Site icon Mongabay हिन्दी

नदी जोड़ो: बढ़ सकता है विदेशी आक्रामक मछलियों का फैलाव, जैव-विविधता पर खतरा

गम्बूसिया मछली की बड़ी प्रजाति है, जिसमें 40 से ज्यादा प्रजातियां हैं और यह मुख्य रूप से मीठे पानी में पाई जाती है। इसे मॉस्किटोफिश के नाम से भी जाना जाता है। तस्वीर - एम. नोबिनराजा।

गम्बूसिया मछली की बड़ी प्रजाति है, जिसमें 40 से ज्यादा प्रजातियां हैं और यह मुख्य रूप से मीठे पानी में पाई जाती है। इसे मॉस्किटोफिश के नाम से भी जाना जाता है। तस्वीर - एम. नोबिनराजा।

  • भारत में कुल क्षेत्रफल का लगभग एक-तिहाई हिस्सा आक्रामक विदेशी मछलियों के लिए उपयुक्त है। इससे जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट सहित उनके देशव्यापी फैलाव में मदद मिलती है।
  • ATREE (एटीआरईई) के एक नए अध्ययन से पता चलता है कि आक्रामक मछली की 12 प्रजातियों का फैलाव व्यापक हो सकता है। ये संभावना चुनिंदा पर्यावरणीय वेरिएबल और प्रजाति वितरण मॉडल के साथ प्रजातियों की मौजूदगी के रिकॉर्ड का इस्तेमाल करते हुए जताई गई है।
  • दुनिया भर में आक्रामक प्रजातियों से मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र और उन पर निर्भर लोगों की आजीविका पर असर के बारे में चिंता जताई जा रही है। इन सबके बीच वैज्ञानिक सावधानीपूर्वक मूल्यांकन और नीतियों में बदलाव पर जोर दे रहे हैं।

एक नए रिसर्च से पता चलता है कि भारत की महत्वाकांक्षी नदी जोड़ो (आईएलआर) परियोजना उन जलाशयों में आक्रामक विदेशी मछलियों का फैलाव बढ़ा सकती है, जो लुप्तप्राय मछली प्रजातियों का घर हैं। इससे पारिस्थितिकी, आर्थिक और आजीविका के लिए खतरा पैदा हो सकता है। आईएलआर में नहरों, जलाशयों और चैनलों के एक देशव्यापी नेटवर्क बनाने का खाका खींचा गया है। इसमें 30 लिंक के जरिए कुछ प्रमुख हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को जोड़ने की कल्पना की गई है। ऐसा पानी की कमी और बाढ़ का प्रबंधन करने के लिए किया जाएगा।

द एनवायर्नमेंटल मॉनिटरिंग एंड असेसमेंट में छपे नए अध्ययन में खतरे वाली जगहों में पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत और सुंदरबन डेल्टा के जैव विविधता हॉटस्पॉट शामिल हैं।

एसएम सहगल फाउंडेशन सेंटर फॉर बायोडायवर्सिटी एंड कंजर्वेशन के एम नोबिनराजा, बेंगलुरु स्थित अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) और उनके साथियों ने कहा, “भारत की प्रस्तावित नदी जोड़ो परियोजनाएं… समरूपीकरण का वजह बन सकती हैं, जिससे हमारे ताजे पानी में रहने वाले स्थानीय जीवों को खतरा हो सकता है।” 

नोबिनराजा ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “मुख्य रूप से भोजन, पालतू जीवों के कारोबार और जैव नियंत्रण के लिए लाई गई इन प्रजातियों का जहां भी फैलाव होता है, वहां ये कहर बरपाती हैं”

साल 2018 में असम में देखी गई अमेजन सेलफिन कैटफिश । तस्वीर- सोफिउर आर खान/भारत जैव विविधता पोर्टल।
साल 2018 में असम में देखी गई अमेजन सेलफिन कैटफिश । तस्वीर– सोफिउर आर खान/भारत जैव विविधता पोर्टल।

