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बन्नी की खाने वाली घासों के खतरा बन रहा है विलायती बबूल का फैलाव

बन्नी में खाने योग्य घास खेवई की एक डंडी लेकर दिखाते रसूल भाई (बाएं)। वाडा कोली समुदाय के दीना भाई विलायती बबूल के पेड़ की डाल से निकला गोंद दिखाते हुए। वह इस गोंद को पेड़ से इकट्ठा करते हैं और कच्छ के वन निगम में बेचते हैं। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे के लिए।

बन्नी में खाने योग्य घास खेवई की एक डंडी लेकर दिखाते रसूल भाई (बाएं)। वाडा कोली समुदाय के दीना भाई विलायती बबूल के पेड़ की डाल से निकला गोंद दिखाते हुए। वह इस गोंद को पेड़ से इकट्ठा करते हैं और कच्छ के वन निगम में बेचते हैं। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे के लिए।

  • एक समय ऐसा था जब बन्नी के घास के मैदानों में खाने योग्य घास की कई प्रजातियां पाई जाती थीं और स्थानीय समुदाय के लिए भरपूर हरियाली उपलब्ध थी। अब धीरे-धीरे ये कम होते जा रहे हैं।
  • विलायती बबूल (Prosposis juliflora) के विस्तार की वजह से बन्नी का फैलाव तेजी से कम हुआ है और इसी के चलते स्थानीय घासों की विविधता के साथ-साथ उन प्रजातियों की घास भी कम हो गई हैं जिन्हें खाया जा सकता है।
  • वन विभाग ने साल 2019 में बन्नी ग्रासलैंड रीस्टोरेशन प्रोजेक्ट शुरू किया था ताकि विलायती बबूल को यहां से उखाड़ा जा सके और स्थानीय घास की प्रजातियों को लगाया जा सके। हालांकि, स्थानीय निवासी अनोखे तरीके निकाल रहे हैं ताकि वे अपने दैनिक जीवन में इसका इस्तेमाल कर सकें।

गुजरात के कच्छ में स्थित बन्नी के घास के मैदान के निवासी रसूल भाई वह समय याद करते हैं जब उनके दादा-परदादा किस्से सुनाते थे कि कैसे वे खाने वाले घास की स्थानीय प्रजातियों की घास के लिए यहां से वहां घूमा करते थे। उदाहरण के लिए, एक स्थानीय प्रजाति की घास सउ (Echinochloa species) के बीज का इस्तेमाल करके बाजरे की रोटी जैसा रोतला बनाते थे।

रिसर्च एंड मॉनीटरिंग इन द बन्नी लैंडस्केप (RAMBLE) में फील्ड असिस्टेंट के तौर पर काम करने वाले रसूल भाई कहते हैं, ‘यह प्रथा अब बेहद दुर्लभ हो गई है क्योंकि अब स्थानीय घास की वैसी प्रजातियों के पौधे ही बड़ी मुश्किल से मिलते हैं जिन्हें खाया जा सके।’ कई अन्य स्थानीय लोगों से बात करके पता चला कि ऐसे ही हाल हैं। एशिया के सबसे बड़े और अच्छे घास के मैदान बन्नी के खराब होते जाने से स्थानीय लोगों की डाइट पर भी असर पड़ रहा है। विडंबना यह है कि बन्नी के खराब होते जाने की अहम वजह कहे जा रहे विलायती बबूल को भी अब कुछ स्थानीय लोगों ने आजीविका का साधन बना लिया है।

स्थानीय खाने योग्य घास

शिकार करना और अपने आस-पास के वातावरण से खाना जुटाना इंसानों के विकास के साथ हमेशा से जुड़ा रहा है और साथ-साथ चला है। हालांकि, 12 हजार साल पहले तक ऐसा नहीं था जब तक इंसानों ने पौधों और जानवरों को पालना शुरू नहीं कर दिया। बन्नी में 19 ग्राम पंचायत हैं। यहां के लोग अक्सर इन्हीं घास के मैदानों से खाने-पीने की चीजें जुटाते हैं।

