Site icon Mongabay हिन्दी

अंगूर को अचानक बदलने वाले मौसम से बचाते हैं फसल के कवर

नासिक जिले के किसान दिगंबर अशोक काटे अपने अंगूर के बागान की सुरक्षा प्लास्टिक कवर से करते हैं। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।

नासिक जिले के किसान दिगंबर अशोक काटे अपने अंगूर के बागान की सुरक्षा प्लास्टिक कवर से करते हैं। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।

  • बेमौसम बारिश और मौसम से जुड़ी कई अन्य चुनौतियों ने नासिक के अंगूर किसानों की आजीविका को प्रभावित किया है।
  • अंगूर की फसल मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होती है और ज्यादा गर्मी, शीतलहर, बेमौसम बारिश और उमस से इस पर बुरा असर पड़ता है।
  • नासिक के कई किसानों ने अब अपने खेतों पर ऐसे कवर लगाने शुरू कर दिए हैं जो फसलों को ओले और खराब मौसम से जुड़ी अन्य परिस्थितियों से बचाते हैं।

महाराष्ट्र के नासिक जिले में पिछले साल नवंबर में कई बार बेमौसम बारिश हुई और ओले भी पड़े। यह बारिश इतनी जोरदार थी कि सारे खेत ओलों से पट गए थे। इसके चलते अंगूर की उन फसलों को भारी नुकसान हुआ जो तुड़ाई के लिए तैयार थीं। इससे हजारों किसानों को बड़ा सदमा लगा। हालांकि, कई किसान ऐसे भी रहे जो अपनी फसलों को बचाने में कामयाब रहे। दरअसल, इन किसानों ने अपने खेतों में कवर लगा रखे थे। ऐसे ही एक किसान 38 साल के दीपक शिंदे हैं। दीपक मुंबई से 275 किलोमीटर दूर नासिक जिले के मालेगांव तालुका के मधुरपाड़ा गांव के निवासी हैं।

दीपक कहते हैं, “अगर ये कवर न होते तो मालेगांव में अंगूर की अगेती फसल की तुड़ाई रुक जाती क्योंकि भारी नुकसान हो गया था।” इसका श्रेय वह 36 साल के दिगंबर अशोक काटे को देते हैं जो उन्हीं के गांव के प्रगतिशील किसान हैं। दिगंबर ने ही इस इलाके में कवर लगाने की शुरुआत की थी।

दिगंबर काटे उन दिनों को याद करते हैं, जब वह मौसम की वजह खराब हो जाने वाली फसलों के चलते तंग आ चुके थे और साल 2012 में उन्होंने इस तरह के कवर लगाने का फैसला किया। वह हंसते हुए कहते हैं, “मैंने 3.4 लाख रुपये की लागत से अपने दो एकड़ के खेतों में कवर लगवाए थे। उस साल बेमौसम बारिश ही नहीं हुई। हालांकि, साल 2013 में दो बार बेमौसम बारिश हुई और पूरे इलाके में भयानक तबाही हुई। मेरी फसल तब सुरक्षित रही।” दिगंबर की सफलता को देखते हुए कई किसानों ने इसकी ओर रुख किया और फसल पर कवर लगाना शुरू कर दिया।

स्पेशल नॉन-वोवेन हाई डेंसिटी पॉलीएथलीन (HDPE) फैब्रिक से बने हुए इन कवर को प्लास्टिक नेट कवर के तौर पर भी जाना जाता है। इन्हें लगाने के लिए लोहे के एंगल का इस्तेमाल किया जाता है। इनको लगाने से पौधों को जरूरी हवा, नमी, सूरज की रोशनी तो मिलती रहती है लेकिन वे भारी बारिश, ओले और भीषण गर्मी जैसी चीजों से बचे रहते हैं। किसानों और विशेषज्ञों का मानना है कि ये कवर अंगूर को टूटने और बदरंग होने से भी बचाते हैं। आमतौर पर ये समस्याएं तब आती हैं जब फल तैयार होने लगते हैं।

