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बिहारः कोसी सीमांचल के किसानों को मौसम की मार से छुटकारा दिला रहा मखाना

मखाना की फसल निकालने के लिए पानी में इस तरह उतरना होता है। घंटों पानी में खड़े रहकर एक-एक पौधे की जड़ से मखाना इकट्ठा किया जाता है। जलवायु परिवर्तन के दौर में बिहार के मखाना किसान लागत से दोगुनी आमदनी लेने में सफल हो रहे हैं। तस्वीर- चिन्मयानंद सिंह

मखाना की फसल निकालने के लिए पानी में इस तरह उतरना होता है। घंटों पानी में खड़े रहकर एक-एक पौधे की जड़ से मखाना इकट्ठा किया जाता है। जलवायु परिवर्तन के दौर में बिहार के मखाना किसान लागत से दोगुनी आमदनी लेने में सफल हो रहे हैं। तस्वीर- चिन्मयानंद सिंह

  • कोसी सीमांचल के इलाके में अक्सर उठने वाले स्थानीय चक्रवात, हर साल आने वाली बाढ़ या किसी भी अन्य आपदा के खतरे से मुक्त रहने के लिए कई किसान पारंपरिक खेती छोड़ मखाने की खेती की तरफ बढ़ रहे हैं।
  • दुनिया में कुल उत्पादन का करीब 90 प्रतिशत मखाना बिहार के कुछ जिलों में होता है। मखाना, आर्गेनिक वेफर्स के रूप में मशहूर है। इसमें प्रोटीन और कई तरह के खनिज की समुचित मात्रा पायी जाती है।
  • पहले सिर्फ पोखरों और चौरों में ही मखाने की खेती होती थी। अब निचले खेतों में भी होने लगी है। जल जमाव के क्षेत्र में मखाने की खेती का विस्तार हो रहा है।
  • किसानों की बढ़ती रुचि और मखाना खेती के बढ़ते रकबे को देखते हुए बिहार सरकार भी उत्साहित है। सरकार ने घोषणा की है कि जलजमाव की वजह से बेकार पड़ी 1.04 लाख हेक्टेयर जमीन को मखाने के खेती के हिसाब से तैयार किया जाएगा।

मखाने की खेती का जिक्र सुनकर चिन्मयानंद सिंह चिहुक उठते हैं। वे कहते हैं, एक किसान के तौर पर अगर मैं कहूं हैप्पी फार्मर का जो सपना लेकर मैंने खेती करने की शुरुआत की थी, वह इस मखाने की वजह से पूरी हो रही है। पहले मैं धान और मक्के की खेती करता था। कुछ साल गेहूं की खेती भी की है। मगर पिछले दो साल से मखाने की खेती कर रहा हूं। इसमें जो आनंद है वह किसी और फसल में नहीं मिला। हमारे इलाके में यह एक इकलौती ऐसी फसल है, जिस पर किसी भी प्राकृतिक आपदा का कोई असर नहीं है। इस बात की फिक्र नहीं रहती है कि कहीं से कोई आंधी या बाढ़ आयेगी और हमारी मेहनत और लागत को तबाह करके चली जायेगी। आमदनी भी किसी भी पारंपरिक फसल से अधिक है, लागत से दो गुना लाभ तो निकल ही आता है। इसकी खेती से खेत की उर्वरता साल-दर-साल बढ़ती ही चली जाती है, घटती नहीं है। सच पूछिये तो जलवायु परिवर्तन के मौजूदा खतरे पर खरी उतरने वाली यह सबसे फिट फसल है।

चिन्मयानंद पूर्णिया जिले के श्रीनगर के रहने वाले हैं। युवा हैं। उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है। वर्ष 2008 में पत्रकारिता की डिग्री लेने के बाद दो-तीन साल पत्रकारिता की फिर खेती की तरफ मुड़ गये। एक शिक्षित और जागरूक किसान होने की वजह से मखाने की खेती को लेकर उनकी यह टिप्पणी मायने रखती है। बिहार के कोसी और सीमांचल इलाके के चिन्मय जैसे कई किसानों ने हाल के वर्षों में इसी उम्मीद से मखाने की खेती को अपनाया है। पिछले कुछ वर्षों में इस इलाके में मखाने की खेती का रकबा बढ़कर 10 से 15 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गया है। जबकि पूरे बिहार में 25 से 30 हजार हेक्टेयर में ही मखाने  की खेती होती है। किसानों में इस फसल की खेती के प्रति बढ़ती ललक को देखकर बिहार सरकार ने भी फैसला किया है कि वह इस क्षेत्र में जलजमाव की वजह से बेकार पड़ी 1.04 लाख हेक्टेयर जमीन को मखाने के खेती के हिसाब से तैयार करायेगी।

