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पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं को कैसे देखते हैं स्थानीय लोग, अध्ययनों ने की जानने की कोशिश

दक्षिण सिक्किम के टेमी टी एस्टेट में काम करते चाय बागान कर्मी। रिसर्चर्स का कहना है कि फसलों और खेती से जुड़ी ज्यादातर नीतियां मैदानी क्षेत्रों के हिसाब से होती हैं और इनमें पहाड़ी समुदायों के हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है। तस्वीर- आदित्य प्रधान।

दक्षिण सिक्किम के टेमी टी एस्टेट में काम करते चाय बागान कर्मी। रिसर्चर्स का कहना है कि फसलों और खेती से जुड़ी ज्यादातर नीतियां मैदानी क्षेत्रों के हिसाब से होती हैं और इनमें पहाड़ी समुदायों के हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है। तस्वीर- आदित्य प्रधान।

  • पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं को बड़े ही सुविधाजनक तरीके से सिर्फ पारिस्थितिकीय और आर्थिक मूल्यों से आंका जाता है। स्थानीय समुदाय पारिस्थितिकी तंत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को किस तरह देखते हैं उन्हें दो अध्ययनों में जानने की कोशिश की गई है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य तय करने से नीति निर्धारण में भी मदद मिल सकती है। कई मौजूदा नीतियां ऐसी हैं जिनमें और सामुदायिक प्राथमिकताओं में काफी अंतर है।
  • इस स्टडी में रिसर्चर्स ने उन जरूरतों पर जोर दिया है जो कहती हैं कि प्रकृति के संरक्षण और संसाधनों के प्रबंधन में मूल निवासियों और स्थानीय लोगों के योगदान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

पिछले कुछ दशकों में पूरी दुनिया में प्रकृति का संरक्षण प्रकृति की ओर से मिलने वाली पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के आर्थिक मूल्यों पर आधारित रहा है। इसके जरिए संरक्षण के उपायों पर जोर दिया जाता है ताकि उन चीजों जरूरी चीजों और सेवाओं को संरक्षित किया जा सके जो इंसान के जीवन के लिए प्रकृति से मिलती हैं।

पारिस्थितिकी तंत्र की जरूरी सेवाओं के आर्थिक मूल्य तय करते समय यह जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन बेहतर किया जाए ताकि नीति निर्धारण अच्छा हो सके। इसके लिए हालिया अध्ययनों में सुझाव दिया गया है कि आर्थिक मूल्यों के पारंपरिक आकलन के तरीकों में एक नए आयाम को जोड़ा जाए। यह नया आयाम सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य या गैर-भौतिक सेहत है जो कि पारिस्थितिकी तंत्र में पाए जाते हैं और लोग उन्हें अहमियत भी देते हैं। इन अध्ययनों में स्थानीय समुदायों की प्राथमिकताओं को समझने को तरजीह दी जाती है क्योंकि वही मुख्य साझीदार हैं और किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र को सबसे अच्छी तरह वही समझते हैं और उन्हीं के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार इससे जुड़े होते हैं।

पूर्वी हिमालय और पश्चिमी घाट पर किए गए दो अध्ययनों में यह समझने की कोशिश की गई है कि स्थानीय समुदाय पारिस्थितिकी तंत्र की किन सेवाओं को ज्यादा अहमियत देते हैं। हिमालयन स्टडी में सबसे अहम स्थान ताजे पानी को मिला और इससे सबसे ज्यादा जरूरी प्राकृतिक वस्तु कहा गया। वहीं, पश्चिमी घाट के अध्ययन में लोगों ने माना कि वस्तु देने वाली सेवाएं सबसे अहम हैं जैसे कि जंगल से मिलने वाले गैर-टिंबर उत्पाद (NRFP)।

पश्चिम बंगाल के केलिंमपोंग के ऊपरी टंगटा में मौजूद फोकस ग्रुप डिस्कशन (FGD)। तस्वीर- दिवाकुर गुरुंग।
पश्चिम बंगाल के केलिंमपोंग के ऊपरी टंगटा में मौजूद फोकस ग्रुप डिस्कशन (FGD)। तस्वीर- दिवाकुर गुरुंग।

क्या चाहते हैं स्थानीय समुदायों के लोग?

दार्जीलिंग-सिक्किम हिमालय में की गई स्टडी में 31 गावों का सर्वे किया गया। मूल निवासियों और स्थानीय समुदाय के लोगों के साथ किए गए फोकस ग्रुप डिस्कशन में यह सामने आया कि लोगों के लिए सबसे मूल्यवान प्राकृतिक वस्तु ताजा पानी है। इस स्टडी की अगुवाई करने वाली सरला खलिंग कहती हैं कि हमें इससे हैरानी हुई क्योंकि हमें उम्मीद थी कि लोग जंगल से मिलने वाली लकड़ी और चारे को सबसे अहम बताएंगे। सरला अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एन्वायरनमेंट (ATREE) से संबंधित हैं। 

