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कॉप15: छाया रहेगा डिजिटल जेनेटिक इन्फॉर्मेशन से समान लाभ का मुद्दा

पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में सरसो के खेत। सीक्वेंस की जानकारी के आधार पर, स्टेवियोल ग्लाइकोसाइड्स का उत्पादन करने वाले जैवसंश्लेषण जीन पर पेटेंट का मालिकाना हक स्विस मुख्यालय वाली बायोटेक कंपनी इवोल्वा के पास है। तस्वीर- अभिजीत कर गुप्ता/विकिमीडिया कॉमन्स

पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में सरसो के खेत। सीक्वेंस की जानकारी के आधार पर, स्टेवियोल ग्लाइकोसाइड्स का उत्पादन करने वाले जैवसंश्लेषण जीन पर पेटेंट का मालिकाना हक स्विस मुख्यालय वाली बायोटेक कंपनी इवोल्वा के पास है। तस्वीर- अभिजीत कर गुप्ता/विकिमीडिया कॉमन्स

  • कनाडा के मॉन्ट्रियल में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन में जेनेटिक स्रोतों पर डिजिटल सीक्वेंस इनफॉर्मेशन (डीएसआई) तक पहुंच और लाभ साझाकरण वार्ता का एक अहम मुद्दा है।
  • डीएसआई की परिभाषा पर स्पष्टता का अभाव, डिजिटल डाटाबेस के माध्यम से डीएसआई की उत्पत्ति वाले देश का पता लगाने में चुनौतियां, डीएसआई डाटा तक खुली पहुंच खोने की आशंकाएं और डीएसआई से लाभ-साझाकरण पर बहुपक्षीय या द्विपक्षीय नीति विकल्पों पर अलग-अलग सोच बातचीत को जटिल बनाएंगे।
  • कॉप15 की मुख्य वार्ता से पहले हुई बैठकों में डीएसआई के मुद्दे पर बहुत कम प्रगति हुई। इन बैठकों में जीबीएफ के लिए सबको पसंद आने वाला मसौदा बनाने की कोशिश की गई। अब इसी मसौदे पर मुख्य वार्ताओं में चर्चा होगी।

संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन (कॉप15) में डिजिटल सीक्वेंस इन्फॉर्मेशन (डीएसाई) पर जोरदार बहस चल रही है। सम्मेलन में शामिल सभी पक्ष जेनेटिक स्रोतों (डीएसाई) तक पहुंच और लाभ साझाकरण के मु्ददे पर लगातार बातचीत कर रहे हैं। इस बीच, वैज्ञानिकों के एक समूह ने एक बहुपक्षीय ढांचे का प्रस्ताव रखा है। इस प्रस्ताव में जेनेटिक संसाधानों से डीएसआई तक पहुंच को लाभ साझाकरण से “अलग” करने की बात है।

इस प्रस्तावित फ्रेमवर्क के बारे में डीएसआई साइंटिफिक नेटवर्क के वैज्ञानिकों ने एक पेपर में विस्तार से जानकारी दी है। इसके मुताबिक यह तंत्र जेनेटिक संसाधन की उत्पत्ति के देश का पता लगाने की जरूरत को खत्म करता है, जहां से डीएसआई हासिल किया गया था। इसके बदले संसाधनों तक खुली पहुंच से समझौता किए बिना जैव विविधता को बचाने और टिकाऊ इस्तेमाल का समर्थन किया जा सकता है।

अध्ययन की सह-लेखक और डीएसआई साइंटिफिक नेटवर्क की सदस्य ऐंबर स्कोलज़ ने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “जेनेटिक संसाधनों से डीएसआई तक पहुंच को, लाभ साझाकरण से अलग कर दिया गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि भुगतान, डेटाबेस तक पहुंच से शुरू नहीं होगा, बल्कि व्यावसायीकरण या खुदरा लेन-देन के बिंदु से शुरू होगा।”

