- शहरीकरण, चमकदार रोशनी का इस्तेमाल, मंदिरों के नवीनीकरण और पेड़ों को काटने की वजह से तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में चमगादड़ों की आबादी में गिरावट आ रही है।
- तिरुनेलवेली, तूतीकोरिन और तेनकासी जिले चमगादड़ प्रजातियों का घर हैं। ये चमगादड़ न सिर्फ कीटों के नियंत्रण और परागण जैसे विभिन्न पारिस्थितिक लाभ देते हैं, बल्कि उनका खासा सामाजिक महत्व भी है।
- इस क्षेत्र में चमगादड़ों के लिए पुराने मंदिरों की दरारें और वीरान पड़े कमरे उनके आश्रय स्थल बने हुए हैं। लेकिन फिलहाल मंदिरो की दरारों को सीमेंट से भरा जा रहा है और कृत्रिम रोशनी लगाई जा रही है। माना जा रहा है कि जिस तरह से पुराने मंदिरों का नवीनीकरण किया जा रहा है, वह चमगादड़ों के रहने या भोजन के लिए अनुकूल नहीं है।
- विशेषज्ञों का मानना है कि चमगादड़ों और जूनोटिक बिमारियों के बारे में फैली गलत धारणाएं मानव-चमगादड़ सहजीवी संबंधों को और नुकसान पहुंचा रही हैं। यह पारिस्थितिकी तंत्र पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है।
जब 2022 में चो धर्मन का उपन्यास ‘वाव्वल देसम’ (चमगादड़ों की दुनिया) प्रकाशित हुआ, तो इसने चमगादड़ों के भयानक चित्रण के लिए तमिल साहित्यिक हलकों में सनसनी फैला दी थी। साहित्य अकादमी विजेता उपन्यासकार धर्मन ने इस उपन्यास को लिखने के पीछे की वजह बताते हुए कहा था, “जहां अन्य प्रजातियां सीधी चलती हैं, चमगादड़ उलटे लटके रहते हैं। जब दुनिया रात भर सोती है, वे घूमते हैं। अधिकांश प्रजातियां हवादार जगहों में रहना पसंद करती हैं, चमगादड़ वीरान पड़ी जगहों औऱ पुरानी इमारतों को चुनते हैं। मैं इस विरोधाभासी स्वभाव को अपने उपन्यास में कैद करना चाहता था। इसलिए, मैंने प्रतीक के रूप में चमगादड़ को चुना।” लेखक दक्षिण भारत के उस इलाके में रहते है जहां चमगादड़ प्राचीन इमारतों, वीरान घरों और मंदिर की दरारों में अपना घर बनाकर रहते हैं।
तिरुनेलवेली, तूतीकोरिन और तेनकासी जिले तमिलनाडु की एकमात्र बारहमासी नदी ‘थमीराबारानी’ के किनारे बसे हुए हैं। ये इलाके कई अनोखी चमगादड़ों की प्रजातियों के घर के रूप में जाने जाते हैं। यहां चमगादड़ों की दो प्रमुख जातियां पाई जाती हैं। एक प्रजाति कीटभक्षी है जो कीड़ों पर निर्भर हैं। वहीं दूसरी प्रजाति फल खाने वाली है। इसके अलावा भी यहां कई प्रजातियों को देखा गया है। इनमें हिप्पोसाइडेरोस स्पियोरिस, रूसेटस लेसचेनॉल्टी, टाफोज़स मेलानोपोगोन, मेगाडर्मा लाइरा, टैडारिडा एजिपियाका, पिपिस्ट्रेलस और राइनोपोमा हार्डविकी प्रमुख हैं। इनमें से हिप्पोसाइडेरोस स्पियोरिस की संख्या सबसे अधिक है। ये चमगादड़ों की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं।