दिगंबर काटे का दावा है कि अब उनके गांव के आसपास के लगभग एक दर्जन गांवों में अंगूर के खेतों में इन कवर का इस्तेमाल किया जा रहा है। ग्रेप्स ग्रोअर असोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सोपान कंचन भी इसका समर्थन करते हैं और इसके फायदे गिनाते हैं। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया कि ये कवर अंगूर की फसल को खराब मौसम और कीड़ों के हमले से भी बचाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अब इस तरह के कवर का इस्तेमाल पूरे महाराष्ट्र में तेजी से बढ़ता जा रहा है।

बाजार के लिए अंगूरों को तैयार करते मजदूर। महाराष्ट्र से निर्यात किए जाने वाले अंगूर का 80 प्रतिशत हिस्सा नासिक में ही पैदा होता है। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।
बाजार के लिए अंगूरों को तैयार करते मजदूर। महाराष्ट्र से निर्यात किए जाने वाले अंगूर का 80 प्रतिशत हिस्सा नासिक में ही पैदा होता है। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।

मौसम की मार झेल रहा है अंगूर

भारत में अंगूर उत्पादन के मामले में महाराष्ट्र पहले नंबर पर आता है। महाराष्ट्र में नासिक प्रमुख उत्पादक जिलों में से एक है और कुल निर्यात होने वाले अंगूर का 80 प्रतिशत यहीं पैदा होता है। नवंबर से अप्रैल 2022-23 के सीजन में इस जिले ने 1.27 लाख टन अंगूर का निर्यात किया था। हालांकि, खराब मौसम की परिस्थितियों ने अंगूर के अनुमानित निर्यात को प्रभावित किया और सरकार ने भी इस बात को स्वीकार किया। नासिक की अंगूर उत्पादक इंडस्ट्री पिछले कई दशकों से खराब मौसम की परिस्थितियों से जूझ रही है। इससे लगभग 10 हजार किसान प्रभावित हुए हैं जो कि अंगूर की खेती से जुड़े काम करते हैं।

यह नाजुक फल है और इन क्षेत्रों में 15 से 40 डिग्री तापमान और सालाना 900 मिमी से कम बारिश में फलता-फूलता है। हालांकि, किसानों को उस समय की बारिश का डर लगा रहता है जब अंगूर के फूल आते हैं या फिर अंगूर पकने वाले होते हैं।

ICAR-नेशनल रिसर्च सेंटर फॉर ग्रेप्स, पुणे के प्रमुख वैज्ञानिक आर जी सोमकुंवर मोंगाबे-इंडिया से बातचीत में अंगूर की फसल पर मौसम के प्रभाव के बारे में बताते हैं। तापमान में तेज बदलाव और पानी की कमी के चलते अंगूर की वृद्धि प्रभावित होती है। पानी की कमी की वजह से फल के विकास के दौरान अविकसित फल निकलते हैं, उनका आकार प्रभावित होता है, वे समय से पहले मीठे हो जाते हैं इसका नतीजा यह होता है कि फसल की तुड़ाई जल्द करनी होती है। बारिश या ओले पड़ने की वजह से बीज पड़ने के दौरान ही फल सड़ जाते हैं और ज्यादा ठंड की वजह फल चटक जाते हैं। सोमकुंवर कहते हैं, “अंगूर में गुच्छे बनने के समय अगर न्यूनतम तापमान 5 से 7 डिग्री के नीचे चला जाता है या फिर 35 डिग्री के ऊपर चला जाता है तो गुच्छों का रंग गुलाबी हो जाता है और लोग इस तरह के अंगूरों को खाना पसंद नहीं करते हैं। खराब गुणवत्ता वाले फलों की वजह से किसानों को उनकी फसल के लिए उचित दाम नहीं मिल पाता है।”

साल 2018 में केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली नेशनल कमिटी फॉर प्लास्टीकल्चर ऐप्लिकेशन्स इन हॉर्टीकल्चर (NCPAH) की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि साल दर साल इस क्षेत्र में तापमान बढ़ता जा रहा है और इसका नतीजा यह हो रहा है कि उत्पादन की गुणवत्ता में गिरावट हुई है। नासिक जिले पर केंद्रित इस रिपोर्ट में बेमौसम बारिश और ओले के बुरे प्रभावों के बारे में बताया गया है। इनकी वजह से अंगूर की फसल की गुणवत्ता प्रभावित हुई है जिसके चलते नुकसान भी खूब हुआ है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले 4 से 5 साल में देखा गया है कि बेमौसम बारिश के साथ-साथ ओले भी खूब पड़े हैं और इसी की वजह से अंगूर के गुच्छों को नुकसान होता है और बिकने वाले अंगूरों की गुणवत्ता पर बहुत असर पड़ा है।

