- कर्नाटका के चन्नापटना में लकड़ी के खिलौने बनाने की परंपरा है। इस विशिष्ट कारीगरी पर फारसी प्रभाव है जो 18वीं सदी में शुरू हुआ था। ये खिलौने बच्चों की सेहत और पर्यावरण के लिए सुरक्षित माने जाते हैं।
- पिछले कुछ सालों में चन्नापटना के खिलौनों की लोकप्रियता में कमी देखी गई है। इसकी बड़ी वजह युवाओं की इस कला की तरफ उदासीनता है।
- विशेषज्ञों का कहना है कि पारंपरिक खिलौना निर्माण को जीवित रखने के लिए नवाचार, प्रचार और जागरूकता के लिए ठोस प्रयासों की जरूरत है।
एक साधारण से घर की चमकीली गुलाबी दीवार के सामने बरामदे में बैठीं बोरम्मा का सारा ध्यान एक धुरी पर है, जिसके ऊपर लकड़ी का एक टुकड़ा लगा हुआ है। सावधानी से वह उस लकड़ी के टुकड़े को तराश रही हैं। उनके हाथ में बांस और रेशम की डोरी से बना एक उपकरण है, जो एक पौराणिक कथाओं के धनुष जैसा दिखता है। डोरी धुरी से जुड़ी होती है और जैसे ही यह लयबद्ध रूप से आगे और पीछे चलती है, यह नरम लकड़ी को गोल और अंडाकार रूप में ढाल देती है।
लकड़ी के गोले को और चमकदार बनाने के लिए, बोरम्मा उसके किनारों को चिकना करने के लिए सैंडपेपर, यानी रेजमाल का उपयोग कर रही हैं। फिर सूखे ताड़ के पत्तों के टुकड़ों का उपयोग करके, बैंगनी और हरे रंग के लाह को उसके ऊपर लगाया जाता है। बोरम्मा बताती हैं कि रंगीन लकड़ी के टुकड़ों को चन्नापटना के दूसरे कारीगर खिलौने बनाने के काम में लेंगे।
बोरम्मा एक मध्यम आयु वर्ग की कारीगर हैं जो कर्नाटका के बेंगलुरु से लगभग 60 किमी दक्षिण पश्चिम में, रामनगर जिले के चन्नापटना में रहती हैं। वह लकड़ी से खिलौने बनाना जानती हैं। चन्नापटना के नीलासंद्रा गांव में बोरम्मा की तरह 150 से अधिक कारीगर काम करते हैं। सब हाथ से लकड़ी पर कलाकारी करते हैं। अपनी कला के बारे में बताते हुए बोरम्मा कहती हैं, “मैंने यह कला 20 साल पहले अपने पिता से सीखी थी। हालांकि, मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटियां मेरे नक्शेकदम पर चलें और इस कला को आगे बढ़ाएं। इस काम में आमदनी बेहद कम है लेकिन मेहनत बहुत ज्यादा। लकड़ी से जिन गोलियों को दिनभर में तैयार कर पाते हैं उनकी कीमत मात्र 150 रुपए है।”
उनके पड़ोसी, जोगैया और चंद्रू, निर्यात के लिए बेहतर लाख की लकड़ी के गोले तैयार करने में लगे हुए हैं। चंद्रू ने इन मोतियों के लिए आवश्यक कड़े मानकों पर जोर देते हुए कहा, “मोतियों को उत्तम निर्यात गुणवत्ता का होना चाहिए। यदि कोई एक भी मानक को पूरा करने में विफल रहता है, तो पूरा बैच वापस किया जा सकता है।”
जोगैया ने बताया कि निर्यात ऑर्डर आम तौर पर बिचौलियों के माध्यम से मिलते हैं। प्रत्येक कारीगर को 100 अच्छी गुणवत्ता के मोती बनाने पर 300 रुपए दिए जाते हैं। लकड़ी से बनी गोलियों का इस्तेमाल आभूषण, खिलौनों, टेबलवेयर और कार सीट कवर जैसी विभिन्न चीजों को बनाने में होता है।
पर्यावरण-अनुकूल कला