स्कोल्ज़ कहती हैं कि हालांकि, डाटाबेस में वैज्ञानिक डाटा का इस्तेमाल इस तरह से किया जा सकता है कि इससे निम्न-और-मध्यम-आय वाले देशों (LMIC) को फायदा होगा। ये वो देश हैं जो जेनेटिक संसाधनों तक ज्यादा पहुंच प्रदान करते हैं, जिसके चलते डीएसआई हासिल होता है और वैश्विक डाटाबेस का हिस्सा बन जाता है। और इस तरह ये देश तुलनात्मक रूप से ज्यादा रकम प्राप्त करेंगे।

उन्होंने कहा, “इस तंत्र को कुछ लोग आकर्षक समाधान के रूप में देखते हैं। क्योंकि इसमें जेनेटिक संसाधन की उत्पत्ति वाले देश को ट्रैक करने की ज़रूरत नहीं है, जहां से डीएसआई को उसके पूरे वैल्यू चेन में हासिल किया गया था। इसके बनिस्बत डीएसआई, डाटाबेस में कहां से आया इस पर ध्यान दिया जाता है।

मॉन्ट्रियल में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन ( COP15) में लगी गई तस्वीर। तस्वीर- आईआईएसडी/ईएनबी
मॉन्ट्रियल में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन ( COP15) में लगी गई तस्वीर। तस्वीर– आईआईएसडी/ईएनबी

डीएसआई का मतलब डीएनए या आरएनए से मिला डाटा है। इसे डिजिटल रूप में रखा जा सकता है। डीएसआई जीवन विज्ञान (लाइफ साइंस) के लिए अहम है। इसमें खाद्य सुरक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, पौधे और पशु स्वास्थ्य जैसे जैव विविधता से जुड़े अनुसंधान शामिल हैं। नवंबर में एक मीडिया ब्रीफिंग में सीबीडी की कार्यकारी सचिव एलिजाबेथ मरुमा म्रेमा ने कहा था कि जेनेटिक संसाधनों के जरिए डीएसआई तक पहुंच और लाभ साझाकरण कनाडा में जैविक विविधता पर सम्मेलन में “मतभेद” का एक मुद्दा हो सकता है।

उनकी बात सम्मेलन की मुख्य वार्ताओं से पहले हुई बातचीत में सच साबित होती हुई भी दिखी। ओपन-इंडेड नाम से हुई इन बैठकों में डीएसआई जैसे जटिल मुद्दों को सुलझाने पर बहुत कम प्रगति हुई। इन बैठकों का आयोजन जीबीएफ का एक ऐसा मसौदा तैयार करना था जिस पर सहमति बनाई जा सके। इसी मसौदे के आधार पर आखिरी दौर की वार्ता होनी है। डीएसआई पर जो मसौदा भेजा गया है अब उसी पर आखिरी दौर की बातचीत होगी।  डीएसआई पर, किसी संभावित फैसले के लिए एक ऐसा मसौदा कॉप15 में भेजा गया है, जिसमें मतभेद जस के तस बरकरार हैं। 

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया में शासन, कानून और नीति के निदेशक विशेष उप्पल ने कार्यकारी समूह की बैठकों से निकले तथ्यों पर एक प्रेस वार्ता में बताया कि हालांकि अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है क्योंकि पूरे मसौदे पर बातचीत की जानी बाकी है। मसौदे में इस बात पर जोर दिया गया है कि “जेनेटिक संसाधनों पर डिजिटल सीक्वेंस इन्फॉर्मेशन से मिलने वाले लाभ का इस्तेमाल जैव विविधता के संरक्षण और उसके टिकाऊ इस्तेमाल के लिए किया जाना चाहिए। मुख्य तौर पर इन लाभों को प्राप्त करने वालों को स्थानीय लोगों और स्थानीय समुदायों की जरूरत होती है जो संसाधनों और इससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान के संरक्षक हैं।”

उप्पल ने मीडिया से कहा, “हमें वास्तव में एक समझौते और सुझाव की जरूरत है कि 2020 के बाद जीबीएफ के संदर्भ में जेनेटिक संसाधनों पर डिजिटल सीक्वेंस इन्फॉर्मेशन के मुद्दे को किस तरह सुलझाया जाए।” 


