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कभी खूबसूरती और छाया के लिए लगाए गए थे कसोद के पौधे, अब बने जंजाल

घनी हरी कैनोपी और शानदार पीले फूल आक्रमणकारी कसोद के पौधों को आकर्षक बनाते हैं। तस्वीर- पी ए विनयन।

घनी हरी कैनोपी और शानदार पीले फूल आक्रमणकारी कसोद के पौधों को आकर्षक बनाते हैं। तस्वीर- पी ए विनयन।

  • 1980 के दशक के मध्य में वायनाड में आक्रमणकारी बाहरी पौधे कसोद (सेन्ना स्पेक्टैबिलीस-Senna spectabillis) को छाया के लिए लाया गया था। कुछ ही दशक में यह वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी के बड़े हिस्से में फैल गया और खुद को मजबूती से स्थापित कर लिया।
  • भारत के तीन दक्षिणी राज्यों में फैले पूर्वी और पश्चिमी घाटों के संरक्षित इलाकों के ज्यादातर हिस्से में कसोद के पौधे फैल गए हैं और इसके चलते यहां की मूल और स्थानीय जैव विविधता को नुकसान पहुंचा है।
  • अब इसका प्रसार और न हो इसके लिए कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। इन प्रयासों में कसोद के पौधों को काटना, उखाड़ना या रासायनिक तरीके से इन्हें नष्ट करना शामिल है।

साल 1986 में केरल के वन विभाग ने एक ऐसा फैसला लिया था जिसके लिए उन्हें कई दशक बाद पछताना पड़ रहा है। वन विभाग की सोशल फॉरेस्ट्री विंग ने कसोद (सेन्ना स्पेक्टाबिलिस) के पौधों की नर्सरी तैयार की और छाया के लिए इन पौधों को वायनाड जिले में मौजूद वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी के ऑफिस परिसर के साथ-साथ मुथंगा और थोलपेट्टी इलाकों में सड़क के किनारे लगा दिया। उस समय पर उन्हें यह बिल्कुल नहीं पता था कि अमेरिकी मूल के जो पौधे वे तैयार कर रहे थे वे सबसे ज्यादा आक्रमणकारी पौधों में से एक हैं। कई महाद्वीपों जैसे कि एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के कई हिस्सों में बुरी तरह फैलने की वजह से इस पौधे का कुख्यात इतिहास रहा है। 

जब तक उन्हें अपनी इस गलती का एहसास होता, तब तक कसोद के ये पौधे वह कर चुके थे, जो इतने वक्त में कोई भी आक्रमणकारी पौधा करता। कुछ ही समय में यह स्तनधारियों जैसे कि चित्तीदार हिरण (Spotted deer) के सहारे दूर-दूर फैलने लगा और कुछ ही दशक में यह सैंक्चरी के एक बड़े हिस्से में फैल चुका था। कसोद को आमतौर पर गोल्डन शावर भी कहा जाता है क्योंकि इसके फूल चमकदार पीले रंग के होते हैं। पहली बार वायनाड में इसे लगाने के 25 साल बाद केरल के वन विभाग ने साल 2011 में इसे पहचाना कि यह आक्रमणकारी पौधा है।

साल 200 की शुरुआत में कर्नाटक ने भी यही गलती की और उसके वन विभाग ने कसोद का जोरदार प्रचार किया। यहां तक कि बांदीपुर और नागरहोल के टाइगर रिजर्व में इसे लैंटाना कैमारा (Lantana camara) के विकल्प के तौर पर लगाया जाने लगा। लैंटाना कैारा खुद एक आक्रमणकारी स्थानीय पौधा है जो कि देशभर के संरक्षित क्षेत्रों में फैला हुआ है। बेंगुलुर के अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन ईकोलॉजी एंड एन्वारनमेंट (ATREE) के सीनियर फेलो जी रविकांत कहते हैं, “इन लोगों ने सोचा कि लैंटाना को हटाने के बाद उसकी जगह पर यह तेजी से बढ़ने वाला और हमेशा हरा रहने वाला पौधा कसोद लगाया जा सकता है।”

दक्षिण भारत में कसोद की झाड़ियों का फैलाव

कसोद के पौधे कर्नाटक के उन संरक्षित क्षेत्रों में तो कई गुना फैल ही चुके हैं अब ये राज्य के अन्य जंगलों जैसे कि माले महादेश्वर हिल्स (MM हिल्स) और बिलिगिरिरंगा हिल्स (BR हिल्स) में भी फैल चुके हैं।

वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी के पास कसोद की झाड़ियों में एक हाथी। एक स्टडी में सामने आया है कि हाथी जैसे स्तनधारी, कसोद के बीज को फैलाने में प्रमुख रहे हैं। तस्वीर-अनूप एन. आर.
वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी के पास कसोद की झाड़ियों में एक हाथी। एक स्टडी में सामने आया है कि हाथी जैसे स्तनधारी, कसोद के बीज को फैलाने में प्रमुख रहे हैं। तस्वीर-अनूप एन. आर.