चन्नापटना को स्थानीय रूप से ‘गोम्बेगाला ऊरू’, यानी खिलौनों का शहर कहा जाता है। यहां 18वीं शताब्दी से ही खिलौने बनाने की पारंपरिक शैली का अभ्यास किया जा रहा है। इस कला के विशिष्ट फारसी प्रभाव का श्रेय मैसूर राज्य के पूर्व शासक, टीपू सुल्तान को दिया जाता है, जो शिल्प को बढ़ावा देने में मदद करने के लिए तत्कालीन फारस (अब ईरान) से कारीगरों को लाए थे। अब कुछ खिलौने मशीन से भी बनने लगे हैं। लेकिन चन्नापटना के कुछ हिस्से में अभी भी हाथ से काम होता है। साल 2021 के एक अध्ययन के अनुसार चन्नापटना में खिलौना कारीगरों की संख्या 4000 है। वे 250 घरों और 50 छोटी फैक्ट्री में काम करते हैं। कुछ खिलौना बनाने वाले स्वतंत्र तौर पर काम करते हैं।
खिलौनों को कई भागों में बनाया जाता है। इसके लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध एले मारा या आइवरी वुड (राइटिया टिनक्टोरिया) की नरम लकड़ी का प्रयोग होता है। फिर लाह का उपयोग करके अलग-अलग टुकड़ों को जोड़कर खिलौने का रूप दिया जाता है। इसके बनाने का तरीका जैविक और प्राकृतिक है, जिससे खिलौने बच्चों और पर्यावरण के लिए सुरक्षित हो जाते हैं। साल 2018 के एक अध्ययन में चन्नापटना लकड़ी के खिलौने और चीन से बड़े पैमाने पर उत्पादित प्लास्टिक के खिलौने दोनों का जीवन चक्र मूल्यांकन किया गया था। चन्नापटना खिलौने, चीन के पीवीसी खिलौनों की तुलना में छह गुना अधिक ऊर्जा कुशल पाए गए। अध्ययन में दोनों खिलौनों की ग्लोबल वार्मिंग क्षमता और मानव विषाक्तता क्षमता का भी आकलन किया गया। इसमें सामने आया कि चीन में बने खिलौने अपने जीवन चक्र के दौरान अधिक कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं और सॉफ्टवुड खिलौनों की तुलना में कहीं अधिक जहरीले होते हैं। यह जहर मनुष्यों पर बुरा प्रभाव डालते हैं। भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलुरु के पीएचडी विद्वान और पेपर के लेखक तरुण कुमार ने कहा कि प्लास्टिक के खिलौने सीसा और कैडमियम विषाक्तता का कारण बनते हैं, जबकि चन्नापटना खिलौने विषैले नहीं होते हैं।
भारत में खिलौना कारोबार बढ़ा लेकिन पिछड़ रहे पारंपरिक खिलौने
इंटरनेशनल मार्केट रिसर्च एंड कंसल्टिंग ग्रुप (आईएमएआरसी) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत का खिलौना बाजार वैश्विक स्तर पर सबसे तेजी से बढ़ने वाले बाजारों में से एक है। देश में खिलौने के बाजार की क्षमता 2023 में 1.7 बिलियन डॉलर थी। साल 2032 तक इस बाजार के 4.4 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। इस पर्याप्त क्षमता का दोहन करने और चीन जैसे देशों से खिलौनों की आमद का मुकाबला करने के लिए, भारत सरकार ने हाल के वर्षों में कई पहल की है। इनमें खिलौना हैकथॉन, आत्मनिर्भर खिलौना चुनौती और वार्षिक भारतीय खिलौना मेले जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। कुछ समय के लिए, यह अनुमान लगाया गया था कि सरकार आगे बढ़ रहे 14 सेक्टर और रणनीतिक क्षेत्रों में निवेश आकर्षित करने के लिए 2020 में घोषित पीएलआई (उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन) योजना का विस्तार करेगी, जो खिलौना क्षेत्र में विनिर्माण और निर्यात को भी बढ़ावा दे सकती है।
