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लुप्त होती परंपरा बचाने के लिए केरल के आदिवासियों ने दोबारा शुरू की बाजरे की खेती

हाथ की चक्की पर बाजरे को पीसती हुई अट्टापडी में एक आदिवासी महिला। तस्वीर-मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

हाथ की चक्की पर बाजरे को पीसती हुई अट्टापडी में एक आदिवासी महिला। तस्वीर-मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

  • बाजरा केरल के अट्टापडी के पश्चिमी घाट के ऊंचे इलाकों में आदिवासी संस्कृति और जीवन शैली का एक अभिन्न हिस्सा रहा है।
  • सरकारी सहायता और नए सिरे से बाजार की बढ़ती दिलचस्पी ने अब इस क्षेत्र में बाजरे की खेती की मांग को बढ़ा दिया है।
  • अनिश्चित वर्षा, खाने की तलाश में जंगली जानवरों का मानव बस्तियों की ओर रुख बाजरे की खेती को चुनौतीपूर्ण बना रहा है।
  • विशेषज्ञ एक ऐसा सतत विकास दृष्टिकोण अपनाएं जाने का सुझाव देते हैं जो जलवायु, सामाजिक-पारिस्थितिक और सांस्कृतिक पहलुओं को ध्यान में रखता हो।

केरल के अट्टापडी हाइलैंड्स में आदिवासी बस्तियों के किनारे पहाड़ी जंगलों में एक बार फिर से बाजरा के लहलहाते खेत नजर आने लगे हैं। यह इलाका पश्चिमी घाट के वर्षा छाया क्षेत्र में पड़ता है, जो एक आदिवासी बेल्ट है। कुछ समय पहले तक आदिवासी बाजरे की खेती से दूर जाने लगे थे। लेकिन आज बदलाव साफ देखा जा सकता है। इसके पीछे की बड़ी वजह न सिर्फ सरकार की तरफ से दी जा रही सहायता है बल्कि इस सूपर फूड की प्रति बाजार की बढ़ती दिलचस्पी भी है। 

बाजार इस सुपरफूड की संभावनाओं से भरा पड़ा है। इसे कूटकर पैक किया जाता है और सुपरमार्केट में बेचा जाता है। नए जमाने के कैफों में अब बाजरा दलिया, पास्ता और पेस्ट्री के रूप में परोसा भी जा रहा है। मोटे अनाज का उत्पादन बढ़ाने के लिए केरल सरकार ने अपने पहले मिलेट विलेज प्रोजेक्ट की 2017 में शुरू की थी। इस पहल के जरिए सरकार बाजरा खेती पर सब्सिडी देती है और उन्हें ऊंचे दामों पर खरीदती है। यह सरकार की पहल का ही नतीजा है कि आज बाजरा यहां की हर दुकान में नजर आने लगा है और स्कूलों में बच्चों के बीच बांटा जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बाजरा लोकप्रिय हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने विपरीत परिस्थितियों और सीमित वर्षा वाले क्षेत्रों में उगने वाले छोटे दाने वाले इस अनाज को दुनिया भर में बढ़ावा देने के लिए साल 2023 को अंतरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष के रूप में नामित किया था।

अट्टापडी के आदिवासियों के लिए बाजरा पीढ़ियों से उनकी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है।

“हमारे खाने में हमेशा रागी से बना पुट्टू (नारियल के साथ पकाया गया आटा) शामिल होता था। कभी-कभी चावल, कोदो चावल, ज्वार पुट्टू भी मिल जाता था” रेशम की साड़ी पहने रंगियाम्मा वैद्यर (77) ने अपने बचपन के खाने को याद करते हुए बताया। वह पुदुर पंचायत की एक जानी-मानी हीलर हैं। उन्होंने कहा,”हमें कभी भी मधुमेह, अल्सर, खांसी जैसी बीमारियां नहीं हुईं…”

