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जम्मू के जिलों में बढ़ते तापमान से स्थानीय जनजातियों की आजीविका को खतरा

जम्मू में महिलाओं को पानी लाने के लिए पहाड़ी पर काफी ऊपर तक जाना पड़ता है। तस्वीर- आलोक पठानिया

जम्मू में महिलाओं को पानी लाने के लिए पहाड़ी पर काफी ऊपर तक जाना पड़ता है। तस्वीर- आलोक पठानिया

  • जम्मू और कश्मीर की पहाड़ियों में बढ़ता तापमान स्थानीय जनजातियों की आजीविका को खतरे में डाल रहा है। यह जोखिम उन लोगों के लिए ज्यादा है जो कृषि से जुड़े हुए हैं।
  • मौसम के मिजाज में बदलाव का सबसे अधिक खतरा किश्तवाड़ और रामबन जिलों को है, जबकि जम्मू और कठुआ जिले सबसे कम प्रभावित हैं।
  • कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि बुनियादी ढांचे के विकास या मानव गतिविधि के बजाय, पश्चिमी विक्षोभ या भूमध्य सागर में उत्पन्न होने वाले तूफान जैसे प्राकृतिक प्रभावों से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में तेजी आ रही है।

जम्मू यूनिवर्सिटी के भूगोल विभाग की एक रिसर्च टीम ने जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर जम्मू और कश्मीर में जम्मू प्रांत के 10 जिलों की रैंकिंग की। उन्होंने जम्मू प्रांत में बारिश और तापमान जैसे जलवायु परिवर्तन के जोखिम की सीमा का मूल्यांकन करने के लिए, श्रीनगर के भारत मौसम विज्ञान विभाग से मदद ली। टीम ने तीन दशकों में मौसम केंद्रों से इकट्ठा किए गए मौसम डेटा का अध्ययन किया था।

जलवायु परिवर्तन के प्रति जिलों की संवेदनशीलता को समझने के लिए जोखिम सूचकांक (वल्नेरेबिलिटी इंडेक्स) की गणना की गई थी। यह सूचकांक बताता है कि कितनी आबादी पर इसके कितना खतरा मंडरा रहा है। सूचकांक से पता चलता है कि पर्वतीय क्षेत्र और दूरदराज के जिले खासतौर पर जलवायु परिवर्तनशीलता और बदलते मौसम के प्रति संवेदनशील हैं।

अपने बच्चों को स्कूल ले जाती हुई एक आदिवासी महिला। शोधकर्ताओं का कहना है कि सामाजिक-आर्थिक बुनियादी ढांचे का विकास आजीविका के जोखिम को कम कर सकता है। तस्वीर- आलोक पठानिया 
अपने बच्चों को स्कूल ले जाती हुई एक आदिवासी महिला। शोधकर्ताओं का कहना है कि सामाजिक-आर्थिक बुनियादी ढांचे का विकास आजीविका के जोखिम को कम कर सकता है। तस्वीर- आलोक पठानिया

हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तनशीलता से आजीविका के जोखिम का आकलन: भारत के जम्मू प्रांत का एक जिला स्तरीय विश्लेषणपेपर के सह लेखक और एसोसिएट प्रोफेसर मोहम्मद सरफराज असगर ने कहा, तापमान में उतार-चढ़ाव, बारिश के पैटर्न में बदलाव, हर जिले में बुनियादी ढांचे की उपलब्धता, स्वदेशी जनजाति की आबादी, जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता आदि सहित 25 मापदंडों को हमने ध्यान में रखा है। और इसी के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि रामबन और किश्तवाड़ के पहाड़ी जिलों का क्रमशः सबसे अधिक जोखिम स्कोर (0.65 ) और (0.64) था और जोखिम सूचकांक स्कोर के अनुसार उन्हें पहले और दूसरे स्थान पर रखा गया है।यह पेपर जनवरी 2023 में जियोजर्नल में प्रकाशित हुआ था। 