बन्नी ब्रीडर्स असोसिएशन के कोऑर्डिनेटर ईसा भाई मुटवा कहते हैं कि वे लोग स्थानीय घासों जैसे कि खेवई (Sporobolus species) और चींचीं (Eragrostis japonica) के बीज खाते हैं। वह आगे कहते हैं, ‘खेवई, चींचीं और सउ के बीज से रोटी बनाई जाती है।’ वह यह भी बताते हैं कि मोराड को सब्जी की तरह खाया जाता है या सब्जी बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। पहले यह भी आसानी से मिल जाती थी लेकिन अब यह सिर्फ जलाशयों के किनारे ही मिलती है।

Eragrostis japonica. स्थानीय समुदायकों के लोग अक्सर इन्हीं घास के मैदानों से अपने खाने-पीने की चीजें जुटाते हैं। तस्वीर- दिनेश वाल्के/Flickr
Eragrostis japonica. स्थानीय समुदायकों के लोग अक्सर इन्हीं घास के मैदानों से अपने खाने-पीने की चीजें जुटाते हैं। तस्वीर– दिनेश वाल्के/फ्लिकर

Suaeda प्रजाति के तहत आने वाली घास मोराड के पौधे पुष्ट होते हैं और इनका स्वाद खट्टा होता है। रिसर्चर पंकज जोशी कहते हैं कि इसी की वजह से इनका इस्तेमाल चटनी बनाने में किया जाता है। वह आगे बताते हैं, ‘कच्छ ऐतिहासिक रूप से सूखा प्रभावित क्षेत्र रहा है। यहां सूखा पड़ने पर स्थानीय लोग काल (Cyeraceae फेमिली की घास) के बीज को कलौंदा और धामुर को आटे में मिलाकर रोटियां बनाते हैं और वही खाते हैं।’

रसूल भाई कहते हैं कि जिंजवा एक और घास है जो डिंचैंथियम फेमिली की है और खाने योग्य घास है और इसे सब्जी की तरह खाया जाता है।

खाने-पीने से जुड़ी ज्यादातर आदतें अब समय के साथ कम होती जा रही हैं। इसके दो अहम कारण हैं- पहला कि लोगों की जीवनशैली में बदलाव हुआ है और आक्रमणकारी प्रजातियों जैसे कि विलायती बबूल का विस्तार हुआ है। विलायती बबूल को स्थानीय भाषा में गांडो बावल कहा जाता है।

आक्रमणकारी प्रजातियां

विलायती बबूल के विस्तार को बन्नी के मैदानों के खराब होने का सबसे अहम कारण माना जाता है। कहा जाता है कि इस घास के मैदान की उत्पादकता साल 1960 में 4000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से घटकर 1999 में 620 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई है। रिसर्चर ओवी थोराट ने एक किताब में घास की 40 से ज्यादा प्रजातियों को दर्ज किया है। इस किताब को आशीष नेर्लेकर और पंकज जोशी के साथ ओवी ने मिलकर लिखा है। ओवी कहते हैं, ‘किसी आक्रमणकारी प्रजाति के इस तरह से फैलने से स्थानीय विविधता (घास और पौधों) पर असर पड़ता है।’

रसूल भाई कहते हैं, ‘जिंजवो एक छोटी प्रजाति है जो पहले की तरह आसानी से नहीं मिलती है। इसी की तरह अब मोराद की घास भी नहीं मिलती है।’ वह आगे कहते हैं कि सात से 8 साल पहले उन्होंने और पंकज जोशी ने मिलकर एक प्लॉट में घास और पौधों की 35 से ज्यादा प्रजातियों को गिना था। कुछ सालों के बाद हम उसी प्लॉट में सिर्फ 15 प्रजातियां ही गिन पाए।

वह आगे कहते हैं, ‘विलायती बबूल के अलावा अनियमित बारिश भी इस क्षेत्र में घासों की विविधता को होने वाली नुकसान की अहम वजह है।’ भारत के मौसम विभाग की मनोरमा मोहंती और भूविज्ञान मंत्रालय की कमलजीत रे की एक स्टडी के मुताबिक, कच्छ में पिछले तीन दशक (1984 से 2013 तक) में बारिश 378 mm से 674 mm तक बढ़ गई है।

बेमौसम और अनियमित बारिश की वजह से मशरूम के सीजन प्रभावित हो रहे हैं। स्थानीय भाषा में मशरूम को नारी कहा जाता है। ईसा भाई कहते हैं, ‘इस मशरूम को इकट्ठा करने का समय बहुतम हो जाता है। मानसून की बारिश से पहले सिर्फ तीन दिन का ही समय होता है।’ 

