- राजस्थान भारत में सिंचाई के लिए भूजल के सबसे बड़े उपयोगकर्ताओं में से एक है, जिसका मुख्य कारण गेहूं जैसी अधिक पानी की खपत वाली फसलें हैं।
- दशकों से भूजल के अत्यधिक दोहन ने इसके स्तर को बहुत नीचे पहुंचा दिया है। कई किसान कुओं के सूख जाने के कारण खेती छोड़ने को मजबूर हो गए हैं।
- यह रिपोर्ट केंद्रीय भूजल बोर्ड के भूजल संसाधन आकलन के आंकड़ों का उपयोग करके 2013 से 2023 तक भूजल उपयोग के एक दशकीय विश्लेषण पर आधारित है। बोर्ड ने उसके बाद अपनी 2024 की रिपोर्ट जारी कर दी है।
सुपियार कँवर का परिवार गेहूं की खेती करता था। ये खेती तब तक चली जब तक पानी मिलता रहा। पानी की कमी होने पर बोरवेल को और गहरा किया गया, लेकिन कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ा। इसके बाद परिवार ने सरसों उगाना शुरू किया, लेकिन पानी का स्तर और गिर गया। इसके बाद उनकी बाजरे की फसल भी सूख गई। माइक्रो इरीगेशन के विकल्प भी गिरे हुए जलस्तर और सूख चुके बोरवेल के चलते महंगे प्रतीत हुए। आखिरकार, अब उनका आधा परिवार कारखानों में काम करने शहर जा चुका है।
राजस्थान के हज़ारों किसान परिवारों का हाल ऐसा ही है और यह सब एक नीति, जो राजस्थान को कुओं के सूख जाने के बावजूद भूजल के दोहन वाला एकमात्र राज्य बनाती है, के कारण हुआ है।
मोंगाबे इंडिया द्वारा खेती के आंकड़ों का छः महीनों का विश्लेषण बताता है कि क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा राज्य राजस्थान एक बड़े भूजल संकट की तरफ बढ़ रहा है। जब देश के दूसरे राज्य भूजल के दोहन में कमी कर रहे हैं, वहीं राजस्थान साल 2023 तक सालाना 16.74 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी पंप करता था। इसमें से 80% पानी सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इसके चलते किसानों को फसलों का नुकसान, सूखे कुंए, और बढ़ते कर्ज का सामना करना पड़ता है।
दशकों से राजस्थान के खेतों में गेहूं का राज रहा है जो कि बहुत ज़्यादा पानी पीता है। अब, जैसे-जैसे पानी के स्त्रोत सूखते जा रहे हैं, सूखे को सहने वाली फसलें जैसे सरसों और बाजरा भी बेमौसम बारिश और बढ़ते तापमान के कारण दिक्कत में हैं। कोई समाधान सामने नहीं होने की स्थिति में अब कई परिवार शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। भूजल जिसे इकठ्ठा होने में कई सदियाँ लग जाती हैं, उसे चंद सालों में खत्म किया जा रहा है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है: क्या होगा जब पानी की आखिरी बूँद भी सूख जाएगी?

तबाही की और तेज़ कदम
सत्तर साल की सुपियार कँवर उस वक्त को याद करती हैं जब उनके गाँव के खेतों में गेहूं की फसल लहलहाती थी, जो राजस्थान की कृषि की रीढ़ मानी जाती है। आज, धना का बास गाँव के खेत बंजर पड़े हैं। “बीस सालों से हमने गेहूं नहीं उगाया। हमने बाजरा उगाने की कोशिश की, लेकिन वो (2023 में) सफल नहीं हुई,” उन्होंने बाजरे के सूखे भूसे के ढ़ेर की तरफ इशारा करते हुए कहा। ये बाजरा उनकी तीन एकड़ जमीन पर उगी फसल का अवशेष था।