हीलर रंगियाम्मा वैद्यर जीवनशैली से जुड़ी कई बीमारियों से बचने के लिए बाजरे को अपने खाने में शामिल करने की सलाह देती हैं। तस्वीर- जॉन बेनेट/मोंगाबे 
हीलर रंगियाम्मा वैद्यर जीवनशैली से जुड़ी कई बीमारियों से बचने के लिए बाजरे को अपने खाने में शामिल करने की सलाह देती हैं। तस्वीर- जॉन बेनेट/मोंगाबे

खाद्य वैज्ञानिकों का कहना है कि बाजरे से जितना पोषण मिलता है, उतना शायद ही किसी और अनाज से मिल पाता हो। एफएओ के मुताबिक: “ बाजरा में बाकी के साबुत अनाज मसलन गेहूं, चावल या मक्का सहित परिष्कृत अनाज की तुलना में अधिक पोषण पाया जाता है। बाजरा अपनी किस्म, विविधता और बढ़ती परिस्थितियों में उगने की खासियत के आधार पर खनिज, फाइबर, विटामिन और प्रोटीन का अच्छा स्रोत हो सकता है। अन्य अनाजों की तुलना में इसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स भी कम है, इसलिए हाई ब्लड शुगर से जूझ रहे लोगों के लिए यह एक अच्छा विकल्प है। बाजरा ग्लूटेन-फ्री भी है और आयरन का किफायती स्रोत भी।”

वैद्यर ने बताया कि वह जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों मसलन डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर के इलाज के लिए बाजरे को अपने खाने में शामिल करने की सलाह देती हैं। उन्होंने सड़क के किनारे बड़े-बड़े साइनबोर्ड लगाए हुए हैं जिन पर उपचारों की एक लंबी लिस्ट है। दूर-दूर से लोग बाजरे से बने उनके पाउडर, पेस्ट और दुआओं के लिए उनके पास खिंचे चले आते हैं।

वह याद करती हैं, “मेरे दादाजी सिर्फ नमक लेने के लिए किराने की दुकान पर जाया करते थे। जंगलों से हमें वो सब कुछ मिल जाया करता था जिसकी हमें जरूरत होती थी, जैसे बाजरा, साग, दालें, फल, सब्जियां और शिकार हुए जानवरों का मांस भी।”

हाशिये से मुख्यधारा की ओर बढ़ता बाजरा

अध्ययनों से पता चलता है कि 2800-1500 ईसा पूर्व दक्षिण भारत में बाजरा बड़े शौक से खाया जाता था। ये सदियों तक मुख्य भोजन बना रहा। फिर इसे आदिवासियों के साथ ऊंचे इलाकों में धकेल दिया गया। खाने की थाली से बाजरे के गायब होने की एक वजह हरित क्रांति भी रही। चावल और गेहूं को बढ़ावा देने वाली राज्य की नीतियों के कारण बाजरे की खेती में गिरावट साफतौर पर नजर आने लगी थी।

अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के लिए अंतर्राष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान के एक प्रकाशन में कहा गया है, “50 साल पहले तक भी बाजरा भारत में उगाया जाने वाला प्रमुख अनाज था। लेकिन फिर आधुनिक शहरी उपभोक्ताओं ने कई अन्य चीजों की तरह मोटे अनाज के रूप में बाजरे को भी कमतर आंकना शुरू कर दिया और फिर यह धीरे-धारे लोगों की थाली से गायब हो गया…”

अट्टापडी के एक पहाड़ी खेत में बाजरा, दालें और फलियों की फसल। तस्वीर-विंसी लोपेज/मोंगाबे 
अट्टापडी के एक पहाड़ी खेत में बाजरा, दालें और फलियों की फसल। तस्वीर-विंसी लोपेज/मोंगाबे

