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मैंग्रोव रोपाई के लिए प्लास्टिक की जगह लेते ताड़ के पत्तों से बने नर्सरी बैग

ताड़ के पत्तों से बने नर्सरी बैग लिए हुए महिलाएं। तस्वीर- बालाजी वेदराजन।

ताड़ के पत्तों से बने नर्सरी बैग लिए हुए महिलाएं। तस्वीर- बालाजी वेदराजन।

  • तमिलनाडु में प्रयोग के तौर पर मैंग्रोव पौधों के पोषण और उन्हें फिर से लगाने के लिए प्लास्टिक की जगह ताड़ के पत्तों से बने नर्सरी बैग इस्तेमाल किए जा रहे हैं। यह प्रयोग पारिस्थितिकी तंत्र को बेहतर बनाने के लिए किया जा रहा है।
  • प्लास्टिक की थैलियों की तरह ही मैंग्रोव पौधों में अच्छी बढ़ोतरी देखी गई और बाढ़ के दौरान उनका स्थायित्व भी ज़्यादा रहा। साथ ही, ताड़ की थैलियों में जड़ें भी बेहतर तरीके से फैल रही थीं।
  • ताड़ के पत्तों से जुड़ा पारंपरिक शिल्प तंजावुर जिले में स्थानीय लोगों के लिए आजीविका का एक अहम साधन है।

फूस से बनी अपनी झोपड़ी के पास बैठकर, अचिक्कन्नु मछली पकड़ने के टूटे हुए जाल से बने बाड़ पर रखे ताड़ के सूखे पत्ते (बोरासस फ्लेबेलिफ़र) की तरफ हाथ बढ़ाती हैं। वह पत्तियों को बराबर हिस्सों में काटती हैं। बार-बार बुखार से जूझने के बावजूद, वह ताड़ के सूखे पत्तों से 40 मिनट में एक नर्सरी बैग तैयार कर सकती हैं। तमिलनाडु के तंजावुर जिले के एक तटीय गांव कोल्लुक्काडु की कई महिलाओं की तरह, 70 साल की अचिक्कन्नु आजीविका के लिए इन पत्तियों पर निर्भर हैं। उन्हें एक बैग बनाने के लिए 15 रुपए मिलते हैं।

ताड़ के पत्तों से बैग बनाती महिलाएं। तस्वीर- बालाजी वेदराजन।
ताड़ के पत्तों से बैग बनाती महिलाएं। तस्वीर- बालाजी वेदराजन।

वैसे लंबे वक्त से घर की छतों को ढकने के साथ टोकरियां, चटाइयां और क्रॉकरी बनाने के लिए ताड़ की सूखी पत्तियों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। हालांकि, अचिक्कन्नु पत्तियों का इस्तेमाल एक अलग उद्देश्य के लिए कर रही हैं। इनका इस्तमाल पौधे रोपने के लिए नर्सरी बैग बनाने में होगा। इन बैग का इस्तेमाल तमिलनाडु के तट पर पाक की खाड़ी के किनारे मैंग्रोव के पौधों को फिर से लगाने के लिए किया जाएगा। इससे प्लास्टिक बैग पर निर्भरता कम होगी। आम तौर पर नर्सरी में प्लास्टिक बैग का ही इस्तेमाल होता है।

ताड़ के पत्तों से बने नर्सरी बैग के प्रभाव की जांच

दरअसल कटाव, तूफान और तटीय बाढ़ के असर को कम करने में मैंग्रोव की भूमिका को तेजी से पहचाना जा रहा है। इसके चलते देश के लंबे समुद्र तट पर मैंग्रोव बहाली अभियान जोर-शोर से आगे बढ़ रहा है। इसके चलते मैंग्रोव पौधों के नर्सरी बैग से निकलने वाले प्लास्टिक कचरे के निपटान की समस्या पैदा हो गई है।