जम्मू जिले का जोखिम स्कोर सबसे कम (0.25) था। हालांकि, जम्मू और कठुआ जिले अभी भी बाढ़ और तेज गर्म हवाओं जैसे भू-जलवायु खतरों से जूझ रहे हैं। पेपर के अनुसार, कठुआ और सांबा जिले क्रमशः नौवें (0.42) और आठवें (0.53) स्थान पर हैं, जबकि राजौरी, उधमपुर और डोडा जिले सातवें (0.54), छठे (0.57) और पांचवें (0.58) स्थान पर हैं। रियासी चौथे (0.61 ) और पुंछ जिला तीसरे (0.62) स्थान पर रहे। इन जोखिम परिणामों से पता चलता है कि जम्मू प्रांत के पर्वतीय क्षेत्र और दूरदराज के जिले खासतौर पर जलवायु परिवर्तनशीलता और बदलाव के प्रति संवेदनशील हैं।

इन जिलों की असुरक्षा का स्थानीय आजीविका, खासकर कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों पर प्रभाव पड़ता है। लगभग 70 फीसदी आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन क्षेत्रों में कार्यरत है। अध्ययन में कहा गया है कि इस अध्ययन के परिणाम जम्मू प्रांत में आजीविका जोखिम को कम करने और योजना बनाने के लिए उपयोगी हो सकते हैं।

जलवायु जोखिम और आजीविका

जम्मू प्रांत के मैदानी इलाकों में उपोष्णकटिबंधीय से लेकर पीर पंजाल में शीतोष्ण तक कई प्रकार की कृषि-जलवायु स्थितियां मौजूद हैं। ये जलवायु विविधताएं इसे विविध खेती करने के लिए उपयुक्त बनाती हैं। हालांकि, अनियमित वर्षा और अन्य बदलावों के चलते यहां के कृषि उत्पादन पर असर पड़ा है। पूरे प्रांत में कृषि योग्य भूमि के असमान फैलाव के कारण कृषि क्षेत्र पर जनसंख्या का दबाव भी अधिक है, बाहरी मैदानों में कृषि के अंतर्गत काफी ज्यादा क्षेत्र है जबकि पीर पंजाल में कृषि के लिए बहुत कम क्षेत्र है।

असगर के अनुसार, जलवायु परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के प्रभावों के कारण फसल उत्पादन और पैदावार में कमी आई है, साथ ही फसलों की बुआई के समय में भी बदलाव आया है। इसके अलावा, भूजल संसाधनों की कमी, फसल में कीड़ा लगने और फसल के बर्बाद होने की भी सूचना मिली है। पशु पालन भी जलवायु परिवर्तनशीलता और बदलावों से प्रभावित हुआ है, क्योंकि जानवरों पर भी गर्मी का असर पड़ता है और उन्हें चरागाहों की कमी का सामना भी करना पड़ता है। इससे पशुधन में कमी आई है और नई-नई बीमारियां भी सामने आ रही हैं। बागवानी क्षेत्र में, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव फसल उगाने के लिए बदलती जगहों से साफ नजर आ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन और गर्मी के कारण जो फसलें कभी मैदानी इलाकों में उगाई जाती थीं, वे अब पहाड़ी इलाकों में उगाई जा रही हैं।

अपने पशुओं को ले जाते हुए बकरवाल समुदाय की जनजातियां। स्वदेशी जनजातियां पशु पालन पर काफी ज्यादा निर्भर हैं और यह उनकी आजीविका के मुख्य स्रोतों में से एक है। जलवायु परिवर्तन के चलते उनकी आजिविका का ये स्रोत जोखिम में है, क्योंकि पशु ज्यादा गर्मी नहीं झेल पाते हैं और साथ ही उन्हें चारागाह की कमी का सामना भी करना पड़ता है। तस्वीर-आलोक पठानिया 
अपने पशुओं को ले जाते हुए बकरवाल समुदाय की जनजातियां। स्वदेशी जनजातियां पशु पालन पर काफी ज्यादा निर्भर हैं और यह उनकी आजीविका के मुख्य स्रोतों में से एक है। जलवायु परिवर्तन के चलते उनकी आजिविका का ये स्रोत जोखिम में है, क्योंकि पशु ज्यादा गर्मी नहीं झेल पाते हैं और साथ ही उन्हें चारागाह की कमी का सामना भी करना पड़ता है। तस्वीर-आलोक पठानिया

