Site icon Mongabay हिन्दी

कच्छ के औषधीय पौधे ‘गुग्गल’ की कहानी, विलुप्ति के खतरे से आया बाहर

अपने खेत में कॉमिफोरा वाइटी (गुग्गल) से लगाई गई बाड़ के पास खड़े किसान महिपतसिंह सिंधल। तस्वीर- अजरा परवीन रहमान 

अपने खेत में कॉमिफोरा वाइटी (गुग्गल) से लगाई गई बाड़ के पास खड़े किसान महिपतसिंह सिंधल। तस्वीर- अजरा परवीन रहमान 

  • गुग्गल (कॉमिफोरा वाइटी) गुजरात के कच्छ जिले का एक स्थानीय पौधा है, जिसका औषधीय महत्व काफी ज्यादा है। हालांकि, जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल के चलते ये प्रजाति खतरे में आ गई और इसे IUCN ने गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजाति की सूची में डाल दिया।
  • गुग्गल को बचाने के लिए शोधकर्ताओं और सरकार द्वारा संरक्षण के प्रयास पूरे जोरों पर चले और स्थानीय किसानों ने आर्थिक लाभ पाने के साथ-साथ सामुदायिक जागरूकता और इसके संरक्षण में भागीदार बनते हुए गुग्गल उगाना शुरू कर दिया।
  • इसी परिवार की एक और प्रजाति मिथो गुग्गल (कॉमिफोरा स्टॉक्सियाना) भी लुप्तप्राय है और इसका काफी ज्यादा औषधीय महत्व है। फिलहाल यह प्रजाति भी इसी तरह के संरक्षण के इंतजार में है।

“यह बिल्कुल एक इंसान की तरह है। जिस तरह एक व्यक्ति का खून बह जाने के बाद वह जिंदा नहीं रह पाता, उसी तरह गुग्गल भी अपनी राल खो देने के बाद जीवित नहीं रह पाता है। इसे इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने गंभीर रूप से लुप्तप्राय करार दिया है।” गुजरात के कच्छ जिले के किसान महिपतसिंह सोढ़ा ने स्थानीय पौधे की प्रजाति गुग्गल की खासियत बताते हुए कहा। 

अपने औषधीय महत्व के कारण यह पौधा बहुत लोकप्रिय है। गुग्गल की इसी खासियत के चलते उसका जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल हुआ और इस तरह से इस पौधे की प्रजाति धीरे-धीरे लुप्त हो गई। हालांकि, इसके संरक्षण के काफी प्रयास किए गए और इसका नतीजा ये निकला कि अब किसान कॉमिफोरा वाइटी (गुग्गल) को खूब उगा रहे हैं और धीरे-धीरे इनकी आबादी में वृद्धि हो रही है। अब शोधकर्ता इस परिवार की एक अन्य प्रजाति ‘कॉमिफोरा स्टॉकियाना’ या ‘मिथो गुग्गल’ के लिए भी इसी तरह की कहानी दोहराने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रजाति की राल को गुग्गल से भी अधिक शक्तिशाली माना जाता है।

कच्छ में एक खेत की मेढ़ पर उगाए गए कॉमिफोरा वाइटी। तस्वीर- अजरा परवीन रहमान 
कच्छ में एक खेत की मेढ़ पर उगाए गए कॉमिफोरा वाइटी। तस्वीर- अजरा परवीन रहमान

औषधीय गुणों का भंडार

कॉमिफोरा वाइटी और इसी प्रजाति के अन्य पौधों के तने से निकाले गए ओलेओ-गम राल का इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवा बनाने के लिए किया जाता है। इस दवा की हर्बल इंडस्ट्री में काफी मांग है। कॉमिफोरा वाइटी पर किए एक शोध अध्ययन में कहा गया है कि बीमारियों के इलाज में इस पौधे का इस्तेमाल आयुर्वेद में खासे मायने रखता है।

एंटीसेप्टिक और सूजन-रोधी के अलावा रक्त कोलेस्ट्रॉल को कम करने, हड्डी के फ्रैक्चर, गठिया, त्वचा के रोग, यूरिनरी इन्फैक्शन, यहां तक कि पार्किंसंस जैसी बीमारियों के इलाज तक में गुग्गल का कई तरीके से इस्तेमाल किया जाता है। भारत 42 देशों में कॉमिफोरा वाइटी की राल से बने उत्पादों का निर्यात करता था। इसकी मांग अभी भी बनी हुई है। लेकिन इस पौधे की घटती आबादी (आईयूसीएन की लाल सूची का आकलन) को देखते हुए, अब इसके निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया है 

