- प्लास्टिक डिस्पोजेबल के स्थान पर पंचायत के द्वारा दिए जाने वाले स्टील के बर्तनों का इस्तेमाल कर पर्यावरण और पैसे दोनों को बचा रहे उत्तराखंड के ग्रामीण।
- वहीं कुछ लोग सिंगल यूज प्लास्टिक की पन्नियों को बोतलों में भरकर इको ब्रिक्स बना रहे हैं।
- इको ब्रिक्स को सीमेंट से बनने वाले ढांचे और फुलवारी की क्यारी बनाने में ईंट की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
भीम सिंह रावत (41) उत्तराखंड के पौड़ी जिला मुख्यालय से लगभग 150 किमी दूर थलीसैण विकास खंड के स्यूसाल गांव के रहने वाले हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में नौकरी करने वाले रावत जब साल 2013 में अपनी शादी के सिलसिले में स्युसाल आए तो देखा कि जगह-जगह शादी समारोह में इस्तेमाल हुए प्लास्टिक के ग्लास और प्लेट बिखरे पड़े थे जो गांव की सुंदरता के साथ-साथ यहां के खेतों और जल स्त्रोतों को भी प्रदूषित कर रहे थे। साथ ही उन्होंने पाया कि गांव में प्लास्टिक के कचरे के निपटान की कोई व्यवस्था नहीं थी।
“कुछ समय बाद मेरी भी शादी होने वाली थी। मैंने तय किया कि मेरी शादी में हम प्लास्टिक डिस्पोजेबल का इस्तेमाल नहीं करेंगे। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल था कि इसका विकल्प क्या होगा?” रावत बताते हैं। “जब इस बात का जिक्र गांव के लोगों से किया तो पता चला कि पंचायत में स्टील की थाली और ग्लास हैं लेकिन गांव के लोग अब इनका इस्तेमाल इसलिए नहीं करते क्योंकि बर्तनों को धोने के लिए कोई तैयार नहीं होता है,” उन्होंने आगे बताया।
रावत का कहना है कि पहले उन्होंने गांव की कुछ महिलाओं को अपने बर्तन स्वयं धोने के लिए मनाया और बाकी के बर्तन खुद ने धोये। “मुझे ऐसा करता देख गांव के कुछ युवा भी साथ आये तब हमारे गांव के युवाओं ने तय किया कि अब हमारे गांव में होने वाले किसी भी समारोह में प्लास्टिक डिस्पोजेबल का इस्तेमाल नहीं होगा,” उन्होंने बताया। इस घटना के बाद गांव के युवाओं ने मिलकर गांव में प्लास्टिक डिस्पोजेबल का इस्तेमाल न करने के प्रण के साथ ‘वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली चौथान विकास समिति’ की शुरुआत की।
स्यूसाल गांव के लोगों ने अपने गांव में प्लास्टिक डिस्पोजेबल के इस्तेमाल को पूर्ण रूप से बंद कर दिया है। अब गांव में होने वाले किसी भी छोटे या बड़े समारोह में प्लास्टिक के दोने, प्लेट और ग्लास के स्थान पर स्टील के बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता है। स्युसाल गांव से प्रेरणा लेकर आसपास के कई गांव भी अपने यहाँ शादी और धार्मिक समारोह में पंचायती बर्तनों का इस्तेमाल करने लगे हैं।
स्यूसाल गांव के अमर सिंह भंडारी अपनी बेटी की शादी की फोटो एल्बम दिखाते हुए बताते हैं, “मैंने अपनी दोनों बेटियों की शादी में प्लास्टिक के स्थान पर पंचायत के बर्तनों का इस्तेमाल किया और मेरी बेटी के ससुराल वालों ने जब देखा कि हमारे गांव में प्लास्टिक के स्थान पर स्टील के बर्तनों का इस्तेमाल किया जा रहा है तो उन्होंने इसकी बहुत सराहना की और अपने गांव में भी इस चलन को शुरू करने की बात कही।”
“हमारे गांव में होने वाली शादियों के साथ-साथ अब हमारे गांव के लोग अपने दैनिक कार्यो में भी प्लास्टिक के ग्लास का इस्तेमाल नहीं करते हैं इसलिए हमारे गांव में प्लास्टिक के ग्लास इधर उधर उड़ते नहीं दिखाई देंगे,” स्यूसाल गांव की रहने वाली राजो देवी कहती हैं।
उत्तराखंड में प्लास्टिक वेस्ट
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वार्षिक रिपोर्ट 2021-2022 के अनुसार उत्तराखंड राज्य में साल 2020-2021 में लगभग 18,648 टन प्लास्टिक कचरे का उत्सर्जन हुआ। उत्तराखंड राज्य में कुल 91 स्थानीय शहरी निकाय हैं जिसमें से 87 स्थानीय शहरी निकायों ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को सौंपी है जबकि 7,791 ग्राम पंचायतों में से किसी ने भी अपनी रिपोर्ट बोर्ड को नहीं सौंपी है।