मखाना की जड़ तालाब की सतह पर होती है और इसके पत्ते पानी पर तैरते हैं। उथले पानी वाले तालाबों में इसकी अच्छी फसल होती है। तस्वीर- चिन्मयानंद सिंह
मखाना के पत्ते पानी पर तैरते हैं। उथले पानी वाले तालाबों में इसकी अच्छी फसल होती है। तस्वीर- चिन्मयानंद सिंह

खाद्यौषधि है मखाना

आर्गेनिक वेफर्स के नाम से जाना जाने वाला मखाना काफी पौष्टिक माना जाता है। इस विषय पर गहरी रिसर्च करने वाले दरभंगा स्थित एमएलएम कॉलेज के प्राध्यापक डॉ. विद्यानाथ झा इसे खाद्यौषधि की संज्ञा देते हैं। वे कहते हैं, इसमें 78 फीसदी कार्बोहाइड्रेट है और दस प्रतिशत प्रोटीन। इसमें कई तरह के खनिज पदार्थ मिलते हैं।

बिहार में इसे मूलतः लावे के रूप में उपयोग किया जाता है, लेकिन दूसरे इलाके के लोग इसका कई तरह से इस्तेमाल करते हैं। इसकी एंटी डायबिटिक प्रॉपर्टी भी साबित हो चुकी है। लोग वेफर्स के रूप में इसे भूनकर खाते हैं, खीर और दूसरे खाद्य पदार्थौं में भी इसका इस्तेमाल होता है, विद्यानाथ झा कहते हैं।

वैसे तो मखाने का उत्पादन कोरिया, जापान और रूस जैसे मुल्कों में भी होता है। मगर दुनिया भर में उत्पादित होने वाले के मखाने की अमूमन 80 से 90 फीसदी पैदावार बिहार के नौ जिले दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, सहरसा, कटिहार, सुपौल, सीतामढ़ी, अररिया और किशनगंज में होती है। पहले तो यह दरभंगा-मधुबनी, सहरसा-सुपौल और सीतामढ़ी के इलाके में ही केंद्रित था, मगर हाल के दशकों में पूर्णिया प्रमंडल के जिलों में इसका तेजी से प्रसार हुआ है।

आर्गेनिक वेफर्स के नाम से जाना जाने वाला मखाना काफी पौष्टिक माना जाता है। इसमें 78 फीसदी कार्बोहाइड्रेट है और दस प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। तस्वीर- तालूपु/विकिमीडिया कॉमन्स
आर्गेनिक वेफर्स के नाम से जाना जाने वाला मखाना काफी पौष्टिक माना जाता है। इसमें 78 फीसदी कार्बोहाइड्रेट और दस प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। तस्वीर– तालूपु/विकिमीडिया कॉमन्स

कम लागत में होती है मखाने की खेती

मक्कालैंड के नाम से मशहूर पूर्णिया प्रमंडल के इलाके में मखाने की खेती का तेजी से बढ़ना न सिर्फ किसानों के हित में है, बल्कि यहां के पर्यावरण और खेतों की सेहत के लिए भी अनुकूल है।

इस बात को और विस्तार देते हुए चिन्मयानंद कहते हैं, दरअसल मखाने की फसल लेने के बाद जो उसके बड़े आकार के पत्ते और डंठल बच जाते हैं, उसे सड़ाकर खेतों में ही मिला दिया जाता है। इसकी वजह से हर साल खेतों की उर्वरता तेजी से बढ़ती जाती है। उर्वरक की आवश्यकता बिल्कुल नहीं है, मगर लोग फिर भी डाय अमोनियम फास्फेट (डीएपी) का इस्तेमाल करते हैं ताकि फसल का विकास खरपतवार के मुकाबले तेजी से हो जाए।

हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि एक हेक्टेयर के क्षेत्र में अगर सिर्फ मॉनसून के पानी पर निर्भर रहकर भी खेती की जाए तो मखाने से 1,30,000 रुपये की आमदनी हो सकती है।

