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मोटे अनाज से क्यों दूर हो रहे हैं मध्य प्रदेश के आदिवासी?

अपने बैलों के साथ सुंडी बाई उइके। बैल मोटे अनाज के सूखे डंठलों के चारों तरफ घूमते हैं। इस प्रक्रिया में अनाज के दाने डंठल से अगल हो जाते हैं। तस्वीर - शुचिता झा/मोंगाबे।

अपने बैलों के साथ सुंडी बाई उइके। बैल मोटे अनाज के सूखे डंठलों के चारों तरफ घूमते हैं। इस प्रक्रिया में अनाज के दाने डंठल से अगल हो जाते हैं। तस्वीर - शुचिता झा/मोंगाबे।

  • मध्य प्रदेश में मोटे अनाज की लगभग खत्म हो चुकी परंपरा को पुनर्जीवित करने में अनाज के प्रसंस्करण और भंडारण में कठिनाई सहित अलग-अलग चुनौतियां सामने आ रही हैं।
  • यहां के आदिवासियों के लिए अनाज कभी मुख्य आहार था। लेकिन अब यह समुदाय सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मुफ्त में मिलने वाला चावल खाना पसंद करता है।
  • मोटे अनाज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं होने और बेहतर उपज के लिए हाइब्रिड बीजों पर सरकार का जोर ऐसी अन्य वजहें हैं जो पारंपरिक किसानों को इस अनाज की खेती करने से रोकते हैं।

सुंडी बाई उइके मध्य प्रदेश के मांडला जिले के केवलारी गांव में रहती हैं। गांव में उनकी झोपड़ी मिट्टी और गाय के गोबर से लीपकर बनाई गई है। झोपड़ी के आसपास फैले बड़े दालान में, 10 बैल एक खंभे से बंधे हैं। उनके पैरों के नीचे मोटे अनाज कोदो के सूखे डंठल हैं। हांकने पर बैल खंभे के चारों ओर घूमते हैंउनके खुर लयबद्ध होकर कोदो के डंठलों से टकराते हैं। यह खंभा पारंपरिक थ्रेशर का मुख्य आधार है। इसका इस्तेमाल उइके जैसे किसान मोटे अनाज के दानों को उनके डंठल से अलग करने के लिए करते हैं। थ्रेसर के बाद वह अपने घर के आंगन में स्थित पारंपरिक मोर्टार का इस्तेमाल करके दानों को भूसी से अलग करने का काम करेंगी। वह कहती हैं, हम जो चाहिए सिर्फ उसे ही तैयार करते हैं। मैं भूसी को चक्की से निकाल दूंगी और फिर लकड़ी के मूसल से पीसूंगी।यह कहते हुए वह बैलों को हांक कर उन्हें आगे बढ़ाती हैं।

तेजस्विनी महिला संघ की सदस्य मध्य प्रदेश के मंडला जिले में भारती न्यूट्री बेकरी में मोटे अनाज से कुकीज़ बनाते हुए। आदिवासी समुदायों के बीच मोटा अनाज खाने की परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए यहां मोटे अनाज से अलग-अलग तरह के कुकीज़ बनाए जाते हैं और पूरे जिले के आंगनबाड़ी केंद्रों में बांटे जाते हैं। तस्वीर - शुचिता झा/मोंगाबे।
तेजस्विनी महिला संघ की सदस्य मध्य प्रदेश के मंडला जिले में भारती न्यूट्री बेकरी में मोटे अनाज से कुकीज़ बनाते हुए। आदिवासी समुदायों के बीच मोटा अनाज खाने की परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए यहां मोटे अनाज से अलग-अलग तरह के कुकीज़ बनाए जाते हैं और पूरे जिले के आंगनबाड़ी केंद्रों में बांटे जाते हैं। तस्वीर – शुचिता झा/मोंगाबे।

मोटा अनाज देशभर के आदिवासी समुदाय का पारंपरिक आहार रहा है। कोदो और कुटकी जैसे मोटे अनाज मध्य प्रदेश में गोंड और बैगा नामक सात आदिवासी समुदायों में से दो के मुख्य आहार हैं। हालांकि, 1960 के दशक में भारत में हरित क्रांति ने देश में अनाज की कमी को सफलतापूर्वक खत्म कर दिया। लेकिन, इस प्रक्रिया में चावल और गेहूं ने मोटे अनाज की जगह ले ली। अपने पोषक तत्वों और जलवायु लचीलेपन के बावजूद मोटे अनाज को गरीबों का आहार माना जाने लगा।