जयपुर की चोमू पंचायत का धना का बास गाँव उन कई गाँवों में से एक है जहां जल संकट गहराया हुआ है। “हमारे यहां एक समय में एक 200-फुट गहरा कुआं था जो पानी की आपूर्ति करता था,” कंवर ने एक टूटे और मिट्टी से भरे कुएं के तरफ इशारा करते हुए बताया। “इस पूरे इलाके में एक भी कुंआ चालू नहीं है,” उनके बेटे, कैलाश सिंह शेखावत ने कहा। शेखावत एक दिहाड़ी मजदूर हैं और कहते हैं, “मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में यहाँ कोई चालु कुंआ नहीं देखा।”
पिछले पांच सालों में कँवर के परिवार ने 12 लाख रुपए से भी ज़्यादा पांच ट्यूबवेल खुदवाने में लगाए जो पूरे बर्बाद हो गए। “एक ट्यूबवेल सिर्फ आधे घंटे चलता है, वहीं दूसरे में खारा पानी आता है। इसका क्या ही फायदा है?” शेखावत पूछते हैं।
यह राजस्थान की आम कहानी है जो भूजल दोहन में उत्तर प्रदेश, पंजाब, और मध्य प्रदेश के साथ पहले पांच राज्यों में आता है। भारत विश्व स्तर पर भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है और अमेरिका और चीन के साझा दोहन से भी अधिक का प्रयोग करता है।

साल 2013-2023 की अवधि में पांच साल तक किए गए सरकारी आकलन दर्शाते हैं कि राजस्थान ने कम से कम 82 बिलियन (8,200 करोड़) क्यूबिक मीटर भूजल का दोहन किया। यह पानी प्रदेश के प्रत्येक परिवार की पानी की जरूरत को 36 साल तक पूरा करने के लिए पर्याप्त था। दोहन किए गए इस पानी का करीब 85%, करीब 7,100 करोड़ क्यूबिक मीटर, सींचाई के लिए इस्तेमाल किया गया। ये आंकड़े राजस्थान की सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भरता को दिखाते हैं। सीमित आंकड़े, जो इस पूरे दशक की स्थिति नहीं दर्शाते, भी भूजल दोहन की निगरानी में खामियों की तरफ इशारा करते हैं।
भूजल के दोहन में शीर्ष के अन्य चार राज्यों, जहां भूजल दोहन पिछले एक दशक में कम हुआ है, के उलट राजस्थान ने इसमें साल 2013 और 2023 के बीच 3.74% की वृद्धि की है। आंकड़ों के अनुसार, भूजल दोहन के मामले में प्रदेश के पहले पांच जिले – जयपुर, अलवर, नागौर, जोधपुर, और जालोर – साझा तौर पर प्रदेश के भूजल उपयोग का एक तिहाई हिस्सा बनाते हैं। ये पांचों जिले करीब 555 करोड़ क्यूबिक मीटर भूजल का दोहन करते हैं जिसका सबसे बड़ा हिस्सा कृषि के लिए इस्तेमाल होता है।
जलवायु परिवर्तन का भूजल पर असर
“राजस्थान का भूगोल और जलवायु इसे एक अनोखे तरीके से संवेदनशील बनाते हैं,” राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान में कृषि विज्ञान की सहायक प्रोफेसर रानी सक्सेना बताती हैं। “जब यहां बिलकुल बारिश नहीं होती, तो ऐसे में भूजल भी रिचार्ज नहीं होता। यहां की कम बारिश सिर्फ ऊपरी मिट्टी की नमी की जरूरत को पूरा करती है, ऐसे में जलभृत या एक्वीफर सूखे रह जाते हैं। बढ़ता तापमान वाष्पीकरण को बढ़ाकर स्थिति को और बिगाड़ देता है, इससे भूजल पर निर्भरता अपरिहार्य हो जाती है और टिकाऊ नहीं रह पाती,” सक्सेना कहती हैं। जलवायु परिवर्तन का पूरा प्रभाव अभी अनिश्चित है, लेकिन यही अनिश्चितता तकलीफों को और बढ़ा देती है। “अगर पिछली बार की तरह बारिश ज़्यादा होती है तो यह एक अच्छा संकेत होगा। लेकिन अनिश्चित और बहुत ज़्यादा बारिश फसलों को नुक्सान पहुंचा सकती है और खेती के तरीकों को बदल सकती है। वहीं सूखे की स्थिति भूजल को और ज़्यादा प्रभावित करेगी,” उन्होंने कहा।
