- हिंदू कुश हिमालय पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर एक हालिया रिपोर्ट में 2100 तक ग्लेशियर की मात्रा में 30 से 50 फीसदी की कमी की चेतावनी दी गई है।
- ग्लेशियरों, बर्फ और पर्माफ्रॉस्ट का तेजी से पिघलना पर्वतीय क्षेत्र को और अधिक खतरनाक बना रहा है। सदी के मध्य तक और अधिक पिघला हुआ पानी नदियों में बह जाएगा। लेकिन इसके बाद पानी की उपलब्धता में लगातार गिरावट आने लगेगी।
- अगर ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को बढ़ने दिया गया तो क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र और समाज को उसके अनुरूप ढलने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।
हिमालयन यूनिवर्सिटी कंसोर्टियम (एचयूसी) के फेलो जैकब एफ. स्टीनर ने कहा, “वैज्ञानिकों के रूप में, हमें सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि हिमालय में ग्लेशियर किस पैमाने पर पिघल रहे हैं।” उदाहरण के लिए, हिमालय में एक ग्लेशियर है जिसकी सबसे लंबे समय तक निगरानी की गई है। यह अब लगभग मर चुका है। वहां जो बचा है वह सिर्फ बर्फ का एक लटका हुआ टुकड़ा है। हम अब इसे ग्लेशियर भी नहीं कहते क्योंकि यह सिर्फ बर्फ का एक टुकड़ा है।”
स्टीनर सहित कई वैज्ञानिकों ने हिंदू कुश हिमालय (एचकेएच) के क्रायोस्फीयर का काफी लंबे समय तक नजर रखी गई और आकलन किया। फिर ‘वाटर, आइस, सोशायटी एंड इकोसिस्टम इन दि हिंदुकुश हिमालय’ या कहे कि HI-WISE रिपोर्ट नामक एक रिपोर्ट में इस निष्कर्ष पर पहुंचे। इस साल जून में नेपाल स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) द्वारा जारी की गई HI-WISE रिपोर्ट हिंदू कुश हिमालय असेसमेंट रिपोर्ट (2019) का अनुसरण करती है। इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन, क्रायोस्फीयर, पानी और जैव विविधता के पहलुओं पर ध्यान देते हुए 2017 तक प्रकाशित जानकारी का आकलन किया गया था।
हालिया रिपोर्ट पहाड़ पर रह रहे समुदायों और वहां के पारिस्थितिक तंत्र पर ज्यादा ध्यान देती है। साथ ही ये हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में क्रायोस्फीयर-हाइड्रोस्फीयर-बायोस्फीयर-सोसाइटी संबंधों को भी उजागर करती नजर आती है। रिपोर्ट के मुख्य संपादक और कोर्डिनेटर फिलिप्स वेस्टर ने कहा कि वे अपनी रिपोर्ट में वहां रह रहे लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र को भी शामिल करके अध्ययन के दायरे को व्यापक बनाना चाहते थे। वेस्टर ने कहा, “हम जानते हैं कि क्रायोस्फीयर बदल रहा है लेकिन हम पूरी तरह से नहीं जानते हैं कि इसका पहाड़ो पर निर्भर रहने वाले समुदायों और पारिस्थितिक तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ता है।”
HI-WISE रिपोर्ट का मकसद हिंदू कुश हिमालय के लोगों, साथ ही नितियां बनाने वाले अधिकारियों, पेशेवर और वैश्विक समुदाय को क्षेत्र में तेजी से बदलते क्रायोस्फीयर और पानी, जैव विविधता और समाज पर इसके प्रभावों के बारे में सूचित करना है।
हिमालय के ग्लेशियर नष्ट हो रहे हैं, 2050 तक नदियों में पिघले पानी की उपलब्धता चरम पर होगी
रिपोर्ट में किए गए मूल्यांकन के प्रमुख निष्कर्षों में से एक यह है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस से 2 डिग्री सेल्सियस के बीच ग्लोबल वार्मिंग स्तर पर, सदी के अंत तक ग्लेशियर की मात्रा में 30 से 50 फीसदी के नुकसान होने का अनुमान है। उच्च ग्लोबल वार्मिंग स्तर के लिए, ग्लेशियर की मात्रा का नुकसान 60 से 80 फीसदी हो सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ग्लेशियर द्रव्यमान के नुकसान की दर में 65 फीसदी की वृद्धि हुई, जो 2000-2009 की अवधि के लिए प्रति वर्ष औसतन 0.17 मीटर पानी के बराबर (एमडब्ल्यू) से घटकर 2010-2019 के लिए प्रति वर्ष माइनस 0.28 मीटर हो गई।
