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15 साल बाद भी कछुआ चाल से वन अधिकार कानून का कार्यान्वयन, नई रिपोर्ट में दावा

केरल में चिन्नार का जंगल। एफआरए दोनों जनजातियों और अन्य वन निवास समुदायों के निजी और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता देता है, जिसमें जंगलों में जल निकायों तक पहुंच शामिल है। तस्वीर - केरल पर्यटन/फ़्लिकर।

केरल में चिन्नार का जंगल। एफआरए दोनों जनजातियों और अन्य वन निवास समुदायों के निजी और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता देता है, जिसमें जंगलों में जल निकायों तक पहुंच शामिल है। तस्वीर - केरल पर्यटन/फ़्लिकर।

  • दिल्ली से काम करने वाले एनजीओ कॉल फॉर जस्टिस ने पांच राज्यों में वन अधिकार कानून को लागू करने पर अध्ययन किया। एनजीओ ने इस कानून को लागू करने में अलग-अलग कमियां पाईं।
  • जंगलों में रहने वाले ऐसे समुदाय जो अनुसूचित जनजाति से नहीं हैं, उन्हें दावों को मंजूरी देने के लिए बनाई गई कई समितियों में लगभग कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला।
  • सर्वेक्षण में पाया गया कि सामुदायिक वन अधिकार, वन अधिकारों के निजी दावों से पीछे हैं।

हाल में आई एक नई रिपोर्ट के अनुसार वन अधिकार कानून को लागू करने में बड़े पैमाने पर सामुदायिक वन अधिकारों के दावों की अनदेखी की गई है। यही नहीं इस कानून को लागू करने के तौर-तरीकों के बारे में गलत धारणाओं के चलते कई तरह के दावों को बाहर रखा जा रहा है। रिपोर्ट इस साल मार्च में प्रकाशित हुई थी। इसे दिल्ली स्थित एनजीओ कॉल फॉर जस्टिस ने तैयार किया है। इसकी अध्यक्षता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एसएन ढींगरा की समिति ने की थी।

साल 2006 का वन अधिकार कानून (एफआरए) 2008 में लागू हुआ था। यह वन संसाधनों पर जंगल में रहने वालों और अनुसूचित जनजातियों के ऐतिहासिक अधिकारों को मान्यता देता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 15 साल पहले लागू हो जाने के बावजूद, जानकारी नहीं होने या हितों के टकराव के चलते इसे मजबूती से लागू नहीं किया जा सका है। एक स्वतंत्र तथ्यान्वेषी समिति की ओर से तैयार रिपोर्ट पिछले दिनों जनजातीय मामलों के मंत्रालय को सौंपी गई थी।

इस रिपोर्ट को देश के अलग-अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले पांच अलग-अलग राज्यों में तैयार किया गया। रिपोर्ट में कानून के कार्यान्वयन में “प्रमुख मुद्दों और चिंताओं” की पहचान करने की कोशिश की गई हैजिसमें दावों के बीच नामंजूरी की दर बहुत ज्यादा देखी गई है। इसमें पाया गया कि सामुदायिक वन अधिकारों के दावों की तुलना में निजी वन अधिकारों के दावों को ज्यादा बार स्वीकार किया गया और ग्राम सभाओं की तुलना में जिला और वन अधिकारियों के पास फैसले लेने की ज्यादा ताकत रही है।

तीस मार्च को हुई एक बैठक में केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने तथ्यों की पड़ताल करने वाली समिति को बताया कि मंत्रालय रिपोर्ट की प्रमुख सिफारिशों की जांच करेगा।

कुछ अनुमानों के अनुसार, एफआरए जंगल में रहने वालों को 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर सामुदायिक वन अधिकारों का दावा करने का अवसर देता है। साल 2019 के आम चुनावों और 2011 की जनगणना के आंकड़ों के चुनाव आयोग के आंकड़ों के आधार पर, स्वतंत्र शोधकर्ताओं के एक अन्य समूह ने अनुमान लगाया कि एफआरए का कार्यान्वयन एक-तिहाई निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं से जुड़ा मुद्दा हो सकता है। इन क्षेत्रों में आदिवासियों की आबादी ज्यादा है और जिनको यह अधिकार मिल सकता है। भारत में नई सरकार के गठन के लिए चुनाव प्रक्रिया चल रही है।