जयपुर के तंकर्दा गाँव के 24 वर्षीय कृष्णा यादव जैसे किसानों के लिए यह संकट व्यक्तिगत होने के साथ-साथ बहुत तेज़ भी है। “सिर्फ दो सालों में मैंने पानी का स्तर बिलकुल नीचे जाते हुए देखा है। पहले 10-12 पाइप (एक ट्यूबवेल में) चलते थे, लेकिन अब सिर्फ दो से तीन ही चल पाते हैं,” यादव ने अपना ट्यूबवेल दिखाते हुए बताया।
दो साल पहले तक यादव अपने पांच एकड़ के खेत में खरीफ में बाजरा और रबी में सरसों उगाते थे। “मेरे पास चार ट्यूबवेल थे लेकिन दो अब सूख चुके हैं,” उन्होंने बताया। बाकी के दो ट्यूबवेल में भी पानी का स्तर बहुत कम हो गया है। “आठ साल पहले एक 4,000 लीटर की टंकी को भरने में सिर्फ 10 मिनट लगते थे, अब इसमें एक घंटे से ज़्यादा लगता है,” उन्होंने कहा। इसकी वजह से उन्हें गेहूं की खेती बंद करनी पड़ी, और अब सरसों में भी बड़ी दिक्कत है। “पहले स्प्रिंकलर हर दिन आठ घंटे चलते थे और एक एकड़ की सिंचाई में सिर्फ चार दिन लगते थे। अब इसमें 15-20 दिन लगते हैं,” यादव ने बताया।
जब तक पानी खेत की एक तरफ पहुंचता है, दूसरी तरफ की जमीन सूख जाती है, यादव बताते हैं। “अब हमारे पास सिर्फ पीने के लिए पानी बचा है। अगर एक या दो बार बारिश होती है तो सरसों उगा सकते हैं, वरना वो भी नहीं होगी,” उन्होंने आगे बताया।
आठ साल पहले, जब पानी की कमी बढ़ी, तो किसानों ने स्प्रिंकलर का रुख किया। “पहले खुली सिंचाई होती थी, फिर स्प्रिंकलर आये और अब ड्रिप सिंचाई। ड्रिप के बाद क्या होगा?” उन्होंने पूछा।
कृष्णा यादव का घर गाँव के उन गिने-चुने घरों में से है जहाँ आज भी खेती होती है। फिर भी उन्हें हमेशा यह डर सताता रहता है कि उनका बचा हुआ बोरवेल कभी भी सूख सकता है।

सूखा सहने वाली फसलें
सरसों और बाजरा जैसी फसलें गेहूं की तुलना में बहुत काम पानी मांगती हैं। जहाँ एक किलो गेहूं उगाने में 1,684 लीटर पानी लगता है, वहीं बाजरे को सिर्फ 50 लीटर की जरूरत होती है, यूनेस्को-आईएचई जल शिक्षा संस्थान की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार। इसके बावजूद भी राजस्थान के पांच में से एक खेत में गेहूं या धान जैसी ज़्यादा पानी वाली फसलें उगाई जाती हैं।
अलवर जैसे जिलों में जहाँ पैदावार बढ़ी है वहां सरसों की खेती बढ़ी है, लेकिन विविधता लाने के लिए प्रोत्साहन की कमी के कारण गेहूं अभी भी प्रमुखता से उगाया जा रहा है।
जयपुर जिले के कालाडेरा गांव के 45-वर्षीय किसान लक्ष्मीनारायण यादव कहते हैं, “मुझे पता है कि गेहूं ज्यादा पानी लेता है, लेकिन हम और क्या कर सकते हैं?” “गेहूँ 3,200 से 3,400 रुपए प्रति क्विंटल मिलता है। कोई भी दूसरी फसल इतनी अच्छी कमाई नहीं देती,” उन्होंने बताया। यादव का परिवार कभी 28 एकड़ जमीन पर खेती करता था, अब उनके पास सिर्फ एक एकड़ जमीन बची है। छः बोरवेल खोदने के बावजूद, भूजल तक पहुँचना एक चुनौती बनी हुई है।
गेहूं से सरसों की ओर रुख करने वाले किसान सिर्फ़ वे हैं जिनके खेत सूख चुके हैं। सक्सेना बताती हैं, “जो गेहूं उगा सकते हैं, उनके पास पानी की उपलब्धता है।” “जहाँ पानी की कमी है, वहाँ सरसों एक तार्किक विकल्प बन जाती है। यह फसल मजबूत होती है, कम पानी में उगती है और फिर भी अच्छी कीमत दिलाती है। कई सूखे इलाकों में, किसान पहले ही यह बदलाव कर चुके हैं, लेकिन जरूरत के चलते, पसंद के चलते नहीं।”