असगर ने जलवायु जोखिम अध्ययन में निष्कर्ष निकाला कि स्वदेशी लोगों की आबादी के अलावा, आजीविका के लिए कृषि पर निर्भरता, जलवायु की वजह से आजीविका पर पड़ने वाले जोखिम का एक और कारण है।

मैदानी इलाकों में जम्मू और कठुआ की तुलना में रामबन और किश्तवाड़ में सामाजिक, मानवीय और आर्थिक बुनियादी ढांचे के विकास की कमी है, जैसे स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और आवास जैसी सेवाओं का समर्थन करने वाली सुविधाओं का निर्माण और रखरखाव। अध्ययन में कहा गया है, “फिजिओग्राफी (भू आकृति) और जलवायु परिस्थितियों में काफी ज्यादा विविधता भी इन जिलों (रामबन और किश्तवाड़) में बहुत अधिक जोखिम का कारण हो सकती है।” इन जिलों में उबड़-खाबड़ भू-भाग, अधिक ऊंचाई और काफी संख्या में पहाड़ी इलाके हैं। यहां खेती के लायक जमीन काफी कम है। वहीं, जलवायु में भी भारी बदलाव आया है, गर्मियां ज्यादा गर्म और सर्दियां ज्यादा ठंडी हो गई हैं। इन क्षेत्रों में लोग अनुकूलन के लिए कम सक्षम हैं, इसलिए मौसम या जलवायु में छोटे बदलाव भी उनके जीवन के तरीके पर बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग प्रभाव बनाम मानवीय गतिविधियों का प्रभाव

रिसर्च टीम का मानना है कि सामाजिक-आर्थिक बुनियादी ढांचे की योजना न सिर्फ जम्मू की पहाड़ियों में, बल्कि हिमालय के अन्य हिस्सों में भी जरूरी है। असगर और टीम ने यह भी पाया कि रियासी में कटरा, डोडा में भद्रवाह और रामबन में बटोटे और बनिहाल जैसे मौसम केंद्रों ने पिछले 30 सालों में बारिश की कमी दर्ज की है, जबकि जम्मू, सांबा और राजौरी में काफी ज्यादा बारिश देखी गई है।

उन्होंने यह भी नोट किया कि कटरा, भद्रवाह और जम्मू में 1987-2019 के दौरान औसत अधिकतम तापमान में कमी देखी गई, जबकि रामबन के बटोटे और बनिहाल में उसी दौरान वृद्धि देखी गई। जम्मू में औसत न्यूनतम तापमान में भी सकारात्मक रुझान देखा गया, जिसका मतलब है कि औसत न्यूनतम तापमान कम हो रहा है।