साल 2020 में हुई एक चर्चा के दौरान वैज्ञानिक रमन कुमार ने मुदुमलाई नेशनल पार्क के पास अपने रिसर्च सेंटर के बाहर पीले फूलों से लगे कैनौपी वाले कसोद वृक्षों की ओर इशारा करते हुए कहा कि तमिलनाडु के संरक्षित इलाकों में जैव आक्रमण एक तेजी से उभरती हुई समस्या है। सिलसिलेवार सबूत बताते हैं कि दक्षिण भारत के अन्य संरक्षित क्षेत्रों जैसे कि भद्रा टाइगर रिजर्व (कर्नाटक), पेरियार टाइगर रिजर्व (केरल), मेघमलाई टाइगर रिजर्व और कोयंबटूर फॉरेस्ट डिवीजन (तमिलनाडु) में भी यह काफी हद तक फैल चुका है।

कसोद अब सिर्फ वायनाड की ही समस्या नहीं है। अब यह भारत के तीन दक्षिणी राज्यों केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक के लिए समस्या बन चुका है।

इंटरगवर्नमेंटल प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड ईकोसिस्टम सर्विसेज ने आक्रमणकारी बाहरी पौधों की प्रजातियों पर एक आकलन किया है। इस आकलन को तैयार करने वालों में से एक रिसर्चर निनाद मुंगी के मुताबिक, असम के कुछ मामलों को छोड़ दें तो कसोद को देश के अन्य हिस्सों में नहीं पाया गया है और ये बाग-बगीचों और खेतों तक ही सीमित रहे हैं।

साल 2012 से अब तक वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में तमाम प्रजातियों के विस्तार, वनस्पतियों की सैंपलिंग और उनकी अधिकता की कई बार मैपिंग करने वाली संस्था फर्न्स नेचर कंजर्वेशन सोसायटी के अध्यक्ष और रिसर्चर पी ए विनयन ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि साल 2013-14 में कसोद का विस्तार 16 वर्ग किलोमीटर से कम था, 2019 में 89 वर्ग किलोमीटर था और अब यह 123.86 वर्ग किलोमीटर में फैल गया है। यानी एक दशक में इसका फैलवा 800 प्रतिशत से ज्यादा हुआ है। अगर सैंक्चरी के कुल 344.44 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की बात करें तो अब कसोद के पौधे इसके 35 प्रतिशत हिस्से में फैल चुके हैं।

वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में सेन्ना स्पेक्टैबिलीस के प्रसार और वितरण को दिखाता मैप। मैपः पी ए विजयन।
वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में सेन्ना स्पेक्टैबिलीस के प्रसार और वितरण को दिखाता मैप। मैपः पी ए विजयन।

इस सैंक्चरी के वाइल्डलाइफ वार्डन दिनेश कुमार ने कहा है कि कसोद का ज्यादातर फैलाव सैंक्चरी के थोलपेट्टी और मुथुंगा रेंज में केंद्रित है। इस सैंक्चरी के 123.86 वर्ग किलोमीटर में कसोद का विस्तार है जिसमें से लगभग 15 से 18 वर्ग किलोीमीटर क्षेत्र में घने पौधे हैं, बाकी क्षेत्र में कम घने, बेहद कम घना और छितराया हुआ विस्तार है। दिनेश कुमार साल 2012 के बाद सैंक्चरी में कसोद के विस्तार को बांस के फूल खिलने से जोड़ते हैं। एक आक्रमणकारी पौधे की तरह ही कसोद ने वह खाली जगह ले ली जो बांस के फूलों के खिलने और पौधों के मुरझाने से खाली हुई थी। वायनाड में कसोद के फैलाव और इसकी बढ़ोतरी के बारे में अध्ययन कर रहे ATREE के रिसर्चर अनूप एन आर कहते हैं, “बांस अब पहले की अपेक्षा उतनी तेजी से लौट नहीं पाया है। कसोद ने इसे लगभग बाहर ही कर दिया है।”