जैव-विविधता को खतरा

आक्रामक प्रजातियां भोजन के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ाकर और जगह घेरकर जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करती हैं। इससे जैविक वातावरण बदलता है, आवास घटता है और प्रदूषण बढ़ता है। ये वजहें अक्सर देशी प्रजातियों की आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। विदेशी मछलियां आक्रामक क्षेत्रीय व्यवहार प्रदर्शित कर सकती है। इससे देशी मछलियों की संख्या में गिरावट आ सकती है और बदले में मछली पकड़ने की आजीविका पर असर पड़ सकता है। दुनिया भर में आवासों का खत्म होना, बढ़ती जलीय खेती और सजावटी प्रजातियों की शुरुआत मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र को बदल रही है।

शोधकर्ता और अध्ययन के सह-लेखक नोबिनराजा, एनए अरविंद और जी रविकांत ने जैविक आक्रमण के रुझानों की पहचान, मानचित्रण और आकलन करने के लिए चुनिंदा पर्यावरणीय वेरिएबल के साथ प्रजातियों के होने के रिकॉर्ड का इस्तेमाल किया और प्रजातियों के वितरण मॉडल की मदद ली।

एटीआरईई के सीनियर फेलो रविकांत ने कहा,हमारे अध्ययन में देखा गया कि किस तरह ये विदेशी प्रजातियां नए क्षेत्रों पर आक्रमण कर रही हैं और वे आने वाले समय में नदियों और झीलों में उनका फैलाव किस तरह हो सकता है। हमने भारत में नदियों को जोड़ने की योजनाओं का पता लगाया और पाया कि इससे मामला और बिगड़ सकता है” 

अध्ययन में पाया गया कि भारत में कुल क्षेत्रफल का लगभग एक-तिहाई (31%) आक्रामक विदेशी मछलियों के लिए उपयुक्त आवास उपलब्ध कराता है। मध्य और दक्षिणी भारत में फैली पेन्नार, कावेरी, गोदावरी, कृष्णा और महानदी की प्रमुख नदी घाटियां आक्रमण के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील पाई गईं।

आ चुकी हैं विदेशी प्रजातियां!

लेखकों ने सेंटर फॉर बायोडायवर्सिटी पॉलिसी एंड लॉ (सीईबीपीओएल) और भारत के राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) की ओर से पहचानी गई 12 विदेशी मछलियों का मौजूदा वितरण का मॉडल तैयार किया है। वे हैं साइप्रिनस कार्पियो (कॉमन कार्प), क्लारियास गैरीपिनस (अफ्रीकी कैटफ़िश), गम्बूसिया अफ़निस (पश्चिमी मॉस्किटोफ़िश), गम्बूसिया होलब्रूकी (पूर्वी मॉस्किटोफ़िश), हाइपोफथाल्मिचथिस नोबिलिस (बिगहेड कार्प), ओरियोक्रोमिस मोसाम्बिकस (मोज़ाम्बिक तिलापिया), ओरियोक्रोमिस निलोटिकस (नील तिलापिया) , पोइसीलिया रेटिकुलाटा (गप्पी) और टेरीगोप्लिचथिस (सेलफिन कैटफ़िश) की चार प्रजातियाँ – पर्डालिस, मल्टीरेडियाटस, डिसजंक्टिवस और अनिसिट्सी।

मूल रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के गैम्बूसिया और दक्षिण अमेरिका के पोइसीलिया का मच्छर नियंत्रण में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता है। टेरीगोप्लिचथिस (Pterygoplichthys) लोकप्रिय सजावटी मछली हैं। बाकी अलग-अलग पूर्वी यूरोपीय, अफ्रीकी और एशियाई देशों से हैं और भारत में जलीय कृषि फार्म में इनकी खेती होती हैं।

अध्ययन में गैंबूसिया सबसे ज़्यादा क्षेत्रफल में पाया गया है। यह टेरीगोप्लिचथिस की तुलना में दस गुना ज्यादा क्षेत्र में है। हालांकि, बदलते मौसम में टेरीगोप्लिचथिस में सीमा विस्तार की सबसे ज्यादा संभावना है। सीमा विस्तार यह दिखाता है कि एक प्रजाति नए भौगोलिक क्षेत्रों में किस तरह फैलती है।

अध्ययन से पता चला है कि मूल रूप से चीन का हाइपोफथाल्मिचथिस नोबिलिस का नर्मदा, माही, महानदी, कालादान, इरावदी, गोदावरी, गंगा और दामोदर नदी घाटियों में उपयुक्त निवास स्थान है।