मखाने के फायदे से आकर्षित हो रहे हैं कई और किसान

कटिहार जिले के दीवानगंज इलाके में मखाने की खेती करने वाले किसान उमापति ठाकुर पहले अपने खेतों में धान, गेहूं या मक्के की परंपरागत खेती करते थे, अब मखाना उगाने लगे हैं। वे कहते हैं, “मेरी जितनी जमीन लो लैंड वाली है, जहां आसानी से पानी जमा हो जाता है और लंबे समय तक टिका रहता है, वहां मैं अब मखाना ही उगाने लगा हूं। पिछले तीन-चार साल से कीमत भी अच्छी मिल रही है। लगभग 110 से 120 रुपये किलो की दर से मखाने के बीज बिक जाते हैं। धान, गेहूं या मक्के की फसल से इतना मुनाफा नहीं मिल सकता, इसके अलावा हर बार खराब मौसम की वजह से फसल बरबाद होने का भी खतरा रहता है। पिछले साल मक्के की फसल बमुश्किल 900 से 1100 रुपये प्रति क्विंटल ही बिकी। जब उसमें खाद का इस्तेमाल बहुत होता है।”

हालांकि उमापति अभी भी अपने उन खेतों में मक्का या गेहूं उगाते हैं, जो ऊंची है। क्योंकि वहां मखाने की खेती करना बहुत मुश्किल है। मखाने की खेती में हमेशा खेतों में डेढ़ से दो फीट पानी की जरूरत होती है, ऊंची जमीन में इतना पानी टिकाकर रखना आसान नहीं होता।

मखाना गहरे काले रंग के सख्त खोल के भीतर पाया जाता है। पारंपरिक रूप से इसे रेत के साथ भूनकर लकड़ी के हथौड़े से पीटकर निकाला जाता है। हालांकि, इस काम के लिए अब आधुनिक मशीने आ गईं हैं। तस्वीर- इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल
मखाना गहरे काले रंग के सख्त खोल के भीतर पाया जाता है। पारंपरिक रूप से इसे रेत के साथ भूनकर लकड़ी के हथौड़े से पीटकर निकाला जाता है। हालांकि, इस काम के लिए अब आधुनिक मशीने आ गईं हैं। तस्वीर- इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल

इस इलाके की मुख्य फसल मक्का है। पर कुछ किसानों द्वारा मक्के के मुकाबले मखाने को पसंद करने की एक वजह यह भी है कि हाल के वर्षों में मौसम की मार बढ़ी है और अक्सर मक्के की फसल तबाह हो जाती है। चिन्मय कहते हैं कि इस इलाके में हाल के दशकों में स्थानीय चक्रवातों के मामले काफी बढ़े हैं। वह कभी भी आपकी तैयार फसल को बर्बाद कर सकते हैं।

क्या किसानों के लिए प्राकृतिक आपदा से निजात है मखाना?

चिन्मय कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और आपदाओं से मुकाबला करने में इस फसल का कोई जोड़ नहीं है। आंधी-तूफान में बस इतना होता है कि इसके पत्ते पलट जाते हैं, जिसे अगली सुबह सीधा कर लेना होता है। बारिश या बाढ़ का इस पर कोई असर नहीं, क्योंकि यह पानी की ही फसल है। तेज गर्मी पड़े तो इसके लिए अधिक पानी का इंतजाम भर करना पड़ता है, जिसकी हमारे इलाके में फिलहाल कमी नहीं है।

चिन्मयानंद की बात इसलिए भी सच मालूम पड़ती है कि यह नदियों का इलाका है। कोसी और महानंदा की कई धाराएं और सहायक नदियां इस इलाके से होकर बहती हैं। हर साल एक हजार मिली मीटर से अधिक बारिश होती है और बाढ़ भी अमूमन हर साल आती है। अब बिहार सरकार भी इसकी खेती को बढ़ावा दे रही है।

मखाने की खेती के तेजी से बढ़ने की वजह इसकी खेती के तरीकों में आया बदलाव भी है। अब तक इसकी खेती तालाबों और चौरों में ही की जाती थी। पर पिछले दो दशकों से यह खेतों में भी की जाने लगी है। खास तौर पर कटिहार जिले के इलाके में किसान अपनी निचली जमीन में मेढ़  बनाकर इसकी खेती करने लगे हैं।