उनके मुख्य आश्रय स्थल पुराने मंदिर और पेड़ हैं।
लेकिन इस क्षेत्र में तेजी से बढ़ते शहरीकरण, चमकदार रोशनी, मंदिरों की मरम्मत, पेड़ों को काटने और कमजोर होते मानव-चमगादड़ सहजीवी संबंध के कारण निशाचर प्रजाति को अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है। कुछ उप-प्रजातियाँ तो लुप्त हो गई हैं।
पलायमकोट्टई के सेंट जॉन्स कॉलेज में जूलॉजी विभाग के प्रमुख चमगादड़ शोधकर्ता परमानंद स्वामीदॉस ने इस जीव के आकार और रूप की जानकारी के बारे में बात करते हुए कहा, “हमारे पास पिछले 25 वर्षों का (चमगादड़ों का) मॉर्फोमेट्रिक डेटा मौजूद है। इनमें किसी तरह का कोई शारीरिक बदलाव नहीं आया है। लेकिन (इस अवधि में) इनकी जनसंख्या में लगभग 30% से 40% की गिरावट आई है। पिपिस्ट्रेलस डॉर्मिरी का उदाहरण आपके सामने है। यह एक शाम का चमगादड़ है, जो शाम को जल्दी अपने निवास स्थान से निकलता है और अगली सुबह देर से लौटता है। लेकिन यह 1997 से इस क्षेत्र से गायब हो गया है, शायद इसलिए कि प्रजाति इन बदलावों के अनुकूल नहीं हो सकी।”
उन्होंने बताया कि यह प्रजाति सिर्फ दीवारों की दरारों में ही रह सकती है, जो पहले इस क्षेत्र के लगभग हर घरों में मिल जाया करती थीं। उन्होंने कहा, “आजकल, ऐसा नहीं है। हमें यह प्रजाति गाँवों में भी नहीं मिली। हमें नहीं पता कि यह अब यहां मौजूद है भी या नहीं।”
चमगादड़ों को प्रभावित करने वाला एक अन्य बड़ा कारण नवीकरणीय ऊर्जा के लिए पवन टरबाइन की स्थापना है। पश्चिमी घाट के तल पर स्थित तमिलनाडु का यह क्षेत्र पवन ऊर्जा के लिए एक जानी-मानी जगह है। यहां खाली पड़ी जमीन पर हजारों टरबाइन लगाए गए हैं। गैर-लाभकारी शोध संस्था अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट (ATREE) के वैज्ञानिक एम. मथिवनन ने कहा, “अक्षय ऊर्जा महत्वपूर्ण है। लेकिन पवन टरबाइन की संख्या के लिए कुछ नियम-कायदे होने चाहिए। जब हमनें स्थानीय लोगों से बात की तो उन्होंने बताया कि टरबाइन के घूमने वाले ब्लेड से अकसर चमगादड़ मारे जाते हैं।”
मंदिरों की मरम्मत और चमगादड़ की संख्या में कमी
इनकी प्रकृति ऐसी है कि ये गुफाओं जैसी जगह में रहना पसंद करते हैं। सदियों से प्राकृतिक गुफाएं गायब हो चुकी हैं तो, इन चमगादड़ों की प्रजातियों ने पुराने मंदिरों को अपना घर बना लिया। लेकिन अब इस क्षेत्र में भी इन चमगादड़ों की संख्या कम होने लगी है। इसकी बड़ी वजह थामिराबरानी नदी के किनारे स्थित पुराने मंदिरों का नवीनीकरण है। शोध अध्ययनों से पता चलता है कि मंदिर की दीवारों पर पेंटिंग करने और संरचनाओं में दरारों को सीमेंट से भर देने से चमगादड़ों- खासकर मिस्र के फ्री टेल्ड बैट और माउस-टेल्ड बैट- को उनके पारंपरिक निवास स्थलों या छोटे आवासों से दूर कर दिया गया है।