अब मोटे अनाज को की परंपरा को फिर से जीवित करने की कोशिश हो रही है। भारत सरकार के अनुरोध के बाद संयुक्त राष्ट्र ने साल 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष घोषित किया था।

खाद्य और पोषण सुरक्षा के लिए मोटे अनाज

दरअसल, मार्च 2023 में कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें मोटे अनाज को “भारतीय खेती की रीढ़” कहा गया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि ये कठोर, लचीले और जलवायु के अनुकूल हैं जो ख़राब मिट्टी में आसानी से उग सकते हैं और 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में भी लहलहा सकते हैं। चेन्नई में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन में जैव-विविधता के निदेशक इज़राइल ओलिवर किंग कहते हैं,सामान्य तौर पर मोटे अनाज जलवायु के प्रति लचीले होते हैं। वे सूखे जैसी स्थिति का भी सामना कर सकते  और कम से कम नमी में भी जीवित रह सकते हैं। चूंकि, देश में बड़े इलाके ऐसे हैं जहां अभी भी खेती बारिश पर निर्भर है, ऐसे में मोटे अनाज इन जगहों के लिए उपयुक्त हैं। 

शहरी भारतीयों के बीच मोटे अनाज की लोकप्रियता में धीरे-धीरे बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन,जिस आदिवासी समुदाय के लिए ये अनाज कभी मुख्य आहार थे, अब वे राशन की दुकानों से मुफ्त में मिलने वाला चावल खाना पसंद करते हैं। चावल में आयरन और अमीनो एसिड कम होता है। इसलिए यह एनीमिया जैसी स्थितियों से जूझ रही बड़ी आदिवासी आबादी को पर्याप्त पोषण प्रदान नहीं करता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस-5) के अनुसार, मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में लगभग 72.7% बच्चे (6 महीने से 5 साल) और लगभग 55.8% महिलाएं (15 से 49 साल) एनीमिया से पीड़ित हैं। एनएफएचएस-4 के मुकाबले दोनों समूहों में एनीमिया में 3.8% और 2.2% की बढ़ोतरी देखी गई है।

किंग बताते हैं कि मोटे अनाज फाइबर, कैल्शियम और आयरन जैसे खनिजों से भरपूर होते हैं। साथ ही, अमीनो एसिड का अच्छा स्रोत हैं जो पोषण के लिए महत्वपूर्ण है। हर मोटे अनाज की अपनी पोषक प्रोफ़ाइल होती है जो हमारी खाद्य प्रणाली को बेहतर बनाती है।

एनजीओ अर्थ फोकस का कर्मचारी पैकेजिंग से पहले नमी हटाने के लिए मोटे अनाज को धूप में सूखने के लिए फैलाता हुआ। मोटे अनाज को तैयार करके समय उसकी बाहरी परत को हटा दिया जाता है, जिससे वे नमी के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं। ऐसे में वे तेजी से खराब हो सकते हैं। तस्वीर - शुचिता झा/मोंगाबे ।
एनजीओ अर्थ फोकस का कर्मचारी पैकेजिंग से पहले नमी हटाने के लिए मोटे अनाज को धूप में सूखने के लिए फैलाता हुआ। मोटे अनाज को तैयार करके समय उसकी बाहरी परत को हटा दिया जाता है, जिससे वे नमी के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं। ऐसे में वे तेजी से खराब हो सकते हैं। तस्वीर – शुचिता झा/मोंगाबे ।

महिला एवं बाल कल्याण विभाग पोषण सुरक्षा प्रदान करने के लिए अब गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और छह साल से छोटे उनके बच्चों के लिए आंगनबाड़ी में गर्म पकाया भोजन और घर ले जाने वाले राशन सहित अलग-अलग रूपों में मोटे अनाज के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रहा है। यह काम पोषण अभियान 2.0 के हिस्से के रूप में किया जा रहा है। यह सरकारी योजना है जो आहार विविधता, फूड फोर्टिफिकेशन और मोटे अनाज के इस्तेमाल को लोकप्रिय बनाने पर केंद्रित है। पिछले साल जारी विभाग के एक बयान के अनुसार,मोटे अनाज में पोषक तत्व बहुत ज़्यादा होते हैं। इनमें प्रोटीन, जरूरी फैटी एसिड, आहार फाइबर, बी-विटामिन, कैल्शियम, लौह, जस्ता, फोलिक एसिड जैसे खनिज और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व शामिल हैं। इनसे महिलाओं और बच्चों में एनीमिया और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से निपटने में मदद मिलती है।