बन्नी के घास के मैदान के 50 पर्सेंट से ज्यादा हिस्से में विलायती बबूल फैल चुका है। तस्वीर- दिनेश वाल्के/फ्लिकर
बन्नी के घास के मैदान के 50 पर्सेंट से ज्यादा हिस्से में विलायती बबूल फैल चुका है। तस्वीर– दिनेश वाल्के/फ्लिकर

गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले में आने वाले घास के मैदान बन्नी ने स्थानीय समुदायों को कई पीढ़ियों से खाने योग्य घासों, बेलों, लताओं, सब्जियों और फलों से समृद्ध किया  है। उदाहरण के लिए, रेशमिया गांव में रहने वाली 65 साल की मंजुबेन मंसुखभाई मोरी ऐसे कई पौधों को गिना सकती हैं जिनको वह 10 साल की उम्र से देखती आई हैं। वह कहती हैं, ‘हम कलीम अली (Drimia indica) और कनकोडा (Momordica dioica) या कंटोला की सब्जी बनाते हैं। ये मानसून के समय भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। सर्दियों के समय मैं प्रिक्ली पीयर कैक्टस के फल इकट्ठा करती हूं ताकि जूस बना सकूं।’ मोरी साप या गुंदर (गोंद) के खास लड्डू बनाती हैं, इन्हें बबूल के पेड़ से इकट्ठा किया जाता है। वह आगे कहती हैं, ‘हालांकि, अब बबूल का मिलना मुश्किल हो गया। मुझे इसके लिए अपनी मां के गांव जाना पड़ता है ताकि मैं गोंद ढूंढ सकूं।’

कई वयस्कों के मन में अभी भी यादें ताजा हैं जब वे लोग बबूल के पेड़ से गोंद निकाला करते थे। स्वाद में मीठे गुंदर (गोंद) को घी के साथ गर्म किया जाता है जिससे कि क्रिस्टल आकार में बड़े हो जाते हैं। फिर इन्हें भुने हुए गेहूं के आटे में मिलाकर लड्डू बनाया जाता है। अपने अनुमान के मुताबिक, ओवी थोराट कहती हैं कि अब बबूल के पेड़ों की जगह बन्नी के विलायती बबूलों ने ले ली है। वह आगे कहती हैं, ‘खासतौर पर विलायती बबूल ने मध्य बन्नी के घास के मैदानों को घेर लिया है क्योंकि यह इलाका घास और पेड़ों के लिए ज्यादा उपयुक्त है।’

घास के मैदान को बचाना

विलायती बबूल मूलरूप से मेक्सिको और दक्षिणी अमेरिका की स्थानीय झाड़ी है। साल 1961 में ग्रेट रण ऑफ कच्छ के विस्तार को रोकने के लिए वन विभाग ने बन्नी में विलायती बबूल लगाने शुरू किए थे. बता दें कि कच्छ के रण ने उत्तर की ओर से बन्नी को घेरा हुआ है।  हालांकि, समय के साथ इसने घास के मैदानों पर भी कब्जा जमा लिया और उनके नष्ट होने की अहम वजह बन गया। साल 2019 में वन विभाग ने बन्नी ग्रासलैंड रीस्टोरेशन प्रोजेक्ट की शुरुआत की। बन्नी डिवीजन के डिप्टी वन संरक्षक बी एम पटेल कहते हैं, ‘इसी प्रोजेक्ट के तहत विलायती बबूल के इन पेड़ों को बड़ी-बड़ी मशीनों से उखाड़ा जा रहा है और उनकी जगह पर स्थानीय प्रजाति की घास लगाई जा रही हैं।’


और पढ़ेंः गुजरात: बन्नी घास मैदान से जुड़ी विरासत की लड़ाई में मालधारी समुदाय को मिली जीत