अधिकारियों ने कहा कि कृषि विभाग का मिलेट विलेज प्रोजेक्ट अब रिब्लिड केरल इनिशिएटिव का हिस्सा है। इसने एकीकृत जनजातीय विकास परियोजना (आईटीडीपी) की नमिथु वेल्लामे पहल के साथ अट्टापडी में आधे से अधिक गांवों में बाजरे की खेती को बढ़ावा दिया है। इस परियोजना का लक्ष्य पुरानी फसल को “फिर से नए तरीके के साथ” लेकर आना है। सरकारी कृषि सहायक तुषारा वी कहती हैं, “गांवों में अध्ययन से पता चला है कि लोग अपनी पारंपरिक भोजन की आदतों को छोड़ रहे हैं। इन परंपराओं को फिर से जिंदा करने की जरूरत है।” इस पहल में मिलेट की आठ किस्में – रागी, कुटकी, कंगनी, प्रोसो, कोदो, सांवा और बाजरा और ज्वार- के साथ-साथ मूंगफली, सब्जियां और सरसों भी शामिल हैं।
आधिकारिक आंकड़ों की मानें तो 2022-23 में इस परियोजना ने पहले सीजन में 643 हेक्टेयर खेतों और दूसरे सीजन में 543 हेक्टेयर खेतों को कवर किया है। यह पहल एक वरदान के रूप में सामने आई और कई मौसमों के लिए स्वदेशी बीजों के संरक्षण और आदान-प्रदान को बढ़ावा मिला। बाजरा के लिए सरकार की तरफ से दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य और सब्सिडी ने नकदी संकट से जूझ रहे आदिवासी समुदायों की काफी मदद की है। अलग-अलग किस्म के लिए अलग-अलग सब्सिडी हैं, जैसे रागी के लिए प्रति सीजन 12,000 रुपये प्रति हेक्टेयर दिए जाते है। प्रोसेसिंग यूनिट किसानों से उपज खरीदती हैं और उन्हें थोक खरीदारों और अन्य लोगों को बेचती हैं। एक साल के भीतर पुदुर पंचायत के चिरकादावु गांव में संयंत्र ने लगभग 7000 किलोग्राम संसाधित अनाज बेचा है।

कुरुम्बा गांवों में से एक के प्रमुख कुप्पा मूप्पन ने कहा, “सब्सिडी मिलने की वजह से हम पुराने तरीके से बाजरे की खेती कर पाते है।” उनके मुताबिक, खेती फायदेमंद हो सकती है, लेकिन मौसम की अनिश्चितता और जंगली जानवरों के हमले जैसी चुनौतियां अक्सर आदिवासियों को खेतों में बाजरा की अधिक खेती करने से रोकती हैं।

खाद्य और पोषण सुरक्षा के लिए एक आशा 

तुषारा ने बताया कि घरेलू खपत में वृद्धि और स्कूलों के जरिए बच्चों तक बाजरा से बने खाने को  पहुंचाने से पोषण सुरक्षा बढ़ी है। नवजात मृत्यु दर में कमी आई है। बाजरा को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की वजह से अब ज्यादातर आदिवासी अब अपने पारंपरिक आहार की तरफ जा रहे हैं। बाजरा को प्रोत्साहन देने से पहले जहां इस इलाके में 2013 में 31 शिशुओं की मौत हुई थी। वहीं इस पहल के बाद 2020-2021 में 12 शिशु मृत्यु के आंकड़े सामने आए हैं।

इस इलाके में चलाए जा रहे एक गैर सरकारी संगठन ‘थंबू’ के प्रमुख राजेंद्र प्रसाद ने कहा, “2012-2015 में रिपोर्ट किए गए कुपोषण संकट और शिशु मृत्यु को लेकर गैर सरकारी संगठनों ने आदिवासियों के लिए दवा और भोजन के साथ-साथ भूमि अधिकारों की भी मांग की थी।” वह आगे कहते हैं, “बाजरे को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र को एक बार फिर बाजरे की टोकरी बनाना आदिवासियों की खोई हुई जमीन को वापस पाने से जुड़ा है। वन अधिकार कानून 17 साल पहले लागू हुआ था। फिर भी आदिवासियों को उनका अधिकार पूरी तरह से नहीं मिल पाया है। हमें सतत विकास सुनिश्चित करने के लिए इन सभी पहलुओं पर विचार करना होगा।”