सीनियर प्रोजेक्ट फेलो आदित्य प्रधान लोगों से हुई अपनी बातचीत और चर्चाओं को याद करते हुए कहते हैं कि लोगों का मानना है कि जंगलों से उन्हें सबसे बेहतर गुणवत्ता का पानी मिलता है और वे किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा अहमियत पानी को ही देते हैं क्योंकि चारे या जंगल से मिलने वाली लकड़ी की तरह इसकी जगह कोई दूसरी चीज नहीं ले सकती है। गांव के लोगों ने तीन अहम चीजें रेखांकित की हैं – ताजे पानी की उपलब्धता, ताजा पानी बरकरार रहना और इसका शुद्ध रहना। सरला खलिंग कहती हैं, “इस स्टडी में हमें विस्तार से जानकारी मिली कि स्थानीय लोग किन चीजों को वरीयता देते हैं और वे किन चीजों को संरक्षित करने के लिए तैयार हैं।”

वन पर आधारित समुदाय के लोगों की पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में राय को भारत जैसे विकासशील देशों में समझना काफी अहम है क्योंकि यहां विकास के लिए अन्य प्राथमिकताओं को संरक्षण पर वरीयता दी जाती है। रिसर्चर्स का कहना है कि इससे नीति निर्धारण में भी मदद मिलती है क्योंकि कई मौजूदा नीतियां ऐसी हैं जो स्थानीय समुदाय के लोगों की जरूरतों के विपरीत हैं।

उत्तरी सिक्किम के डोगंजू में बहती एक मुक्त धारा। हिमालयन स्टडी में यह सामने आया है कि ताजा पानी यहां की सबसे अहम प्राकृतिक वस्तु है। तस्वीर- आदित्य प्रधान।
उत्तरी सिक्किम के डोगंजू में बहती एक मुक्त धारा। हिमालयन स्टडी में यह सामने आया है कि ताजा पानी यहां की सबसे अहम प्राकृतिक वस्तु है। तस्वीर- आदित्य प्रधान।

स्थानीय समुदायों के लोगों ने हिमालयन स्टडी में बताया कि ताजे पानी की कमी तेजी से बढ़ रही है और इसका नतीजा यह हो रहा है कि पानी की उपलब्धता असमान हो रही है, गांवों के पर्यटन में अनियमित बढ़ोतरी हो रही है, कचरे के निस्तारण की योजनाएं बेहद लचर हैं और ताजे पानी के स्रोतों के आसपास सड़कों का निर्माण हो रहा है। इन लोगों ने यह भी बताया कि इसके चलते खेती में भी कमी आ रही है और इंसानों और जानवरों के बीच हो रहा टकराव खेती के लिए और बड़ा खतरा बन गया है। सरकार की ओर से कोई मदद या मुआवजा न मिलने की वजह से फसलों और पशुपालन में हो रहा घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। जो गांव संरक्षित इलाकों के पास हैं उनमें ये समस्याएं और भी ज्यादा देखी जा रही हैं।

प्रधान ने बताया कि दार्जीलिंग में फसलों और खेती से जुड़ी ज्यादातर नीतियां मैदानी क्षेत्रों के पक्ष में हैं और इसमें पहाड़ी समुदाय की जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। वह कहते हैं, “इन समुदायों के लोगों ने हमें बताया कि उन्हें ऐसे बीज दिए जाते हैं जो उनकी जमीनों के लिए उपयुक्त नहीं हैं और इससे खेती भी प्रभावित होती है।”

पश्चिम बंगाल के केलिंमपोंग के छोटा सुरुक में फिशबोन फर्न के साथ खड़ी एक महिला तस्वीर- आदित्य प्रधान।
पश्चिम बंगाल के केलिंमपोंग के छोटा सुरुक में फिशबोन फर्न के साथ खड़ी एक महिला तस्वीर- आदित्य प्रधान।

स्थानीय गांव के लोगों ने पारिस्थितिकी तंत्र की ऐसी 28 सेवाओं की पहचान की है जो प्रोविजनिंग और सांस्कृतिक सेवाओं में आती हैं और कुछ ऐसी हैं जो रेगुलेटिंग और सपोर्टिंग सेवाओं के अंतर्गत आती हैं।

रिसर्चर्स ने यह भी देखा कि जलाने के लिए जंगल से मिलने वाली लकड़ियों तक लोगों की पहुंच में काफी कमी आ रही है। इसके बजाय लोगों ने अपने खेतों पर बहउद्देश्यीय पेड़ उगाने शुरू कर दिए हैं, इसके पीछे की भी अहम वजह यह है कि जंगल से मिलने वाले कई उत्पादों को लेने पर रोक लगा दी गई है। प्रधान आगे कहते हैं, “पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के बारे में लोगों की एक राय अहम रूप से देखने को मिली कि पहले जंगल पर पूरी तरह से निर्भर लोगों ने जीवन जीने के पारंपरिक तरीकों को पीछे छोड़ दिया है और अब वे अपनी आजीविका के लिए एग्रो-फॉरेस्ट्री पर निर्भर हो गए हैं।”