इस समस्या को दूर करने के लिए पाक की खाड़ी में एक समुद्री जीवविज्ञानी, एक वन अधिकारी और एक मछुआरे- इन तीनों ने मिलकर मैंग्रोव के पौधे (राइजोफोरा म्यूक्रोनाटा) उगाने के लिए प्लास्टिक के बजाय ताड़ के पत्तों से बने नर्सरी बैग का इस्तेमाल करना शुरू किया। नतीजे देखकर उन्हें खुशी हुई। ताड़ के पत्तों से बने बैग छह महीने तक ज्वारीय बाढ़ की स्थिति का सामना कर सकते थे। इसके बाद वो खत्म हो गए। इसके अलावा, ताड़ के एक पत्ते से 20 नर्सरी बैग बन सकते हैं। साथ ही, मैंग्रोव के पौधे वैसे ही फले-फूले जैसे वे प्लास्टिक की थैलियों में पनपते थे। इसके अलावा, टीम का नेतृत्व करने वाले समुद्री जीवविज्ञानी बालाजी वेदराजन के अनुसार, जड़ें प्लास्टिक की थैलियों की तुलना में ताड़ के बैग में ज्यादा आसानी से फैलती देखी गईं।

ताड़ के पत्तों से बने बैग में मैंग्रोव पौधे की रोपाई। तस्वीर- एमटी साजू।
ताड़ के पत्तों से बने बैग में मैंग्रोव पौधे की रोपाई। तस्वीर- एमटी साजू।

जून 2023 में रेस्टोरेशन इकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित पेपर के विश्लेषण खंड में वेदराजन और सुमंथा नारायण ने लिखा,प्लास्टिक बैग की तुलना में ताड़ के पत्तों से बने थैले कुशल और पर्यावरण-अनुकूल विकल्प साबित हुए। ज्वारीय बाढ़ कम होने पर वे पानी को तेजी से निकाल देते थे, जबकि प्लास्टिक की थैलियों में ज्वार कम होने के बाद भी पानी रहता था।अखिल ताम्पी, मुरुगेसन गोविंदराजन और राजेंद्रन मगलिंगम और टीम के अन्य सदस्य इस अध्ययन के सह-लेखक थे।

स्थायित्व, लागत और पर्यावरण के हिसाब से अनुकूलता का परीक्षण करने के लिए ताड़ के पत्तों से बने 150 बैग का इस्तेमाल किया गया। इनका आकार, प्लास्टिक बैग के आकार (150 मिमी x 230 मिमी x 10 मिमी) जितना ही था। सभी बैग तंजावुर में अग्नि मुहाना के अंतर्ज्वारीय मैंग्रोव क्षेत्र से ली गई गीली मिट्टी से भरे हुए थे। सभी नर्सरी बैगों को हरे शेड नेट का इस्तेमाल करके 50% छाया प्रदान की गई थी। उच्च ज्वार के दौरान पानी के तापमान, पीएच और लवणता की लगातार निगरानी की जाती थी। ऐसा तब किया जाता था,  जब नर्सरी ज्वार के पानी से भरी रहती थी। किसी भी प्रतिस्पर्धी वनस्पति को मैंग्रोव पौधों की विकास अवधि के दौरान हटा दिया गया था। अध्ययन में कहा गया है, नर्सरी बैग में फलने-फूलने से लेकर लगभग चार महीने बाद लगाए जाने तक, मैंग्रोव के पौधों की निगरानी की गई।

राइजोफोरा म्यूक्रोनाटा का प्रसार। प्रतिनिधि तस्वीर। तस्वीर- शगिल कन्नूर/विकिमीडिया कॉमन्स।
राइजोफोरा म्यूक्रोनाटा का प्रसार। प्रतिनिधि तस्वीर। तस्वीर– शगिल कन्नूर/विकिमीडिया कॉमन्स।