जैसे-जैसे भूजल का स्तर और गिरता है, केवल एक ही फसल, बाजरा, की संभावनाएं बची हुई लगती हैं। लेकिन दक्षिणी राज्यों के विपरीत, जहाँ बाजरा रबी के मौसम में भी उगाया जा सकता है, राजस्थान की जलवायु बाजरे की खेती को केवल खरीफ के मौसम तक सीमित कर देती है, जिससे यह मुख्य फसल के बजाय एक पूरक फसल बन जाती है, ऐसा केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के एक वैज्ञानिक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, क्योंकि उन्हें मीडिया से बात करने का अधिकार नहीं था।

संकट में खेती का भविष्य
साल 2013 में 10 में से चार ब्लॉक को सुरक्षित, अर्ध-संकटग्रस्त और संकटग्रस्त के रूप में चिन्हित किया गया था, जो भूजल दोहन के चरणों और इसके प्राकृतिक रूप से भरने की सीमा को दर्शाता है। एक दशक बाद, 2023 तक, ब्लॉकों की संख्या घटकर तीन रह गई, जबकि बाकी ब्लॉकों में या तो अतिदोहन के संकेत दिखाई दे रहे थे, जहाँ जल की कमी थी या पानी के प्राकृतिक रूप से भरने की तुलना में निकास की गति ज़्यादा थी।
प्रभावित लोगों में, लक्ष्मीनारायण यादव का परिवार भी एक अति-शोषित ब्लॉक में संघर्ष कर रहा है। पिछले पांच सालों से उन्होंने छः ट्यूबवेल के लिए 10 लाख रुपए से भी ज़्यादा का कर्ज लिया है। अब, एक को छोड़कर सभी ट्यूबवेल सूख गए हैं। यादव एकमात्र चालू ट्यूबवेल की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “यह खारा पानी देता है। यह फसलों, पशुओं और यहाँ तक कि मनुष्यों को भी नुकसान पहुंचाता है।”
यह जानते हुए कि यह पानी हानिकारक है, उनका परिवार उसी खारे पानी से सिंचाई करने के लिए मजबूर है। “लेकिन हम क्या कर सकते हैं – हम क्या खाएंगे? खेती ही एकमात्र साधन है जिससे हम पशुपालन कर सकते हैं, अपने बच्चों का पालन-पोषण कर सकते हैं और अपनी आजीविका कमा सकते हैं,” वह निराशा के साथ कहते हैं।
“आज की तारीख में, हर 10 ब्लॉक में से केवल तीन ही सुरक्षित बचे हैं, लेकिन वहां का पानी भी जल्दी ही खत्म हो जाएगा,” सीजीडब्ल्यूबी के वैज्ञानिक कहते हैं। “अगर ऐसा ही चलता रहा, तो उत्तरी राजस्थान में जो हो रहा है, वह कहीं और भी दोहराया जाएगा—किसान खेती छोड़कर दिहाड़ी करने को मजबूर हो जाएँगे,” उन्होंने आगे बताया।
हर बढ़ते अति-शोषित ब्लॉक के साथ, सैकड़ों किसानों को मजदूरी की ओर धकेला जा रहा है। जयपुर जिले के कालाडेरा गांव के 56 वर्षीय किसान माली राम, जो अब दिहाड़ी मजदूर हैं, कहते हैं, “किसान क्या कर सकता है? कोई विकल्प नहीं है। या तो कोई निजी नौकरी कर ले या फिर यहां से चला जाए।”
राजस्थान के आखिरी प्रयास
पिछले कुछ सालों में माइक्रो इरीगेशन को अपनाने में 15 गुना वृद्धि हुई है, लेकिन गेहूं की खेती के पैमाने की तुलना में यह अभी भी बहुत कम है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) के आंकड़ों के अनुसार, 2015 और 2023 के बीच, राजस्थान में 10 में से एक से भी कम खेतों में माइक्रो इरीगेशन या सूक्ष्म सिंचाई का उपयोग किया गया, जबकि इसमें जल संरक्षण की क्षमता है।
भूजल की कमी से निपटने के लिए, राजस्थान तीन योजनाओं के माध्यम से बारिश के पानी के संचयन को बढ़ावा दे रहा है: सिंचाई के लिए पाइप लाइन, खेतों में तालाब, और डिग्गियां (पानी की टंकियां)। राजस्थान सरकार के सहायक कृषि निदेशक रामनिवास गौतम चारुला शर्मा बताते हैं, “पाइप लाइन पानी की हानि को कम करके जल संरक्षण करती हैं, कृषि तालाब वर्षा जल का संग्रहण करते हैं और डिग्गियाँ नहर के पानी को बाद में उपयोग के लिए संग्रहित करती हैं।”
