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गुजरात का बन्नी करेगा चीतों का स्वागत, लेकिन स्थानीय निवासी कर रहे पट्टों की मांग

बन्नी के सर्वो गांव में मालधारी अपने मवेशियों को चराने के दौरान पेड़ों के नीचे आराम करते हुए। इस चरवाहा समुदाय की आजीविका को बनाए रखने के लिए बन्नी घास के मैदानों का रखरखाव जरूरी है। तस्वीर - धैर्य गजारा/मोंगाबे।

बन्नी के सर्वो गांव में मालधारी अपने मवेशियों को चराने के दौरान पेड़ों के नीचे आराम करते हुए। इस चरवाहा समुदाय की आजीविका को बनाए रखने के लिए बन्नी घास के मैदानों का रखरखाव जरूरी है। तस्वीर - धैर्य गजारा/मोंगाबे।

  • केंद्र सरकार ने गुजरात में दूर तक फैले हुए बन्नी घास के मैदान में चीता प्रजनन और संरक्षण केंद्र को मंजूरी दी है।
  • बन्नी ऐतिहासिक रूप से मुक्त चरागाह भूमि रही है। इससे अब लगभग 45,000 लोगों की आजीविका चलती है। इनमें से ज्यादातर पशुपालक देशी भैंसों को पालने वाले समुदाय से संबंधित हैं।
  • मालधारियों को पुश्तैनी जमीन के हाथ से जाने और चरागाहों के खत्म होने का डर सता रहा है। वे अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए यहां पट्टे की मांग कर रहे हैं।

भारत में चीतों को फिर से बसाने की केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजना को एक साल से ज्यादा हो गया है। अब सरकार गुजरात के कच्छ जिले में स्थित कच्छ के रण के बन्नी घास के मैदानों में चीता प्रजनन और संरक्षण केंद्र बनाने की योजना बना रही है। शुरुआत में भारत में जंगली बिल्लियों को बसाने के लिए इस जगह पर विचार किया गया था। भारतीय वन्यजीव संस्थान और भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट का मानना है कि यहां 50 से ज्यादा चीतों को पाला जा सकता है। बन्नी का एशियाई चीतों (एसिनोनिक्स जुबेटस वेनेटिकस) के साथ ऐतिहासिक संबंध रहा हैएक अध्ययन से संकेत मिलता है कि एशियाई चीतों को साल 1839 और 1872 में घास के मैदानों में देखा गया था, इसलिए इसमें चीतों के लिए आदर्श जगह होने की क्षमता है।

हालांकि, चीतों को फिर से बसाने के लिए सुझाए गए तीन साइटों के मूल्यांकन के कम शिकार होने के चलते बन्नी को नहीं चुना गया था। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने इस फैसले का फिर से मूल्यांकन करने की सिफारिश की। इसमें जोर दिया गया कि गुजरात सरकार को लैंडस्केप को बहाल करने के लिए उपाय करने चाहिए। मोंगाबे इंडिया ने जिन जानकारों से बात की, उनके अनुसार घास के मैदानों को बहाल करने की सरकार की कोशिश सिर्फ आक्रामक पौधों को हटाने और उनकी जगह देसी घास लगाने तक ही सीमित रही और शिकार का घनत्व को बढ़ाने के लिए बड़े कदम नहीं उठाए गए। इन चुनौतियों के बावजूद, गुजरात सरकार चीतों को बन्नी में लाने की अपनी प्रतिबद्धता पर कायम रही।

गुजरात सरकार की एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, एमओईएफसीसी को बन्नी में प्रजनन केंद्र बनाने के राज्य के प्रस्ताव को राष्ट्रीय प्रतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (कैम्पा) ने 8 दिसंबर, 2023 को स्वीकार कर लिया। कच्छ के मुख्य वन संरक्षक संदीप कुमार के अनुसार लगभग आठ से दस चीते बन्नी के प्रजनन केंद्र में लाए जाएंगे। हालांकि, कुमार ने सटीक जगह का खुलासा नहीं किया। लेकिन उन्होंने पुष्टि की कि केंद्र 500 हेक्टेयर क्षेत्र में काम करेगा और सिर्फ प्रजनन के लिए लाए गए जानवर पशु चिकित्सा देखभाल, मातृत्व जैसी सुविधाओं के साथ बनावटी प्राकृतिक वातावरण में पूरी तरह से संरक्षित और सीमित क्षेत्र में होंगे। उन्हें घर, निगरानी केंद्र और अन्य सुविधाएं प्रदान की जाएंगी।