ताड़ से बने नर्सरी बैग को दुनिया के सामने लाना

साल 2014 से तंजावुर में खराब हुए मैंग्रोव को बहाल कर रहे वेदराजन ने कुछ साल पहले स्थानीय मछुआरों को हाथ से तैयार किए गए ताड़ के पौधे बांटना शुरू किया था। उन्होंने कहा, इस क्षेत्र में छोटे स्तर पर काम करने वाले कई मछुआरे हैं, जिनके पास मछली पकड़ने की जाल या नावें नहीं हैं। वे मछली को हाथ से चुनते हैं और अपनी पकड़ी हुई मछली को जमा करने के लिए ताड़ के पत्तों से बने पारंपरिक बैग का इस्तेमाल करते हैं। इन्हीं बैगों से मुझे नर्सरी बैग बनाने का विचार आया। मैंने सबसे पहले इसे निजी तौर पर आजमाया और यह काम की चीज निकली।वेदराजन वेलिवायल गांव में समुद्री संरक्षण, जागरूकता और अनुसंधान संगठन (ओएमसीएआर/ OMCAR) के संस्थापक भी हैं। ओएमसीएआर 2007 से पाक की खाड़ी के तटीय पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण और स्थानीय समुदायों की बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं।

टीम ने तमिलनाडु सरकार और पूर्व जिला कलेक्टर दिनेश पोनराज ओलिवर और जिला वन अधिकारी अखिल थम्पी की मदद से यह प्रयोग किया। वेदराजन ने कहा, 2022 में, जिला कलेक्टर ने हमें 6,000 ताड़ के नर्सरी बैग बनाने के लिए कहा था। हमने ताड़ के पत्तों का इस्तेमाल करके नर्सरी बैग बनाने के तरीके पर एक कार्यशाला आयोजित की। हमने अब तक जिला प्रशासन को 5,500 से ज्यादा बैग की आपूर्ति की है।

ताड़ के बैग में गीली मिट्टी भरती महिलाएं। तस्वीर- एमटी साजू।
ताड़ के बैग में गीली मिट्टी भरती महिलाएं। तस्वीर- एमटी साजू।

नारायण ने कहा कि दोनों प्रकार की थैलियों में अंकुरों की एक जैसी बढ़ोतरी दिखाई देने के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों की तुलना में ताड़ की थैलियों में पानी का रिसाव ज्यादा देखा गया। उन्होंने कहा, लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं था क्योंकि नर्सरी निचले अंतर-ज्वारीय मैंग्रोव क्षेत्र में बनाई गई थी। दूसरी ओर, प्लास्टिक की थैलियां पानी को आसानी से रिसने नहीं देतीं और आमतौर पर उनमें पानी जमा हो जाता है। हमने यह भी देखा कि ज्वार का पानी कम होने पर ताड़ के बैग से पानी तेजी से निकल जाता था। लेकिन ज्वार कम होने के बाद भी प्लास्टिक की थैलियों में पानी बना रहता था।टीम ने यह भी पाया कि ताड़ के बैग में काफी टिकाऊपन होता है क्योंकि वे प्लास्टिक बैग की तुलना में मैंग्रोव पौधों की मिट्टी और जड़ों को बेहतर तरीके से पकड़ सकते हैं। उनके अनुसार, पत्ती के कूड़े और जानवरों के अवशेषों के थैलों के भीतर सड़ने से उनके स्थायित्व पर कोई असर नहीं पड़ा।

इंडियन मैंग्रोव: ए फोटोग्राफिक फील्ड आइडेंटिफिकेशन गाइड के अनुसार, भारत में पूर्वी और पश्चिमी दोनों तटों और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में कुल 4975 वर्ग किलोमीटर का मैंग्रोव क्षेत्र है। किताब में 46 प्रकार के भारतीय मैंग्रोव की सूची दी गई है। तमिलनाडु में, पिचावरम, मुथुपेट और मन्नार की खाड़ी मैंग्रोव का घर हैं, जिनमें मुथुपेट सबसे बड़ा है।