“बारिश का पानी एक सबसे अच्छा संसाधन है। अगर किसान भूजल दोहन बंद कर दें, तो 10-20 सालों में भूजल के स्तर में सुधार संभव है। लेकिन इसकी माँग, इसकी आपूर्ति से ज्यादा है—हमारे पास कृषि तालाब खोदने के लिए एक लाख (100,000) से ज्यादा आवेदन आए हैं, फिर भी हम इस साल केवल 20,000 के लिए ही धन जुटा पा रहे हैं,” वे आगे कहते हैं।
जब माइक्रो इरीगेशन को अपनाने की धीमी गति के बारे में पूछा गया, तो शर्मा ने कहा, “नहीं, ऐसा नहीं है। यह व्यापक है। अगर यह सिर्फ 10% है, तो हमें दोबारा जांच करनी होगी। राजस्थान में इसके बिना खेती असंभव है।”
“ड्रिप सिंचाई कम पानी में भी काम कर सकती है, लेकिन फिर भी पानी तो होना ही चाहिए, है ना?” माली राम पूछते हैं।

“सच कहूँ तो, बाजरा, खेत के तालाब, स्प्रिंकलर, इनमें से कोई भी उपाय कोई खास बदलाव नहीं लाएगा,” सीजीडब्ल्यूबी के वैज्ञानिक कहते हैं। “जिस पानी को इकट्ठा होने में हज़ारों साल लगे, वह सिर्फ़ 10-20 सालों में ही खत्म हो गया है।” सिंचाई को मुख्य कारण बताते हुए, वे बताते हैं, “हम आवास और उद्योग के लिए भूजल को नियंत्रित करते हैं, लेकिन सिंचाई को खुली छूट मिलती है। राजनेता किसानों को नाराज़ नहीं करना चाहते—भले ही सिंचाई में सबसे ज़्यादा पानी बर्बाद होता है और सबसे ज़्यादा नुकसान किसानों को ही होता है।” वे चेतावनी देते हैं, “जब तक पानी पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाता, किसान रुकेंगे नहीं।”
“दुनिया भर में लोग उद्योग और सेवाओं की ओर रुख करते हैं, लेकिन यहाँ 70% लोग खेती-बाड़ी में ही लगे रहते हैं। जब तक यह नहीं बदलेगा, संकट खत्म नहीं होगा,” उन्होंने कहा।
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माली राम की तरह, शेखावत भी रोजाना काम की तलाश में कालाडेरा मजदूर चौक जाते हैं। पानी के संकट ने उनके परिवार को तोड़ दिया है। शेखावत पूछते हैं, “मेरे तीन भाई अब कहीं और रहते हैं। यहाँ न पानी है, न खेती-बाड़ी, हम क्या करें?”
दो साल पहले तक उनके परिवार के पास 15 से ज्यादा मवेशी थे, लेकिन उन्हें चारा नहीं, बल्कि पानी देना नामुमकिन हो गया था। सुपियार कँवर आँखें पोंछते हुए कहती हैं, “हमने उन्हें बेच दिया!” “हम क्या कर सकते हैं? पानी ही नहीं है।”
मेथडोलॉजी: इस डेटा रिपोर्ट के लिए राजस्थान के प्रत्येक जिले में भूजल निष्कर्षण के स्तर का निर्धारण करने के लिए, 2022 से पहले समय-समय पर तैयार की जाने वाली केंद्रीय भूजल बोर्ड की वार्षिक रिपोर्ट से डेटा एकत्र किया।
सभी डेटा स्रोत और विश्लेषण इस गूगल ड्राइव लिंक में संकलित किए गए हैं।
यह रिपोर्ट लेखक और इंटरन्यूज़ व थिबी के मार्गदर्शकों, ईवा कॉन्स्टेंटारस, श्वेता डागा और आइका रे के साझा प्रयासों का परिणाम है।
बैनर तस्वीर: जयपुर जिले के कालाडेरा गांव के किसान लक्ष्मीनारायण यादव अपने सूखे ट्यूबवेल को दिखाते हुए। यादव का परिवार एक अति-दोहन वाले ब्लॉक में संघर्ष कर रहा है और पिछले पांच सालों में छः ट्यूबवेल के लिए लिए गए कर्ज में डूबा हुआ है। तस्वीर -अश्विनी कुमार शुक्ला।