आंकड़ों के लिहाज से मध्य प्रदेश की आबादी का पांचवां हिस्सा आदिवासी हैं। इसके बावजूद राज्य राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के बाद 2022-23 में 1,276 हजार टन के साथ मोटे अनाज के उत्पादन में पांचवें स्थान पर था। यह पारंपरिक आहार के लिए धीमी गति से हो रहे बदलाव का संकेत देता है।

मोटे अनाज को मुख्यधारा में शामिल करने से जुड़ी चुनौतियां

बाजार में मोटे अनाज की पैठ बढ़ाने में कई व्यावहारिक चुनौतियां हैं। मोटे अनाज की खेती करने वाले ज्यादातर किसान पारंपरिक खेती के तरीकों पर निर्भर हैं, जो बड़े पैमाने पर पैदावार के लिए अनुकूल नहीं हैं। दरअसल, हर फसल के बाद मोटे अनाज फिर से बोने से पहले खेतों को कुछ समय के लिए खाली छोड़ा जाता है। इससे मिट्टी को अपने पोषक तत्वों को फिर से पाने में मदद मिलती है। इस वजह से कई किसान मोटे अनाज की खेती जारी रखने में दिलचस्पी नहीं लेते हैं। नतीजतन, पानी की कमी वाली फसल के रूप में इसकी स्थिति के बावजूद, किसान अक्सर इसके बजाय धान लगाने का विकल्प चुनते हैं।

सोशल एक्शन फॉर रूरल डेवलपमेंट (SARDA) के जिला कार्यक्रम प्रबंधक योगेन्द्र जाटव बताते हैं, “हम किसानों को उपज बढ़ाने के लिए लाइन-बुवाई और जैविक उर्वरक जैसी खेती की नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिससे वे बिना नुकसान उठाए मोटे अनाज की खेती कर सकेंगे।” यह गैर सरकारी संगठन मांडला और डिंडोरी जिलों में मोटे अनाज की खेती को बढ़ावा देने के लिए किसान उत्पादक संगठनों के साथ सहयोग कर रहा है।

केवलारी गांव के 45 वर्षीय किसान शोभाराम मार्को कहते हैं,हम आम तौर पर घर पर चावल खाते हैं। बीमारी के समय के लिए कोदो पेज (पतला दलिया) बचाकर रखते हैं। मोटे अनाज गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए हैं, क्योंकि उन्हें अतिरिक्त पोषण की ज़रूरत होती है।

मंडला से सौ किमी की दूरी पर बालाघाट स्थित है। यहां काम करने वाले गैर सरकारी संगठन अर्थ फोकस के सह-संस्थापक विपुल गुप्ता मोटे अनाज की घटती लोकप्रियता को इसमें लगने वाली मेहनत से जोड़ते हैं। जैसा कि गुप्ता बताते हैं, प्रसंस्करण की पारंपरिक जिम्मेदारी महिलाओं पर होने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले प्रसंस्कृत अनाज की सुविधा ज्यादा आकर्षक हो गई है। नतीजतन, मोटे अनाज को तैयार करने का ज्ञान धीरे-धीरे परिवारों के भीतर खत्म हो गया। इससे नई पीढ़ी अनाज से दूर हो गई। उनका एनजीओ रोजगार के अवसर बढ़ाने और आसापास के परिदृश्य को पुराने रूप में लाने के लिए आदिवासी समुदायों के साथ काम करता है।

मोटे अनाज को पैक करने की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए एनजीओ अर्थ फोकस के सह-संस्थापक विपुल गुप्ता (बाएं)। मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदायों के बीच मोटे अनाज खाने की परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए अलग-अलग सरकारी और गैर-सरकारी संगठन आगे आए हैं। तस्वीर - शुचिता झा/मोंगाबे।
मोटे अनाज को पैक करने की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए एनजीओ अर्थ फोकस के सह-संस्थापक विपुल गुप्ता (बाएं)। मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदायों के बीच मोटे अनाज खाने की परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए अलग-अलग सरकारी और गैर-सरकारी संगठन आगे आए हैं। तस्वीर – शुचिता झा/मोंगाबे।