नोबिनराजा और उनके साथियों ने चेतावनी दी है कि गंगा और ब्रह्मपुत्र के सुंदरबन डेल्टा तक जाने वाला मानस-संकोश-तिस्ता-गंगा लिंक भारत के सबसे महत्वपूर्ण जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक हो सकता है जिस पर हजारों मछुआरों की आजीविका टिकी हुई है। यह क्षेत्र जैविक आक्रमण के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील है।

भारत की नदियाँ और प्रस्तावित नदी जोड़ मानचित्र आक्रामक विदेशी मछलियों के संभावित वर्तमान वितरण पर आधारित हैं। स्रोत- Nobinraja, M., Aravind, N.A. & Ravikanth, G. Opening the floodgates for invasion—modelling the distribution dynamics of invasive alien fishes in India. Environ Monit Assess 195, 1411 (2023). https://doi.org/10.1007/s10661-023-12012-z
भारत की नदियाँ और प्रस्तावित नदी जोड़ मानचित्र आक्रामक विदेशी मछलियों के संभावित वर्तमान वितरण पर आधारित हैं। स्रोत- Nobinraja, M., Aravind, N.A. & Ravikanth, G. Opening the floodgates for invasion—modelling the distribution dynamics of invasive alien fishes in India. Environ Monit Assess 195, 1411 (2023). https://doi.org/10.1007/s10661-023-12012-z

नदी जोड़ो के जरिए फैलाव

दक्षिणी भारत से जुड़ने वाला सुवर्णरेखा-महानदी लिंक संकटग्रस्त और स्थानीय प्रजातियों को विदेशी प्रजातियों के संपर्क में ला सकता है। अध्ययन के अनुसार कृष्णा और कावेरी (कावेरी) बेसिन भी स्थानीय और संकटग्रस्त मछली प्रजातियों के लिए अहम क्षेत्र हैं।

अध्ययन में कहा गया है कि कावेरी-वैगई लिंक, पंबा-अचानकोविल-वैप्पार लिंक और नेत्रावती-हेमावती लिंक जो पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों को कावेरी से जोड़ता है और बेदती और वरदा के बीच का लिंक स्थानीय और लुप्तप्राय प्रजातियों को आक्रमण के प्रति संवेदनशील बना सकता है। 

एटीआरईई टीम ने साल 2100 तक अनुमानित अलग-अलग जलवायु स्थितियों के तहत आने वाले समय के जैविक आक्रमण पैटर्न को भी देखा। अध्ययन का अनुमान है कि अगर ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन न्यूनतम होता है (प्रतिनिधि घनत्व पाथवे या आरसीपी 2.6 के रूप में चिन्हित), तो गम्बूसिया और पोइसीलिया रेटिकुलाटा प्रजातियां दक्षिण-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी भारत की ओर फैल सकती हैं। इस स्थिति के तहत आक्रामक विदेशी मछली के लिए ख़ास उपयुक्तता में 2% की कमी होगी। हालांकि, अध्ययन में ज्यादा से ज्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का स्थिति (आरसीपी 8.5) के तहत सभी 12 प्रजातियों के लिए 91% की बढ़ोतरी देखी गई है।

केरल बैकवाटर में आक्रामक प्रजातियों का अध्ययन करने वाले तटीय-समुद्री पारिस्थितिकीविज्ञानी पी. आर. जयचंद्रन ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “नदी जोड़ो जैसे इंटरबेसिन जल हस्तांतरण को जलीय आक्रामक प्रजातियों के विस्तार के मुख्य रास्तों के रूप में पहचाना जाता है।” “इन कोशिशों का जलमार्गों पर आक्रामक और हानिकारक असर हो सकता है, क्योंकि वे पर्यावरणीय परिस्थितियों की एक व्यापक श्रृंखला को सहन करते हैं, संसाधनों के लिए देशी प्रजातियों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं, तेजी से प्रजनन करते हैं और देशी प्रजातियों का शिकार करते हैं, जिससे जैव विविधता का नुकसान होता है और खाद्य श्रृंखला में व्यवधान होता है।” जयचंद्रन ने कहा कि आक्रामक विदेशी मछलियां मानव और पशु स्वास्थ्य पर भी असर डाल सकती हैं।