कच्छ के वंदई गांव में रहने वाले किसान महोबतसिंह सिंधल कहते हैं, उन्हें याद है कि लगभग छह दशक पहले गुग्गल के ओलियो-राल का उपयोग न सिर्फ औषधि के तौर पर किया जाता था, बल्कि इसका इस्तेमाल पत्थरों को एक साथ चिपकाने के लिए “सीमेंट” के तौर पर भी किया जाता था, ताकि मजबूत दीवारें खड़ी की जा सकें। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “उस समय जंगल में गुग्गल बहुतायत में मौजूद था और इसके तनों से खूब राल निकाली जाती था।” वह आगे कहते हैं, “1960 के दशक में यह ओलेओ-रेज़िन 2.5 रुपये किलो के हिसाब से बिकता था। बाहरी लोग इसे खरीदने के लिए उनके गांव आते थे। समय के साथ, कीमत बढ़कर 2000 रुपये प्रति किलो से अधिक हो गई।” अपने पिता के कहने पर सिंधल ने ग्रामीणों को अपने क्षेत्र में पौधों का दोहन बंद करने के लिए उन्हें समझाने की जिम्मेदारी ली हुई है।

खात्मे के कगार पर खड़े पौधे को उबारने का प्रयास

कॉमिफोरा वाइटी की जंगली आबादी में लगातार गिरावट आती रही और 2015 में, आईयूसीएन ने इसे गंभीर रूप से लुप्तप्राय की लाल सूची में डाल दिया। आईयूसीएन द्वारा जारी की जाने वाली लाल सूची में कहा गया , “पिछले 84 सालों से (तीन पीढ़ी तक) इनके आवास की हानि और इसकी आबादी में लगातार कमी आ रही है। अनियमित कटाई और ओलेओ गम राल के दोहन के चलते इसकी जंगली आबादी में 80 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है।” 

इससे संरक्षणवादी चिंतित हो गए। गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ डेजर्ट इकोलॉजी (GUIDE) के निदेशक विजय कुमार ने कहा कि पौधे की आबादी में भारी गिरावट के बाद सरकार ने संरक्षण के प्रयास शुरू किए। कुमार ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “2013-2014 में हमने अपनी नर्सरी में गुग्गल उगाना शुरू किया और 2015 और 2017 के बीच हमने कच्छ के रेलाडी में स्टेट मेडिसिनल बोर्ड गार्डन में इसके पौधे लगाना शुरू किया।”

कॉमिफोरा वाइटी पौधे। तस्वीर- अजरा परवीन रहमान 
कॉमिफोरा वाइटी पौधे। तस्वीर- अजरा परवीन रहमान

कच्छ के उप वन संरक्षक (डीसीएफ) युवराजसिंह जाला ने बताया कि नेशनल मेडिसिनल प्लांट्स बोर्ड की एक परियोजना के तहत वन प्रभाग ने 2018 में गुग्गल वृक्षारोपण अभियान शुरू किया था। उन्होंने कहा, “2018-2019 में हमने 250 हेक्टेयर में कॉमिफोरा वाइटी लगाया था। फिर 2019-2020 में 1,000 हेक्टेयर में और 2022-2023 में 300 हेक्टेयर में इस पौधे को उगाया गया।” वह आगे कहते हैं, “2023-2024 में भी हम 300 हेक्टेयर में इस प्रजाति के पौधे लगाएंगे।”

गुजरात मेडिसिनल प्लांट्स बोर्ड की एक परियोजना के तहत 2020-2021 में 178 लोगों के बीच कॉमिफोरा वाइटी के दो लाख पौधे भी वितरित किए गए। इनमें से ज्यादातर किसान थे। इस तरह से समुदाय को उनके मूल पौधे के संरक्षण प्रयासों में शामिल किया गया। किसानों को इस पौधों की प्रजाति के संरक्षण के महत्व के बारे में बताया गया और जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करने के खतरों के प्रति उन्हें आगाह किया गया। इसके अलावा उन्हें इस बात के प्रति भी जागरूक किया गया कि यह औषधीय पौधा किस तरह से उनकी आर्थिक स्थिति को बेहतर कर सकता है। 


और पढ़ेंः [वीडियो] गुजरातः कच्छ में पवन चक्की विस्तार से मुश्किल में दुर्लभ कांटेदार जंगल


महिपतसिंह अब तक कॉमिफोरा वाइटी के तीन लाख पौधे उगा चुके हैं। उन्होंने कहा, “आप अगर इन पौधों को बंजर जमीन में भी लगा देंगे, तो भी यह फलेगा-फूलेगा क्योंकि यह यहीं का मूल निवासी है।” वह आगे बताते हैं, “ लेकिन इसकी राल निकालने से पहले आपको कम से कम सात-आठ साल इंतजार करना होगा। इस लंबे इंतजार की वजह से कुछ किसान इसे अपनी जमीन पर उगाने में हिचकिचाने लगें हैं। आप चार साल बाद आम की फसल ले सकते हैं, लेकिन इस मामले में इसमें लगने वाला समय दोगुना है। लेकिन इतने साल इंतजार करने के बाद इससे निकाली जाने वाली राल की मात्रा 250-300 ग्राम से अधिक नहीं होगी। साथ ही, राल निकालने के बाद पौधा मर जाएगा।”

उन्होंने कहा, “इसलिए, मैं हर साल गुग्गल के नए पौधे उगाता हूं। इस तरह, मैं पौधों के परिपक्व होने के बाद हर साल फसल ले सकूंगा।” 

