- अलीगढ़ में ताला बनाने वाली लगभग 6,000 से ज्यादा फैक्ट्रियां हैं जो देश में बनने वाले तालों का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा बनाती हैं।
- अलीगढ़ का ताला उद्योग शुरुआती तौर पर निकले वाले कचरे के इस्तेमाल पर निर्भर करता है। यह कचरा शुरुआती मैन्युफैक्चरिंग, पोस्ट मैन्युफैक्चरिंग और कबाड़ में आई गाड़ियों के कचरे से निकलता है। धातुओं के इस कचरे से ताले बनाए जाते हैं।
- पिछले 10-15 साल में देखा गया है कि कार से निकलने वाले कबाड़ से ताले बनाए जाते हैं जिससे नए संसाधनों की मांग घट जाती है और ऊर्जा की खपत कम हो जाती है। साथ ही, स्टील उत्पादन से पैदा होने वाला कार्बन उत्सर्जन भी कम होता है।
एक आम सोमवार की सुबह 47 साल के साजिद अली एक रोलर में बड़ी बारीकी से स्टील की शीट डाल रहे हैं। यह मशीन इस शीट को चपटी कर देती है ताकि ताला बनाने के लिए उसका इस्तेमाल किया जा सके। अलीगढ़ के साजिद अली का परिवार तीन पीढ़ियों से ताले बनाने का काम कर रहा है। भले ही ये शीट नई आई हों लेकिन उन पर मौजूद निशान यह बताते हैं कि उनका इस्तेमाल पहले भी हो चुका है। कहीं-कहीं ऊबड़-खाबड़ होने की वजह से पता चलता है कि इस शीट को रीसाइकलिंग के जरिए बनाया गया है। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के शाह जमाल इलाके के निवासी साजिद कहते हैं, “ये नई शीट नहीं हैं। हार्डवेयर उद्योग में हमेशा अधिकतम शुद्धता और एकरूपता की जरूरत नहीं होती है। ऐसे में हम इन शीट का भी इस्तेमाल आराम से कर लेते हैं। यही वजह है कि हम कार से निकलने वाले कबाड़ का इस्तेमाल करते हैं।”
करीब 21 साल की उम्र से ही ताला बनाने का काम कर रहे साजिद अब हर दिन लगभग 35 से 40 ताले बनाते हैं जो अलग-अलग आकार के होते हैं। साजिद को इतने ताले बनाने के लिए लगभग 15 किलो कबाड़ वाली धातु की जरूरत पड़ती है। इतना मटीरियल जुटाना आसान काम नहीं है। इसके लिए साजिद जैसे कई अन्य कारीगर सुबह से ही सरोज नगर और ऐसे ही कुछ दूसरे इलाकों में इकट्ठा होते हैं और वहां धक्का-मुक्की और भीड़ के बीच कबाड़ के डीलरों से मोलभाव करते हैं। कई बार के मोलभाव के बाद ही ये कारीगर अपने तालों के लिए कच्चा माल खरीद पाते हैं।
पुरानी शीट से बनाए गए ये चमचमाते ताले लोगों की कीमती चीजों की सुरक्षा करने का वादा करते हैं। इन तालों की मांग न सिर्फ देश के कोने-कोने में होती है बल्कि दुनिया के कई देशों में भी इन्हें हाथों-हाथ लिया जाता है। यह दिखाता है कि ताला बनाने के मामले में आज भी अलीगढ़ की कितनी अहमियत है। अलीगढ़ में ताला बनाने वाली कम से कम 6000 रजिस्टर्ड फैक्ट्रियां हैं। अलीगढ़ का ताला बनाने का इतिहास मुगलों से जमाने से जुड़ा हुआ है। हालांकि, असल में अंग्रेजों को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए क्योंकि उन्हीं के समय इसे एक अहम आर्थिक गतिविधि के रूप में पहचान मिली।