एटीआरईई के मथिवनन ने कहा, “चमगादड़ अंधेरा पसंद करते हैं। वे दिन के उजाले को बर्दाश्त नहीं कर सकते। लेकिन लोगों ने मंदिरों के अंदर, उन जगहों पर जहां चमगादड़ रहते हैं, कृत्रिम और चमकदार रोशनी लगा दी है, उन्होंने अनजाने में उन्हें बाहर खदेड़ दिया है।” वह आगे कहते हैं, “ इंसानी खून चूसने वाले नकली पिशाच चमगादड़ (फाल्स वैंपायर बैट) केवल मंदिर की मीनारों या वीरान पड़े कमरों में ही रहते हैं। इन दिनों भले ही मंदिरों में अधिक कमरे हों और वे चमचमाती रोशनी से नहाए हुए हो, लेकिन यहां चमगादड़ों के लिए कोई जगह नहीं बची है।”
मथिवनन की टीम इन तीन जिलों में एक दशक से अधिक समय से चमगादड़ों के व्यवहार का अध्ययन कर रही है। उन्होंने पाया कि मंदिरों की मरम्मत या नवीनीकरण का चमगादड़ों के आवास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। 2022 के अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि “मंदिरों और अन्य कम रोशनी वाले क्षेत्रों में छोटे निकास वाले वीरान अंधेरे कमरे बनाए रखना और मंदिरों के आसपास प्राकृतिक क्षेत्र रखना चमगादड़ संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।”
एक पूर्व अध्ययन भी इस बात को कहता है कि मंदिरों में अंधेरा होने और मानवीय अशांति कम होने से चमगादड़ों को ये जगह आकर्षित करती हैं। वो भोजन की तलाश में यहां आते हैं। तमिलनाडु में मदुरै शहर के बाहरी हिस्सें में पड़ने वाले मुरुगन मंदिर ‘थिरुप्परनकुंड्रम’ और उसके आसपास के इलाके में साइनोप्टेरस स्फिंक्स प्रजाति के फोर्जिंग (खान-पान संबंधी) व्यवहार का अध्ययन किया गया था। इसमें पाया गया कि बड़ी छोटी नाक वाला फ्रूट बैट, जो आमतौर पर शहरी और जंगली इलाकों में पेड़ों पर फल, रस और पत्तियां खाता था, अब मंदिर में नियमित तौर पर आता है, क्योंकि उसे यहां आसानी से खाने के लिए केले मिल जाते हैं।
सी. स्फिंक्स प्रजाति के चमगादड़ रात साढ़े आठ बजे से ही मंदिर परिसर में पहुंचने लगते हैं। अध्ययन में कहा गया है, “मंदिर की लाइटें बंद होने के एक घंटे बाद 10 बजे से 10:30 बजे के बीच चमगादड़ों की सबसे अधिक संख्या देखी गई।” इस अध्ययन में चमगादड़ों द्वारा पके केले खाने की आदतों को नोटिस किया गया था। केले के ये टुकड़े उन्हें या तो दुकानों के बचे हुए प्रसाद से मिलते या मंदिर में बंदरों से बचे हुए खाने से मिलते हैं। “भारत में चमगादड़ों के संरक्षण के लिए मंदिर आशाजनक स्थल साबित हो सकते हैं।”
चमगादड़ों की उड़ान पर भी असर डालती है तेज रोशनी
जब रोशनी बंद हो जाती है यानी पूरी तरह अंधेरा हो जाता है, तो चमगादड़ अपने शिकार के लिए निकलते हैं। लेकिन उस स्थिति में क्या, जब रोशनी रात भर चमकती रहे?
