ।
राहमारिया में अपने सब्जी के खेतों में काम करते भूटेन साइकिया। तस्वीर: बंदिता बरुआ।

पूरे असम में किसान और कृषि विशेषज्ञ थोड़े संशय के साथ राज्य की सिंचाई प्रणाली को लगभग खत्म हो चुकी मानते हैं। उनका यह भी कहना है कि जरूरत के समय सिंचाई व्यवस्था की ओर से कोई सुविधा नहीं मिलती है।

नलबाड़ी के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाने वाले ज्ञानेन चक्रवर्ती (59) कहते हैं कि असम की सिंचाई प्रणाली सिर्फ नाम भर की बची हुई है।

वह आगे कहते हैं, “नलबाड़ी में ऊंचाई पर मौजूद लगभग 15 से 20 प्रतिशत सूखे जैसी स्थिति से प्रभावित हुई थी। ऐसे ही हालात बरपेटा, गोलपाड़ा, धुबरी, कोकराझार और चरांग में भी थी। हो सकता है कि सिंचाई विभाग के कुछ ऐसे प्रोजेक्ट हों जो किसानों तक पानी की सुविधा पहुंचाने के लिए शुरू किए गए हों लेकिन ऐसा कुछ कहीं काम नहीं कर रहा है।”

इससे खाद्य सुरक्षा और उन किसानों के आर्थिक लाभ का मुद्दा उठता है जिन्हें पिछले साल अच्छी पैदावार नहीं मिली। वैसे तो पंचायत के दफ्तर मौजूद हैं लेकिन बाहरी और दूर-दराज के गांवों में शायद ही किसी को कोई मुआवजा मिला हो।

भूटेन साइकिया के घर में अनाज रखने के लिए बनी जगह। यहां मुट्ठीभर किसान ही ऐसे हैं जिन्होंने अपनी फसलों का बीमा करवाया है। ऐसे में किसानों के लिए अपनी फसल की पैदावार को सुरक्षित ही रखना पड़ता है। तस्वीर: बंदिता बरुआ।
भूटेन साइकिया के घर में अनाज रखने के लिए बनी जगह। यहां मुट्ठीभर किसान ही ऐसे हैं जिन्होंने अपनी फसलों का बीमा करवाया है। ऐसे में किसानों के लिए अपनी फसल की पैदावार को सुरक्षित ही रखना पड़ता है। तस्वीर: बंदिता बरुआ।

 मुशलपुर, बक्सा के जिला कृषि अधिकारी दुला दास पिछले साल के मुआवजे के बारे में कहते हैं कि सरकार ने अभी तक ऐसी किसी योजना का ऐलान नहीं किया है।

वह बताते हैं, “हमारा विभाग इंश्योरेंस कंपनी के साथ मिलकर आर्थिक और सांख्यिकीय सर्वे करता है और प्रति एकड़ उत्पादन का आकलन करता है। उत्पादन के आंकड़ों का आकलन पांच साल के लिए किया जाता है। अगर उत्पादन औसत से कम होता है तो इंश्योरेंस लेने वाले किसानों को मुआवजा दिया जाता है।”

यहां बहुत कम किसान ऐसे हैं जिन्होंने इंश्योरेंस लिया है। लाचार हो चुके सुरजीत चेतिया कहते हैं, “मौसम बदल गया और हम उसके हिसाब से नहीं चल पाए। हमने अपने समय से बुवाई की और यहीं गड़बड़ हो गई।”


और पढ़ेंः [वीडियो] भीषण बाढ़ से असम में जन-जीवन अस्त-व्यस्त, जाल-माल को भारी क्षति


जलवायु वैज्ञानिक राहुल महंत कहते हैं कि बाढ़ और सूखे की चुनौतियों के बावजूद असम में कई किसान ऐसे हैं जिन्होंने सालाना आधार पर ऐसी रणनीति बनाई है जिससे वे इस तरह की खराब स्थिति में भी खुद को बचाए रखते हैं। इसमें से एक यह है कि वे पारंपरिक पद्धति अपनाते हैं जो बाढ़ से बचाव करती हैं।

इनमें बाढ़ में भी बची रहने वाली किस्मों का चुनाव करना शामिल है। बाढ़ के पानी में तैयार होने वाला धान कई हफ्तों तक पानी में डूबा रहने के बावजूद खराब नहीं होता है। इसके अलावा ऊंचे बेड बनाकर या तैरने वाले गार्डन पर सब्जियां और अन्य फसलें तैयार करके भी किसान बाढ़ के पानी से बच रहे हैं और दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं। राहुल महंत यह भी कहते हैं कि कई किसान बाढ़ या सूखे के समय में खेती से हटकर दूसरे काम करते हैं जैसे कि कुटीर उद्योग या दैनिक मजदूरी।

वह आगे कहते हैं कि असम में कृषि क्षेत्र को बेहतर बनाने के लिए तकनीकी सुधार और नीतिगत बदलाव के संयोजन की जरूरत है। इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसी पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाए जो किसानों की आजीविका में सुधार लाएं, उत्पादन बढ़ाएं और पर्यावरण को भी संरक्षित रखें।

 

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बैनर तस्वीर: साल 2018 में भारतीय हिमालय क्षेत्र (IHR) के लिए किए गए जलवायु की अनिश्चितता के आकलन के मुताबिक, असम सबसे ज्यादा संवेदनशील राज्य है। तस्वीर- बंदिता बरुआ। 

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