रिपोर्ट में एक और महत्वपूर्ण खुलासा किया गया है कि काराकोरम रेंज भी ग्लेशियर खो रही है। इसके चलते “काराकोरम विसंगति” अतीत की बात बन गई है। काराकोरम विसंगति अन्य भागों में ग्लेशियरों के पीछे हटने के उलट, मध्य काराकोरम में ग्लेशियरों के स्थिर रहने या उनमें असामान्य वृद्धि की स्थिति है।
इस तेजी से ग्लेशियर के पिघलने से नदियों में पानी का बहाव बढ़ जाएगा। रिपोर्ट में सदी के मध्य तक हिंदू कुश क्षेत्र में सिंधु, गंगा और अन्य नदी घाटियों में अधिकतम पानी की उपलब्धता की भविष्यवाणी की गई है। इसके बाद 2100 तक पानी की उपलब्धता में लगातार कमी आएगी। अगर लंबे समय की बात छोड़ दें तो अल्पावधि में इसके कुछ फायदे हो सकते हैं, जैसे खेती के लिए पर्याप्त पानी और उपजाऊ रिवरबैंड्स। शोधकर्ताओं ने कहा कि दूसरी तरफ, ग्लेशियर झीलों में अचानक से आनी वाली बाढ़ (जीएलओएफ) जैसी अधिक चरम मौसमी घटनाएं भी एक संभावना है। इस तरह की बाढ़ की घटनाएं अभी हाल ही में चमोली या मेलमची में देखी गईं थी।
इसके प्रभाव काफी ज्यादा होंगे। क्योंकि एशिया का जल मीनार कहा जाने वाला यह क्षेत्र भारत और चीन सहित 16 देशों के लिए जल स्रोत है। ये इलाका विभिन्न नदी घाटियों में रहने वाले दो अरब से अधिक लोगों का पेट भरता है। यहां तक कि निचले प्रवाह में रहने वाले लोग भी कृषि, घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए पहाड़ों से निकलने वाले पानी पर काफी ज्यादा निर्भर हैं।
बर्फ के आवरण का कम होना, पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना पर्वतीय खतरों को कई तरीकों से बढ़ा रहा है
इस क्षेत्र में बर्फ का आवरण भी तेजी से कम हो रहा है। रिपोर्ट से पता चलता है कि बर्फबारी के दिनों में प्रति दशक औसतन पांच दिनों की दर से गिरावट आई है। और इसमें से ज्यादातर बदलाव कम ऊंचाई पर हुए हैं। गर्मियों और सर्दियों के महीनों के दौरान उल्लेखनीय कमी के साथ-साथ बर्फ के आवरण में मौसमी बदलाव भी होता है। साथ ही मध्य वसंत से मध्य पतझड़ तक गिरावट भी होती है।
स्टीनर ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि ग्लेशियर पिघलने की तुलना में शायद बर्फ का खत्म हो जाना जीवन को ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा। उन्होंने कहा, “मनुष्यों के साथ-साथ धरती पर रहने वाले अन्य जीवों के लिए बर्फ पर बहुत अधिक निर्भरता है। बर्फ के नीचे तापमान संतुलित रहता है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो क्षेत्र पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। पौधों को दिन में कड़ी पहाड़ी धूप और रात में शून्य से 20 डिग्री सेल्सियस या शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे जैसी जमा देने वाली ठंड का सामना करना पड़ेगा।”
इसके अलावा, बर्फ का पिघलना ढलान को पूरी तरह से खत्म कर देगा और ग्लेशियर के पिघलने के साथ मिलकर, पहाड़ कई खतरे पैदा करेगा। अधिक ऊंचाई पर गर्म तापमान से वहां का जीवन बदल जाएगा। पेड़ों की संख्या बढ़ जाएगी और गर्म तापमान में रहने वाले जीवों के ऊपरी इलाकों में पनपने का खतरा बढ़ जाएगा। वेस्टर के अनुसार, इससे ठंड पर निर्भर जीवन रूपों के भी खत्म होने का खतरा पैदा हो सकता है।