गम्बूसिया अफ़नीस, या पश्चिमी मच्छर मछली। तस्वीर - एम. नोबिनराजा।ओरियोक्रोमिस मोसाम्बिकस, या मोजाम्बिक तिलापिया, 2018 में महाराष्ट्र में ली गई तस्वीर। तस्वीर - रुजुता विनोद/भारत जैव विविधता पोर्टल।पोसीलिया रेटिकुलाटा या वाइल्ड गप्पी। तस्वीर - पर हेराल्ड ऑलसेन/विकिमीडिया कॉमन्स।हाइपोफथाल्मिचथिस नोबिलिस या बिगहेड कार्प। कुशल फिल्टर-फीडर के रूप में, बिगहेड और सिल्वर कार्प को अक्सर सीवेज तालाबों को साफ करने के लिए आयात किया जाता है। तस्वीर - mark6mauno/फ़्लिकर।ओरियोक्रोमिस निलोटिकस या नील तिलापिया। तस्वीर - बर्नार्ड ड्यूपॉन्ट/फ़्लिकर।

कारोबार और जलीय खेती से आई विदेशी मछलियां

तिरुवनंतपुरम स्थित केरल विश्वविद्यालय में विज्ञान संकाय के प्रोफेसर और डीन और जलीय जीव विज्ञान और मत्स्य पालन विभाग के प्रमुख ए बिजुकुमार ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “यह अध्ययन आंखें खोलने वाला है।” “भारत में नदियों को आपस में जोड़ने से संपर्क मार्ग स्थापित होंगे और संभावित आक्रामक प्रजातियों की सीमा का विस्तार करने में मदद मिलेगी, खास तौर पर पूर्वोत्तर भारत, पश्चिमी घाट और सुंदरबन जैसे क्षेत्र जो खतरे वाली स्थानीय प्रजातियों से समृद्ध हैं।” 

वहीं, ब्रह्मपुत्र और मानस नदियों में फिलहाल में चार या इससे ज्यादा आक्रामक विदेशी प्रजातियां हैं जो मछली पालन पर हावी हैं। दूसरी तरफ, सुंदरबन मछली पालन में देशी मछलियों का वर्चस्व है। हालांकि, बहुत कम बाजार मूल्य वाली टेरीगोप्लिचथिस (सेलफिन कैटफ़िश) का इस क्षेत्र में आक्रामक रूप से फैलने का अनुमान है। बिजुकुमार ने कहा, “वे खराब पानी की गुणवत्ता में रह सकते हैं, साल भर प्रचुर मात्रा में प्रजनन कर सकते हैं और भारत में उनका कोई शिकारी नहीं है।” वे घंटों तक गीली परिस्थितियों में पानी के बाहर रहने के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ दशकों के भीतर इन मछलियों ने देश में अहम आर्द्रभूमियों में प्रवेश किया है, देशी प्रजातियों की जगह ले ली है और मछली पकड़ने के काम पर असर डाला है।


और पढ़ेंः [वीडियो] भारतीय घरों की शान बढ़ाने वाले लाल कान वाले कछुओं का स्याह पक्ष


पूरे भारत में विदेशी मछलियों के बड़े पैमाने पर फैलाव को देखने के बाद वैज्ञानिकों ने बार-बार ऐसे आकलन और नीतिगत उपाय करने की मांग की है। भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) का इस्तेमाल करते हुए पश्चिमी घाट में जैव विविधता वाले जल निकायों में 2021 के एक अध्ययन में गंबूसिया और पोइसीलिया सहित 28 विदेशी मछली प्रजातियां दिखाई गईं। अध्ययन में कहा गया है कि बड़े बांध, एक्वैरियम व्यापार और मछली पालन से आई विदेशी मछलियों के प्रजनन केंद्र के रूप में काम करते हैं।

लखनऊ स्थित नेशनल ब्यूरो ऑफ फिश जेनेटिक रिसोर्सेज के अतुल के. सिंह और उनके सहयोगियों ने 2011 में की गई एक समीक्षा में पाया कि 300 से ज्यादा विदेशी प्रजातियां “जान-बूझकर या अवैध रूप से” भारत में आयात की गईं। इनमें 291 सजावटी प्रजातियां, 31 मछली पालन वाली प्रजातियां और दो ऐसी मछलियां शामिल हैं जो लार्वा खाती हैं। इस सूची में दुनिया की कुछ सबसे खराब आक्रामक प्रजातियां शामिल हैं जैसे कि साइप्रोनस कार्पियो, ओरियोक्रोमिस निलोटिकस (नाइल तिलापिया), एरिस्टिचिथिस नोबिलिस, पाइगोसेंट्रस नैटेरेरी (रेड-बेलिड पिरान्हा) और टेरीगोप्लिचथिस।