अट्टापडी में 745 वर्ग किमी के साथ अगाली, शोलायुर और पुदुर पंचायतें शामिल हैं। खेतों का क्षेत्रफल, उसके कुल क्षेत्रफल का पांचवां हिस्सा है। 33,000 स्थानीय आदिवासियों में से लगभग 8% कुरुम्बा हैं और 80% से अधिक संख्या इरुला की है। ये आदिवासी पारंपरिक स्लैश-एंड-बर्न यानी झूम खेती करते आए हैं। इस खेती में पंजक्कड़ (खेती योग्य लकड़ियां) और कर्रिक्कड़ (जलावन लकड़ियां) भी शामिल हैं। वैद्यर ने बताया, “हम छह साल तक जंगल के एक ही हिस्से में चक्रों में कई तरह की खाद्य फसलें उगाते हैं, फिर हम आगे बढ़ते हैं।” तब तक जंगल फिर से बढ़ जाता है।

धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले कुप्पन पहले दौर की बुवाई करने से पहले समुदाय के पूर्वजों का आह्वान करते हैं। स्थानीय भाषा में उन्हें मन्नुक्करन कहा जाता है। तस्वीर-जॉन बेनेट/मोंगाबे 
धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले कुप्पन पहले दौर की बुवाई करने से पहले समुदाय के पूर्वजों का आह्वान करते हैं। स्थानीय भाषा में उन्हें मन्नुक्करन कहा जाता है। तस्वीर-जॉन बेनेट/मोंगाबे

वैद्यर के भाई और गांव के प्रमुख कुरुली मूप्पन ने कहा कि खेती करने के लिए पर्याप्त जमीन नहीं है। उनके ज्यादातर लोग भूमिहीन हैं। भूमि अधिकारों के लिए कागजी कार्रवाई में सालों लग जाते हैं। थंबू में रहने वाले प्रसाद बताते हैं, “आदिवासियों की कहानी जमीन, खेती, ज्ञान और कला रूपों के नुकसान से जुड़ी है। हमें एक-एक करके उन सभी को फिर से पाना है।”

कई लोगों का मानना है कि बाजरा उस खोए हुए स्वर्ग को फिर से पाने की एक राह है।

बाजरे की खेती आदिवासियों के लिए एक परंपरा और पुण्य का काम

सितंबर बस शुरू ही हुआ है। पुदुर पंचायत के कुरुम्बा गांव, एडावनी के पहाड़ी खेतों में खड़ी बाजरे की फसल पकने लगी है। इस फसल को झरने और धाराओं के पानी से सींचा गया है। “रागी, चामा, तोमर, अमारा…” गांव वाले रागी, कुटकी, दाले और फलियों को स्थानीय नाम से पुकारते हैं। उन्होंने बताया कि मिट्टी को उपजाऊ बनाए रखने के लिए वे इन फसलों को एक साथ उगाते हैं।

ये सारी फसल अट्टापडी के 192 गांवों के इरुला, मुदुगा और कुरुम्बा आदिवासियों के लिए पवित्र हैं। अगाली पंचायत के चित्तूर गांव के मुदुगा समुदाय से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता उदयकुमार बी ने बताया, नकदी फसलों के उलट बाजरा उनके सामाजिक-सांस्कृतिक जुड़ाव का एक हिस्सा है। वह कहते हैं, “हमारी पीढ़ी को रागी, चामा, तोमर, अमारा उगाने की तकनीक हमारे पूर्वजों से विरासत में मिली है। हम उन्हें याद करते हैं, उनके आशीर्वाद से बीज बोते हैं, फसल काटते हैं और मिल-बांटकर खाना खाते हैं।”


और पढ़ेंः अन्यत मिलेटः अरुणाचल की थाली में वापस आ रहा पारंपरिक खान-पान से जुड़ा मोटा अनाज