नई दिल्ली से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित अलीगढ़ में लगभग दो लाख से ज्यादा कारीगर ऐसे हैं जो अपने हाथ से ताले बनाते हैं। यहां बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों से लेकर घरेलू यूनिट तक में ताले बनाए जाते हैं। इस तरह यह शहर भारत में बनने वाले तालों का कुल 75 प्रतिशत हिस्सा बनाता है। रजिस्टर्ड कंपनियों के अलावा लगभग 3000 घर भी ऐसे हैं जो इसी उद्योग से जुड़े हुए हैं। इन घरों में तालों को बनाने वाले उपकरण और उनके छोटे-छोटे पुर्जे हमेशा बिखरे मिलते हैं।
धातु के कचरे का दोबारा इस्तेमाल
ताले बनाने का उद्योग मुख्य तौर पर अच्छी गुणवत्ता वाले कच्चे माल जैसे कि स्टेनलेस स्टील, लोहे, पीतल और निकेल की जरूरत होती है। हालांकि, स्थानीय उत्पादकों का कहना है कि पिछले कुछ सालों में यह देखा गया है कि इस उद्योग से जुड़े लोग प्राथमिक संसाधन के तौर पर कार से निकलने वाले कबाड़ का इस्तेमाल करने लगे हैं।
साजिद अली उन दिनों को याद करते हैं जब यही स्क्रैप डीलर्स यानी कबाड़ीवाले ऐसी गाड़ियों में आते थे जिनमें पीतल के कबाड़ जैसे कि मग, पैन और गैस के नॉब भरे रहते थे। इन्हीं कबाड़ वाली चीजों में संभावनाएं देखते हुए ताला निर्माताओं ने कच्चे माल के लिए वैकल्पिक संसाधन तलाशने शुरू कर दिया। इसका नतीजा ही है कि यह क्रांतिकारी खोज हुई कि धातु के इस कचरे का फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है।
इस नई पहल ने ताला उद्योग में खोज की लहर दौड़ा दी है। दरअसल, ऑटोमोबाइल सेक्टर में धातु का कचरा भरपूर मात्रा में निकलता है। यही वजह है कि कारीगरों और फैक्ट्री मालिकों ने इसमें अवसर देखा और इसे एक संसाधन के तौर पर इस्तेमाल शुरू कर दिया। इस तरह से ताले बनाने का तरीका काफी रचनात्मक और सस्ता साबित हुआ और इससे उन ताला निर्माताओं की समस्या हल हुई जो कच्चे माल की कमी से परेशान थे।
‘जी भैयाजी सिक्योर होम्स’ के मैनेजिंग डायरेक्टर सागर गुप्ता इस उद्योग की पर्यावरण संबंधी पहल पर प्रकाश डालते हैं। वह कहते हैं, “हम कबाड़ वाला माल बड़ी भट्टियों से लेते हैं। कार निर्माता अक्सर अपने अतिरिक्त माल को ऑनलाइन नीलामी के जरिए बेचते हैं। यह धातु अलग-अलग मोटाई वाली होती है। भले ही इसे कबाड़ कहा जाता हो लेकिन हमारे काम के लिए यह सबसे बेहतर गुणवत्ता वाला होता है।” ताला उद्योग लचीली और वर्गाकार शीट को अहमियत देता है जो कि ताला बनाने और हार्डवेयर बनाने के लिए सबसे बेहतर होता है। इस तरह इस तरह के कच्चे माल का दोबारा इस्तेमाल किया जाता है।
इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी, गाजियाबाद की फैकल्टी सदस्य रत्न वाड्रा ने अलीगढ़ के ताला उद्योग पर एक रिसर्च पेपर लिखा है और उसकी चुनौतियों का भी जिक्र किया है। वह कहती हैं कि ‘करके सीखना’ जैसे सिद्धांतों का एक विशेष असर अलीगढ़ के ताला उद्योग खासकर कच्चा माल जुटाने के तरीकों पर पड़ा है। यहां के ताला बनाने वाले लोगों ने अपने हाथ से काम करके अनुभव लिया और जानकारी के साथ-साथ कच्चे माल को जुटाने का सतत कौशल भी जुटाया। उदाहरण के लिए, इन लोगों ने कई तरह के रीसाइकल्ड मटीरियल का परीक्षण किया। वह बताती हैं कि इन लोगों ने उनकी उपयोगिता आंकी और यह भी समझा कि कौनसा सप्लायर सबसे सस्ता और पर्यावरण की दृष्टि से सबसे बेहतर समाधान देता है।
रीसाइकलिंग की अर्थव्यवस्था
साजिद अली बताते हैं कि कार के कचरे का इस्तेमाल पिछले 15 साल पहले काफी तेजी से शुरू हुआ। वह कहते हैं, “वैसे तो ताले बनाने वाला उद्योग हमेशा से अलग-अलग तरह के कबाड़ पर निर्भर रहा है और सिर्फ कार के कबाड़ के अलावा घर से निकलने वाले पीतल, एल्युमिनियम, लोह और स्टील का भी सीमित मात्रा में इस्तेमाल किया जाता रहा है। हम लोगों के पास जो शीट कॉइल आती थीं उनकी मोटाई 600 मिमी से 1800 मिमी तक होती थीं और ये न तो हमारी जरूरत के हिसाब से ठीक थीं और न ही वे सस्ती पड़ती थीं।”
ताला बनाने वाली छोटी-छोटी फैक्ट्रियों के कुछ मालिकों ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि कार के कबाड़ का इस्तेमाल शुरू करने की सबसे अहम वजह यह थी कि वह काफी सस्ता था। नई शीट काफी महंगी पड़ती थी और उसकी तुलना में कार वाला कबाड़ बेहद सस्ता था। इसके अलावा, इस तरह के कबाड़ की प्रकृति उन्हें तालों के छोटे-छोटे हिस्से बनाने के उपयुक्त बनाती है जिससे कि उनकी उपयोगिता बढ़ जाती है। इस कबाड़ का इस्तेमाल अच्छे तरीके से करने से ताला बनाने वालों ने काफी बेहतर और प्रभावी उत्पादन प्रक्रिया बना ली है। इसके लिए, इन लोगों ने यह तय कर लिया है कि तालों के लिए कितने टुकड़े चाहिए और उनका कॉम्बिनेशन क्या होना चाहिए।
स्टेनलेस स्टील शीट कॉइल जैसे कि जिंदल SS 304 की कीमत मोटाई और चौड़ाई के हिसाब से बदलती जाती है। उदाहरण के लिए, भारत में 3 से 4 मिमी शीट की कीमत लगभग 250 रुपये प्रति किलो होती है और मोटाई बढ़ने के साथ कीमत भी बढ़ जाती है। गुप्ता ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि उन्हें जो मटीरियल चाहिए होता है वही नीलामी में 100 से 150 रुपये प्रति किलो में मिल जाता है।
स्थिरता की तलाश में ये कारीगर पारंपरिक तरीकों से हटकर अलग-अलग तरह के कबाड़ को खोजते रहते हैं जिनका इस्तेमाल किया जा सके। ब्रासको एंटरप्राइजेज के प्रोपराइटर प्रदीप माहेश्वरी कहते हैं, “ताला उद्योग में हम हर तरफ ऐसे कबाड़ को खोजते रहते हैं जिसका फिर से इस्तेमाल किया जा सके। यहां तक कि हम कंप्यूटर मैन्युफैक्चरिंग से बचने वाली शीट को भी ले आते हैं जिसकी कि कोई उम्मीद भी नहीं करता है। जब इन शीट को इनके मुख्य काम के लिए काट दिया जाता है तो बचे हुए हिस्से को हम ले आते हैं और उसे तालों के लिए छोटे-छोटे टुकड़ों में काटते हैं। इससे न सिर्फ कच्चा माल बचता है बल्कि पर्यावरण से कचरा कम करने में भी मदद मिलती है।”