घरेलू और व्यावसायिक एक्वैरियम, जिनमें अक्सर पालतू सजावटी विदेशी मछलियां शामिल होती हैं। यह सजावटी मछलियों के आने का अहम रास्ता है। सिर्फ प्रतिनिधि तस्वीर। तस्वीर- बिस्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स।
घरेलू और व्यावसायिक एक्वैरियम, जिनमें अक्सर पालतू सजावटी विदेशी मछलियां शामिल होती हैं। यह सजावटी मछलियों के आने का अहम रास्ता है। सिर्फ प्रतिनिधि तस्वीर। तस्वीर- बिस्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स।

दुनिया भर में खतरा

सिंह ने 2021 के ओवरव्यू में बताया कि आक्रामक विदेशी प्रजातियां हैचरी से दूषित चीज़ों के जरिए, नदी के गलियारों से पार होकर, स्टोव-वे के रूप में और बिना सहायता अनजाने या जानबूझकर पलायन करके नई जगहों में आती हैं। अध्ययन में आने वाले दशकों में गंगा में आक्रामक तिलापिया और साइप्रिनस कार्पियो में लगभग 29% बढ़ोतरी की भविष्यवाणी की गई है। एकल प्रजाति तिलापिया के आने से बहु-प्रजाति के आने का रास्ता खुल गया, जिसे अध्ययन में “आक्रमण मेल्टडाउन” कहा गया है।

खेती, वानिकी और मछली पकड़ने में प्रजातियों के आक्रमण को दुनिया भर में खतरे के रूप में पहचाना जाता है। विदेशी मछलियों का आक्रमण और बहुत ज्यादा मछली पकड़ना प्रजातियों के विलुप्त होने के कुछ मुख्य कारण हैं, जैसा कि आईयूसीएन कहता है: “फिलीपींस में लानाओ झील और इससे जुड़े जलाशयों में मीठे पानी की स्थानीय मछली प्रजातियों की 17 में से सभी अब विलुप्त (15 प्रजातियां) या गंभीर रूप से लुप्तप्राय (संभवतः विलुप्त) (दो प्रजातियां) हैं। खत्म होने का कारण शिकारी प्रजातियां थीं जो बहुत ज्यादा मछली पकड़ने और मछली पकड़ने के विनाशकारी तरीकों से जुड़ी थीं।

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का कहना है कि 40 से ज्यादा बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय समझौते (इनमें कुछ अभी तक लागू नहीं हैं) विदेशी प्रजातियों का उल्लेख करते हैं, उनमें से एक-चौथाई जलीय पर्यावरण के लिए प्रासंगिक हैं। वैश्विक बहुपक्षीय समझौतों में जलीय पारिस्थितिक तंत्र में विदेशी प्रजातियों का उपचार न तो व्यापक है और न ही पूरी तरह से सुसंगत है। जैसा कि एफएओ बताता है, मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र की तुलना में समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में फिलहाल कुछ हद तक बेहतर कवरेज है।

बिजुकुमार ने कहा, बिना किसी जैव सुरक्षा उपायों के एक्वैरियम व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सजावटी मछलियों को लापरवाही से लाना बंद होना चाहिए। इस बीच, नोबिनराजा ने आक्रामक विदेशी मछलियों के वर्तमान और भविष्य के वितरण पैटर्न को समझने के लिए “तत्काल मूल्यांकन” पर जोर दिया।

 

अंग्रेजी में इस खबर को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

बैनर तस्वीर: गम्बूसिया मछली की बड़ी प्रजाति है, जिसमें 40 से ज्यादा प्रजातियां हैं और यह मुख्य रूप से मीठे पानी में पाई जाती है। इसे मॉस्किटोफिश के नाम से भी जाना जाता है। तस्वीर – एम. नोबिनराजा।

Exit mobile version