गलतफहमियां और क्षमता की कमी

एफआरए का पूरा नाम अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून है। यह जनजातियों और जंगलों में रहने वाले अन्य समुदायों दोनों के निजी और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता देता है। खुद की खेती और निवास से संबंधित अधिकारों को आमतौर पर निजी अधिकार माना जाता है। वहीं सामुदायिक अधिकारों में वन संसाधनों का टिकाऊ इस्तेमाल शामिल है। इसमें चराई और मछली पकड़ने के अधिकार, जंगलों में तालाब, नदियों या झरनों तक पहुंच, सामुदायिक बौद्धिक संपदा और पारंपरिक ज्ञान के अधिकार, प्रथागत पंरपराएं और समुदाय को फिर से खड़ा करने, बचाने करने या प्रबंधित करने के अधिकार शामिल हैं। 

अनुसूचित जनजाति के तहत आने वाले दावेदारों को यह साबित करना होता है कि भूमि पर उनका कब्जा 31 दिसंबर 2005 से पहले से है। साथ ही, अन्य वन निवासी समुदायों को यह साबित करना होगा कि उन्होंने तीन पीढ़ियों या 75 सालों से भूमि पर कब्जा कर रखा है।

कानून ग्राम सभाओं को वन अधिकार समितियां बनाने और वन अधिकारों की प्रकृति और सीमा तय करने, दावों पर प्रस्ताव पारित करने और अन्य जिम्मेदारियों के बीच वन्यजीव और जैव विविधता की सुरक्षा के लिए समितियों का गठन करने का अधिकार देता है। दावों के बारे में पारित प्रस्तावों को उपमंडल स्तरीय समिति को भेजा जाता है, जो बाद में इसे अंतिम मंजूरी के लिए जिला स्तरीय समिति को भेजती है।

हालांकि, तथ्यों का पता लगाने वाली कॉल फ़ॉर जस्टिस की टीम ने पाया कि ग्राम सभाओं, वन अधिकार समितियों, उप प्रभागीय स्तर की समितियों और जिला स्तर की समितियों में “आम तौर पर एफआरए को लागू करने की क्षमता की कमी होती है”, जिससे “अधिकारों की मान्यता के लिए तदर्थ प्रक्रिया” होती है। यह एफआरए के प्रावधानों के विपरीत है।समिति ने महाराष्ट्र, ओडिशा, कर्नाटक, असम और छत्तीसगढ़ राज्यों के दो-दो जिलों में सर्वेक्षण किए और साक्षात्कार लिए।

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंधा लेखा में ग्राम सभा की बैठक। तस्वीर - मेन्ढा लेखा/विकिमीडिया कॉमन्स।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंधा लेखा में ग्राम सभा की बैठक। तस्वीर – मेन्ढा लेखा/विकिमीडिया कॉमन्स।

जैसे कि रिपोर्ट में पाया गया कि असम के हैलाकांडी जिले में जिला प्रशासन ने दावेदारों को ब्लॉक विकास अधिकारी को उनके अनुरोधों पर कार्रवाई करने का निर्देश दिया था जो कि एफआरए की ओर से तय प्रक्रिया नहीं है। महाराष्ट्र राज्य सरकार ने संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत क्षेत्रों में एक अतिरिक्त समिति, मंडल स्तरीय समिति बनाई, ताकि जिला स्तरीय समिति द्वारा खारिज किए गए दावों के खिलाफ मंडल स्तरीय समिति द्वारा अपील की जा सके। हालांकि, रिपोर्ट में कहा गया है कि जहां तक संभागीय स्तर की समिति की स्थापना के बाद अधिकारों की मान्यता और निपटान का सवाल है, कोई ठोस अंतर नहीं देखा जा सका।लगभग सभी मामलों में, यह देखा गया कि अपीलें या तो लंबित रखी गईं या फिर से सत्यापन के लिए जिला स्तरीय समिति को भेज दी गईं।

ओडिशा के कंधमाल जिले में यह देखा गया कि जिसे प्रशासन द्वारा अनुमोदित दावे के रूप में गिना गया था, कई मामलों में, उस भूमि के सिर्फ एक टुकड़े पर ही अनुमति दी गई थी जिसके लिए दावा मांगा गया था। यह चिंता का विषय था, क्योंकि जनजातीय मामलों के मंत्रालय के डैशबोर्ड के अनुसार, जब वन अधिकारों के लिए निजी दावों को स्वीकार करने की बात आई, तो ओडिशा में 72% की ऊंची दर थी। छत्तीसगढ़ में, टीम ने पाया कि भले ही सामुदायिक वन अधिकार ऊंची दर (90%) पर दिए गए थे, निजी वन अधिकार सिर्फ 52% पर स्वीकृत किए गए थे। राज्य के कांकेर जिले में, उन्होंने पाया कि कई ग्रामीण एफआरए और उन अधिकारों से अनजान थे जिनके वे हकदार हैं।

