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अन्यत मिलेटः अरुणाचल की थाली में वापस आ रहा पारंपरिक खान-पान से जुड़ा मोटा अनाज

गेपो आली की संस्थापक, डिमम पर्टिन (बीच में) अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग जिले के सिबुक गांव की महिला किसानों के साथ। गेपो आली स्थानीय महिलाओं की मदद से अन्यत जैसे पारंपरिक मोटे अनाज को नया जीवन देने के लिए काम करती हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।

गेपो आली की संस्थापक, डिमम पर्टिन (बीच में) अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग जिले के सिबुक गांव की महिला किसानों के साथ। गेपो आली स्थानीय महिलाओं की मदद से अन्यत जैसे पारंपरिक मोटे अनाज को नया जीवन देने के लिए काम करती हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।

  • अरुणाचल प्रदेश में पारंपरिक रूप से उगाया और खाया जाने वाला अन्यत (एक तरह का मोटा अनाज) स्थानीय समुदाय के खान-पान में फिर से शामिल हो गया है। ऐसा अदि जनजाति की महिला किसानों की कोशिशों से हुआ है।
  • अन्यत पारंपरिक रूप से की जाने वाली झूम खेती का अभिन्न हिस्सा रहा है। इस तरीके से स्थानीय समुदाय यहां खेती करता है। यह तरीका कई फसलों वाली खेती के लिए लाभदायक है।
  • पोषक तत्वों की भरमार होने के बावजूद अन्यत को उन मोटे अनाजों की सूची में शामिल नहीं किया गया है, जिन्हें सरकार राज्य में बढ़ावा देना चाहती है।

माटी पर्टिन अब इस दुनिया में नहीं है। 97 साल की उम्र में उनका निधन हुआ।  जैसे-जैसे पर्टिन की उम्र बढ़ती गईं, उन्हें अन्यत (एक तरह का मोटा अनाज) की खूब याद आती थी। दरअसल, वह इसी अनाज को खाकर बड़ी हुई थी। उनकी पोती डिमम पर्टिन ने कहा, दादी के युवावस्था में यह मोटा अनाज खान-पान का अहम हिस्सा था। तब वह अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग क्षेत्र के डमरो गांव में रहती थीं। अब, पारंपरिक अन्यत की खेती महज मुट्ठी भर किसान ही कर रहे हैं।

माटी पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश के मूल अदि समुदाय से थीं। राज्य में सबसे ज्यादा आबादी वाली जनजातियों में से एक अदि समुदाय भी है। यह समुदाय सियांग, पूर्वी सियांग, ऊपरी सियांग, पश्चिम सियांग, निचली दिबांग घाटी, लोहित और नामसाई जिलों में फैला हुआ है। मोटे अनाज की किस्में जैसे जॉब्स टीयर्स या एडले (अदि में इन्हें अन्यत कहा जाता है) और फॉक्सटेल बाजरा (स्थानीय रूप से अयाक कहा जाता है) राज्य में पारंपरिक रूप से उगाए और खाए जाते रहे हैं।

जब डिमम पर्टिन अपनी दादी के लिए इसकी जोर-शोर से तलाश कर रही थीं, तब उन्हें इसे बचाने की जरूरत महसूस हुई। उद्यमी और विकास अध्ययन से जुड़ा काम करने वाली, पर्टिन ने कृषि पारिस्थितिकी में एक कोर्स भी किया था। उन्होंने अपना खुद का उद्यम गेपो आली शुरू किया। इसका मतलब “आराम का बीज” है। वह मोटे अनाज से बनने वाले खास स्वाद और खोए हुए सांस्कृतिक तरीकों को नया जीवन देने के लिए स्थानीय और मूल किसानों के साथ मिलकर काम करती हैं। पर्टिन ने कहा, “अदि समुदाय के बच्चे नहीं जानते कि अन्यत क्या है, क्योंकि हम इन दिनों इसे बहुत कम उगाते हैं।” वह अन्य पारंपरिक फसलों को भी नया जीवन देने की योजना बना रही है जो इसी तरह लुप्त हो गई हैं।

गेपो आली लगभग एक साल पुराना है। इसके जरिए अन्यत को नया जीवन देने का काम हो रहा है। बाजार में एक किलो अन्यत की कीमत 210 रुपए है। इस काम के पायलट चरण के दौरान, पर्टिन ने लोअर दिबांग, पूर्वी सियांग और ऊपरी सियांग में लगभग 200 परिवारों का अध्ययन किया, जहां 150 परिवारों ने पुरानी यादों के चलते मोटे अनाजों में दिलचस्पी दिखाई। पर्टिन ने बताया, “तब मैंने लगभग 75 किलो अन्यत बेचा।”

अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग जिले के सिबुक गांव में दो महिला किसान ओखली में मोटा अनाज कूट रही हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।
अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग जिले के सिबुक गांव में दो महिला किसान ओखली में मोटा अनाज कूट रही हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।

वैसे भारत दुनिया में मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक है। मोटे अनाज का रकबा 2013-14 में 122.9 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2021-22 में 154.8 लाख हेक्टेयर हो गया है।

संयुक्त राष्ट्र ने साल 2023 को इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट के रूप में मनाने का फैसला लिया। विश्व निकाय ने कहा कि मोटे अनाज में जलवायु परिवर्तन की समस्या से पार पाने की क्षमता है। साथ ही, इस फैसले के पीछे खाने-पीने से जुडी गैर-बराबरी और कमी को खत्म करने के लिए अनाज की क्षमता का हवाला भी दिया गया।

फिलहाल सरकार का पूरा जोर अयाक पर है और इसे मुख्यधारा में शामिल कर लिया गया है। लेकिन अन्यत अब भी अनदेखी का शिकार है। अरुणाचल प्रदेश राज्य सरकार भी मोटे अनाज को मुख्यधारा में शामिल कर रही है, लेकिन अन्यत उन किस्मों में शामिल नहीं है जिन्हें सरकार बढ़ावा देना चाहती है।

पारंपरिक ज्ञान को सहेजने के लिए आगे आई महिलाएं

टाइलेक रुक्बो को जब तक की पुरानी बातें याद हैं, तब से वह खेती कर रही हैं। तैंतीस साल की रुक्बो ने कहा, शायद जब मैं लगभग सात या आठ साल की थीअरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग जिले के सिबुक गांव में नवंबर की एक ठंडी सुबह में, रुक्बो महिला किसानों के एक समूह के साथ एक म्यूसप (लकड़ी और बांस से बना एक पारंपरिक सामुदायिक हॉल) के अंदर बैठी थी। म्यूसप को स्टिल्ट का इस्तेमाल करके जमीन से थोड़ा ऊपर उठाया गया था। सिबुक में लगभग 100 अदि परिवार रहते है। यह गांव हरे-भरे पहाड़ों से घिरा हुआ है। यहां महिलाएं और पुरुष खेती में बराबर योगदान देते हैं और ज्यादातर किसान धान की खेती के लिए झूम और टैरेस फार्मिंग का तरीका अपनाते हैं। महिला किसान भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर इन मोटे अनाजों की खेती जारी रखती हैं। गांव के बुजुर्ग अदि किसान बेम योनपांग के अनुसार, अन्यत को उगाना आसान है और यह जलवायु के अनुकूल है, क्योंकि इसमें कम पानी की जरूरत होती है।

रुक्बो काले तिल, मोटे अनाज और मक्का की कुछ किस्में उगाती हैं। अपने किसान पति और छह बच्चों के साथ रहने वाली रुक्बो ने कहा,हम इन्हें अपने लिए, अपने खाने-पीने के लिए उगाते हैं। उन्हें बेचने के लिए यहां कोई जगह नहीं है।” 

अन्यत के भविष्य को लेकर महिलाओं में शंका है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सरकार लगातार इसकी उपेक्षा कर रही है। उन्हें डर है कि अगर राज्य में फसल को बाजार में लाने और लोकप्रिय बनाने के प्रयास नहीं किए गए तो यह अपनी प्रासंगिकता खो सकती है।

अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग जिले के सिबुक गांव में अन्यत का एक खेत। राज्य सरकार मोटे अनाज को मुख्यधारा में शामिल कर रही है, पारंपरिक अन्यत अब भी उपेक्षित है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।
अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग जिले के सिबुक गांव में अन्यत का एक खेत। राज्य सरकार मोटे अनाज को मुख्यधारा में शामिल कर रही है, पारंपरिक अन्यत अब भी उपेक्षित है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।

रुक्बो और अन्य महिला किसान मोटा अनाज उगाने के लिए जिन तकनीकों का इस्तेमाल करती हैं, उनमें से एक है दो किस्मों – अन्यत और अयाक – को एक साथ लगाना। उन्होंने कहा, हम साथ में मक्का भी उगाते हैं।अन्यत के बीज अन्य बीजों की तुलना में बड़े होते हैं और इन्हें लकड़ी की मदद से खेत में गड्ढा खोदकर लगाया जाता है। पहले वे अयाक बोते हैं, फिर अन्यत को बोते हैं। मक्का की बुआई तीसरे और आखिरी चरण में की जाती है। “हम यह पक्का करते हैं कि हम कम मक्का लगाएं और इस प्रक्रिया में, मक्का सबसे ज्यादा उगता है।” रुक्बो के अनुसार, इस तकनीक में कम जगह लगती है और उन्हें खर-पतवार कम करने में मदद मिलती है।