चन्नापटना खिलौने अपने आकर्षक डिजाइनों के लिए लोकप्रिय हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इन्हें सुर्खियां मिली हैं। 2010 में नई दिल्ली की अपनी एक यात्रा के दौरान, पूर्व अमेरिकी प्रथम महिला मिशेल ओबामा ने खिलौने खरीदे। बाद में 2015 में, मांग पर चन्नापटना से 15 सजावटी वस्तुएं तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ व्हाइट हाउस पहुंची थी। भूटान के डेढ़ वर्षीय राजकुमार को 2017 में तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने चन्नापटना खिलौनों का एक सेट उपहार में दिया था।
इस कला की इतनी प्रतिष्ठा के बावजूद, खिलौनों के शहर चन्नापटना की यात्रा से यह आभास होता है कि यह एक लुप्त होती कला हो सकती है। कई कारीगर नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस पैतृक पेशे को अपनाएं और उन्होंने उन्हें शहरों के कॉलेजों में दाखिला दिलाया है।
श्री बीरेश्वर आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स नाम की एक सफल फैक्ट्री चलाने वाले बी. वेंकटेश (48) उस समय को याद करते हैं जब उनके पिता उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे। तब उन्होंने अपने पिता की इच्छा के खिलाफ जाकर लकड़ी की कला सीखी थी। उनका फलता-फूलता व्यवसाय 30 कारीगरों को रोजगार देता है। “मुझे यह काम करने के लिए प्रेरणा मिली। मैं पेंटिंग के अलावा सब कुछ कर सकता हूं। ऐसा करने से मुझे संतुष्टि मिलती है,” उन्होंने कहा।
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जब हम उनसे मिले तो उनका एक कर्मचारी, उमर (44), धैर्यपूर्वक एक गुड़िया में रंग लगा रहा था। उमर का परिवार परंपरागत रूप से गुड़िया बनाने का काम करता था, लेकिन केवल उन्होंने ही इसे अपनाया, जबकि उनके भाई-बहनों और चचेरे भाइयों ने अन्य पेशे अपना लिए।
नकल से निपटने के लिए जीआई टैग
स्थानीय लोगों के अनुसार, चन्नापटना खिलौने या लैकरवेयर की लोकप्रियता और मांग ने कई लोगों को बाजार की जरूरतों को पूरा करने के लिए आइवरी वुड की खेती करने के लिए प्रेरित किया था। हालांकि, 2021 का अध्ययन युवाओं के बीच शिल्प की लोकप्रियता में गिरावट का संकेत देता है, जिसका मुख्य कारण अपर्याप्त वेतन और काम का खराब माहौल है। कुछ साल पहले बाजार में चन्नापटना खिलौनों की चीन में बनी नकली कॉपी की आमद ने पहले से ही नाजुक उद्योग को और खतरे में डाल दिया। नकल से निपटने के लिए 2005 में जीआई (भौगोलिक संकेत) टैग दिए जाने के बावजूद, कारीगरों का दावा है कि इससे उन्हें कोई खास फायदा नहीं हुआ है। भारतीय शिल्प परिषद के निदेशक गीता राम ने इस बात पर जोर दिया कि जीआई टैग का उद्देश्य कानूनी रूप से स्वदेशी और मूल उत्पादों की रक्षा करना है, लेकिन इसे ठीक से लागू नहीं किया गया, जिससे यह शिल्पकारों के लिए अप्रभावी हो गया है।