नासिक जिले के मालेगांव के अंगूर किसान दीपक शिंदे अपनी फसल दिखाते हुए। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।
नासिक जिले के मालेगांव के अंगूर किसान दीपक शिंदे अपनी फसल दिखाते हुए। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।

गंभीर मौसम की स्थितियों और उनसे जुड़ी चुनौतियों की वजह से किसान खुद को असहाय पाते हैं। साल 2015 में तापमान इतना कम हो गया था कि किसानों ने कई तरीके अपनाए। कुछ किसानों ने अलाव जलाए ताकि जमीन गर्म रहे और आसपास का तापमान बढ़ जाए। दीपक शिंदे कहते हैं, “हमने अंगूर की खेती के बारे में सब कुछ सीखा है सिवाय मौसम से लड़ने और अपनी फसल की मार्केटिंग करने के।”

किसान की अर्थव्यवस्था को बना या बिगाड़ सकती है अंगूर की खेती

साल 2023 में अंगूर की खेती में सफलता मिलने के बाद दिगंबर काटे ने अपनी खेती को 6 एकड़ में फैला दिया। उनकी ज्यादातर खेती पर कवर लगाए गए थे। पिछले साल नवंबर महीने में नासिक जिले और आसपास के क्षेत्रों में ओले और तूफान ने फसलों को काफी प्रभावित किया था लेकिन इस तरह के उपायों की वजह से दिगंबर काटे की फसल सुरक्षित रही। मालेगांव की जलवायु को अंगूर की खेती के लिए उपयुक्त बताते हुए दिगंबर काटे अक्टूबर से दिसंबर तक के समय को फसल के लिए बेहद अहम बताते हैं। वह कहते हैं, “जब फसल तैयार हो रही रही होती है, उस वक्त बारिश या ओले पड़ने की वजह से पूरी की पूरी फसल खराब हो जाती है।” फसलों के कवर को इंश्योरेंस जैसा बताते हुए काटे कहते हैं, “अगर फसल को कवर किया गया हो तो फसल अच्छी होती है।”

दिगंबर काटे बताते हैं कि अंगूर के एक एकड़ खेत में कवर लगाने का खर्च ढाई से साढ़े तीन लाख रुपये आता है। इसी में फाइबर, लोहे का ढांचे, तार और अन्य चीजों को लगाने का खर्च शामिल है। वह आगे कहते हैं, “एक एकड़ खेत में अंगूर की खेती करने का खर्च लगभग 4 लाख रुपये है। इसमें कीटनाशक, खरपतवार नाशक, खाद, डीजल और मजदूरी का खर्च भी शामिल है।” सामान्य तौर पर 6 से 8 टन का उत्पादन होता है जिससे 9 से 10 लाख रुपये की आमदनी होती है। किसान खराब मौसम से बहुत डरते हैं क्योंकि खर्च और आय में बहुत सारा नुकसान शामिल होता है।

महाराष्ट्र में जिन अंगूरों की खेती होती है उनमें थॉमसन सीडलेस, सोनाका, शरद सीडलेस और तास-ए-गणेश शामिल हैं। मालेगांव के किसान शरद सीडलेस किस्म के अंगूरों की खेती करते हैं। यहां के किसानों का कहना है कि यहां के काले अंगूर सबसे पहले बाजार में आते हैं और उनके लिए किसानों को अच्छे दाम भी मिलते हैं।


और पढ़ेंः [वीडियो] समान सिंचाई के मॉडल से बदलती महाराष्ट्र के इस सूखाग्रस्त क्षेत्र की तस्वीर