समाचार पत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तराखंड राज्य में साल 2021-22 में 45 हजार टन प्लास्टिक कचरा उत्सर्जित हुआ जबकि साल 2018-2019 में प्लास्टिक कचरे की मात्रा 31 हजार टन थी, इस प्रकार पिछले तीन सालों में उत्तराखंड राज्य में उत्सर्जित होने वाले प्लास्टिक कचरे की मात्रा में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
प्लास्टिक के कचरे से पैदा होने वाली यह समस्या शहरी निकाय से निकल कर राज्य के दूरस्थ गांवों तक अपने पैर पसार चुकी है। आज प्लास्टिक में बंद तमाम तरह के उत्पाद बड़ी ही आसानी से गांव की दुकानों पर भी मिल जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले समारोह में जलपान के लिए प्लास्टिक डिस्पोजल का इस्तेमाल बड़ी मात्रा में किया जाता है। पंचायतों के लिए उत्तराखंड ठोस अपशिष्ट प्रबंध नीति 2017 के अनुसार उत्तराखंड राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में बसी 70 लाख से अधिक की आबादी प्रतिदिन लगभग 703.69 टन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न करती है साथ ही धार्मिक और पर्यटक स्थलों के रास्ते में पड़ने वाले ग्रामीण क्षेत्रों में प्लास्टिक कचरे की समस्या अधिक होती है।
पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ फायदे का सौदा
राजो देवी अपने गांव स्यूसाल की पहल के बारे में बताते हुए कहती हैं, “पहले जब गांव में प्लास्टिक डिस्पोजेबल का इस्तेमाल होता था तो शादी समारोह के बाद कचरे के ढेर से महीनों तक बदबू आती थी, प्लास्टिक की प्लेटों पर खाना लगा होता था जिसको कभी-कभी हमारी गाय भी खा लेती थी और बीमार पड़ जाती थी। प्लास्टिक के ग्लास और प्लेट हवा के साथ उड़कर हमारे खेतो में पहुंच जाते थे और हल लगाते समय बार बार हल में फंसते थे। लेकिन जबसे हमारे गांव में पंचायती बर्तनों का इस्तेमाल हुआ है तब से यह समस्या हमारे गांव में नहीं है।”
“हमारे यहाँ शादी का फंक्शन तीन दिन तक चलता है जिसमें लगभग एक हजार से ज्यादा लोग खाना खाते हैं और दिन में कई बार चाय भी दी जाती है, यदि मैं इन शादियों में प्लास्टिक डिस्पोजेबल खरीदता तो कम से कम दस हजार रुपये का खर्च होता लेकिन पंचायत के बर्तन इस्तेमाल करने के कारण मुझे हजार रुपये भी नहीं देने पड़े,” अमर सिंह भंडारी कहते हैं।
भीम सिंह रावत बताते हैं कि उनके गांव में प्रत्येक साल दस से अधिक शादी, भंडारे और अन्य समारोह होते हैं जिसमें हजारों लोगों के खाने की व्यवस्था की जाती है, गांव के लोगों ने इन समारोह में प्लास्टिक डिस्पोजेबल का इस्तेमाल नहीं करके अपने हजारो रुपये के साथ गांव के आसपास पर्यावरण को दूषित होने से बचाया है।
बढ़ता प्लास्टिक कचरा और स्थानीय स्तर के समाधान
उत्तराखंड हिमालय की गोद में बसा एक सुंदर राज्य है, जो अपने शांत वातावरण, जैव-विविधता और सांस्कृतिक धरोहर के लिए जाना जाता है। हर साल देश भर से लाखों सैलानी उत्तराखंड आते हैं, इसलिए पर्यटन को उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी माना जाता है। उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण 2022-2023 से प्राप्त जानकारी के अनुसार केवल चारधाम यात्रा – जिसमें केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री और हेमकुंड साहिब शामिल हैं – के लिए साल 2021 में कुल 5,29,412 घरेलू और विदेशी पर्यटक और साल 2022 कुल 46,31,033 पर्यटक उत्तराखंड आए।
पर्यटकों की यह संख्या अप्रैल माह से सितम्बर के बीच होने वाली चारधाम यात्रा की है जबकि उत्तराखंड में औली, धनोल्टी, मसूरी और नैनीताल जैसे पर्यटन स्थल भी हैं जहां पर सालभर पर्यटकों का आना जाना लगा रहता है। साल दर साल पर्यटकों की संख्या में होती बढ़ोतरी उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है, लेकिन पर्यटकों की बढ़ती संख्या के साथ राज्य में सिंगल-यूज प्लास्टिक कचरे की समस्या भी बढ़ रही है।
उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती प्लास्टिक कचरे की समस्या से जूझ रहे गावों ने इस समस्या से निजात पाने के लिए अपने स्तर पर कुछ समाधान भी निकाले हैं, इन समाधानों के विस्तार के लिए भी ये लोग लगातार कार्य कर रहे हैं।
सिंगल यूज बोतलों से इको ब्रिक्स
नैनीताल से 10 किमी दूर भीमताल ब्लॉक के नगारी गांव के रहने वाले और शिप्रा कल्याण समिति के अध्यक्ष जगदीश नेगी हर सुबह घूमने जाते समय रास्ते में पड़ी खाली बोतलें और चिप्स के पैकेट उठाकर अपने साथ ले आते हैं। नेगी चिप्स के पैकेटों को खाली बोतलों में भरकर इको ब्रिक्स बनाते हैं, जिसका इस्तेमाल घर की चारदीवारी, खेतों की मेड़, फुलवारी की सजावट आदि में किया जाता है।
“हम प्लास्टिक की बोतल में सिंगल यूज़ प्लास्टिक को भरते हैं और इन बोतलों को पेंट करके खेत, स्कूल और कार्यालय आदि में फुलवारी की मेड़ बनने के लिए इस्तेमाल करते हैं,” नेगी बताते हैं।
“हमारा गांव भीमताल से बाबा नीम करोली धाम की ओर जाने वाले रास्ते पर पड़ता है जिस पर हर रोज पर्यटकों का काफी आना जाना लगा रहता है। हमारे इस रास्ते पर पानी और कोल्डड्रिंक्स की खाली बोतलों के साथ चिप्स, नमकीन आदि के खाली पैकेट अधिक मात्रा में मिलते हैं। हमारे यहां मैदानी क्षेत्रों की तरह कबाड़ खरीदने के लिए भी कोई नहीं आता और सरकार के द्वारा लगाये गये कूड़ेदानों का रख-रखाव भी सही प्रकार से नहीं होता है,” वह आगे बताते हैं। नेगी बताते हैं कि इस क्षेत्र का अधिकतर कचरा पहाड़ी ढलानों से नीचे फेंक दिया जाता है क्योंकि इन क्षेत्रों में कचरे के निस्तारण की उचित व्यवस्था नहीं है।
नेगी आगे कहते हैं कि पानी और कोल्डड्रिंक की बोतल में पन्नियों को भरने के बाद बोतलें एक ईंट की तरह कठोर हो जाती हैं जिनका इस्तेमाल कोई संरचना बनाने में भी किया जा सकता है। एक बोतल में आधा किलो के करीब प्लास्टिक आ जाता है। “शिप्रा कल्याण समिति स्कूल के बच्चों और आसपास की महिलाओं को अपने घर में होने वाले प्लास्टिक कूड़े को इधर उधर ना फेंक कर बोतलों में भरकर इको ब्रिक्स बनाने की सलाह देती है और आज हमारे गांव के आसपास काफी बड़ी तादात में लोग ऐसा कर रहे हैं,” नेगी ने बताया।
भीमताल के नज़दीक बसे एक छोटे कस्बे भवाली में व्यापार मंडल अध्यक्ष नरेश पण्डे बताते हैं कि शिप्रा कल्याण समिति के कार्यों को देखते हुए उन्होंने भी अपने क्षेत्र में प्लास्टिक की बोतल से इको ब्रिक्स बनाना शुरू किया है। “इसके लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करने के लिए हमने एक योजना भी चलायी हुई है, यदि कोई भी व्यक्ति हमें प्लास्टिक से भरी प्लास्टिक की बोतल देता है तो हम उसे 10 से 15 रुपये तक देते हैं ताकि लोगो का मनोबल बना रहे और अधिक से अधिक प्लास्टिक के कचरे को बोतल में भरा जाये,” पाण्डे बताते हैं। “लगभग चार महीने पहले हमने शुरुआत की और लगभग 40 हज़ार प्लास्टिक की बोतलों में प्लास्टिक की पन्नियां भरकर, इन पर पेंट करने के बाद जिला मजिस्टेट कार्यालय, तहसील परिसर, सार्वजानिक पार्क और भी तमाम जगहों पर फूलों की क्यारी के चारों तरफ ईंटो की तरह इस्तेमाल कर चुके हैं। अब हमारे पास प्रतिदिन 600 से 700 इको ब्रिक्स आती हैं, वह आगे बताते हैं।
प्लास्टिक कचरे को लेकर प्रशासन