मखाने की खेती पर गहरा शोध करने वाले पूर्णिया स्थित भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय में कार्यरत कृषि वैज्ञानिक अनिल कुमार कहते हैं कि पहले मखाने की सौ फीसदी खेती तालाबों और चौरों में होती थी। वैज्ञानिक हस्तक्षेप के बाद आज की तारीख में मखाने की 60 फीसदी खेती लो लैंड राइस फील्ड में की जाने लगी है। इसी वजह से इस इलाके में मखाने का अधिक प्रसार हुआ है।

मखाना से कई प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं। इनमें मखाने का खीर प्रमुख व्यंजन है। तस्वीर- स्मार्ट वकार/विकिमीडिया कॉमन्स
मखाना से कई प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं। इनमें मखाने का खीर प्रमुख व्यंजन है। तस्वीर– स्मार्ट वकार/विकिमीडिया कॉमन्स

मखाने की खेती की भविष्य की बेहतर संभावनाओं के बारे में बात करते हुए वे कहते हैं, हम सब जानते हैं कि कोसी-सीमांचल का इलाका बाढ़ का इलाका है। इस इलाके में अमूमन हर साल बाढ़ आती है। मगर हमलोगों की अब तक प्राथमिकता इस पानी को बहा देने में रहती है। अगर इसे किसी तरह वाटर हारवेस्टिंग की तकनीक की मदद से रोक लिया जाये तो तीन फायदे होंगे। पहला ग्राउंड वाटर रिचार्ज होगा। दूसरा ऊंची जमीन के लिए दूसरे मौसम में सिंचाई से साधन उपलब्ध होंगे और तीसरा मखाने और मछली की खेती की संभावना बेहतर होगी। हमलोग लगातार इस दिशा में काम कर रहे हैं। इसके साथ-साथ इस इलाके में जलजमाव की वजह से बेकार पड़ी जमीन में भी मखाने की खेती करने के प्रयास हो रहे हैं।

राज्य सरकार भी इस अनुभव से उत्साहित है। ऐसी योजना बन रही है कि बिहार में नौ लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन पर मखान की खेती की जाये। जो मौजूदा रकबे के मुकाबले 72 से 30 गुना अधिक होगा।

मखाने की खेती में भी है चुनौती

हालांकि यह सब इतना आसान नहीं है। ऊपर से चमत्कारिक दिखने वाली मखाने की खेती में कई परेशानियां हैं। सबसे बड़ी परेशानी इसकी खेती के लायक कुशल मजदूरों की कमी की है। चिन्मयानंद कहते हैं कि पानी में उतरकर मखाने के खरपतवार को हटाने, इसकी फसल की हारवेस्टिंग करने वाले कुशल मजदूर अब बहुत कम संख्या में मिलते हैं।

मखाने की हारवेस्टिंग प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए चिन्मय कहते हैं कि यह तीन बार में होती है, जिसे स्थानीय भाषा में लहसर, मरकट और करकट कहते हैं। पहली दफा में मजदूरी कम लगती है और फसल अधिक निकलता है इसलिए उस बार तो मजदूर आसानी से मिल जाते हैं। मगर मरकट और करकट में मखाना निकालने में मुश्किल होती है। दिन भर की मेहनत के बाद मखाना अपेक्षाकृत कम निकलता है। इसलिए मजदूरी बढ़ जाती है। लहसर के लिए मजदूर 30 रुपये किलो की दर से भी काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं, मगर मरकट की मजदूरी दर 55 रुपये और करकट की 80 रुपये प्रति किलो चली जाती है।

इसके अलावा मखाना के लिए उपयुक्त खरपतवार-नाशक की खोज नहीं हो पायी है। इसलिए यह काम भी मजदूरों के ही भरोसे होता है। दो दफा यह काम भी कराना पड़ता है। मखाने में अक्सर काई भी लग जाती है, इसके लिए रोज पानी में उतरकर उसे साफ करना पड़ता है।

 

बैनर तस्वीरः मखाना की फसल निकालने के लिए पानी में उतरने को तैयार मजदूर। घंटों पानी में खड़े रहकर एक-एक पौधे की जड़ से मखाना इकट्ठा किया जाता है। जलवायु परिवर्तन के दौर में बिहार के मखाना किसान लागत से दोगुनी आमदनी लेने में सफल हो रहे हैं। तस्वीर- चिन्मयानंद सिंह

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