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उत्तराखंडः आहार संस्कृति, कृषि विविधता और आजीविका से जुडा गढ़भोज अभियान

खेत में मिलेट्स निकालती एक महिला किसान। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे

खेत में मिलेट्स निकालती एक महिला किसान। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे

  • द्वारिका प्रसाद सेमवाल वर्ष 2000 से गढ़भोज अभियान चला रहे हैं। इस अभियान का उद्देश्य परंपरागत पहाड़ी अनाज यानी मिलेट्स से बने भोजन को पहचान दिलाना और इसे आजीविका से जोड़ना है।
  • इस अभियान के चलते अब राज्य के सभी पुलिस मेस, सरकारी कैंटीन, मिड डे मील और सरकारी कार्यक्रमों में गढ़भोज पकाया जाता है।
  • अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष में राज्य सरकार भी गढ़भोज को बढ़ावा दे रही है। मंडुवे का एमएसपी 35.78 रुपए प्रति किलो तय किया गया। सरकारी राशन में भी एक किलो मंडुवा दिया जा रहा है।

मंडुवे की रोटी, गहत की दाल, लिंगुड़े की भुज्जी, लाल भात, रायते में जख्या का तडका। देहरादून के 40 वीं वाहिनी पीएसी की पुलिस कैंटीन में जवान पूरी गर्मजोशी के साथ गरमागरम गढ़भोज खाते दिखे। पुलिस मेस के मेन्यू में हफ्ते में दो दिन गढ़भोज पकाया जाता है। ताकि पहाड़ के पारंपरिक भोजन का स्वाद और सेहत दोनों पुलिस के जवानों को चुस्त-दुरुस्त रख सके। 

उत्तराखंड के पुलिस महानिदेशक अशोक कुमार ने मिलेट्स से बने गढ़वाल-कुमाऊं के पारंपरिक भोजन की पौष्टिकता को समझा। मोंगाबे हिंदी से बातचीत में वह कहते हैं, वर्ष 2022 में हमने गढ़भोज को राज्य की सभी पुलिस मेस में लागू किया। आज देश में लोग कब्ज, मोटापे, गैस जैसी समस्याओं से परेशान हैं। मंडुवा, झंगोरा जैसे पौष्टिक अनाज से पका भोजन खाकर हमारे जवान स्वस्थ्य रहेंगे।”

यहां मौजूद कमांडेंट प्रदीप कुमार राय कहते हैं, हम दुनिया के सारे भोजन खा लें लेकिन आखिर में हमें हमारे पारंपरिक भोजन से ही संतुष्टि मिलती है।”

पहाड़ की थाली से धीरे-धीरे गायब हो रहा पारंपरिक भोजन अब वापसी कर रहा है। पुलिस की मेस, स्कूलों में बनाए जाने वाले मिड-डे मील से लेकर खास पहाड़ी व्यंजनों के रेस्तरां इस परंपरा को विस्तार दे रहे हैं। गढ़ भोज अभियान का उद्देश्य यही था।

गढ़भोज। मंडुवे की रोटी, लिंगुडे की सब्जी, गहत की दाल, लाल भात। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे
गढ़भोज। मंडुवे की रोटी, लिंगुडे की सब्जी, गहत की दाल, लाल भात। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे

गढ़भोज अभियान

“कोदा (मंडुवा), झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे”, इस नारे के साथ उत्तराखंड वर्ष 2000 में अलग राज्य तो बना लेकिन कोदा और झंगोरा खेत-खलिहान से लेकर भोजन की थाली तक उपेक्षित होता गया। गढ़भोज अभियान की जरूरत बताते हुए द्वारिका प्रसाद सेमवाल कहते हैं कि इस नारे में राज्य के सतत विकास का मॉडल छिपा था। 

उत्तरकाशी स्थित हिमालयी पर्यावरण जडी बूटी संस्थान से जुडे और गढ़भोज को भोजन की थाली में वापस लाने का अभियान चला रहे द्वारिका कहते हैं, हिमालयी राज्य में स्थानीय संसाधनों पर आधारित रोजगार ही समुदाय और हिमालय दोनों के लिए बेहतर हो सकता है। हमारी कोशिश रही कि गढ़भोज को लोगों की आर्थिकी का जरिया बनाया जाए। लेकिन पहाडी अनाजों को मोटा अनाज और गरीबों का अनाज माना गया और सफेद चावल रोटी को सभ्य माना जाने लगा।”

 वह कहते हैं, हरित क्रांति के समय गेहूं, चावल और सोयाबीन जैसी फसलों को तरजीह दी जाने लगी ताकि अन्न का उत्पादन बढे। लेकिन हमारे पारंपरिक अनाज पीछे छूटते चले गए। मांग और खरीदार न होने की वजह से बाजार और अर्थव्यवस्था से मिलेट्स हटते चले गए। लेकिन पहाड़ के किसानों ने इन्हें उगाना पूरी तरह बंद नहीं किया। पशु आहार के लिए इन्हें उगाया जाता रहा। हमारे गांव में गाय को अच्छा दूध देने के लिए काले भट्ट खिलाए जाते हैं। झंगरेटा (झंगोरे की सूखी डंडियां) खिलाने पर भैंस अच्छा दूध देती है। इनका इस्तेमाल बदला लेकिन खेतों में ये बचे रहे।”

