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जंगल से जीआई टैग तक, झाबुआ के काले मुर्गे कड़कनाथ की कहानी

झाबुआ के सरकारी फार्म पर कड़कनाथ मुर्गा। इसका रंग काला होता है, इनका हर अंग यहां तक कि खून भी काला होता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

झाबुआ के सरकारी फार्म पर कड़कनाथ मुर्गा। इसका रंग काला होता है, इनका हर अंग यहां तक कि खून भी काला होता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

  • मध्य प्रदेश के झाबुआ-अलीराजपुर के पारा और कट्ठीवाड़ा के जंगलों में काले रंग के मुर्गे की प्रजाति पाई गई, जिसे कड़कनाथ के नाम से जाना जाता है।
  • इस मुर्गे का रंग काला होता है, इनका हर अंग यहां तक कि खून भी काला होता है। पोषण में भी आम मुर्गों की तुलना में इसमें प्रोटीन और आयरन की अधिक मात्रा मिलती है।
  • स्वाद और पोषण से भरपूर कड़कनाथ के काले मांस को जीआई टैग भी मिला हुआ है। अधिक गर्मी सह सकने की वजह से इस नस्ल को जलवायु अनुकूल माना जाता है और अधिक गर्म या ठंडे स्थानों के साथ इसे अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर भी पाला जा सकता है।
  • बाजार में इस मुर्गे की अच्छी कीमत मिलने की वजह से देश के 13 राज्यों में कड़कनाथ पालन हो रहा है। झाबुआ के आदिवासी इलाकों में किसानों को रोजगार का अच्छा माध्यम मिला है।

किसान वीर सिंह (44) दानों से भरी एक टोकरी लेकर कुट-कुट, कुट-कुट की आवाज लगा रहे हैं। देखते ही देखते कई दर्जन काले मुर्गे चारों तरफ से उनकी तरफ दौड़ते हैं। झाबुआ जिले के छोटागूड़ा गांव में यह सुबह का वक्त है। इस समय वह बाड़े में बंद मुर्गों को खुले में घूमने और दाना चुगने के लिए बुला रहे हैं। 

“मुर्गे अगर खुले में घूमें तो वह अधिक खुश और स्वस्थ रहते हैं और उनके पंखों की चमक अलग ही दिखती है,” वीर सिंह कहते हैं। 

वीर सिंह पिछले 12 वर्षों से मुर्गा पालन कर रहे हैं। इनके मुर्गे आम पोल्ट्री फार्म के मुर्गों से अलग सफेद के बजाए काले रंग के हैं। ये मुर्गे झाबुआ की विशेष पहचान हैं, इनका नाम है कड़कनाथ। “कड़कनाथ मुर्गे पंख से लेकर त्वचा, नाखून, टांगे और भीतर के अंग तक काले होते है। यहां तक कि इनका खून भी काला होता है,” वीर सिंह अपने मुर्गों की खासियत बताते हैं। 

कड़कनाथ की उत्पत्ति के सवाल पर वीर सिंह बताते हैं, “हमारे दादाजी कहा करते थे कि जंगल में एक काला मुर्गा रहता था। इसे कालामासी कहते थे। हालांकि, मैंने बचपन में किसी को मुर्गा पालते हुए नहीं देखा, लेकिन बाद में वैज्ञानिकों की मदद से इसे पालना शुरू किया।” 

वीर सिंह कुट-कुट की आवाज लगाते हुए मुर्गों को दड़बे से बाहर बुला रहे हैं। “मुर्गे अगर खुले में घूमें तो वह अधिक खुश और स्वस्थ रहते हैं और उनके पंखों की चमक अलग ही दिखती है,” वीर सिंह कहते हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
वीर सिंह कुट-कुट की आवाज लगाते हुए मुर्गों को दड़बे से बाहर बुला रहे हैं। “मुर्गे अगर खुले में घूमें तो वह अधिक खुश और स्वस्थ रहते हैं और उनके पंखों की चमक अलग ही दिखती है,” वीर सिंह कहते हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