पांच राज्यों में से कर्नाटक में निजी वन अधिकार दावों की दर सबसे कम सिर्फ 5% थी। रिपोर्ट में कहा गया है, “चिंता की बात यह है कि ऐसे मामलों में भी जहां आईएफआर को मान्यता दी गई है, औसतन आवंटित असल भूमि 0.8 एकड़ है, जो आजीविका चलाने के लिए बहुत कम है।”

सबसे चिंताजनक चीजों में से एक जो हमने लगभग हर जगह पाई वह है गैर-आदिवासी वनवासी समुदाय का मामला। यह समुदाय पीढ़ियों से इन क्षेत्रों में रह रहे हैं, लेकिन उन्हें एफआरए के तहत समितियों में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है। हमने पाया कि ज्यादातर जगहों पर यह गलत धारणा है कि एफआरए सिर्फ अनुसूचित जनजातियों के लिए है और इन अन्य समुदायों के लिए एक जैसा नहीं है। ”वन और लीगल इनीशिएटिव फॉर फॉरेस्ट (LIFE) की स्थापना करने वाले पर्यावरण वकील ऋत्विक दत्ता ने कहा“दूसरी बड़ी चिंता यह है कि सामुदायिक वन अधिकार दिए गए अधिकारों का बहुत छोटा हिस्सा है।”

एफआरए के नियम के तहत ग्राम सभाओं की दस सदस्यीय वन अधिकार समिति में एक-तिहाई अनुसूचित जनजातियों से होने को अनिवार्य बनाते हैं। लेकिन, अन्य वन निवासी समुदायों के प्रतिनिधित्व के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है।

रिपोर्ट में देश के ज्यादातर पूर्वोत्तर क्षेत्र में प्रचलित झूम खेती को एफआरए के तहत परंपरागत प्रथा के रूप में मान्यता देने की मांग भी की गई है। दत्ता ने कहा,झूम स्थानांतरित खेती है, जहां समुदाय हर पांच साल में दूसरी जगह पर बस जाते हैं। वे किस तरह साबित कर सकते हैं कि वे तीन पीढ़ियों से एक ही क्षेत्र में हैं? एफआरए को इस परिपाटी को पहचानने और इसे अपने दायरे में शामिल करने की जरूरत है।

कानून को लागू करने में महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला सबसे अच्छा उदाहरण बनकर उभरा यहां ग्राम सभाओं को एक “बॉडी कॉर्पोरेट” के रूप में काम करने के लिए पर्याप्त अधिकार दिया गया था जो दावों को आसानी से हल करता था। साल 2022 में, जिला प्रशासन ने एफआरए के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी लेने के लिए ग्राम सभाओं की क्षमताओं को मजबूत करने के उद्देश्य से “प्रोजेक्ट एकल” लॉन्च किया। एफआरए कानून के नियमों के अनुसार, दावों के प्रबंधन के लिए ग्राम सभाओं को उनकी भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के बारे में सूचित करने का काम उपमंडल स्तरीय समिति का है।

हालांकि, रिपोर्ट में पाया गया कि गढ़चिरौली में भी सामुदायिक अधिकार देने के लिए नौकरशाही के बड़े स्तर के बीच अनिच्छा थी। यह कहा गया था कि खनन और अन्य परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित क्षेत्रों में सामुदायिक वन अधिकारों की घोषणा जानबूझकर नहीं की गई थी, ताकि इन परियोजनाओं के लिए इन क्षेत्रों को खपाने की सुविधा मिल सकेइसमें कहा गया है कि इस तरह का इनकार एफआरए का पूरी तरह उल्लंघन है। 

नागालैंड में झूम खेती। दिल्ली स्थित एनजीओ कॉल फॉर जस्टिस ने झूम खेती को एफआरए के तहत एक प्रथागत परिपाटी के रूप में मान्यता देने की मांग की है। तस्वीर- जोली/विकिमीडिया कॉमन्स।
नागालैंड में झूम खेती। दिल्ली स्थित एनजीओ कॉल फॉर जस्टिस ने झूम खेती को एफआरए के तहत एक प्रथागत परिपाटी के रूप में मान्यता देने की मांग की है। तस्वीर– जोली/विकिमीडिया कॉमन्स।