कसोद के बीजों को फैलाते हैं जंगली शाकाहारी जानवर

अनूप, विनयन और अन्य ने साल 2021 में एक स्टडी की थी जिसमें यह सामने आया था कि एशियाई हाथी कसोद के बीजों को फैलाने वाले सबसे बडे़ कारक साबित हुए और ये अपनी सूंड़ के जरिए इसे एक जगह से दूसरी जगह तक ले जाते हैं। विनयन के मुताबिक, सात स्तनधारी जीवों के गोबर का अध्ययन किया गया। हाथी के एक बार के गोबर में लगभग 2000 बीज पाए गए। हाथी के अलावा, चीतल और भारतीय साही ऐसे स्तनधारी जीव थे जो कसोद के बीजों को फैलाते पाए गए। इस स्टडी में यह चेतावनी भी दी गई कि गर्मियों में जब कसोद के पौधों में फल आते हैं तो ठीक उसी समय वायनाड में हाथियों की संख्या बढ़ जाती है। दरअसल, इस समय पर नीलगिरी बायोस्फेयर रिजर्व के अन्य हिस्सों से गर्मी के समय हाथी बड़ी संख्या में वायनाड आ जाते हैं। इसके चलते इन आक्रमणकारी पौधों का फैलाव ज्यादा तेजी से हो जाता है। इसका असर खासकर हाथियों के उन माइक्रो हैबिटैट में होता है जो नदी के किनारे या दलदली इलाकों में होते हैं।

एक आक्रमणकारी प्रजाति के पौधे कसोद में कुछ ऐसे भौतिक गुण होते हैं जो इसे तेजी से बढ़ने और कम समय में कई गुना फैलने में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, तेज वृद्धि दर, छोटा लाइफ साइकल, बीज की ज्यादा मात्रा, घनी छाया, प्राकृतिक रूप से कम दुश्मन और तनों या जड़ों से फैलने की ज्यादा क्षमता। विनयन कहते हैं, “कसोद के एक वयस्क पौधे में बीज पैदा होने की क्षमता बहुत ज्यादा होती है। एक पेड़ में बीज की कम से कम 1000 थैलियां होती हैं और हर थैली में कम से कम 1000 बीज होते हैं। इस तरह एक पेड़ पर लगभग 1 लाख से ज्यादा बीज होते हैं।” 

वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में कसोद के पेड़ों के पास घूमते चीतल। इन पौधों की बढ़ोतरी की तेज दर, छोटी लाइफ साइकल, बीज की ज्यादा संख्या इत्यादि की वजह से कसोद का विस्तार बहुत तेजी से होता है। तस्वीर- अनूप एन. आर.
वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में कसोद के पेड़ों के पास घूमते चीतल। इन पौधों की बढ़ोतरी की तेज दर, छोटी लाइफ साइकल, बीज की ज्यादा संख्या इत्यादि की वजह से कसोद का विस्तार बहुत तेजी से होता है। तस्वीर- अनूप एन. आर.

वायनाड की एक गैर लाभकारी संस्था फॉरेस्ट फर्स्ट समिति सैंक्चरी के कुछ हिस्सों से कसोद के पौधों को उखाड़ने से जुड़ी हुई है। इसी संस्था के लिए काम करने वाली मीरा चंद्रन कहती हैं, “वयस्क पेड़ों की जड़े लंबी हैं। कुछ की जड़ें 40 फीट तक लंबी हैं लेकिन ये समानांतर जाती हैं जमीन से कुछ इंच गहराई पर ही होती हैं। बहुत गहरी जड़ें न होने की वजह से इनके पेड़ों को उखाड़ना आसान होता है।” कसोद के पौधे तने और जड़ से फैलने की वजह से भी जाने जाते हैं क्योंकि कहीं से भी इनका विस्तार होने लगा है और ये बढ़ने लगते हैं।