कड़कनाथ मुर्गा कभी झाबुआ और अलीराजपुर के जंगलों में पाया जाता था। भील और भिलाला आदिवासियों ने इन्हें जंगल से निकालकर पालना शुरू किया। इनके रीति-रिवाजों में इन मुर्गों का काफी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सरकारी रिकॉर्ड्स के मुताबिक कड़कनाथ मुर्गे की एक भारतीय नस्ल है। इनकी उत्पत्ति मध्य प्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर जिले के कट्ठीवाड़ा और पारा के जंगलों से हुई है। कड़कनाथ की तीन प्रजातियां हैं: जेट ब्लैक, गोल्डन और पेंसिल्ड। 

कड़कनाथ के मांस को “झाबुआ कड़कनाथ ब्लैक चिकन मीट” नाम से साल 2012 में जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग या जीआई टैग दिया गया।  

जीआई टैग सर्टिफिकेट।
जीआई टैग सर्टिफिकेट।

जंगल से सरकारी पोल्ट्री फार्म तक

पशु चिकित्सक ए. एस. दिवाकर सरकारी कड़कनाथ फार्म के काम में व्यस्त हैं। मुर्गों को संक्रमण से बचाने के लिए दवा का इंतजाम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि कड़कनाथ पालन के लिए झाबुआ में मध्य प्रदेश शासन ने एक सरकारी फार्म बनाया है। दिवाकर इस फार्म के प्रबंधक हैं। उन्होंने जंगल से फार्म तक की यात्रा बताते हुए कहा, “पहले अलीराजपुर जिला भी झाबुआ का हिस्सा था। वहां कट्ठीवाड़ा जंगल के मूल निवासी जंगल से काला मुर्गा पकड़कर लाते थे। उनके पारंपरिक त्योहारों और रीति-रिवाजों में मुर्गों का उपयोग होता था।” 

वह आगे कहते हैं, “80 के दशक में यह जानकारी सरकार तक पहुंची और सरकारी प्रयासों की वजह से काले मुर्गे-मुर्गियों को जंगल से इकट्ठा किया गया। सरकार ने 1985 में एक केंद्र खोला जहां इनका प्रजनन शुरू हुआ।”

इस केंद्र को शुरू करते ही सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती आई। “पता चला कि यह मुर्गी अपने अंडों पर नहीं बैठती है जिससे उससे चूजे निकलना मुश्किल हो गया। इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने हैचरी मशीन का इंतजाम किया और इससे मुर्गों की संख्या बढ़ने लगी,” दिवाकर ने बताया। 

झाबुआ के सरकारी कड़कनाथ फार्म में मुर्गों की देखभाल करता एक कर्मचारी। यहां मुर्गों को इंफेक्शन से बचाने के लिए साफ-सफाई का खास ख्याल रखा जाता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
झाबुआ के सरकारी कड़कनाथ फार्म में मुर्गों की देखभाल करता एक कर्मचारी। यहां मुर्गों को इंफेक्शन से बचाने के लिए साफ-सफाई का खास ख्याल रखा जाता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

चार दशक बीतने के बाद अब झाबुआ के अलावा मध्य प्रदेश और देश के कई राज्यों में कड़कनाथ पाला जाता है। “हमारे यहां से चूजे और अंडे देश के कोने-कोने में जाते हैं। सरकारी फार्म के अलावा झाबुआ में कई निजी फार्म भी खुले हैं जहां से अंडों और चूजों की सप्लाई होती है,” दिवाकर बताते हैं। 

कड़कनाथ को बाजार तक पहुंचाने में मध्य प्रदेश सरकार के प्रयासों के अलावा झाबुआ में राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय, ग्वालियर द्वारा संचालित कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के प्रयास भी शामिल हैं। 