कानून को लागू करने में मुश्किलें

साल 2016 में भी एफआरए के असर का आकलन करने वाले इसी तरह की रिपोर्ट तैयार की गई थी। इसमें कई कारकों को इसके खराब कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था इसमें राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, केंद्र के स्तर पर क्षमता निर्माण की कोशिशों में कमी और अन्य प्रणालियों का निर्माण शामिल था। ये चीजें शुरू से ही एफआरए के खिलाफ जाती हैं, जैसे संयुक्त वन प्रबंधन योजनाएं जो वन विभाग को वनों का प्रबंधन करने की शक्ति देती हैं। यह भी पाया गया कि ग्राम सभाओं की सहमति के बिना सामुदायिक वन संसाधनों को विकास परियोजनाओं में खपाय जाना जारी रहा।


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ग्लोबल फ़ॉरेस्ट कोएलिशन की वरिष्ठ जलवायु और जैव विविधता नीति सलाहकार सौपर्णा लाहिड़ी एफआरए की मसौदा समिति की सदस्य थीं। उन्होंने कहा कि कानून की ताकत सामुदायिक वन अधिकारों के कार्यान्वयन में निहित है। वन विभाग और सरकारी नौकरशाही एफआरए के कार्यान्वयन में सबसे बड़ी बाधा हैं, क्योंकि वन संसाधनों पर नियंत्रण को केंद्रीकृत करने की इच्छा इसमें समाई हुई है। एफआरए ने ग्राम सभा को शक्तियां देकर विकेंद्रीकृत शासन प्रदान करने की कोशिश की है, लेकिन इसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अभी भी यह धारणा है कि वनवासी अतिक्रमणकारी हैं जो जंगल को बर्बाद कर देंगे।

अपनी सिफ़ारिशों में, रिपोर्ट में कहा गया है कि जनजातीय मामलों के मंत्रालय और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बीच बेहतर समन्वय की जरूरत है खासकर उस भूमि को खपाने पर जिस पर सामुदायिक वन अधिकारों का दावा किया जा रहा है। इसमें यह भी कहा गया कि जातीय विविधता वाले क्षेत्र को देखते हुए पूर्वोत्तर में कानून के अनुप्रयोग पर “विशेष ध्यान” देने की जरूरत है।

जंगलों के आसपास खेती आजीविका का बड़ा साधन है। तस्वीर - इंडिया वाटर पोर्टल/फ़्लिकर।
जंगलों के आसपास खेती आजीविका का बड़ा साधन है। तस्वीर – इंडिया वाटर पोर्टल/फ़्लिकर।

लाहिड़ी ने कहा,अगर दावे समितियों के पास लंबित पड़े हैं, तो शिकायत निवारण तंत्र बनाने की जरूरत है। इससे भी अहम बात यह है कि एफआरए जैसे कानून काम करें, इसके लिए वन प्रशासन को पूरी तरह से उपनिवेशमुक्त करने की जरूरत है” 

एफआरए की संवैधानिकता को वाइल्डलाइफ फर्स्ट के नेतृत्व में बड़े गैर सरकारी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उनकी दलील थी कि इस कानून से भूमि पर कब्जा हो सकता है और वन्य जीवन संरक्षण कानून जैसे अन्य कानूनों का उल्लंघन हो सकता है। साल 2019 में कार्यवाही के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक विरोध के आलोक में फैसले पर रोक लगाने से पहले, लाखों वन निवास समुदायों को बेदखल करने का आदेश दिया, जिनके दावे खारिज कर दिए गए थे। मामले में एक अन्य याचिकाकर्ता, वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने बाद में याचिका से अपना नाम यह कहते हुए वापस ले लिया कि वह “वन्यजीव और आवास संरक्षण में स्थानीय लोगों के अधिकारों और भूमिका को मान्यता देता है।”

 

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बैनर तस्वीर: केरल में चिन्नार का जंगल। एफआरए दोनों जनजातियों और अन्य वन निवास समुदायों के निजी और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता देता है, जिसमें जंगलों में जल निकायों तक पहुंच शामिल है। तस्वीर – केरल पर्यटन/फ़्लिकर।

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