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कच्छ के कुम्हार बेहतर भट्टियों के साथ बदलाव के लिए तैयार

गुजरात के कच्छ में बेहतर भट्टी बनाई जा रही है। नई बेहतर भट्टी के साथ कुम्हारों को जलावन की जरूरत में काफी कमी महसूस हो रही है। स्थानीय एनजीओ खमीर द्वारा ली गई तस्वीर।

गुजरात के कच्छ में बेहतर भट्टी बनाई जा रही है। नई बेहतर भट्टी के साथ कुम्हारों को जलावन की जरूरत में काफी कमी महसूस हो रही है। स्थानीय एनजीओ खमीर द्वारा ली गई तस्वीर।

  • मिट्टी के बर्तन बनाने में ईंधन की खपत बहुत ज्याद होती है। पारंपरिक भट्टियों में मिट्टी के बर्तन पकाने में 36 घंटे लगते हैं। भट्टी को जलाने के लिए जलावन मिलना भी मुश्किल होता जा रहा है।
  • गुजरात के कच्छ क्षेत्र में बेहतर भट्टी से ईंधन की जरूरत करीब आधी रह गई है। साथ ही, बर्तन पकाने में लगने वाला समय भी चार से पांच घंटे तक कम हो गया है।
  • बेहतर बनाई गई भट्टियों से कुम्हारों का समय और मेहनत बचती है। इसके अलावा, उत्पादन में आने वाला खर्च भी कम आता है। वहीं, ईंधन के कम इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन भी घटा है।

गुजरात के कच्छ में कुम्हारों के लिए ईंधन का कम खपत करने वाली भट्टियों की शुरुआत हुई है। इससे पकाने में लगने वाले समय और जलावन की जरूरत कम हो गई है,। इससे बहुत ज्यादा ईंधन की खपत वाले इस उद्योग में मिट्टी के बर्तन बनाने से जुड़ी चिंताएं कम हुई हैं। साथ ही, कारीगरों और पर्यावरण दोनों को फायदा हो रहा है।

मिट्टी के बर्तन बनाना प्राचीन शिल्प है। गुजरात के कच्छ के कुछ हिस्सों में इसका इतिहास सैकड़ों साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ा हुआ है। कच्छ में लगभग 55 गांव हैं। इन गांवों में कुम्हार समुदाय के लोग रहते हैं और काम करते हैं। मिट्टी की चीजें बनाना बनाना लंबी प्रक्रिया हैइसमें कच्चे माल की आपूर्ति से लेकर कुम्हार के चाक पर तैयार मिश्रण को ढालने और आखिर में इन बर्तनों को पकाने के लिए भट्टी को जलाने तक कई चरण होते हैं। समय के साथ, हर चरण चुनौतियों से भर गया है। जैसे, भट्टी को जलाने के लिए जलावन तक पहुंच अब और ज्यादा कठिन हो गई है, क्योंकि बुनियादी ढांचे के विकास के चलते पेड़ काटे जा रहे हैं।

साल 2023 में, इस क्षेत्र के कुम्हारों के लिए कम ईंधन वाली भट्टियां लगाने की पहल ने नई उम्मीद जगाई है। इससे ना सिर्फ समय बच रहा है, बल्कि पारंपरिक भट्टियों में लगने वाला समय भी घटकर महज चार से पांच घंटे रह गया है। वहीं, जलावन की मांग भी 50% तक कम हो गई है। इससे कुम्हारों और पर्यावरण दोनों को फायदा हो रहा है।

बेहतर बनाए गए भट्टे से ईंधन के लिए लकड़ी की जरूरत घटकर आधी रह जाती है और कुम्हारों और पर्यावरण दोनों को फायदा हो रहा है। तस्वीर- एनजीओ खमीर।
बेहतर बनाए गए भट्टे से ईंधन के लिए लकड़ी की जरूरत घटकर आधी रह जाती है और कुम्हारों और पर्यावरण दोनों को फायदा हो रहा है। तस्वीर- एनजीओ खमीर।