विडंबना यह है कि इस जंगली और आक्रमणकारी प्रजाति ने अब स्थानीय लोगों के जीवन में भी अपनी जगह बना ली है। उदाहरण के लिए, रसूल भाई कहते हैं कि विलायती बबूल के गोंद को इकट्ठा किया जाता है और कई बार इसे ठोस कैंडी की तरह वैसे ही खाया जाता है जैसे बबलू के गोंदो को खाया जाता है। वह आगे कहते हैं, ‘विलायती बबूल के गोंद को चबाना थोड़ा मुश्किल होता है और यह चिपचिपा होता है। इसे गर्मी के दिनों में इकट्ठा किया जाता है। हम सबने बचपन में इसे इकट्ठा किया है लेकिन मुख्य रूप से वाडा कोली समुदाय के लोग इस तरह का काम करते हैं।’

विलायती बबूल का गोंद (बाएं), बन्नी में मिलने वाली खाने योग्य घास (दाहिने)। तस्वीर-अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे के लिए।
विलायती बबूल का गोंद (बाएं), बन्नी में मिलने वाली खाने योग्य घास (दाहिने)। तस्वीर-अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे के लिए।

बन्नी के वाडा कोली समुदाय से ताल्लुक रखने वाले दीना भाई कहते हैं, ‘गोंद तीन प्रकार का होता है- लाल, काला और सफेद। यह पेड़ के प्रकार पर निर्भर करता है। हम आमतौर इन तीनों प्रकार के गोंद को आपस में मिलाते हैं और इसे वन निगम में 60 रुपये किलो के हिसाब से बेच देते हैं।’ वाडा कोली समुदाय के लोग विलायती बबूल की लकड़ियों को भी बेचते हैं जिसका इस्तेमाल करके चारकोल बनाया जाता है। वन निगम गुजरात का राज्य वन विकास निगम है जो कि राज्य के माइनर वन उत्पाद (MFP) के इस्तेमाल और सतत विकास के लिए काम करता है ताकि वन पर आश्रित लोगों को आजीविका कमाने के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं।

वन निगम के इन-चार्ज और सब-डिविजनल मैनेजर अनूप सिंह जेठवा कहते हैं कि इस गोंद की नीलामी कंपनियं को भी की जाती है। वह आगे कहते हैं, ‘उदाहरण के लिए, गोंद का इस्तेमाल अजरख क्राफ्ट्सपीपल के लोग करते हैं क्योंकि वे कपड़ों पर ब्लॉक प्रिंटिंग करते हैं।’

स्थानीय लोग, खासतौर पर वाडा कोली लोग बबूल के पेड़ों पर लगे मधुमक्खियों के छत्तों से शहद इकट्ठा करते हैं और उसे वन निगम को बेचते हैं। दीना भाई कहते हैं, ‘यहां से निकलने वाला शहद सफेद और कम गाढ़ा होता है।’

जेठवा के मुताबिक, वन निगम हर साल लगभग 2000 क्विंटल शहद इकट्ठा करता है जिसमें विलायती बबूल से मिलने वाला शहद भी शामिल है। वह आगे कहते हैं, ‘पहले यह मात्रा और भी ज्यादा थी। हालांकि, कई अलग-अलग कारणों जैसे कि चारकोल उद्योग बढ़ने, स्थानीय समुदायों की शहद पर निर्भरता और कई तरह के कामों में लगे होने से मधुमक्खियों की संख्या कम हुई है। इतना ही नहीं बेमौसम बारिश की वजह से शहद उत्पादन में भी कमी आई है।’ शहद और खाने-पीने योग्य पौधों की उपलब्धता कम होने के साथ-साथ इनके बारे में लोगों की जानकारी भी कम होती जा रही है। रसूल भाई कहते हैं, ‘युवा पीढ़ी को इनमें से ज्यादातर पौधों के बारे में जानकारी ही नहीं है।’ इनका दस्तावेजीकरण न होने की वजह से खाने-पीने वाले पौधों और परंपराओं के बारे में जानकारी कम होती जा रही है और लोग इनके बारे में भूलते जा रहे हैं।

 

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बैनर तस्वीर: बन्नी में खाने योग्य घास खेवई की एक डंडी लेकर दिखाते रसूल भाई (बाएं)। वाडा कोली समुदाय के दीना भाई विलायती बबूल के पेड़ की डाल से निकला गोंद दिखाते हुए। वह इस गोंद को पेड़ से इकट्ठा करते हैं और कच्छ के वन निगम में बेचते हैं। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान/मोंगाबे के लिए।

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