उत्तराखंड में प्लास्टिक के बैग, प्लेट्स, ग्लास, कप और पैकिंग आइटम पर प्रतिबन्ध है। उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण 2022-2023 के अनुसार, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के कार्यो में तेज़ी लाने के लिए ई-निविदा के माध्यम से राज्य के 95 विकास खंडो में कॉम्पेक्टर की स्थापना की जा रही है। साथ ही पंचायती राज की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़ा संग्रहण केंद्र भी स्थापित किये जा रहे हैं जिसमें लोहा/टीन, काँच और प्लास्टिक के कचरे के लिए अलग अलग कॉलम बने हैं। उत्तराखंड प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड में एनवायरनमेंट इंजीनियर पीके जोशी बताते हैं कि राज्य में कुल 62 रीसाइकलर रजिस्टर्ड हैं जो लगातार राज्य में उत्सर्जित हो रहे कचरे को रीसाइकल करने में लगे हैं।
हालांकि, प्रदेश में बढ़ते कचरे के ढेरों को देखकर प्रशासन के इन दावों पर यकीन कर पाना थोड़ा मुश्किल है।
पिछले साल रुद्रप्रयाग जिले के ऊखीमठ ब्लॉक में डिपॉज़िट रिफंड सिस्टम (डीआरएस) को एक पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया गया जिसका उद्देशय केदारनाथ क्षेत्र में बढ़ती प्लास्टिक कचरे की समस्या से निजात पाना था। इस प्रोजेक्ट के अनुसार पानी की बोतलों पर एक QR कोड लगाया जाता है और ग्राहक को यह बोतल 20 के स्थान पर 30 रुपये में दी जाती है और जब उपभोक्ता इस्तेमाल के बाद बोतल को संग्रहण केंद्र पर वापस करता है तो उसको उसके अतरिक्त 10 रुपये वापस मिल जाते हैं। साल 2023 में 4 लाख QR कोड वितरित किए गए थे जिसमें से लगभग 1 लाख बोतलों की बिक्री हुई। इन 1 लाख बोतलों में से 25 मई 2023 तक मात्र 12 प्रतिशत खाली बोतलें ही वापस आ पाई थीं।
प्लास्टिक कचरे को लेकर जागरूकता और समाधान पर बात करते हुए सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटी (एसडीसी) फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल कहते हैं कि पिछले वर्षों में प्लास्टिक नियमों और आदेशों के क्रियान्वयन का स्तर देश में निम्न स्तर का रहा है। “हाल के वर्षों में भारत और पूरे विश्व में प्लास्टिक का इस्तेमाल बढ़़ा है और इसी के साथ प्लास्टिक से पैदा होने वाले प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज की समस्याएं भी बढ़ी हैं। इस दौरान वैश्विक और कॉरपोरेट स्तर पर इसे लेकर चिन्ताएं और समाज के स्तर पर जागरूकता भी बढ़ी हैं। इस सबके बावजूद समाधान की दिशा में अब तक कोई बड़े परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं।”
“राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में बात करें तो भारत में प्लास्टिक और सिंगल यूज प्लास्टिक का बड़ा कारोबार स्थापित है और भारी मात्रा में इसका इस्तेमाल भी किया जाता है। कई बार सिंगल यूज प्लास्टिक को बंद करने के लिए अभियान भी चलाये गये हैं और नियम भी बनाये गये हैं, लेकिन इन्हें आज तक प्रभावी तरीके से क्रियान्वित नहीं किया जा सका है। भारत सरकार ने प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स-2016 बनाये और 1 जुलाई 2022 से कई सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पादों को देश में बैन किया हैं। इस मामले में गौर करने वाली बात यह है कि विशेषज्ञों के मुताबिक 2022 में बैन किये गए उत्पादों का प्लास्टिक के कुल कचरे में हिस्सा सिर्फ 2 से 3 प्रतिशत है। प्लास्टिक के छोटे-छोटे पाउच, चिप्स और बिस्कुट जैसे मल्टी लेयर पैकेजिंग उत्पादों को बैन के दायरे में नहीं लाया गया है। गौर करने वाली बात यह है कि जिन 2 से 3 प्रतिशत वस्तुओं को इस बैन में शामिल किया गया है, इसमें कई वस्तुएं आज भी खुले बाजार में बहुतायत में उपलब्ध हैं, नौटियाल आगे कहते हैं।
बैनर तस्वीरः स्यूसाल गांव के लोगों ने अपने गांव में प्लास्टिक डिस्पोजेबल के इस्तेमाल को पूर्ण रूप से बंद कर दिया है। अब गांव में होने वाले किसी भी छोटे या बड़े समारोह में प्लास्टिक के दोने, प्लेट और ग्लास के स्थान पर स्टील के बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता है। तस्वीर- सत्यम कुमार/मोंगाबे