इन भट्टों को आईआईटी-दिल्ली के रुटैग (ग्रामीण प्रौद्योगिकी कार्य समूह) की ओर से शिल्पकारों के साथ काम करने वाले स्थानीय एनजीओ खमीर के सहयोग से डिजाइन किया गया है। इसे सबसे पहले भुज में रामजूभ भाई के घर में लगाया गया था। उनका कहना है कि इस भट्टे ने जलावन की जरूरत और प्रक्रिया में लगने वाले समय को कम कर दिया है। उन्होंने कहा, “मिट्टी को पकाने में एक-तिहाई समय यानी सिर्फ चार से पांच घंटे लगे।”

पारंपरिक, लेकिन ऊर्जा-गहन

गुजरात के कच्छ क्षेत्र में मिट्टी के बर्तन बनाने के पारंपरिक तरीके समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं। ये तरीके पीढ़ियों से विरासत की तरह आगे बढ़ रहे हैं।

मिट्टी के बर्तन बनाने के उद्योग में ईंधन खूब लगता है। मिट्टी के बर्तन बनाने में छोटे पैमाने के उद्योगों में इस्तेमाल किए जाने वाले भट्टे बहुत ज्यादा अकुशल होते हैं। ये भट्टे प्रक्रिया के लिए असल ऊर्जा की जरूरत की तुलना में ज्यादा मात्रा में ईंधन की खपत करते हैं। गांव में रहने वाले ज्यादातर कुम्हार लकड़ी वाले पारंपरिक भट्टों पर निर्भर हैं। इसमें ज्यादातर ऊर्जा बर्बाद हो जाती है। भट्ठे को जलाने पर, 70% ऊर्जा भट्टे की दीवारों और फर्श पर ही खत्म हो जाती है।आईआईटी-दिल्ली के प्रोफेसर एमआर रवि और अन्य द्वारा महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में मिट्टी के बर्तनों के भट्टों में लगने वाली ऊर्जा का ऑडिट किया गया। कच्छ की तरह, ऑडिट किए गए भट्टे भी अपड्राफ्ट थे। इसका मतलब है कि मिट्टी के बर्तनों को किसी प्लेटफॉर्म पर रखा जाता है और नीचे ईंधन जलाया जाता है। आग मिट्टी के बर्तनों के जरिए ऊपर उठती है और ऊपर से बाहर की ओर निकलती है।

कुम्हारों की लंबी परंपरा से जुड़े हुए रामजूभ भाई ने बताया कि पारंपरिक, खुले में बने भट्टे में मिट्टी के उत्पाद पकाने में लगभग 36 घंटे लगते हैं। उन्होंने कहा, “2001 में कच्छ में आए भूकंप के बाद हमें स्वर्गीय गुरचरण सिंह द्वारा डिजाइन किए गए भट्टे से परिचित कराया गया, जिसने पकाने के समय को घटाकर 15 घंटे कर दिया।” स्टूडियो कुम्हार सरदार गुरचरण सिंह को पारंपरिक मिट्टी के बर्तनों को कला के रूप में विकसित करने के लिए जाना जाता है। उन्हें चीनी मिट्टी के बर्तनों के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।

हालांकि, सिंह के इस इनोवेशन में पारंपरिक भट्टी की तुलना में उत्पादों को पकाने में कम समय लगा, लेकिन फिर भी इसमें आधे दिन से ज़्यादा समय लगा। आईआईटी-दिल्ली के रवि ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “इसके अलावा, ये भट्टे बैच भट्टे हैं इसका मतलब है कि भट्टी के पूरी तरह ठंडा हो जाने के बाद मिट्टी के उत्पाद बाहर निकाले जाते हैं। इसलिए, ऊर्जा की कोई रिकवरी नहीं होती है इसलिए हमारा उद्देश्य भट्टियों को इस तरह से बेहतर बनाना था कि ऊर्जा की बचत हो सके। यह फायरिंग के दौरान गर्म होने वाली सामग्री को कम करके किया जा सकता है। हमें यह सोचना था कि ईंधन के नुकसान को कम करने के लिए दीवारों और संरचना को किस तरह हल्का किया जाए।”

अपने बेहतर बनाए गए भट्टे के पास खड़े कुम्हार रामजूभ भाई। यह आईआईटी दिल्ली की रुटैग टीम की ओर से कच्छ में बनाया गया पहला भट्टा था। तस्वीर: अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे।
अपने बेहतर बनाए गए भट्टे के पास खड़े कुम्हार रामजूभ भाई। यह आईआईटी दिल्ली की रुटैग टीम की ओर से कच्छ में बनाया गया पहला भट्टा था। तस्वीर: अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे।