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कश्मीर यूनिवर्सिटी के जियोइन्फॉर्मेटिक्स विभाग के शकील अहमद रोमशू ने कहा, जहां तक जम्मू की पहाड़ियों में जलवायु परिवर्तन का सवाल है, स्थानीय स्तर पर अनियंत्रित, अस्थिर विकास की “भूमिका न के बराबर” है। रोमशू जोखिम अध्ययन से जुड़े हुए नहीं है। उन्होंने कहा, “जम्मू और कश्मीर में पहाड़ियां जलवायु परिवर्तन के प्रति बहुत नाजुक और संवेदनशील हैं। बढ़ता तापमान, वर्षा के पैटर्न में बदलाव और अन्य पर्यावरणीय खतरे, जो कुछ भी हम पहाड़ों में देख रहे हैं, उसके लिए स्थानीय (बुनियादी ढांचे) विकास को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। यह मुख्य रूप से गलोबल डवलपमेंट के कारण हो रहा है जो हर देश को प्रभावित कर रहा है।” रोमशू ने भूमध्यसागरीय क्षेत्र में बनने वाले अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय तूफान, भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में अचानक से सर्दियों के मौसम में बारिश लाने वाले पश्चिमी विक्षोभ का जिक्र करते हुए कहा, “हमारे यहां (जम्मू हिल्स) ज्यादा उद्योग नहीं हैं। मानवीय गतिविधियां भी बहुत सीमित हैं। बढ़ते तापमान के लिए पहाड़ों में वाहनों की सीमित संख्या को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन पश्चिमी विक्षोभ के कारण, जो साल में कुछ खास दिनों के लिए जम्मू और कश्मीर में बारिश और बर्फबारी और अन्य वैश्विक घटनाओं के लिए जिम्मेदार है, ग्रीनहाउस गैसें और अन्य हानिकारक प्रदूषक लाने का कारण बनते हैं और यहां के तापमान को काफी बढ़ा देते हैं।

रोमशू के अनुसार, पिछली शताब्दी में हिमालय में तापमान में “असामान्य बढ़ोतरी” के कारण जम्मू-कश्मीर में असामयिक बारिश, बार-बार भूस्खलन, बादल फटने और अन्य प्राकृतिक आपदाएं हो रही हैं। उन्होंने कहा, “एक सदी में तापमान में वैश्विक औसत वृद्धि 0.8 डिग्री सेल्सियस होनी चाहिए। लेकिन इसके मुकाबले हिमालयी क्षेत्र में औसत वृद्धि 1.2 डिग्री सेल्सियस है और इससे हम सभी को चिंतित होना चाहिए।”

जम्मू-कश्मीर में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र। पिछले एक सदी से हिमालय क्षेत्र में तापमान में असामान्य वृद्धि के कारण जम्मू-कश्मीर को असामयिक बारिश, बार-बार भूस्खलन, बादल फटने और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा हैं। तस्वीर- रक्षा मंत्रालय/विकिमीडिया कॉमन्स 
जम्मू-कश्मीर में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र। पिछले एक सदी से हिमालय क्षेत्र में तापमान में असामान्य वृद्धि के कारण जम्मू-कश्मीर को असामयिक बारिश, बार-बार भूस्खलन, बादल फटने और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा हैं। तस्वीर– रक्षा मंत्रालय/विकिमीडिया कॉमन्स

जब उनसे पूछा गया कि किन हस्तक्षेपों से हिमालय में लोगों की आजीविका सुरक्षा में सुधार हो सकता है, तो उन्होंने कहा, “ दुनियाभर की संस्थाओं को पूरी दुनिया, खासतौर पर विकासशील देशों के बेहतर भविष्य को आकार देने में मुख्य भूमिका निभानी होगी। युनाइटिड नेशन कॉन्फ्रेंस ऑन क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टिज (सीओपी 28) जैसी आगामी वैश्विक पर्यावरणीय इवेंट से, दुनियाभर के नेताओं को उत्सर्जन दर में काफी कटौती करने पर विचार करना होगा और विकास के दौरान पर्यावरण को कम से कम नुकसान सुनिश्चित करने के लिए सामूहिक रूप से योजना बनानी होगी।

रोमशू ने कहा, स्थानीय स्तर पर केंद्र के साथ-साथ केंद्रशासित प्रदेश सरकार सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देकर , पवन और सौर जैसी नवीकरणीय ऊर्जा पर स्विच करने और ख़राब आवासों को ठीक करने में मदद करने के लिए वनीकरण अभियान शुरू करने जैसे विभिन्न उपाय शुरू कर सकती है।

 

बैनर तस्वीर: जम्मू में महिलाओं को पानी लाने के लिए पहाड़ी पर काफी ऊपर तक जाना पड़ता है। फोटो- आलोक पठानिया

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