एक पुरानी स्टडी बताती है कि कसोद के पौधों में एलियोपैथिक गुण भी पाए जाते हैं। इन गुणों के चलते एक पौधा दूसरे पौधे के अंकुरण, विकास या वृद्धि को प्रभावित कर सकता है क्योंकि ये पौधे कुछ खास तत्व जैसे कि एलियोकेमिकल्स सीधे तौर पर पौधों को दे सकते हैं या फिर अप्रत्यक्ष तरीके से जमीन में छोड़ सकते हैं। विनयन कहते हैं कि ये पौधे जो पत्तियां गिराते हैं वे सड़ जाने के बाद मिट्टी की रासायनिक संरचना में बदलाव करती हैं जिसके चलते यह मिट्टी किसी दूसरे पौधे के विकसित होने लायक नहीं रह जाती। रविकांत कहते हैं कि इसके बावजूद नागरहोल में कुछ खास तरह की घास कसोद के पौधों के नीचे उगती रही हैं। एक और राय है कि जहां इन पौधों की छाया घनी हो जाती है वहां दूसरे पौधे इसलिए विकसित नहीं हो पाते हैं क्योंकि नीचे तक सूरज की रोशनी ही नहीं पहुंच पाती है।

जंगल की जैव विविधता को प्रभावित करता है कसोद का विस्तार

कई स्टडी में यह सामने आया है कि किसी भी जंगल की जैव विविधता आक्रमणकारी पौधों के फैलने से बुरी तरह प्रभावित होती है। विनयन कहते हैं कि उन्होंने वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में कसोद के विस्तार की वजह से जैव विविधता के नुकसान को एक रिपोर्ट में दर्ज किया है और इसे जल्द ही प्रकाशित किया जाएगा। अनूप के मुताबिक, तितलियों को अपने अंडे देने के लिए खास तरह के होस्ट पौधों की जरूरत होती है जबकि कसोद के विस्तार की वजह से इस इलाके में इस तरह के पौधे बचे ही नहीं हैं। वह कहते हैं कि कुछ खास स्थानीय स्तनधारी जीव इसके बीज जरूर फैला रहे हैं लेकिन वे कसोद की पत्तियां नहीं खाते हैं। वह आगे कहते हैं, “कुछ जानवर इसकी पत्तियों को कुतरते जरूर दिखते हैं लेकिन उन्हें इससे कोई पोषण नहीं मिलता है।” कसोद के पौधे उन प्रजातियों के पौधों पर भी बुरा असर डालते हैं जो शाकाहारी जानवरों के लिए चारे की रह होते हैं। अनूप कहते हैं कि कसोद के पौधे स्थानीय आदिवासी लोगों की आजीविका को प्रभावित होते हैं। खासकर ऐसे आदिवासियों पर बुरा असर होता है जो गैर-टिंबर वन उत्पाद (जैसे कि आंवला, करौंदा आदि) के लिए जंगल पर निर्भर होते हैं। जंगल में पाए जाने वाले खाने योग्य कई छोटे फल, मशरूम और जंगली कंद आदिवासियों के जीवन में पोषण की मात्रा पूरी करने के लिए अहम भूमिका निभाते हैं। अब ये चीजें भी जंगल से लुप्त होती जा रही हैं।

वन विभाग आक्रमणकारी पौधों को हटाने के लिए स्थानीय आदिवासी लोगों को लगाता है ताकि कसोद के पौधे उखाड़े जा सकें। तस्वीर- पी. ए. विनयन।
वन विभाग आक्रमणकारी पौधों को हटाने के लिए स्थानीय आदिवासी लोगों को लगाता है ताकि कसोद के पौधे उखाड़े जा सकें। तस्वीर- पी. ए. विनयन।

केरल के वन विभाग और फर्न्स नेचर कंजर्वेशन सोसायटी ने वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में कसोद के प्रसार और प्रबंधन को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में बताया कसोद के प्रसार को रोकने के लिए केरल के वन विभाग द्वारा अपनाए गए भौतिक और रासायनिक तरीकों को बताया गया गया है। साल 2013 में वन विभाग ने इसका फैलाव रोकने के लिए पेडों और डालियों की छाल को काटकर उस पर मिट्टी का तेल लगाकर इसे रोकने का तरीका निकाला। इस तरह 19,500 पेड़ों में कटाई-छंटाई की गई। इसके बाद वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के विशेषज्ञों ने इसका आकलन किया तो पता चला कि आठ महीने तक इस तरह काम करने के बावजूद सिर्फ कुछ प्रतिशत पेड़ ही पूरी तरह से सूखे। इस स्टडी में यह भी पता चला कि जहां से पेड़ों को छीला गया था वहां से कई सारी डालियां निकल आईं। रिपोर्ट के मुताबिक, बीते कुछ सालों में भी इस तरीके से पेड़ों को सुखाना जारी रहा लेकिन भारी मात्रा में कसोद के बीज जमीन पर गिरने की वजह से यह तेजी से फैलता रहा और पेड़ों की डालियों और जड़ों से और पेड़ निकलते रहे।