बाजरे की खेती “पुण्य” का काम है, जिसका नेतृत्व मन्नुक्करन (खेती अनुष्ठान करने वाले) करते हैं, जो गांव से जुड़े मामलों में वंदारी (कोषाध्यक्ष) और कुरुथला (न्यायविद्) के साथ-साथ ऊरु मूप्पन (गांव प्रमुख) की मदद करते हैं। वह खेत तैयार करते समय, बुआई करते समय, निराई-गुड़ाई करते समय और फसल काटते समय मंत्रोच्चार करते हैं। मुदुगा गांव वेतियूर के कुप्पन मन्नु्क्करन ने कहा, “हर मौसम में मैं पहले दौर की बुआई से पहले अपने पूर्वजों का आह्वान करता हूं। इसके बाद ही ग्रामीण बुआई शुरू करते हैं।” उन्होंन आगे बताया, “ज्यादातर बाजरे की फसल तीन महीने में तैयार हो जाती है। लेकिन दाल, फलियां और बाजरे की एक किस्म को तैयार होने में छह महीने का समय लगता है। मैं सितंबर में बाजरे की पहली फसल काटता हूं। उसके बाद ही गांव वाले अपनी फसल काटना शुरू करते हैं।” 

जंगली जानवरों और अनिश्चित बारिश से खेती को नुकसान

कम और अनिश्चित बारिश के कारण अट्टापडी की पतली पट्टियों और पहाड़ी जंगलों के छोटे-छोटे हिस्सों पर खेती करना मुश्किल हो जाता है। वहीं खाने की तलाश में भटकते जंगली सूअर और हाथी किसानों की इस परेशानी को ओर बढ़ा देते हैं।

सितंबर की शुरुआत में हुई छिटपुट बारिश से कुप्पा मूप्पन थोड़ा खुश जरूर हैं, लेकिन उन्होंने अपनी परेशानी बताते हुए कहा, “दो-तीन महीनों से बारिश नहीं हुई है। बाजरा की फसल मुरझा गई हैं; बाजरा नहीं बढ़ रहा है…”

कम और असामयिक बारिश से बाजरे की फसल को नुकसान पहुंचता है। तस्वीर- विंसी लोपेज/मोंगाबे 
कम और असामयिक बारिश से बाजरे की फसल को नुकसान पहुंचता है। तस्वीर- विंसी लोपेज/मोंगाबे

मूप्पन ने कहा कि उनकी कंगनी, कुटकी, दालें, सरसों और केले की फसलों भी इससे प्रभावित हुई हैं। वह कहते हैं, “जंगली सूअर सबसे बड़ी समस्या हैं, वे फसलों को बर्बाद कर देते हैं और केले के पौधों को खोद देते हैं। यहां मोर भी हैं। हम केवल उतनी ही फसल बचा पाते हैं जितनी वो पेट भरने के बाद हमारे लिए छोड़ जाते हैं,” मूप्पन ने हंसते हुए कहा, “शायद जंगल में जानवरों के पास पेट भरने के लिए खाना नहीं है।”

सामाजिक कार्यों में लगे एक दूसरे गांव के एक कुरुम्बा युवा पनाली के. ने कहा, “आम तौर पर, वे (किसान) जानवरों के हमलों के कई मामलों में शिकायत नहीं करते हैं और न ही मुआवजे का दावा करते हैं। जानवर भी जंगलों का हिस्सा हैं। हम हाथियों की पूजा करते हैं।”

पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक पी.एन. उन्नीकृष्णन का मानना है कि समस्या जानवरों से नहीं इंसानों से है। उन्होंने कहा, “इंसान जानवरों के इलाकों पर कब्जा करते जा रहे हैं। सिर्फ नदी में ही पानी है लेकिन जानवर वहां तक पहुंच नहीं सकते है क्योंकि लोगों ने रास्ता बंद कर दिया है। जंगल का मतलब अब खत्म हो गया है। जंगल उन स्थानों तक ही सीमित हैं जिन्हें वन विभाग संरक्षित करता है।” 

 

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बैनर तस्वीर: हाथ की चक्की पर बाजरे को पीसती हुई अट्टापडी में एक आदिवासी महिला। तस्वीर-मैक्स मार्टिन/मोंगाबे

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