मोटा अनाज उगाने वाले मांडला के मवई ब्लॉक में 55 वर्षीय किसान धर्म सिंह धुर्वे याद करते हैं कि किस तरह उनकी मां और चाची घर पर मोटे अनाज की कटाई और पिसाई का काम संभालती थीं। अहले सुबह ही दोनों आपस में काम बांट लेती थीं। उन्होंने आगे कहा,हमारे घर पर चक्की और मूसल (मोटा अनाज तैयार के लिए पारंपरिक चीज़ें) थे और दोनों हर दिन ये काम करती थी। मेरी पत्नी ने कुछ समय तक ऐसा किया। लेकिन चावल पकाना आसान था, इसलिए हमने हफ्ते में सिर्फ एक बार कोदो खाना शुरू कर दिया। मेरी बहुएं इस प्रक्रिया के बारे में नहीं जानती हैं, इसलिए अब हम सिर्फ चावल खाते हैं, क्योंकि पूरी प्रक्रिया बोझिल है और युवा पीढ़ी को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है।” 

आदिवासियों के खान-पान में मोटे अनाज की मौजूदगी बढ़ाने के लिए इस चुनौती का हल खोजना जरूरी है। स्थानीय प्रसंस्करण इकाइयां अब सक्रिय रूप से किसानों को मामूली शुल्क पर मोटा अनाज तैयार करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। हालांकि, मांडला जिले में जरूरी मशीनरी वाली सिर्फ छह प्रसंस्करण इकाइयां हैं, जिनमें से सिर्फ पांच ही चालू हैं। पड़ोसी डिंडोरी जिले में लगभग पांच इकाइयां हैं, लेकिन फिर भी सिर्फ लगभग 20% उपज, मुख्य रूप से निजी इस्तेमाल के लिए, स्थानीय स्तर पर प्रसंस्करण से गुजरती है। वहीं बाकी राज्य के बाहर के बाजार में बेचने के लिए निजी एग्रीगेटर खरीद लेते हैं।

राज्य में मोटे अनाज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं होना इसकी पैदावार बढ़ाने में एक और बड़ी बाधा है। जाटव इस बात पर जोर देते हैं कि एमएसपी के बिना, ज्यादातर किसान अपनी उपज निजी एग्रीगेटर को बेचते हैं, जो बाद में प्रसंस्करण, पैकेजिंग और मार्केटिंग के लिए प्रोसेस नहीं किए गए मोटे अनाज को पड़ोसी महाराष्ट्र के नासिक में ले जाते हैं। जाटव बताते हैं, किसान 38 से 40 रुपए प्रति किलो के हिसाब से कुटकी बेचते हैं।, जबकि कोदो की खरीद 32 रुपए प्रति किलो पर होती है। पहले कुटकी के लिए 25 प्रति किलो और कोदो के लिए 18 रुपये मिलते थे। लेकिन सरकार की ओर से मोटे अनाज को बढ़ावा देने के साथ, पिछले दो सालों में कीमतों में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई है।पैक और प्रसंस्कृत कुटकी को 130-150 रुपये प्रति किलोग्राम पर बेचा जाता है। वहीं कोदो 100-120 रुपये प्रति किलोग्राम पर बेचा जाता है। यह किसानों से खरीदी जाने वाली दरों में 100 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी (सिर्फ कच्चे मोटे अनाज के लिए, जिसमें लगने वाली मेहनत तैयार करने और शिपिंग लागत शामिल नहीं है) को दिखाता है।

जाटव जैसे जानकार मानते हैं कि मोटे अनाज से बनने वाले पारंपरिक व्यंजन अब खत्म हो गए हैं। यह भी इस अनाज को आदिवासियों के खान-पान में फिर से शामिल करने में बड़ी बाधा है। इन पारंपरिक व्यंजनों को पुनर्जीवित करने की कोशिश में अर्थ फोकस खाना पकाने की प्रतियोगिताओं का आयोजन करता है। इनमें आदिवासी समुदायों की महिलाओं को उनकी दादी और माताओं से परंपरा में मिले व्यंजन तैयार करने के लिए आमंत्रित किया जाता है।

एनजीओ की सलाहकार डॉली असवानी बताती हैं, “व्यंजनों के खत्म होने का खतरा है, क्योंकि वे पुरानी पीढ़ियों से मौजूदा पीढ़ियों तक नहीं पहुंचे हैं।” “हम इन समुदायों की महिलाओं को कोदो हलवा, कुटकी की खीर और लड्डू जैसे सदियों पुराने व्यंजनों को फिर से देखने और पुनर्जीवित करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।” असवानी इन व्यंजनों को कुकबुक में संकलित कर रही है और शहरी निवासियों और आदिवासी समुदायों के भीतर युवा पीढ़ी के बीच इसकी खपत को बढ़ावा देने के लिए सोशल मीडिया पर इन व्यंजनों को तैयार करने वाली महिलाओं के ट्युटोरियल साझा कर रही हैं।