इस रीसाइकलिंग के लिए प्रतिबद्धता तब दिखती है जब यह देखने को मिलता है कि सिलिंडर के नॉब का भी दोबारा इस्तेमाल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, सरकार सिलिंडर के नॉब जैसी चीजों को इकट्ठा करती है और उन्हें नीलामी में बेचती है। फैक्ट्री के मालिक उसे खरीदते हैं और उसका इस्तेमाल ताले बनाने में करते हैं। माहेश्वरी आगे समझाते हैं, “यहां तक कि हमारी कास्टिंग प्रक्रिया से निकलने वाले कचरे ‘लोचन’ को भी रीसाइकल किया जाता है और नए मटीरियल की तुलना में बेहद खर्च में उसे पीतल की तरह ढाल दिया जाता है।”
रीसाइकल किए गए पीतल के सस्ते होने की चर्चा करते हुए माहेश्वरी कहते हैं कि 300 रुपये प्रति किलो वाले इस पीतल के साथ 75 रुपये का रीसाइकलिंग खर्च भी आता है। इसमें उसे पिघलाने और उसे एक निश्चित आकार देने का खर्च भी शामिल है।
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अलीगढ़ लॉक मैन्युफैक्चरर्स एंड ट्रेडर्स असोसिएशन के अध्यक्ष हरी ओम का कहना है कि चाइनीज तालों से मिल रही चुनौती की वजह से कबाड़ का इस्तेमाल बढ़ा है। वह कहते हैं, “हमें सरकार से जो मदद मिलनी चाहिए वह नहीं मिलती है। हमें लोहे या स्टील की शीट के लिए मार्केट रेट ही देना पड़ता है। उदाहरण के लिए पीतल का कच्चा माल चीन में 300 रुपये किलो मिलता है लेकिन हमें यह 500 रुपये किलो मिलता है। यही वजह है कि हमारी इंडस्ट्री कबाड़ के इस्तेमाल की ओर बढ़ गई है।”
विशेषज्ञों का मानना है कि चीन वाले तालों की वजह से अलीगढ़ के ताला निर्माताओं को कड़ी चुनौती मिल रही है। रत्न वाड्रा ने साल 2020 में प्रकाशित अपने रिसर्च पेपर में इन चुनौतियों को रेखांकित किया है। चीन के ताला निर्माताओं से मिल रही चुनौतियों के अलावा, रत्न वाड्रा ने कई अन्य कारकों का भी जिक्र किया है। उदाहरण के लिए, हाथ से बने तालों की कम होती मांग और विमुद्रीकरण और GST जैसी सरकारी नीतियों के अलीगढ़ ताला उद्योग पर बुरे प्रभाव का भी जिक्र किया है। वह कहती हैं कि जो ताले चीन वाले लोग सस्ते में बनाते हैं वैसे ताले बनाने के लिए अलीगढ़ के ताला निर्माताओं को काफी काम करने की जरूरत है और रीसाइकल्ड मटीरियल के इस्तेमाल जैसी कई रचनात्मक रणनीतियों की भी जरूरत है।
कार्बन फुटप्रिंट कम करना
जी भैयाजी सिक्योर होम्स के गुप्ता इन कचरों के दोबारा इस्तेमाल के पर्यावरणीय फायदों पर प्रकाश डालते हैं। वह कहते हैं, “इन मटीरियल को उत्पादन प्रक्रिया में शामिल करने से हमारी नई संसाधनों की मांग कम हो गई है और ऊर्जा की खपत भी कम हो गई है। इस तरीके से मटीरियल बनाने और कचरे को कीमती चीजों में बदलने में खर्च होने वाली ऊर्जा बचती है।”