ईंधन बचाने के लिए एयर गैप

रवि ने बताया कि कच्छ में कम ईंधन खर्च करने वाली कुशल भट्टियां बनाने का विचार छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुम्हारों के साथ उनके काम के जैसा ही था। उन्हें ऊर्जा के नुकसान को कम करने के लिए इन्सुलेशन बनाना था। लेकिन कुम्हारों से महंगी इन्सुलेशन सामग्री के लिए खर्च करने की बजाय, उन्होंने रैट-ट्रैप बॉन्डिंग तरीके का इस्तेमाल करने का फैसला किया।

रवि ने समझाया, रैट-ट्रैप बॉन्डिंग तरीके का मतलब है कि ईंट की सबसे भीतरी दीवार और सबसे बाहरी दीवार के बीच खाली जगह है। यह हवा का अंतर एक इन्सुलेशन परत बनाएगा जो मुफ्त है।” “हमारे पीएचडी छात्रों में से एक सुनील गोखले ने यह सुझाव दिया। उनका कहना था कि पश्चिमी देशों में कई इमारतों की संरचनाएं इस तरह से बनाई जाती हैं।” भट्ठे में हवा का अंतर तीन इंच था और दोनों तरफ की दीवारों की मोटाई भी इतनी ही थी। इसी तरह, भट्ठे के निचले ईंट के फर्श के बीच भी खाली जगह रखी गई थी, जहां लकड़ी जलाई जाती है और जिस जमीन पर यह टिकी होती है। ये एयर गैप इन्सुलेशन परतें ऊर्जा के नुकसान को कम करेंगी।

हालांकि, एक चुनौती थी। भट्टी को जलाने के बाद उसमें दरारें दिखाई देने लगीं। भट्ठा बनाने में शामिल रामजूभ भाई ने खमीर के साथ इस मुद्दे पर चर्चा की और सुझाव दिया कि ईंटों को लगाने का तरीका बदला जाना चाहिए।ईंट को इसकी संकीर्ण सतह पर खड़ा रखने के बजाय, इसकी व्यापक सतह पर रखा जाए” ताकि इसकी ताकत बढ़ाई जा सके। इससे हवा का अंतर दो इंच तक कम हो गया। रवि ने कहा, “उस समय कच्छ में रह रहे मेरे एक छात्र ने मुझे इस बारे में पूछने के लिए बुलाया। यह डिजाइन तब तक काम करेगी जब तक एक या दो इंच का एयर गैप है, इसलिए मैंने इसे आगे बढ़ा दिया।” इसलिए, अब तक कच्छ के अलग-अलग गांवों में बनाए गए बाकी 19 भट्टों के लिए इस बदली गए डिजाइन को लागू किया गया है।

“रेट-ट्रैप की दीवार की मोटाई कम करने से ऊर्जा की बहुत बचत होती है, लेकिन इसकी संरचनात्मक ताकत कम होती है, जिसके कारण पकाने के बाद दरारें पड़ सकती हैं। इसलिए हमने कुम्हारों से कहा है कि अगर ऐसा होता है, तो दीवारों पर मिट्टी का प्लास्टर कर दें।रवि ने कहा, “इस बीच, हम दीवार को स्टील बेल्ट से सील करने पर काम कर रहे हैं, ताकि इसकी मजबूती बेहतर हो सके।” टीम औद्योगिक-गुणवत्ता वाली ईंटों के साथ प्रयोग करने की प्रक्रिया में भी है जो ज्यादा तापमान को सहन कर सकती हैं।

इस बीच, खमीर कुम्हारों के गांवों में 20 से ज़्यादा ऐसे भट्टे बनाने की योजना बना रहा है। खमीर के निदेशक घटित लहरू ने कहा, “हमारी योजना कुम्हारों को निर्माण में शामिल करना जारी रखना है, ताकि वे तकनीक सीख सकें और डिज़ाइन को दोहरा सकें।” खमीर ऐसे भट्टों पर आने वाले खर्च को वहन करेगा, जो लगभग तीस हजार रुपए है। वहीं, कुम्हार खुद भट्टा बनाकर मदद करते हैं।