केवीके झाबुआ के प्रमुख और वरिष्ठ वैज्ञानिक जगदीश मौर्य ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि कड़कनाथ को लेकर सबसे पहले 2009 में काम शुरू किया गया। “हमने 50 मुर्गों से इसकी शुरुआत की और किसानों तक चूजे पहुंचाने लगे। अब हम गुजरात, ओडिशा, तमिलनाडु, असम, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश तक चूजे और अंडों को पहुंचते हैं।”

पोषण से भरपूर

केवीके झाबुआ ने कड़कनाथ के मांस की गुणवत्ता जानने के लिए इसके सैंपल राष्ट्रीय पोषण संस्थान को भेजे। रिपोर्ट में सामने आया कि कड़कनाथ के मांस में वसा और कोलेस्ट्रॉल कम होता है, वहीं इसमें प्रोटीन और आयरन की मात्रा अधिक पाई जाती है। आंकड़ों के मुताबिक कड़कनाथ में हर 100 ग्राम पर 24 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा मिलती है, जबकि साधारण ब्रायलर चिकन में यह मात्रा 18 से 20 प्रतिशत है। इसमें 1.94 से 2.6 प्रतिशत वसा की मात्रा है जबकि ब्रायलर चिकन में वसा 13 से 25 प्रतिशत तक होती है। इसी तरह, कड़कनाथ के मांस में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा 59-60 एमजी प्रति 100 ग्राम होती है, और ब्रायलर चिकन में यह 218.12एमजी प्रति 100 ग्राम होती है। 

जलवायु परिवर्तन के लिए अनुकूल

कड़कनाथ देसी प्रजाति का होने की वजह से यहां की आबोहवा के अनुकूल है। मौर्य कहते हैं, “झाबुआ का मौसम गर्म है लेकिन भीषण गर्मी में भी कड़कनाथ आसानी से पाला जा सकता है।”

झाबुआ में औसतन 855.5 मिलीमीटर बारिश होती है और गर्मी में दिन का तापमान 40 डिग्री के पार चला जाता है। मध्य प्रदेश सरकार की संस्था एप्को द्वारा जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि झाबुआ मध्य प्रदेश के उन जिलों में शामिल है जहां जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव होंगे। ऐसे में कड़कनाथ पालन रोजगार का एक उपाय हो सकता है। 

बढ़ती गर्मी में ब्रॉयलर चिकन के मुकाबले कड़कनाथ पालना आसान है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
बढ़ती गर्मी में ब्रॉयलर चिकन के मुकाबले कड़कनाथ पालना आसान है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

कृषि विज्ञान केंद्र, झाबुआ के साथ कड़कनाथ मुर्गे पर लंबे वक्त तक शोध करने वाले वैज्ञानिक चंदन कुमार ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में बताया कि कड़कनाथ प्रजाति जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेल सकती है। “कड़कनाथ एक देसी प्रजाति है और यहां के मौसम के प्रति अनुकूल है। कोई भी देसी पक्षी बढ़ रही गर्मी के प्रति अनुकूलन कर सकता है।” कुमार इन दिनों उत्तर प्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय एवं गो-अनुसंधान संस्थान, मथुरा में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। 

कड़कनाथ प्रजाति के गर्मी सहने को लेकर दिवाकर कहते हैं कि इसकी ग्रोथ रेट ब्रॉयलर की तुलना में कम है इसलिए यह 35 डिग्री सेल्सियस तापमान के बाद भी बची रहती हैं। जबकि ब्रॉयलर चिकन को बचाने के लिए ठंडक के इंतजाम करने पड़ते हैं। हालांकि, वह मानते हैं कि झाबुआ का तापमान 45 डिग्री सेल्सियस को छूने लगा है जिसकी वजह से अब कड़कनाथ को भी गर्मी से बचाने के इंतजाम करने होंगे। 