मंडुवे (Finger Millet) की रोटी, झंगोरा (Barnyard Millet) की खीर, कौणी (foxtail Millet) का भात, चावल को दही के साथ पकाकर बनाया जाने वाला छंचेरा, मुंगरी (मक्की) और काखडी (पहाडी खीरा), ओमेगा 3 और 6 से भरपूर शाकाहारी मछली कहा जाने वाला भंगजीर (Perilla) का च्यूडा, रामदाने (Amaranthus cruentus) का लड्डू, हलवा, बिस्कुट, ओगल या कुट्टू (buckwheat), चीणा (Proso Millet), कंडाली का साग, भट्ट (black soyabean) की भट्टवाणी, गहत (Horse grame) की दाल, कुटकी (Small Millet) समेत बाराहनाजा के नाम से प्रचलति पहाडी अनाजों की पैदावार, आहार संस्कृति और विविधता को सहेजने के लिए गढ़भोज अभियान धीमी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था। 

गढ़भोज अभियान को धार देने के लिए उत्तरकाशी में वर्ष 2015 में इसे सरकारी कार्यक्रमों, कृषि मेले, सांस्कृतिक मेले का हिस्सा बनाया गया। 


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मोटापे और डायबिटीज जैसी बीमारियों को चुनौती देने की ताकत मिलेट्स में हैं, इसलिए वर्ष 2018 में भारत सरकार ने इन्हें पौष्टिक अनाज अधिसूचित किया। 

गढ़भोज अभियान के 20 वर्ष पूरे होने पर वर्ष 2021 को गढ़भोज वर्ष के तौर पर मनाया गया। 

वर्ष 2022 में शिक्षा मंत्री डॉ धन सिंह रावत ने राज्य के सभी सरकारी स्कूलों में हफ्ते में एक दिन पारंपरिक पहाड़ी व्यंजन पकाने का फैसला लिया।

वर्ष 2023 के अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष की घोषणा पहाड़ की किसानों के लिए सौगात लेकर आई। मिलेट्स की वापसी हो रही थी। उत्तराखंड सरकार ने मंडुवे का न्यूनतम समर्थन मूल्य 35.78 रुपए प्रति किलो तय किया। केंद्र सरकार ने उत्तराखंड से 9600 मीट्रिक टन मंडुवा खरीद की अनुमति दी। 

ये सारी जानकारी देते हुए द्वारिका कहते हैं, एमएसपी की घोषणा के बाद पहाड़ के किसानों के कोठारों में कई सालों से उपेक्षित पड़ा पुराना मंडुवा भी बिक गया। झंगोरा-कौणी को बाजार मिल गया। अगर राज्य बनने के बाद यही कोशिश की गई होती तो लोगों ने अपने खेत बंजर नहीं छोडे होते। युवाओं ने पलायन नहीं किया होता। पहाड़ खाली नहीं होता।”    

उत्तराखंड में मिलेट्स का एक खेत। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे
उत्तराखंड में मिलेट्स का एक खेत। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे

गढ़भोज से आजीविका की ओर

उत्तरकाशी के चिन्यालीसौड़ में आदि भोग स्वयं सहायता समूह की अध्यक्ष भूमि देवी मंडुवा समेत अन्य मिलेट्स को बेचने और गढ़भोज बनाने का काम करती हैं। कोरोना से पहले चिन्यालीसौड़ में साप्ताहिक गढ़ बाजार लगता था। हमारा समूह गांव के किसानों से पहाड़ी अनाज खरीदता और गढ़ बाजार में बेचता। यहां हम पहाडी थाली भी बनाते थे। अब लोगों को अनाज की जरूरत होती है तो वे हमारे समूह से संपर्क करते हैं। सरकारी कार्यक्रमों में गढ़भोज बनाने के लिए हमें बुलाया जाता है। कृषि मेले, माघ मेले समेत अन्य मेलों या खास अवसर पर हम पहाड़ी भोजन पकाते हैं।” 

भूमि बताती हैं कि 2015-16 में उनका समूह स्थानीय किसानों से 15 रुपए किलो की दर पर मंडुवा खरीदता था। उसकी सफाई, सुखाने, पिसाने के बाद 20 रुपए किलो में बेचता था। अब वही मंडुवा 45 रुपए प्रति किलो किसान से खरीद कर, उसे तैयार कर, 50 रुपए किलो तक बेचा जाता है। 

हालांकि पहाड़ी भोजन की थाली तैयार करना समूह के लिए ज्यादा मुनाफे का सौदा है। वह कहती हैं, झंगोरे की खीर 15 रुपए कटोरी, गहत दाल का फाणू 10 रुपए कटोरी, 40 रुपए में एक पूरी थाली दी जाती है। हमारे गांव में पहले हम गिनी-चुनी महिलाएं ही गढ़भोज बनाने का काम करती थीं। लेकिन अब बहुत सी महिलाएं इस काम को कर रही हैं।”   