हिमालय में पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना मौजूदा जलवायु आपदाओं का एक कारण बताया गया था। पर्माफ्रॉस्ट का दिखाई न देना इस अध्ययन में बाधा बनी हुई थी। इसकी वजह से इन बदलावों पर ज्यादा कुछ लिखा नहीं जा सका है।
रिपोर्ट हिंदू कुश हिमालय में क्षेत्रीय अवलोकन और रिमोट सेंसिंग के आधार पर चेतावनी देती है कि क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट आवरण घट रहा है। स्टीनर ने कहा, “यह सिर्फ प्रशिक्षित आंखों को ही दिखाई देता है। पहले, हमने पर्माफ्रॉस्ट पिघलने की संभावना पर विचार किया था। लेकिन अब जब हम भारत या पाकिस्तान में ऊंचाई पर पहाड़ी ढलानों को देखते हैं, जहां हम जानते हैं कि पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहा है, तो हम बदलाव देख सकते हैं।”
पर्माफ्रॉस्ट पिघलना सतहों, ढलानों और बुनियादी ढांचे को अस्थिर बना देता है, जिससे क्षेत्र में बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं पर सरकारी नीतियों में बदलाव का अच्छा मामला बनता है। यह एक बहस है जो भारत में कुछ समय से चली आ रही है। स्टीनर ने कहा, इसके अलावा, पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से नदियों में अवसादन बढ़ जाता है जो बांधों और टर्बाइनों को नुकसान पहुंचाता है।
पारिस्थितिकी तंत्र ख़राब हो रहा है, समाज को इसके अनुरुप ढलने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।
HI-WISE रिपोर्ट में कहा गया है कि पारिस्थितिकी तंत्र पर क्रायोस्फीयर के नुकसान के व्यापक प्रभावों पर काफी कुछ लिखा जा रहा है, जिसमें पारिस्थितिकी तंत्र का क्षरण और प्रजातियों की संरचना और घटकों के संयोजन में परिवर्तन शामिल हैं। इन इलाकों में रहने वाले समुदायों को क्रायोस्फीयर से संबंधित खतरों से पैदा होने वाला जोखिम का अनुमान लगाना मुश्किल है। और भविष्य में क्रायोस्फीयर से संबंधित आपदाएं ज्यादा नुकसानदायक और घातक होंगी।
शोधकर्ताओं का मानना है कि क्षेत्र में अनियमित वर्षा पैटर्न के साथ क्रायोस्फीयर में बदलाव समाज के लिए दोहरी मार है। हिमाचल प्रदेश में हाल ही में आई बाढ़ और भूस्खलन से इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
रिपोर्ट की एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि समुदायों की जोखिम धारणा और स्थानीय स्तर पर किए गए अनुकूलन उपाय खतरों से होने वाले नुकसान को कम करने में महत्वपूर्ण हैं। अध्ययन से पता चलता है कि 2 डिग्री सेल्सियस का ग्लोबल वार्मिंग स्तर अनुकूलन की कठिन सीमा है।
वेस्टर ने कहा, “ ज्यादातर लोग और समाज जागरूक हैं और इसे अपने अनुसार ढालने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन प्रयास स्थानीय स्तर पर है और जिस गति से बदलाव हो रहे हैं उसके हिसाब से यह बहुत धीमे हैं। इन परिवर्तनों से निपटने के लिए क्षेत्र पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा ही जितनी कि जरूरत है। इसके साथ ही फंड की भी कमी है।”
रिपोर्ट वैश्विक मंचों पर हिमालयी राज्यों के नुकसान और क्षति के मामले को भी मजबूती से रखती है। वैज्ञानिक हिंदू कुश हिमालय पारिस्थितिकी तंत्र के आर्थिक मूल्यांकन की भी आवश्यकता की बात कहते हैं, ताकि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अधिक सटीक आकलन किया जा सके। यह क्षेत्र दुनिया की एक साझा संपत्ति है। रिपोर्ट साझा विरासत और इसके नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा पर क्षेत्रीय सहयोग का आह्वान करती है।
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बैनर तस्वीर: नेपाल में हिमालय के सागरमाथा राष्ट्रीय उद्यान में एक पर्वत। तस्वीर– पीटर प्रोकोच