शिंदे कहते हैं कि यह इलाका काली मिट्टी वाला है। साल 1969 में बने गिरना बांध की वजह से यहां पानी की कोई दिक्कत नहीं है। यहां का मौसम अंगूर की खेती के एकदम उपयुक्त है। वह कहते हैं, “साल 2000 से ही मालेगांव के 20-25 गांवों में शरद सीडलेस अंगूरों की अगेती खेती का प्रसार खूब हुआ है। अब लगभग 600 से 700 हेक्टेयर खेत में इसी तरह के अंगूरों की खेती हो रही है। मुनाफा भी अच्छा-खासा था लेकिन साल 2010-12 के बाद बेमौसम बारिश के चलते किसानों को नुकसान होने लगा और उन्होंने अंगूर की खेती छोड़कर वैकल्पिक फसलों या फिर गैर कृषि वाली नौकरियों की ओर रुख कर लिया।”

मोंगाबे-इंडिया से बातचीत में ICAR के प्रमुख वैज्ञानिक सोमकुंवर ने भी फसल कवर को अहम बताते हुए कहा, “फसल के कवर खराब मौसम की स्थितियों में किसानों के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं।”

सरकार के हस्तक्षेप की मांग

फसल के कवर के फायदों के बावजूद इसकी लागत किसानों के लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है। बहुत सारे किसानों, उनके संगठनों और नेताओं ने लगातार मांग की है कि इस मामले में सरकार दखल दे और खेती की लागतों पर सब्सिडी का इंतजाम करे।

साल 2015 में किसानों के एक समूह ने एक अपील की और राज्य सरकार से मांग की कि प्लास्टिक कवर लगाने में 80 प्रतिशत सब्सिडी दे। दिगंबर काटे भी दावा करते हैं कि लोगों ने स्थानीय विधायक दादाजी दगडू भूसे से लगभग चार साल पहले मुलाकात की थी। उस समय वह महाराष्ट्र के कृषि मंत्री भी हुआ करते थे। इन लोगों ने राज्य सरकार से मांग की थी कि वह इस मामले में दखल दे और समस्याओं से जूझ रहे किसानों की मदद करे। साल 2023 में नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (शरद चंद्र पवार) के नेता शरद पवार ने सरकार से अपील की थी कि वह अंगूर के खेतों में कवर लगाने के लिए 50 प्रतिशत सब्सिडी का ऐलान करे। ICAR-नेशनल रिसर्च सेंटर फॉर ग्रेप्स के सोमकुंवर भी दावा करते हैं कि उनके संस्थान ने सरकार को कई चिट्ठियां लिखी हैं और कवर पर सब्सिडी देने की मांग की है।

दिगंबर काटे के अंगूर के बागान में लगे फसल कवर। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।
दिगंबर काटे के अंगूर के बागान में लगे फसल कवर। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।

आखिरकार महाराष्ट्र सरकार ने किसानों का समर्थन करने का फैसला किया। महाराष्ट्र ग्रेप्स ग्रोअर असोसिएशन के अध्यक्ष शिवाजी पंवार कहते हैं कि किसानों की लगातार मांग के बाद राज्य सरकार ने साल 2023 में ऐलान किया कि फसल के कवर लगाने में आने वाले खर्च पर 50 प्रतिशत सब्सिडी दी जाएगी। हालांकि, इस सब्सिडी को एक लॉटरी सिस्टम के जरिए सिर्फ 400 एकड़ खेतों तक ही सीमित रखा गया था।

मोंगाबे-इंडिया से बातचीत में शिवाजी पंवार ने इस कवरेज को बढ़ाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “इस सब्सिडी का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि मौसम और बेमौसम बारिश का असर सभी किसानों के लिए एक जैसा है, ऐसे में इसके फायदे हर किसान को मिलने चाहिए।”

मौजूदा सब्सिडी में भी एक और समस्या है। सरकार प्रति एकड़ के हिसाब से इसकी लागत को 4.81 लाख रुपये ही मानती है और इसका आधा हिस्सा ही सब्सिडी के तौर पर दिया जाता है। ऐसे में किसानों को अपनी जेब से 2.4 लाख रुपये खर्च करने होते हैं, ऐसे में सब्सिडी बेमतलब हो जाती है। इस बारे में शिंदे कहते हैं कि अगर किसान अपने पैसे से खुले बाजार से कवर लगवाना चाहें तो इतने ही पैसे में वे खुद ही इसे लगवा सकते हैं।

 

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीर: नासिक जिले के किसान दिगंबर अशोक काटे अपने अंगूर के बागान की सुरक्षा प्लास्टिक कवर से करते हैं। तस्वीर- अरविंद शुक्ला।

Exit mobile version