पहले कारीगर बेंगलुरु और मैसूर को जोड़ने वाले राजमार्ग के किनारे छोटी दुकानों में अपनी कला बेचते थे। छह-लेन एक्सप्रेस वे के शुरू होने से दोनों शहरों के बीच यात्रा का समय कम हो गया। इससे कारीगरों के लिए अपने उत्पादों को सीधे ग्राहकों को बेचने में एक और बाधा उत्पन्न हो गई है। एक्सप्रेसवे के किनारे खिलौने की दुकान चलाने वाली किरण ने बताया कि एक्सप्रेसवे चालू होने के बाद से कारोबार में काफी गिरावट आई है। उन्होंने कहा, “पहले, यात्री कलाकृतियां खरीदने के लिए रुकते थे। हम शनिवार और रविवार को 40 से 50 हजार का व्यापार कर लेते थे। सप्ताह के दूसरे दिन इसका आधा हो जाता था। अब सप्ताहांत पर 25,000 और दूसरे दिनों में पांच से दस हजार का व्यापार हो पाता है।
शिल्प को बनाए रखने के लिए बेहतर नवाचार की जरूरत
एक दशक पहले स्थापित चन्नापटना शिल्प पार्क का उद्देश्य चन्नापटना खिलौनों की पारंपरिक कला को पुनर्जीवित करना और लोकप्रिय बनाना है। राज्य और केंद्र सरकार के संगठनों ने मिलकर इस पार्क को बनाया है। इससे कई खिलौना कारखाने जुड़े हुए हैं। पार्क से कारीगरों को लकड़ी का काम करने वाली मशीनें दी जाती हैं। साथ ही, उभरती हुई प्रतिभाओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित होते हैं। पार्क के निदेशक, श्रीकला कादिदल ने एक्सप्रेसवे के बारे में चिंताओं को खारिज कर दिया। वह कहते हैं कि इससे केवल सड़क किनारे के दुकानदारों की एक छोटी संख्या प्रभावित हुई है। उन्होंने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लैकरवेयर, विशेष रूप से समकालीन शैक्षिक खिलौनों की बढ़ती मांग पर ध्यान दिया। पार्क नियमित प्रशिक्षण सत्र आयोजित करता है, जिसमें पिछले साल 300 कारीगरों को प्रशिक्षित किया गया था। वे महिलाओं को खाली समय में अतिरिक्त आय के लिए भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
तरूण कहते हैं कि चन्नापटना खिलौनों का एक विशिष्ट बाजार है। उन्होंने इस कला को बनाए रखने के लिए इसके लाभों के प्रति जागरूकता फैलाने का सुझाव दिया। उन्होंने डिजाइन में भी नयापन लाने का सुझाव दिया।
हालांकि, किरण के मुताबिक कारीगरों की कमी के कारण नए डिजाइनों की मांग को पूरा करने की चुनौती है। वह कहते हैं कि कई लोगों ने बेहतर अवसरों के लिए इस पेशे को छोड़ दिया। नए डिजाइनों की मांग को पूरा करने के लिए अधिक पैसा देना पड़ता है।
वेंकटेश ने अपने सफल व्यवसाय का श्रेय नई चीजों को स्वीकारने को दिया। वह नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी (एनआईएफटी) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन (एनआईडी) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के डिजाइन छात्रों के साथ सहयोग करते हैं। यह स्वीकार करते हुए कि नए और नवोन्मेषी डिजाइन बहुत प्रचलन में हैं, उन्होंने कहा कि पुराने डिजाइन भी मांग में हैं, लेकिन पुराने डिजाइनों को फिर से बनाने में सक्षम कारीगरों की कमी है। युवा, महत्वाकांक्षी कलाकारों को वेंकटेश की सलाह सरल है: “यदि आप जो करते हैं उसका आनंद लेते हैं, तो प्रक्रिया आनंददायक हो जाती है। कठिनाई के बारे में शिकायत करने से चुनौती और बढ़ जाएगी।”
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बैनर तस्वीर- चन्नापटना शहर में सड़क किनारे एक दुकान पर प्रदर्शित पारंपरिक चन्नापटना खिलौने। तस्वीर- अभिषेक एन चिन्नप्पा/मोंगाबे।