पश्चिमी घाट में की गई स्टडी में भी कुछ ऐसे ही रुझान देखने को मिले और यहां भी लोग उन्हीं चीजों को सबसे अहम मानते हैं। इस स्टडी में कर्नाटका में स्थित शेट्टीहल्ली वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी और बिलिगिरी रंगास्वामी टेंपल वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी के सोलिगा आदिवासी समुदाय के 253 घरों के रैंडम सैंपल से डेटा इकट्ठा किया। इसका मकसद यह था कि इसके जरिए नीति निर्माताओं तक यह बात पहुंचाई जा सके कि पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं में आदिवासी समुदाय का प्रोविजनिंग में कितना योगदान है और जंगल के स्रोतों के प्रबंधन में इसका कितना असर पड़ता है और इससे व्यापक स्तर पर जनता को लाभ मिलता है।

सेंटर फॉर इकोलॉजिकल इकोनॉमिक्स एंड नेचुरल रिसोर्स इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज (CEENr-ISEC) बेंगलुरु के एम बालासुब्रहमण्यम भी इस स्टडी के सह लेखक हैं। उनका कहना है कि लोगों ने अपनी आजीविकी के लिए प्रोविजनिंग सेवाओं को सबसे अहमियत दी जिसमें से गैर-टिंबर वाले वन उत्पाद (NRFP) को सबसे जरूरी माना गया। हालांकि, यह भी सामने आया कि सरकारी नीतियां लोगों के इन तौर-तरीकों का समर्थन नहीं करती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि स्थानीय समुदाय के बीच आर्थिक समस्या पैदा होती है और जंगल भी खराब होते जाते हैं।

पश्चिमी घाट के पास अपने खेतों में मौजूद किसान। तस्वीर- Pxfuel
पश्चिमी घाट के पास अपने खेतों में मौजूद किसान। तस्वीर– Pxfuel

सांस्कृतिक और पुनर्निर्माण सेवाओं को भी लोगों ने वरीयता दी क्योंकि आदिवासी समुदाय के बहुत सारे लोग इनसे जुड़े कामों में रोजगार पाते हैं। उदाहरण के लिए बिलगिरी रंगनाथस्वामी मंदिर की देखरेख का काम या फिर जंगल में टूर गाइड का काम। एम बालासुब्रमण्यम ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “पीक सीजन में मंदिर और उसके आसपास के जंगलों में हर दिन लगभग 200 से 250 लोग आते हैं। कई आदिवासी लोग पर्यटकों से जुड़ी सेवाओं का काम करते हैं जो कि पर्यटन विभाग के राजस्व का अहम जरिया है। हमें ऐसी और सांस्कृतिक सेवाएं विकसित करने की जरूरत है जो सरकार और स्थानीय समुदाय दोनों के लिए फायदेमंद हों।”

यह स्टडी कहती है कि व्यापक स्तर पर यह बात स्वीकार की जाती है कि पश्चिमी घाट के जंगलों से मिलने वाले स्रोतों पर ही आदिवासी समुदाय निर्भर हैं, इसके बावजूद सरकारी नीतियों में लोगों की जरूरतों और जंगल में मिलने वाली चीजों की कीमतों का ध्यान नहीं रखा जाता है और इन लोगों के प्रयासों को नजरअंदाज करके अकेला छोड़ दिया जाता है।


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बालासुब्रमण्यन पेरू की सरकार का एक उदाहरण देते हैं जहां अमेजन के जंगलों के रख-रखाव के लिए लोगों को नकद पैसे दिए जाते हैं। वह कहते हैं कि भारत को भी इस तरह की नीतियां अपनानी चाहिए ताकि इन समुदायों का भला हो सके और व्यापक स्तर पर संरक्षण का काम किया जा सके।

इस स्टडी के बाद रिसर्चर्स ने सरकार के लिए कुछ सुझाव दिए हैं ताकि आदिवासी समुदाय के लोगों की आजीविका के स्तर को बेहतर बनाया जा सके। इन सुझावों में पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के लिए पर्याप्त भुगतान किया जाए क्योंकि वे जल संरक्षण में अहम योगदान देते हैं। इसके अलावा यह भी सुझाव दिया गया कि जंगली इलाकों में कई विकास कार्यों के लिए प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप की मदद ली जाए और आदिवासियों की जमीनें छीनकर उन्हें ही वहां रहने के अधिकार से वंचित न किया जाए।

बालासुब्रमण्यन कहते हैं, “कर्नाटका में कई मध्यम से लेकर बड़े स्तर तक के पुनर्स्थापन कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं ताकि पैरिस समझौते में किए गए वादों और बॉन चैलेंज की शर्तों को पूरा किया जा सके। हमारा सुझाव है कि आदिवासी समुदाय के लोगों को पर्याप्त मुआवजा दिया जाए क्योंकि उनके बिना यह लक्ष्य हासिल कर पाना असंभव है।”

 

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीर: दक्षिण सिक्किम के टेमी टी एस्टेट में काम करते चाय बागान कर्मी। रिसर्चर्स का कहना है कि फसलों और खेती से जुड़ी ज्यादातर नीतियां मैदानी क्षेत्रों के हिसाब से होती हैं और इनमें पहाड़ी समुदायों के हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है। तस्वीर- आदित्य प्रधान।

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