ताला बनाने के लिए जरूरी लोहा और स्टील उद्योग काफी अहम होता है। ऊर्जा की खपत वाली प्रक्रिया होने की वजह इसका असर पर्यावरण पर भी पड़ता है। पारंपरिक रूप से स्टील बनाने की प्रक्रिया में कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन काफी ज्यादा होता है। एक टन स्टील बनाने के लिए लगभग 1.7 से 2.2 मीट्रिक टन कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होती है। भारत हर साल लगभग 2.5 करोड़ टन कबाड़ का उत्पादन हर साल करता है और लगभग 5 करोड़ टन कबाड़ का आयात भी करता है। स्टील की जरूरत पूरी करने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए सरकार का लक्ष्य है कि स्टील उत्पादन में कबाड़ की हिस्सेदारी साल 2047 तक 50 प्रतिशत बढ़ा दी जाए।
इसके अलावा, भारत में कार निर्माण से निकलने वाले कचरे का डेटा यह दिखाता है कि इस तरह के तरीकों की कितनी जरूरत है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) और GIZ का एक संयुक्त शोध बताता है कि साल 2015 में भारत में लगभग 87 लाख ‘एंड ऑफ लाइफ’ (ELV) गाड़ियां (ऐसी गाड़ियां जिनकी उपयोग क्षमता ख़त्म को गयी हो) थीं। एक अनुमान के मुताबिक, साल 2015 तक इसमें 250 प्रतिशत की बढ़ोतरी होनी थी और कुल 2.19 करोड़ गाड़ियां हो जानी थी। कचरा उत्पादन में बढ़ोतरी दिखाती है कि ऐसी ही रीसाइकलिंग की सख्त जरूरत है जैसी कि अलीगढ़ में हो रही है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (CSE) की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अनुमिता रॉय चौधरी कहती हैं कि अलीगढ़ के ताला निर्माता नए स्टील की मांग कर रहे हैं और कार के कबाड़ जैसे कई अन्य रीसाइकल्ड मटीरियल का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे न सिर्फ कचरे का उत्पादन कम होता है बल्कि स्टील उत्पादन की वजह से पैदा होने वाला कार्बन फुटप्रिंट भी कम होता है। उदाहरण के लिए, एक टन स्टील के कबाड़ का फिर से इस्तेमाल करने से स्टील बनाने की तुलना में लगभग 1.5 टन कार्बन उत्सर्जन कम होता है। अलीगढ़ के अहम योगदान को देखते हुए यह कहा जाता है कि इस शहर की रचनात्मक रीसाइकलिंग इस उद्योग के कार्बन फुटप्रिंट को कम करने में मदद कर सकती है। हालांकि, इसके स्पष्ट आंकड़ों के लिए विस्तृत विश्लेषण की जरूरत होगी।
हालांकि, अनुमिता का कहना है कि ये तरीके अक्सर अनौपचारिक होते हैं और इसमें संचरनात्मक फ्रेमवर्क की कमी होती है। इन प्रयासों का पूरा फायदा उठाने के लिए कई अलग-अलग उद्योगों के लिए कचरा प्रबंधन से जुड़े और बेहतर प्रयास की जरूरत होगी। बेहतर मैपिंग के जरिए यह समझने की जरूरत है कि कचरा कहां पैदा होता है। साथ ही, छोटी और मध्यम आकार की कंपनियों को पर्याप्त मदद दी जाए। हम सतत विकास के लक्ष्यों की ओर बढ़ते हुए इसके आर्थिक फायदों को भी बढ़ा सकते हैं।
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बैनर तस्वीर: अलीगढ़ में कबाड़ का एक गोदाम। अलीगढ़ में ताला बनाने वाले लोग कार के कबाड़ का इस्तेमाल कच्चे माल के तौर पर करते हैं। तस्वीर- जोया अदा हुसैन/मोंगाबे।