पशुपालक समुदाय पर असर

बन्नी घास का मैदान 2618 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। यहां की मौसम शुष्क और अर्ध-शुष्क है। बन्नी एशिया का सबसे बड़ा घास का मैदान है। यहां घास की लगभग 40 अलग-अलग प्रजातियां पाई जाती हैं। हालांकि, प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियां और मिट्टी में बहुत ज्यादा खारापन, खेती के काम को सीमित करती है। इस वजह से पशुपालन यहां आजीविका का मुख्य पेशा है। बन्नी ऐतिहासिक रूप से मुक्त चरागाह भूमि रही है, जिससे अब लगभग 45,000 लोगों की आजीविका चलती है।  उनमें से ज्यादातर मवेशी पालने वाले समुदाय से हैं। ये लोग सदियों से बन्नी के 48 गांवों में रह रहे हैं। इनके पास डेढ़ लाख से ज्यादा मवेशी (बन्नी ब्रीडर्स एसोसिएशन के रिकॉर्ड के अनुसार) हैं। बन्नी नस्ल की भैंसों से हर रोज करीब 1.5 लाख लीटर से ज्यादा दूध मिलने का अनुमान है।

अच्छी बारिश के बाद बन्नी का हरा-भरा घास का मैदान। बन्नी ऐतिहासिक रूप से मुक्त चरागाह भूमि रही है, जिससे अब लगभग 45,000 लोगों की आजीविका चलती है। इनमें से ज्यादातर  मालधारी समुदाय से हैं। तस्वीर - गुजरात वन विभाग।
अच्छी बारिश के बाद बन्नी का हरा-भरा घास का मैदान। बन्नी ऐतिहासिक रूप से मुक्त चरागाह भूमि रही है, जिससे अब लगभग 45,000 लोगों की आजीविका चलती है। इनमें से ज्यादातर  मालधारी समुदाय से हैं। तस्वीर – गुजरात वन विभाग।

सराकरी प्रेस विज्ञप्ति के जरिए प्रजनन केंद्र की घोषणा होने के तीन दिन बाद, बन्नी गांवों के मालधारियों के संगठन बन्नी ब्रीडर्स एसोसिएशन (बीएए), ने अपना विरोध दर्ज कराने के लिए जिला कलेक्टर से मुलाकात की। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि फैसला लेने की प्रक्रिया में समुदाय के साथ विचार-विमर्श नहीं किया गया था। हालांकि, प्रजनन केंद्र खुद मालधारियों के लिए प्राथमिक चिंता का विषय नहीं है, लेकिन वे अपनी पारंपरिक आजीविका और स्थानीय बन्नी भैंस की भविष्य की भलाई के लिए संभावित खतरों को लेकर आशंकित हैं।

एसोसिएशन के अध्यक्ष सलेममद हेलपोत्रा बताते हैं कि हालांकि समुदाय को पक्की सड़कों, भरोसेमंद बिजली आपूर्ति और टेलीफोन कनेक्शन जैसे सरकारी बुनियादी ढांचे से फायदा होता है, लेकिन उनके गांव और घर अभी भी आधिकारिक तौर पर राजस्व रिकॉर्ड में शामिल नहीं हैं। पीढ़ियों से इस जगह पर रहने के बावजूद, रिकार्ड में शामिल नहीं होने के चलते वे संपत्ति के अधिकार के लिए अयोग्य हैं। समुदाय में डर की एक प्रबल भावना व्याप्त है, जो सरकारी पहल के चलते उनकी भूमि के संभावित नुकसान के बारे में चिंताओं से प्रेरित है। ऐसा, खास तौर पर बन्नी क्षेत्र के बुनियादी ढांचे के विकास और औद्योगीकरण के संबंध में चल रही चर्चाओं के चलते है।

बन्नी पर मालधारियों का दावा

रियासती शासन के दौरान, कच्छ राज्य के तत्कालीन महाराव (राजा) ने चरागाह को मवेशियों के लिए आरक्षित चारागाह घोषित कर दिया और खेती पर पाबंदी लगा दी थी। साल 1955 में, इसे भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत “संरक्षित वन” घोषित किया गया था। वहीं, 1998 में, राज्य सरकार के एक प्रस्ताव ने घास के मैदान का प्रबंधन वन विभाग को सौंप दिया। हालांकि, घास का मैदान कुप्रबंधन का शिकार रहा, जिससे बन्नी के लोगों की किस्मत जिला प्रशासन और वन विभाग के बीच लटक गई।

दोनों प्रशासन बन्नी संरक्षित वन कार्य योजना लेकर आए। पहली बार साल 2009 में और फिर 2019 में। हालांकि, दोनों ही बार स्थानीय समुदाय से विचार-विमर्श नहीं किया गया जिन्होंने बाद में इन योजनाओं का विरोध किया। इसके अलावा, जनजातीय मामलों के मंत्रालय के वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) प्रभाग ने साल 2017 और 2019 में राज्य जनजातीय विकास विभाग को दो बार अनुरोध किया कि मालधारियों को सामुदायिक वन अधिकार दिए जाएं, लेकिन राज्य सरकार इसका पर्याप्त जवाब नहीं दे पाई। इसने स्थानीय मालधारियों को अपनी पुश्तैनी भूमि पर लौटने और अवैध रूप से खेती फिर से शुरू करने के लिए मजबूर किया। आखिरकार, साल 2021 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने वन विभाग को मालधारियों को हटाने और फसलों को खत्म करने का आदेश दिया। इसके  जवाब में वन विभाग ने मुख्यमंत्री घास सुधारना योजना के तहत खेती वाली भूमि पर देसी घास लगा दी।