ईंधन बचाने का मतलब खर्च, समय बचाना और कम मेहनत

ईंधन की बचत का तात्कालिक असर यह है कि भट्टी को जलाने के लिए कम मात्रा में लकड़ी की जरूरत होती है। भुज से लगभग 100 किमी दूर नलिया में रहने वाले कुम्हार 24 साल के साजिद भाई ने कहा, “यह हमारे लिए बहुत मददगार होगा, क्योंकि पहले गंडो बावल (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) के तने और शाखाएं आसानी से उपलब्ध होती थीं, अब उन तक पहुंचना मुश्किल हो रहा है।” कच्छ में, बावल को आक्रामक प्रजाति के तौर पर पर देखा जाता है। हालांकि, खमीर के अनुसार चारकोल उद्योग अपने इस्तेमाल के लिए इन पेड़ों के बड़े हिस्से को साफ करता है। इस वजह से  इन पेड़ों तक पहुंच मुश्किल हो गई है। साजिद भाई ने कहा, “हमें और हमारे परिवारों को अब इनकी शाखाएं लाने के लिए तीन या उससे ज्यादा किलोमीटर चलना पड़ता है।”

अपने घर में नई बनी बेहतर भट्टी के पास खड़े कच्छ के नलिया में कुम्हार साजिद भाई। तस्वीर: अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे।
अपने घर में नई बनी बेहतर भट्टी के पास खड़े कच्छ के नलिया में कुम्हार साजिद भाई। तस्वीर: अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे।

जलावन के संघर्ष के अलावा जानकार एक और बड़ी चिंता को सामने रखते हैं। आईआईटी दिल्ली के रवि ने कहा कि गुजरात में आस-पास के उद्योगों की वजह से अक्सर भट्टियों को जलाने के लिए कचरे का इस्तेमाल किया जाता है। शहरी क्षेत्रों में, खास तौर पर  खमीर के दीपेश भाई ने कहा कि भट्टी जलाने के लिए कपड़े के कचरे और प्लास्टिक का इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने कहा, “जैसा कि आप कल्पना कर सकते हैं, इन सामग्रियों को जलाने से निकलने वाला धुआं स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बहुत नुकसानदेह है।”


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बेहतर भट्टी का इस्तेमाल करने वाले कुम्हार इसे ज्यादा बार जला सकेंगे और ज्यादा बर्तन बना सकेंगे। साजिद भाई कहते हैं कि मिट्टी के बर्तन बनाने का काम मुख्य रूप से साल में सिर्फ चार महीने ही किया जाता है, जो गर्मी के महीने होते हैं। इस समय भट्टी को जलाया जाता है। मानसून में यह काम बंद हो जाता है। साल के बाकी दिनों में वे तैयार उत्पाद का पर्याप्त स्टॉक बना लेते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि बेहतर भट्टी के साथ, उन्हें उम्मीद है कि वे अपने भट्टी को ज्यादा बार जला सकेंगे और ज्यादा बर्तन बना सकेंगे। उन्होंने कहा, “अभी तक मैं अपने भट्टी को महीने में दो या तीन बार जलाता हूं। हम मिट्टी के बर्तन थोक में बनाते हैं और उन्हें एक साथ जलाते हैं।” वह अपना बर्तन ज़्यादातर मेलों और स्थानीय बाज़ार में बेचते हैं।

अगले कुछ महीनों में रवि और उनकी टीम ने बेहतर भट्टियों का ईंधन ऑडिट करने की भी योजना बनाई है। उन्होंने कहा, “कुम्हारों को ईंधन की जरूरत में 40-50% की कमी देखने को मिल रही है, इसलिए कार्बन उत्सर्जन में भी 40-50% की कमी आई है।” इसलिए ये भट्टियां ना सिर्फ कुम्हारों की मदद कर रही हैं, बल्कि पर्यावरण को भी फायदा पहुंचा रही हैं।

 

मिट्टी से बने बर्तन को पकाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली पारंपरिक खुला भट्टी। तस्वीर: अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे।
मिट्टी से बने बर्तन को पकाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली पारंपरिक खुला भट्टी। तस्वीर: अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे।

 

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बैनर तस्वीर: गुजरात के कच्छ में बेहतर भट्टी बनाई जा रही है। नई बेहतर भट्टी के साथ कुम्हारों को जलावन की जरूरत में काफी कमी महसूस हो रही है। स्थानीय एनजीओ खमीर द्वारा ली गई तस्वीर।

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