रिवर्स माइग्रेशन करने वाले सुभाष रतूड़ी मिलेट्स आधारित पहाडी व्यंजनों का रेस्तरां चला रहे हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे
रिवर्स माइग्रेशन करने वाले सुभाष रतूड़ी मिलेट्स आधारित पहाडी व्यंजनों का रेस्तरां चला रहे हैं। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे

मिलेट्स का नया स्वाद

पहाड़ की खेती और अनाजों को छोड़कर चेन्नई, बेंगलुरु, जयपुर से लेकर डेनमार्क और सऊदी अरब तक शेफ के तौर पर काम कर चुके सुभाष रतूड़ी 2020 में वापस अपने गांव लौट आए। चमोली के कर्णप्रयाग तहसील के सैलागाड गांव के रहने वाले सुभाष अब देहरादून में मिलेट्स किंग के नाम से फास्ट फूड रेस्तरां चलाते हैं। उनके मेन्यू में मंडुवे की चाय, कॉफी, शेक, लस्सी, मोमो, बर्गर, सैंडविच, झंगोरे की खीर के साथ लस्सी, शेक, बुरांस का जूस समेत कई पहाडी व्यंजन शामिल हैं।


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सुभाष कहते हैं, पहाड़ी अनाजों को रोजगार और सेहत दोनों के साथ जोड कर मैंने काम करना शुरू का। इनसे कई तरह के व्यंजन बनाए, लोगों को खिलाया और एक नई रेसिपी तैयार की। पहले लोग कहते थे कि गांव से मंडुवा खाकर आए हैं, क्या देहरादून आकर भी मंडुवा ही खाएंगे। गरीबों का अनाज कहकर जिसका मजाक उड़ाया गया वो अब हर किसी की पसंद बन गया है। ऑनलाइन शॉपिंग प्लेटफॉर्म पर गेहूं का आटा तकरीबन 50 रुपए किलो तो मंडुवे का 150 रुपए किलो से अधिक कीमत पर मिल रहा है।”

सुभाष कहते हैं, हमें अपने भोजन से प्यार करना होगा।”

पर्यावरण हितैषी फसलें

कृषि नीति 2018 के मुताबिक राज्य की कुल सिंचित जमीन का लगभग 13 प्रतिशत ही पर्वतीय हिस्सों में आता है। बाकी खेती वर्षा पर निर्भर करती है। पहाड़ की असिंचित जमीन पर ही मिलेट्स के रूप में कृषि जैव-विविधता देखने को मिलती है। 

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से जुड़े उत्तरकाशी के कृषि विज्ञान केंद्र में कार्यरत कृषि विशेषज्ञ डॉ पंकज नौटियाल कहते हैं, ये फसलें बारिश के पानी से होती हैं और अलग से सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती। मानसून देरी से आए, गर्मी ज्यादा पड़े या बेमौसम बारिश हो, विपरीत मौसमी परिस्थितियों में भी ये किसान को निराश नहीं करती। गेहूं-चावल की फसल के लिए रासायनिक खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल होता है। जबकि मिलेट्स गोबर की खाद के साथ प्राकृतिक तौर पर उगते हैं।” 

डॉ नौटियाल कहते हैं कि गेहूं की तुलना में मिलेट्स में प्रोटीन, कैल्शियम, डायट्री फाइबर और माइक्रो न्यूट्रिएंट्स ज्यादा होते हैं।  

पहाड़ में मंडुवे की रोटी का चलन रहा है। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे
पहाड़ में मंडुवे की रोटी का चलन रहा है। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे

आहार संस्कृति

मिलेट्स समेत पारंपरिक बीजों को बचाने का अभियान चला रहे विजय जड़धारी कहते हैं, बारहनाजा जैसे विविधता युक्त पौष्टिक अनाज स्वस्थ जीवन का आधार हैं। पारंपरिक खानपान की पद्धति, कुपोषण और बीमारियों को भगाने का सबसे सस्ता, सच्चा और सरल रास्ता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबों को दिए जाने वाले कम कीमत के चावल गेहूं के अलावा विविधता की तरफ ध्यान देना जरूरी है। सरकारी राशन की दुकानों पर मिलेट्स की आपूर्ति बढानी चाहिए।”

जड़धारी जो बात कह रहे हैं इसकी शुरुआत इस साल मई में हुई। मोटे अनाज को प्रोत्साहित करने के लिए राशन कार्ड धारकों को हर महीने एक किलो मंडुवा मुफ्त देने की शुरुआत हुई। 

द्वारिका प्रसाद सेमवाल कहते हैं, जिस तरह दक्षिण भारत या गुजरात के लोग अपने भोजन पर गर्व करते हैं वैसे ही पहाड़ी लोग भी अपने भोजन को पहचान दिलाएं, बाजार दिलाएं और इसे अपनी थाली का हिस्सा बनाएं।”

 

बैनर तस्वीरः उत्तराखंड के खेत से मिलेट्स निकालती एक महिला किसान। तस्वीर- वर्षा सिंह/मोंगाबे

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