तेजी से फैलाव को रोकने के लिए त्वरित कार्रवाई जरूरी

मीरा चंद्रन ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि वह जिस फॉरेस्ट फर्स्ट समिति का हिस्सा हैं वह सैंक्चरी की थोलपेट्टी रेंज में ईकोरेस्टोरेशन काम कर रही है। जिस 1.3 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर ईकोरेस्टोरेशन का काम किया गया है उसमें से 0.6 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल से कसोद के पौधे पूरी तरह से निकाल दिए गए हैं। इसमें अपरूटिंग का इस्तेमाल किया गया जिसमें पेड़ को मशीन से पूरी तरह से उखाड़कर हटा दिया दिया जाता है। एक बार पेड़ को उखाड़ने के चार-पांच महीने के बाद उन जगहों पर घास और अन्य स्थानीय झाड़ियां उग आती हैं, जहां से कसोद के पौधे उखाड़े गए होते हैं।

हालांकि, चंद्रन इसी अपरूटिंग की वकालत करती हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि पेड़ों को उखाड़ने के बाद जो स्थानीय घास उगती है वह जंगली जानवरों के लिए अच्छे चारे का काम करती है। इसके अलावा, पेड़ों को पूरी तरह से उखाड़ देने से स्थानीय पौधों का उगना और विकसित होना तेजी से हो सकता है। पेड़ों को उखाड़ने के लिए हाथ वाले औजार इस्तेमाल करने से जमीन को नुकसान भी कम से कम होता है। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया कि पेड़ों की छाल को छीलने के बाद इनको काटा जाता है।

कसोद के पेड़ों के तनों को छीलकर उन पर की गई नंबरिंग। कसोद स्पेक्टैबिलीस के पेड़ को खत्म करने के लिए पेड़ों को छीलकर उन्हें सुखाना एक तरीका है। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यह आदर्श तरीका नहीं है, इसके बजाय पेड़ों को उखाड़ दिया जाना चाहिए। तस्वीर- पी. ए. विजयन।
कसोद के पेड़ों के तनों को छीलकर उन पर की गई नंबरिंग। कसोद स्पेक्टैबिलीस के पेड़ को खत्म करने के लिए पेड़ों को छीलकर उन्हें सुखाना एक तरीका है। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यह आदर्श तरीका नहीं है, इसके बजाय पेड़ों को उखाड़ दिया जाना चाहिए। तस्वीर- पी. ए. विजयन।

कर्नाटक के वन विभाग की ओर से बांदीपुर और नागरहोल टाइगर रिजर्व में कसोद के पौधों के प्रबंधन के प्रयास जारी हैं। MM हिल्स में ATREE संस्था लैंटाना के डंठलों से फर्नीचर बनाती है। वहां से भी कसोद के पौधों को हटाया जा रहा है। रविकांत का कहना है कि वह ऐसे नीतिगत बदलाव के लिए काम कर रहे हैं जिससे जंगल के क्षेत्र से कसोद के पौधों को हटाने को कानूनी मान्यता दी जा सके और इसे बाहर ले जाकर इसकी मार्केटिंग की जा सके। इससे स्थानीय समुदाय के लोग इस जंगली आक्रमणकारी प्रजाति को उखाड़ने और खत्म करने के प्रति उत्साहित होंगे। कसोद की लकड़ियां हल्के फर्नीचर और अन्य उत्पाद बनाने के लिए काफी उपयुक्त हैं। रविकांत कहते हैं कि अगर इनकी लकड़ियों को जंगल से बाहर ले जा सके बेचा जा सके तो इसका प्रबंधन काफी आसान और तेज हो जाएगा।

वायनाड वाइल्डलाइफ सैंक्चरी में अपनी स्टडी के आधार पर विनयन कहते हैं कि उन्हें डर है कि अगर त्वरित कार्रवाई नहीं की गई तो कसोद के पेड़ पूरी सैंक्चरी में जल्द ही फैल जाएंगे और 10-15 साल में ये बहुत घने हो जाएंगे। उन्हें उम्मीद है कि तीनों राज्यों के वन विभाग एक बेहतर प्लान लेकर आएंगे और बिना देरी के कसोद को खत्म करने की दिशा में काम करेंगे।

 

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बैनर तस्वीर: घनी हरी कैनोपी और शानदार पीले फूल आक्रमणकारी कसोद के पौधों को आकर्षक बनाते हैं। तस्वीर- पी ए विनयन।

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