2022 के एक रिसर्च पेपर में पाया गया है कि रात में कृत्रिम रोशनी चमगादड़ जैसी निशाचर प्रजातियों के व्यवहार को प्रभावित करती है। इस रिसर्च में गुफा में रहने वाली रूसेटस लेसचेनॉल्टी प्रजाति और उनके उडने और वापसी आने के समय पर पड़ने वाले असर को ध्यान में रखते हुए दो जगहों पर अध्ययन किया गया था। इनमें से एक जगह अबाधित और प्राकृतिक रूप से रोशनी वाला कुआं था, जो मवेशियों के पीने के पानी के लिए बनाया गया था। दूसरा बसेरा दक्षिणी भारत के एक अर्ध-शहरी जगह में बना एक मंदिर जिसमें कृत्रिम रोशनी लगाई गई थी। अध्ययन में पेड़ पर रहने वाले टेरोपस गिगेंटस (वर्तमान में पी. मेडियस) की पांच कॉलोनियों में रहने वाले उन चमगादड़ों के उड़ान भरने के समय की तुलना की गई, जो कृत्रिम रोशनी की कई तरह की तीव्रता के संपर्क में थे। अध्ययन में कहा गया है कि चूंकि चमगादड़ अपनी नजर और प्रकाश-आधारित संकेतों पर भरोसा करते हैं, इसलिए उनके आवासों पर कृत्रिम रोशनी उनके व्यवहार, गतिविधि और उनके द्वारा दी जाने वाली पारिस्थितिकी तंत्र पर असर डाल सकती है।
अध्ययन में पाया गया कि प्राकृतिक रोशनी में बसेरा बनाने वाले आर. लेसचेनॉल्टी की अपने बसेरे से उड़ने और वापस आने की गतिविधि कृत्रिम रूप से रोशनी वाले बसेरे की तुलना में काफी पहले होती है। अध्ययन कहता है, “अगर कृत्रिम रोशनी में रहने वाले चमगादड़ों की बात करें तो वह प्राकृतिक रोशनी वाले निवास में रहने वाले चमगादड़ो की तुलना में काफी अलग व्यवहार दिखाते हैं। उनके रात में उड़ान भरने का समय प्राकृतिक रूप से रोशनी वाले बसेरों से काफी अलग होता है, जबकि औसत उड़ान का समय इन दोनों तरह के बसेरों के चमगादड़ों के बीच समान था।” अध्ययन बताता है कि उनकी इन बदलती उड़ान गतिविधियों का फल खाने वाले चमगादड़ों के शरीर विज्ञान और पारिस्थितिकी पर संभावित परिणाम हो सकते हैं। इसके लिए और अध्ययन की जरूरत है।
भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान, तिरुवनंतपुरम के चमगादड़ शोधकर्ता और फल खाने वाले चमगादड़ों पर कृत्रिम रोशनी के प्रभाव पर इस अध्ययन के सह-लेखक बहिरथन एम ने कहा कि रात के दौरान कृत्रिम रोशनी का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल इन प्रजातियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
उन्होंने कहा, “चमगादड़ पर कृत्रिम प्रकाश के प्रभाव पर भारत में काफी कम अध्ययन किया गया है। हम इसे समझना शुरू कर रहे हैं। दुनियाभर में कृत्रिम रोशनी को चमगादड़ों पर प्रजाति-विशिष्ट प्रभाव पड़ने के लिए जाना जाता है। तमिलनाडु के फल चमगादड़ों पर मेरा अध्ययन भी इसी तरह की प्रवृत्ति दिखाता है। प्रकाश से कुछ प्रजातियां सकारात्मक रूप से प्रभावित होती हैं और कुछ नकारात्मक रूप से प्रभावित होती हैं। शोधकर्ता ने कहा कि मदुरै के नजदीकी जिले में उन्होंने जिन दो प्रजातियों का अध्ययन किया था, उनमें से फल चमगादड़ों की एक प्रजाति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा, जबकि दूसरी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
पवित्र मंदिर, अपवित्र चमगादड़
हालांकि मंदिर के पुजारी और वहां काम करने वाले लोग अक्सर चमगादड़ों को एक परेशानी पैदा करने वाले जीव के तौर पर देखते हैं, खासकर चमगादड़ों के मल से आने वाली दुर्गंध के कारण।