यहां के कई किसान मोटा अनाज उगाने के लिए भी झूम खेती पर निर्भर हैं। झूम पारंपरिक स्लैश एंड बर्न कृषि तकनीक है जो पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों में स्थानीय समुदायों के बीच प्रचलित है। इसमें भूमि के एक टुकड़े को जलाकर पेड़ों और अन्य वनस्पतियों को साफ़ करना और फिर तय सालों तक उस पर खेती करना शामिल है।

भूसे के साथ अन्यत। भूसी निकालने के लिए अन्यत को हाथ से कूटा जाता है। अक्सर स्थानीय लोग इस भूसे को सूअरों को खिलाते हैं, जिन्हें वे पालते हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।
भूसे के साथ अन्यत। भूसी निकालने के लिए अन्यत को हाथ से कूटा जाता है। अक्सर स्थानीय लोग इस भूसे को सूअरों को खिलाते हैं, जिन्हें वे पालते हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।

पूर्वी हिमालय में स्थानीय समुदायों के बीच मोटे अनाज और खाद्य संप्रभुता पर काम करने वाली पोस्टडॉक्टरल फेलो और शोधकर्ता मीनल तुला ने कहा कि झूम एक जीविका-आधारित खेती है। पूर्वोत्तर में मोटे अनाज झूम खेतों में उगाई जाने वाली प्राथमिक फसल नहीं है। उन्होंने कहा,वे ऐसा इस तर्क का पालन करते हुए करते हैं कि कौन-सी फसलें एक साथ उगाना सबसे अच्छा है और यहां मोटा अनाज अन्य फसलों के साथ अच्छे से उपजता है। झूम की सुंदरता स्थानीय किसानों की खाद्य सुरक्षा और खाद्य संप्रभुता में भरोसा पैदा करती है।

स्थानीय लोगों की खाद्य प्रणालियों और झूम खेती के जानकार ध्रुपद चौधरी के अनुसार, झूम या झूम खेती पर वनों की कटाई को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया है, लेकिन इसकी अपनी ताकत है और वह है विविधता।” यह एक ऐसा तरीका है, जिसके तहत कुछ खास क्षेत्रों में एक परिदृश्य में लगभग 60 अलग-अलग फसलों को रिकॉर्ड किया गया है। उन्होंने कहा, ऐसी विविधता देने वाला कोई दूसरा तरीका नहीं है। आपके पास अंतर-फसल विविधता है और इस प्रणाली में मोटा अनाज बहुत अच्छी तरह से बढ़ता है। 

मोटे अनाज की इन किस्मों को आमतौर पर जून में बोया जाता है और दिसंबर के आखिर में काटा जाता है। मोटे अनाज की इन किस्मों का इस्तेमाल अक्सर समुदाय द्वारा अपोंग बनाने के लिए किया जाता है। अपोंग एक फर्मेंट किया गया मादक पेय पदार्थ है। इन्हें दलिया के रूप में और चावल के बदले उबली हुई सब्जियों और दाल के साथ भी खाया जाता है। इसकी भूसी सूअरों को खिलाई जाती है। रुक्बो ने कहा कि कुछ किसान मुख्य रूप से सूअरों को खिलाने के लिए अन्यत की खेती करते हैं।

अन्यत को बेहतर मार्केटिंग, सरकार से मदद की जरूरत

मोंगाबे इंडिया ने जिन महिला किसानों से बात की, उन्हें मार्केटिंग से जुड़ी रणनीतियों के बारे में कुछ भी पता नहीं था। उन्हें सरकार से मदद की उम्मीद थीं। योनपांग ने कहा, ज्यादातर किसान इसे नहीं उगाते हैं। मेरे जैसे कुछ किसान इसे उगाते हैं, क्योंकि यह हमारे पुरखों के खान-पान से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा, ”मेरे माता-पिता इसकी खेती करते थे, इसलिए मैं उस परंपरा को जीवित रखने की कोशिश कर रही हूं।उन्होंने कहा कि किसान आखिरकार इसकी खेती करना बंद कर सकते हैं, क्योंकि हर कोई इससे कुछ व्यावसायिक फायदा चाहता है। उन्होंने कहा, “अगर हमें अच्छी कीमत मिलती है और हम इसे बेच पाते हैं, तो शायद हम इसे उगाना जारी रख सकते हैं।”