ताड़ के बैग से जुड़ी चुनौतियां

मैंग्रोव बहाली और संरक्षण सहित विज्ञान-आधारित व समुदाय-केंद्रित तटीय संसाधन प्रबंधन के विशेषज्ञ सेल्वम वैथिलिंगम ने ताड़ के पत्तों से नर्सरी बैग बनाने के इनोवेशन की तारीफ की। उन्होंने कहा, यह एक तथ्य है कि प्रत्येक वृक्षारोपण अभियान के बाद कई प्लास्टिक नर्सरी बैग जमा हो रहे हैं। ये प्लास्टिक बैग पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बड़ा खतरा हैं। नर्सरी वालों को निर्देश दिए गए हैं कि पौध परिपक्व होने के बाद प्लास्टिक की थैलियों को कैसे रीसाइक्लिंग किया जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। अब समय आ गया है कि हम प्लास्टिक की थैलियों की जगह ताड़ के थैलों का इस्तेमाल करें।ताड़ की पत्तियों के प्रसंस्करण के पारंपरिक तरीके हैं। उन्होंने कहा, मैं एक तटीय क्षेत्र से आता हूं। मेरे दादाजी ताड़ की पत्तियों का इस्तेमाल करके अलग-अलग तरह के बैग तैयार करते थे। उन्होंने कहा, ताड़ के पत्तों को संभालने का पारंपरिक ज्ञान मौजूदा पीढ़ी तक पहुंचाया जाना चाहिए।

तमिलनाडु में ताड़ के पेड़। प्रतिनिधि तस्वीर। तस्वीर- पी जेगनाथन/विकिमीडिया कॉमन्स।
तमिलनाडु में ताड़ के पेड़। प्रतिनिधि तस्वीर। तस्वीर– पी जेगनाथन/विकिमीडिया कॉमन्स।

भले ही ताड़ के पत्तों से बने बैग पर्यावरण के अनुकूल हैं, लेकिन इन पत्तों की उपलब्धता इस पहल में बाधा है। वर्ष 1987 में राज्य द्वारा ताड़ी पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद तमिलनाडु में ताड़ के पेड़ पर चढ़ने वालों ने ये काम छोड़ दिया। कोल्लुक्काडु के मूल निवासी मुनियाम्मल ने कहा, “चारों ओर ताड़ के पेड़ हैं, लेकिन हमारे पास इस पर चढ़ने वाले नहीं हैं। अगर हमें कोई मिलता भी है, तो हमें काम करने के लिए उन्हें बहुत सारा पैसा देना होगा। 


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वनस्पतिशास्त्री कृष्णा रे के अनुसार, स्थायी मैंग्रोव बहाली में ताड़ के पत्तों की उपलब्धता मुख्य समस्या है। कोलकाता स्थित पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर रे ने कहा, हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है, इसलिए हम प्लास्टिक नर्सरी बैग का इस्तेमाल करते हैं। अगर हमें ताड़ से बने बैग मिलेंगे तो हम इसे खरीदने वाले पहले व्यक्ति होंगे। हमें यह यहां नहीं मिलता, यही समस्या हैरे की टीम 2014 से सरकार के सहयोग से सुंदरबन में संरक्षित क्षेत्रों के बाहर नष्ट हुए मैंग्रोव की बहाली पर काम कर रही है। उन्होंने आगे कहा,हम जितना संभव हो सके प्लास्टिक नर्सरी बैग को रीसायकल करने के लिए अपने स्तर पर पूरी कोशिश करते हैं। हमने जूट से बने बैग भी आज़माए। समस्या यह है कि जूट के बैग बहुत महंगे हैं और हम इसका खर्च नहीं उठा पाएंगे। अगर हमें यहां ताड़ के बैग मिलेंगे तो हम उन्हें खरीदेंगे

 

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बैनर तस्वीर: ताड़ के पत्तों से बने नर्सरी बैग लिए हुए महिलाएं। तस्वीर- बालाजी वेदराजन।

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