तिरुनेलवेली के पास थिरुपुदईमरुथुर में लोकप्रिय मंदिर के प्रभारी हरिहरपालन ने कहा, “उन्हें स्थानीय रूप से ‘पूप-चमगादड़’ कहा जाता है क्योंकि वे जगह को गंदा कर देते हैं। हर साल, हम थाईपुसम (एक तमिल त्योहार के अवसर पर) के दौरान मंदिर की रंगाई-पुताई और सफेदी करते हैं।”
उन्होंने कहा कि वे मंदिर में चमगादड़ों को बसने से रोकने के लिए उपाय कर रहे हैं। वह कहते हैं, “हमने अब सुरक्षा जाल बना लिया है। लेकिन फिर भी चमगादड़ किसी न किसी तरह रास्ता निकाल ही लेते हैं। अगर आप कुछ साल पहले मंदिर के पीछे देखते, तो वहां आपको अनगिनत चमगादड़ मिल जाते। लेकिन जब हमने मंदिर में चमकदार रोशनी लगा दी, तो उनकी संख्या कम हो गई।”
कम से कम 500 साल पुराने मंदिर-संरेखित मठ का प्रबंधन करने वाले एक अन्य स्थानीय स्टाफ सदस्य ने कहा कि वे चमगादड़ों को भगाने के लिए कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं। पांच साल से वो ऐसा करते आ रहे हैं। अन्नामलाई ने कहा, “यह जगह चमगादड़ों के लिए काफी आरामदायक है क्योंकि यहां रात में कोई नहीं आता है।” उन्होंन आगे बताया, “चमगादड़ के मल से पूरी दीवारें, खंभे और यहां तक कि कपड़े भी गंदे हो जाते थे। कभी-कभी हम धुआं पैदा करते हैं या कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं। चमगादड़ दो दिन के लिए चले जाते हैं लेकिन फिर लौट आते हैं।”
गलत जानकारी के चलते चमगादड़ों को कभी-कभी इस क्षेत्र में “बुरा प्रतीक” भी माना जाता है। चमगादड़ों द्वारा ज़ूनोटिक बीमारियां फैलाने के बारे में हाल में फैली अफवाहें और गलत धारणाएं मामले को बदतर बना रही हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अफवाहें और गलतफहमियां लंबे समय से चले आ रहे मानव-चमगादड़ संबंधों पर प्रतिकूल और हानिकारक प्रभाव डालते हैं।
लेकिन इसके साथ ही कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां चमगादड़ों के सामाजिक महत्व और पारिस्थितिक लाभों को मान्यता दी जाती है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी घाट में एक पहाड़ी जनजाति, प्रजातियों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए गुप्त रूप से हर साल चमगादड़ उत्सव मनाती है। लेखक धर्मन इस जनजाति की पहचान को उजागर न करते हुए बताते हैं, “यह साल में एक बार एक विशेष रात को होता है। इस क्षेत्र की सभी जनजातियां समतल जमीन पर एक साथ आती हैं। उनके शरीर पर कोई कपड़ा नहीं होता, सिर्फ हाथों में एक काला कपड़ा बंधा होता है। रात भर वे चमगादड़ों की तरह व्यवहार करते हैं। वे पेड़ों पर लटके रहते हैं और चमगादड़ की तरह उछलते हैं,” धर्मन ने कहा कि उन्होंने उस उत्सव में भाग लिया था, लेकिन उन्होंने इस बारे में और अधिक जानकारी नहीं दी।
समुदाय के साथ इस तरह के जुड़ाव के अलावा, ऐतिहासिक रूप से निशाचर प्रजाति ने कृषक समुदाय के साथ भी सहजीवी संबंध बनाए रखा है। चमगादड़ परागण में सहायता करते हैं, अपनी यात्राओं के जरिए अंकुरित बीजों को फैलाते हैं, कीड़ों और मकड़ियों जैसे कीटों को खा जाते हैं और अपने खनिज युक्त मल, जिसे गुआनो कहा जाता है, से मिट्टी को हरा-भरा करते हैं। पिछले अध्ययनों ने किसानों के लिए फसल की पैदावार बढ़ाने और कीट नियंत्रण जैसे पारिस्थितिक लाभों को दिखाया है। फिर भी कृषि प्रधान इलाकों में उनकी संख्या में गिरावट आ रही है। यह चिंता की बात है।
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बैनर तस्वीर: एक चमगादड़ का एक मंदिर में बसेरा। तस्वीर-एस. लोकेश/मोंगाबे