आम तौर पर अन्यत की भूसी सूअरों को खिलाई जाती है। अन्यत का सेवन दलिया के रूप में या चावल के बदले किया जाता है। साथ ही इससे पारंपरिक शराब अपोंग भी बनाई जाती है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।
आम तौर पर अन्यत की भूसी सूअरों को खिलाई जाती है। अन्यत का सेवन दलिया के रूप में या चावल के बदले किया जाता है। साथ ही इससे पारंपरिक शराब अपोंग भी बनाई जाती है। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।

हालांकि, मोटे अनाज को बदलती जलवायु के हिसाब से बेहतर फसल माना जाता है जिसे उगाना आसान है। लेकिन अन्यत की कटाई करना चुनौती है, क्योंकि यह लगभग सात से आठ फीट लंबा होता है। पर्टिन ने कहा,इस मोटे अनाज की बाहरी परत बहुत सख्त होती है और किसानों को इसे खाने लायक बनाने के लिए अपने हाथों का इस्तेमाल करना पड़ता है। अगर बाहरी परत के साथ अन्यत लगभग 100 किलो है, तो भूसी हटा दिए जाने पर आपको 50-40 किलो ही मिलेगा।” 

ओइंग बोरांग दमबुक के उन कुछ किसानों में से एक हैं जो लंबे समय से अन्यत की खेती कर रहे हैं। वह छह साल की उम्र में अपने पिता के साथ खेत में जाने लगीं और उनसे सीढ़ियां बनाना सीखीं। डंबुक में अपने बेटे के साथ रहने वाली बोरांग ने कहा, “इस साल मैंने थोड़ी सी अन्यत की खेती की, यह अच्छी तरह से बढ़ रही है।” बोरांग ने कहा कि पहाड़ियों में लोग घाटी और डंबुक जैसे नदी के किनारे वाले इलाकों की तुलना में अन्यत की ज्यादा खेती करते हैं। हालांकि, दूसरे मोटे अनाज की तुलना में अन्यत में कम मेहनत लगती है, लेकिन यह लाभदायक नहीं है। बोरांग ने कहा कि स्वाद के चलते उन्हें अन्यत बहुत पसंद है, लेकिन इस बात पर अफसोस है कि युवा पीढ़ी अन्यत की जगह चावल को पसंद करती है।


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चौधरी के अनुसार, जैसे-जैसे चावल और गेहूं व्यापक रूप से लोकप्रिय होते गए, लोगों की आहार संबंधी आदतें भी बदल गईं और पारंपरिक व्यंजनों के साथ मोटे अनाज भी गुमनामी की ओर बढ़ गए। उन्होंने कहा कि लोगों को धीरे-धीरे पोषण संबंधी असुरक्षा से निपटने के लिए बाजरा जैसे मोटे अनाज की क्षमता का अहसास हो रहा है।

गेपो आली की कोशिशों से इस साल डंबुक-बोमजिर क्षेत्र में लगभग 50 महिला किसानों ने अन्यत उगाया है। पर्टिन ने कहा, अन्यत भारत का देसी मोटा अनाज है।  जबकि चावल के दूसरे विकल्प क्विनोआ के साथ ऐसा नहीं हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर और आहार फाइबर के साथ, यह पकाने और स्वाद के मामले में चावल जैसा ही है। इसमें कम जीआई इंडेक्स भी है। इससे यह मधुमेह से पीड़ित लोगों के लिए एक अच्छा विकल्प बन जाता है। उन्होंने कहा कि अगर अन्यत को खास तौर पर मधुमेह रोगियों और स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोगों के लिए चावल के विकल्प के रूप में बेचा जाता है, तो इससे अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे नया जीवन मिल सकता है। “चावल का विकल्प ब्राउन चावल या क्विनोआ है, लेकिन अगर आपके पास उन दोनों से ज्यादा पौष्टिक कुछ है, तो ऐसा क्यों नहीं किया जाना चाहिए?”

 

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बैनर तस्वीर: गेपो आली की संस्थापक, डिमम पर्टिन (बीच में) अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सियांग जिले के सिबुक गांव की महिला किसानों के साथ। गेपो आली स्थानीय महिलाओं की मदद से अन्यत जैसे पारंपरिक मोटे अनाज को नया जीवन देने के लिए काम करती हैं। तस्वीर-संस्कृता भारद्वाज/मोंगाबे।

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