महोबतसिंह ने भी अपने 120 एकड़ खेत के बाहरी हिस्सें में कॉमिफोरा वाइटी उगाया हुआ है। क्योंकि यह एक झाड़ी है, इसलिए यह एक अच्छी बाड़ बनाती है। वह कहते हैं, “मैंने गुग्गल के बीज बेचे हैं, लेकिन उनका राल नहीं निकाला है, न ही मैं अब ऐसा करना चाहता हूं। मेरा मकसद हमेशा पौधे का संरक्षण करना रहा है। मानसून के दौरान पक्षी फल खाते हैं और बीज फैलाने में मदद करते हैं। गुग्गल के बीज 4,000 प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकते हैं।”

कुमार ने कहा कि उन्होंने मेडिसिनल प्लांट बोर्ड गार्डन में कॉमिफोरा वाइटी के 70,000 पौधे और कॉमिफोरा  स्टॉकियाना के 2,500 पौधे लगाए हैं। कॉमिफोरा स्टॉकियाना भी आईयूसीएन द्वारा लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध हैं। 

इसी परिवार की एक और प्रजाति ऐसे ही संरक्षण के इंतजार में 

शोधकर्ता रोहित पटेल को 2008 में कच्छ के जारा-जुमारा पहाड़ियों में कॉमिफोरा स्टॉक्सियाना या मिथो गुग्गल के सिर्फ तीन पौधे ही मिले थे। पटेल ने कहा, “उस समय भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण को भी इस क्षेत्र में इसके पाए जाने की जानकारी नहीं थी” उनके मुताबिक, हालाकि कॉमिफोरा वाइटी की आबादी बढ़ रही है, लेकिन समान परिणामों के लिए इस फैमली के अन्य पौधों पर भी बराबर ध्यान दिया जाना चाहिए। पटेल ने कहा, “जब मैंने पुराने सन्दर्भ देखे तो मुझे पता चला कि कॉमिफोरा स्टॉक्सियाना इस क्षेत्र में पाया जाता है। उसके बाद, मैंने अपनी पीएचडी के लिए इस पौधे की प्रजाति की खोज की और मानसून में क्षेत्र को स्कैन किया, क्योंकि इस समय कॉमिफोरा स्टॉकियाना और कॉमिफोरा वाइटी की पत्तियों को स्पष्ट रूप से और अलग-अलग देखा जा सकता है। मुझे लखपत में एक पारंपरिक चिकित्सक भी मिला जिसके पास इस पौधे की प्रजाति थी।”

कॉमिफोरा स्टॉकियाना भारत में सिर्फ गुजरात के कच्छ क्षेत्र में पाया जाता है और कॉमिफोरा वाइटी की तरह इसके ओलियो गम राल का भी काफी ज्यादा औषधीय महत्व है। पारंपरिक चिकित्सकों का कहना है कि ‘मिठो गुग्गल’ के गुणों के कारण पहले इसका देश के अन्य हिस्सों में व्यापार किया जाता था, लेकिन जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल के कारण इसके विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगा।

2014-2015 में पटेल ने कॉमिफोरा स्टॉकियाना के संरक्षण प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए गुजरात जैव विविधता बोर्ड से संपर्क किया और लगभग 5,000 पौधे उगाने में मदद की।

लंबा रास्ता तय करना है

कुमार ने कहा, इन पौधों की प्रजातियों के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए, कर्नाटक के ट्रांस-डिसिप्लिनरी हेल्थ साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी (टीडीयू) यूनिवर्सिटी ने एक टैपिंग तकनीक विकसित करने के लिए GUIDE के साथ मिलकर एक प्रयोग किया, ताकि राल निकाले जाने के बाद पौधे नष्ट न हों। उन्होंने कहा, “हमें इस प्रयोग में सफलता मिली है। पौधा साल में दो बार राल निकाले जाने के बाद भी जीवित रह सकते हैं – एक बार गर्मियों में और एक बार सर्दियों में। हालांकि, कुछ भी कहने से पहले हमें कुछ और समय की जरूरत होगी (शोध करने के लिए)।”

गुग्गल का फल। तस्वीर- दिनेश वाल्के/विकिमीडिया कॉमन्स
गुग्गल का फल। तस्वीर– दिनेश वाल्के/विकिमीडिया कॉमन्स

महिपतसिंह किसान बनने से पहले राज्य वन विभाग में कार्यरत थे। फिलहाल वह रिटायर हो चुके हैं। उन्होंने कहा, “अगर 10 साल के परिपक्व पौधे से सीमित मात्रा में यानी लगभग 200-300 ग्राम राल निकाली जाए, तो यह शायद दो-तीन साल तक जीवित बना रहेगा। वह आगे कहते हैं, “यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं और अपने पौधों के परिपक्व होने पर इसे जरूर आजमाऊंगा।”

 

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीर: अपने खेत में कॉमिफोरा वाइटी (गुग्गल) से लगाई गई बाड़ के पास खड़े किसान महिपतसिंह सिंधल। तस्वीर- अजरा परवीन रहमान 

Exit mobile version