भारती न्यूट्री बेकरी की एक कर्मचारी जमीला बेगम मोटे अनाज से बने कुकीज के साथ। इसे स्थानीय आंगनबाड़ी केंद्रों को भेजा जाता है। तस्वीर- शुचिता झा/मोंगाबे।
भारती न्यूट्री बेकरी की एक कर्मचारी जमीला बेगम मोटे अनाज से बने कुकीज के साथ। इसे स्थानीय आंगनबाड़ी केंद्रों को भेजा जाता है। तस्वीर- शुचिता झा/मोंगाबे।

मध्य प्रदेश सरकार भी आंगनबाड़ी केंद्रों पर मोटे अनाज से बने कुकीज बांट कर बच्चों के बीच इन अनाजों को सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रही है। तेजस्विनी एकता महिला महासंघ नामक महिला समूह की ओर से संचालित, मंडला के बिछिया गांव में स्थित भारती न्यूट्री बेकरी यूनिट में मोटे अनाज से अलग-अलग तरह के बिस्कुट बनाए जाते हैं और जिले भर के आंगनबाड़ी केंद्रों में बांटने के लिए भेजे जाते हैं। साथ ही, स्थानीय बाजारों में भी इन्हें बेचा जाता है।

स्थानीय बनाम हाइब्रिड बीज

पारंपरिक रूप से तैयार करने के बाद मोटे अनाज की सफाई करना क्षेत्र के किसानों के लिए चुनौती है। गुप्ता बताते हैं, “चूंकि मोटे अनाज को नंगी जमीन पर तैयार किया जाता है, इसलिए छोटे कंकड़ जैसी चीजें अक्सर भोजन में आ जाती हैं।” “इस समस्या को दूर करने के लिए, हम सरसों के छोटे बीजों को बाहर करने के लिए डिजाइन किए गए थ्रेशर का इस्तेमाल कर रहे हैं।”

गुप्ता तैयार मोटे अनाज के भंडारण की चुनौती के बारे में विस्तार से बताते हैं। वह बताते हैं,एक बार जब बाहरी परतें हटा दी जाती हैं, तो अनाज नमी के प्रति संवेदनशील हो जाता है और कुछ ही हफ्तों में खराब हो सकता है।” “तैयार कोदो का भंडारण करना खास तौर पर मुश्किल है, क्योंकि यह आसानी से हवा से नमी को सोख लेता है, जिससे अल्फा विषाक्त पदार्थों का विकास होता है। ऐसे मोटे अनाज के सेवन से फूड पॉइजनिंग, उल्टी और चक्कर आने की समस्या हो सकती है। गैर-संसाधित मोटा अनाज सालों तक चल सकता है, जबकि तैयार मोटा अनाज तुरंत खा लिया जाना चाहिए।


और पढ़ेंः अन्यत मिलेटः अरुणाचल की थाली में वापस आ रहा पारंपरिक खान-पान से जुड़ा मोटा अनाज


साल 2023 में सरकार ने स्टेट मिलेट मिशन स्कीम शुरू की है। इसमें उपज बढ़ाने के उद्देश्य से मोटे अनाज के उन्नत प्रमाणित बीजों पर 80% सब्सिडी का वादा किया गया था। लेकिन  जमीन पर इसका असर नाम मात्र का रहा है। जाटव बताते हैं कि जिले के ज्यादातर किसान अलग-अलग वजहों से संकर बीजों के बजाय देशी बीजों का इस्तेमाल करना जारी रखे हुए हैं, जिसमें बीज बचाने की पारंपरिक प्रथा भी शामिल है। इससे संकर बीजों के लिए उर्वरक और कीटनाशक खरीदने की जरूरत खत्म हो जाती है। नतीजतन, बाजार पर उनकी निर्भरता न्यूनतम हो गई है, जिससे सरकारी योजनाएं उनके लिए कम जरूरी हो गई हैं।

जाटव कहते करते हैं, ”हाइब्रिड किस्मों को अपनाने के बाद इस योजना से किसानों को फायदा होगा।” “हम उन्हें उपज और लाभ को ज्यादा से ज्यादा करने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र, जबलपुर की ओर से विकसित जेके-137 और जीके-04 जैसी ज्यादा उपज देने वाली कोदो किस्मों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।”

 

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बैनर तस्वीर: अपने बैलों के साथ सुंडी बाई उइके। बैल मोटे अनाज के सूखे डंठलों के चारों तरफ घूमते हैं। इस प्रक्रिया में अनाज के दाने डंठल से अगल हो जाते हैं। तस्वीर – शुचिता झा/मोंगाबे।

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