कड़कनाथ की इस खूबी को देखते हुए केवीके झाबुआ ने कई गांवों में किसानों को जलवायु जोखिम से निपटने के लिए कड़कनाथ के चूजे दिए। “जलवायु अनुकूल कृषि पर राष्ट्रीय नवाचार (एनआईसीआरए) के तहत हमने चार गांव में किसानों को रोजगार के नए साधन दिए। इसमें खेती के तरीके को बदलने के अलावा कड़कनाथ पालन भी शामिल है।” इस कार्यक्रम से जुड़े केवीके झाबुआ के अनिल कुमार शर्मा बताते हैं। “कड़कनाथ, झाबुआ की जलवायु के अनुकूल है। यहां की गर्मी को सहने वाली है, इसमें चूजे की मृत्यु दर कम होती है, और अच्छी कीमत में बिकती है। इससे किसानों की आमदनी बढ़ती है,” शर्मा कहते हैं। 

“जलवायु अनुकूल होने की वजह से सिर्फ झाबुआ और मध्य प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश के 13 राज्यों में कड़कनाथ को पाला जा रहा है,” कुमार बताते हैं। 

अत्यधिक ऊंचाई वाले लद्दाख में भी अनुकूल है कड़कनाथ

रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की रक्षा उच्च उन्नतांश अनुसंधान संस्थान (डीआईएचएआर ) ने 2022 में प्रकाशित अपने एक शोध में पाया कि कड़कनाथ लद्दाख जैसे ऊंचाई वाले स्थान पर भी पाला जा सकता है। शोध में सामने आया कि दूसरे मुर्गों को पालने में कई कठिनाइयां हैं लेकिन अपनी बढ़ने की धीमी गति के कारण कड़कनाथ कम ऊर्जा में भी काम चला सकता है, जिस वजह से वहां इनकी मृत्यु दर कम है। लद्दाख जैसे स्थान पर दूसरे मुर्गों की प्रजाति सफल नहीं है, लेकिन लद्दाख के किसानों को इसे पालने की सलाह दी जा रही है।  

कड़कनाथ के साथ क्रॉस ब्रीड की चुनौती

कड़कनाथ नस्ल की मुर्गी में कई गुण हैं लेकिन मांस के लिए पालने वालों को पांच से छह महीने का इंतजार करना पड़ता है। “ब्रॉयलर मुर्गों को मांस के लिए तैयार किया जाता है और यह डेढ़ महीने में ही बिकने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन कड़कनाथ को तैयार होने में छह महीने का वक्त लग सकता है,” कुमार बताते हैं। 

इसे जल्दी तैयार करने के लिए कई प्रयोग किए जा रहे हैं। कड़कनाथ को दूसरी नस्ल के साथ प्रजनन कराकर अलग तरह की प्रजाति बनाई जा रही है। केंद्रीय पक्षी अनुसंधान केंद्र ने कड़कनाथ नस्ल और कार्ल रेड मुर्गी का क्रॉस बनाकर कैरी श्यामा नामक मुर्गे की नई नस्ल तैयार की है। इसी तरह नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय, जबलपुर ने कडकनाथ और जबलपुर कलर नामक मुर्गी की नस्लों के जीन्स के मिश्रण से नर्मदा निधी नामक नई नस्ल तैयार की है। कई वैज्ञानिक ऐसे प्रयोग को कड़कनाथ की प्रमाणिकता के लिए अच्छा नहीं मान रहे हैं। 

कड़कनाथ के बीच एक देसी मुर्गा। कड़कनाथ की दूसरे ब्रीड के मुर्गे के साथ प्रजनन इनकी प्रमाणिकता के लिए एक चुनौती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
कड़कनाथ के बीच एक देसी मुर्गा। कड़कनाथ की दूसरे ब्रीड के मुर्गे के साथ प्रजनन इनकी प्रमाणिकता के लिए एक चुनौती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