चिलचिलाती गर्मी में पेड़ों की छाया में आराम करती बन्नी भैंसें। कई जानकारों का मानना है कि बन्नी घास के मैदानों के प्रबंधन और उपयोग की जिम्मेदारी मालधारियों की होनी चाहिए। तस्वीर - धैर्य गजारा/मोंगाबे।
चिलचिलाती गर्मी में पेड़ों की छाया में आराम करती बन्नी भैंसें। कई जानकारों का मानना है कि बन्नी घास के मैदानों के प्रबंधन और उपयोग की जिम्मेदारी मालधारियों की होनी चाहिए। तस्वीर – धैर्य गजारा/मोंगाबे।

साल 2019 में राज्य सरकार की घास बहाली परियोजना के तहत वन विभाग को हर साल 800 से 3900 हेक्टेयर भूमि बहाल करनी थी। कच्छ में बन्नी ग्रासलैंड डिवीजन  के उप वन संरक्षक बीएम पटेल के अनुसार, इन बहाल भूमियों से सालाना 20 लाख किलो से ज्यादा घास का उत्पादन होता है, जिसमें से ज्यादातर मालधारियों को आपूर्ति की जाती है। वन विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार, 12,589 हेक्टेयर भूमि से ऐसे पौधे हटाए गए जो देसी नहीं थे और इन पर देसी घास लगाई गई।

बीएए के संस्थापक सदस्यों में से एक ईशाभाई मुतवा का कहना है कि अतिक्रमण खाली करने के एनजीटी के आदेश के बावजूद, वन विभाग ने उन्हें गहरी खाइयों के साथ बाड़ वाले घास के मैदानों में बदलना शुरू कर दिया, जिसके चलते रात में यहां आजाद होकर चरने वाली कई बन्नी भैंस घायल हो गईं और उनकी मौत हो गई। मुतवा कहते हैं, “घास के मैदान की बहाली परियोजना के बाद, सरकार ने निर्माणाधीन नवीन ऊर्जा पार्क में उत्पन्न बिजली की आपूर्ति के लिए बन्नी से सात ओवरहेड बिजली लाइनों की स्थापना को मंजूरी दे दी।” मालधारियों का मानना है कि चीता प्रजनन केंद्र की स्थापना एक और सरकारी योजना है जिसका उद्देश्य उन्हें उनके भूमि अधिकारों से वंचित करना है।

बन्नी और यहां की भैंसों के लिए आगे का रास्ता

हालांकि, आखिरी सेटलमेंट प्रक्रिया साल 2019 में शुरू की गई थी। लेकिन,  राज्य सरकार के निर्देश के बाद सेटलमेंट अधिकारी को सिर्फ 2022 में नियुक्त किया गया था, जिसमें कहा गया था कि उप-जिला मजिस्ट्रेट को सेटलमेंट अधिकारी के रूप में काम करना चाहिए। अधिकारी बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं, क्योंकि जैसा कि एक वन अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “आरक्षित वन” के मामले के विपरीत, भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 29 के तहत गठित “संरक्षित वन” में भूमि विवादों को हल करने के लिए कोई आचार संहिता नहीं है। नतीजतन, अधिकारी की ओर से तैयार की गई किसी भी सेटलमेंट योजना को अदालत में चुनौती दिए जाने की बहुत ज्यादा संभावना है।


और पढ़ेंः गुजरात: बन्नी घास मैदान से जुड़ी विरासत की लड़ाई में मालधारी समुदाय को मिली जीत


बन्नी घास के मैदान का अध्ययन करने वाले शोधकर्ता घास के मैदानों के प्रबंधन और उपयोग की जिम्मेदारी मालधारियों को लौटाने की जरूरत पर जोर देते हैं। मालधारियों ने बन्नी ने बन्नी रहवा दो (बन्नी को बन्नी ही रहने दो) नाम से एक अभियान शुरू किया है। बन्नी मालधारियों के साथ काम कर करने वाले सहजीवन के कार्यक्रम समन्वयक रमेश भट्टी  का मानना है कि एक बार जब उन्हें उनके राजस्व अधिकार दिए जाएंगे और उनके सर्वेक्षण निपटान के पूरा होने पर, सरकार आगे बढ़ने के लिए मालधारियों का भरोसा और सहयोग प्राप्त कर पाएगी। क्षेत्र में विकास परियोजनाएं बिना किसी बाधा के चल सकें। भट्टी कहते हैं, “मालधारी सिर्फ अपने अधिकार और बन्नी के पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा चाहते हैं।”

 

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बैनर तस्वीर: बन्नी के सर्वो गांव में मालधारी अपने मवेशियों को चराने के दौरान पेड़ों के नीचे आराम करते हुए। इस चरवाहा समुदाय की आजीविका को बनाए रखने के लिए बन्नी घास के मैदानों का रखरखाव जरूरी है। तस्वीर – धैर्य गजारा/मोंगाबे।

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