“इस तरह की क्रॉस नस्ल भले ही कड़कनाथ की तरह दिखें लेकिन उसकी गुणवत्ता कड़कनाथ जैसी नहीं होती है। असली कड़कनाथ एक से डेढ़ किलो का ही होता है जबकि क्रॉस ब्रीड का वजन तीन किलो भी हो सकता है। बाजार में कई लोग क्रॉस ब्रीड को भी कड़कनाथ कहकर बेचते हैं, जो गलत है,” कुमार कहते हैं। 

ब्रीड की शुद्धता पर दिवाकर कहते हैं कि हम पक्षी की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए जंगल के गांवों से कड़कनाथ लाते रहते हैं और उनसे प्रजनन कराकर इसे बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं। 

बाजार में जबरदस्त मांग से आई तरक्की 

किसान वीर सिंह मुर्गी पालन से बेहद खुश है। अपने मुर्गों को दाना डालते हुए वह बताते हैं, “तीन महीने पहले मैंने अपने मुर्गे गुजरात से आए एक व्यापारी को 27 हजार रुपए में बेचे। इसमें लागत 30 प्रतिशत है और 70 प्रतिशत आमदनी। पांच से छह महीने मुर्गों को अच्छे से खिलाना होता है और फिर वह बिकने को तैयार हो जाते हैं।” 


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पोषण से भरपूर होने की वजह से कड़कनाथ को बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। इसे किसान 800-1000 रुपये प्रति किलोग्राम और अंडों को 20-35 रुपये की दर से बेचते हैं। 

साल 2022 में प्रकाशित एक शोध में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कड़कनाथ के वैल्यू चेन का विश्लेषण किया गया। इसमें सामने आया कि 38 प्रतिशत कड़कनाथ किसान व्यापारियों को बेचते हैं। 33 प्रतिशत मुर्गे किसान सीधे ग्राहक को बेचते हैं। व्यापारियों द्वारा खरीदे गए लगभग 39% पक्षियों को अन्य जिलों में निर्यात किया जाता है, जबकि 31 प्रतिशत और 22 प्रतिशत पक्षियों को व्यापारियों द्वारा क्रमशः ढाबों और उपभोक्ताओं को बेचा जाता है। 

दड़बे में मुर्गों को दाना डालने वीर सिंह। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
दड़बे में मुर्गों को दाना डालने वीर सिंह। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

वीर सिंह की तरह झाबुआ के अंतरवेलिया गांव की पुष्पा दोहरे ने भी केवीके से प्रशिक्षण लेकर कड़कनाथ पालन शुरू किया। उन्होंने साल 2021 में  500 कड़कनाथ से इसे शुरू किया था। अब उनके पास 2000 से अधिक वयस्क मुर्गे और 10,000 की क्षमता वाली हैचरी उपलब्ध है। 

पुष्पा दोहरे और वीर सिंह जैसे उद्यमियों की मदद के लिए झाबुआ जिला प्रशासन ने ‘एक जिला एक उत्पाद’ के तहत कड़कनाथ मुर्गों को खरीदने और बेचने के लिए झाबुआ कड़कनाथ नाम से एक पोर्टल बनाया है। कई दर्जन उद्यमी इसी पोर्टल से जुड़कर कड़कनाथ के अंडे और मुर्गियां बेचते हैं। 

अब सुबह का सूरज चढ़ने लगा है। जून की यह धूप मुर्गों को नुकसान कर सकती है, इसलिए वीर सिंह अब दड़बे के भीतर जाकर कुट-कुट, कुट-कुट की आवाज लगाने लगे। उनकी आवाज सुनकर आसपास के खेतों से मुर्गे तेजी से दौड़ते हुए अपने दड़बे में घुस गए।

 

बैनर तस्वीरः झाबुआ के सरकारी फार्म पर कड़कनाथ मुर्गा। इसका रंग काला होता है, इनका हर अंग यहां तक कि खून भी काला होता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

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