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अंतरराष्ट्रीय समझौते इस पर अस्पष्ट हैं कि डीएसआई का प्रशासन किस तरह हो और इसके लाभों को किस तरह बांटा जाए। आईयूसीएन के अनुसार भले ही यह अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत सरकारों की जिम्मेदारी हो लेकिन जेनेटिक संसाधनों से होने वाले लाभ को हमेशा समान रूप से साझा नहीं किया जाता है। वर्तमान में, डीएसआई तक पहुंच नि:शुल्क और खुली है, लेकिन भविष्य में शायद ऐसा नहीं हो।

कई पक्षों को लगता है कि यह खुलापन लाभ के बंटवारे में खोए हुए मौकों को दिखता है।

ऑस्ट्रेलिया के मुर्दोक विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर क्रॉप एंड फूड इनोवेशन के निदेशक और कृषि वैज्ञानिक राजीव वार्ष्णेय ने मोंगाबे-इंडिया से कहा, “आशंकाएं भी बढ़ रही हैं कि इन खामियों को दूर करने से दुनिया भर में खुली पहुंच और अनुसंधान तथा इनोवेशन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इनमें निम्न और मध्यम आय वाले देशों के वैज्ञानिक और उनके शोध भी शामिल हैं।”

डीएसआई से जुड़े आंकड़े 

वार्ष्णेय, डीएसआई साइंटिफिक नेटवर्क के भी सदस्य हैं। वो कहते हैं कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों में तेजी से डिजिटलीकरण हो रहा है। इसके बावजूद इन देशों और अमीर देशों के बीच आधुनिक जीनोमिक्स, जैव सूचना विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी का पूरा लाभ लेने की क्षमता के संबंध में एक स्पष्ट डिजिटल खाई मौजूद है।

जैव विविधता से समृद्ध निम्म और मध्यम आय वाले कई देशों का मानना है कि उनके यहां से हासिल डीएसआई से होने वाले लाभों को उनके साथ साझा नहीं किया गया है और यह उनके संप्रभु अधिकारों से एक तरह का समझौता है। डीएसआई तक पहुंच से गैर-बराबरी वाला लाभ साझा करने का एक उदाहरण स्टीविया उत्पादों का बायोसिंथेटिक रूप है।

वार्ष्णेय ने कहा, “स्टीविया रेबाउडियाना से एक यौगिक पैदा होता है जो चीनी की तुलना में 100 गुना ज्यादा मीठा होता है। लेकिन इसमें उल्लेखनीय रूप से कैलोरी बहुत कम होती है। पैराग्वे के स्थानीय किसानों ने सदियों से इनकी खेती की है। सीक्वेंस की जानकारी के आधार पर, स्टेवियोल ग्लाइकोसाइड्स का उत्पादन करने वाले बायोसिंथेसिस जीन पर पेटेंट का मालिकाना हक बायोटेक कंपनी इवोल्वा के पास है। कंपनी का मुख्यालय स्विटजरलैंड में है। कॉरपोरेट को लगातार मिल रहे मौद्रिक लाभों ने डीएसआई से जुड़े लाभ के समान बंटवारे के सिद्धांत से जुड़े जोखिम को सामने लाया है। इसके अलावा, दक्षिण अमेरिका के बाहर स्टेविया उत्पादों के उद्योगों में उत्पादन ने पारंपरिक खेती के भविष्य और पैराग्वे के स्थानीय लोगों के ज्ञान को गंभीर रूप से खतरे में डाल दिया है।”

वार्ष्णेय ने समझाया, “हालांकि, मेरी राय यह भी है कि इनमें से निम्न और मध्यम आय वाले कई देश अन्य देशों में पैदा हुए डीएसआई से लाभ हासिल करने वाले भी रहे हैं। यह एकतरफा नहीं बल्कि दोतरफा है।”

इस बीच, डीएसआई प्रदाता-उपयोगकर्ता संबंध से जुड़े कई मिथक तोड़ने वाली एक रिपोर्ट भी है। 2021 में हुई इस स्टडी के मुताबिक, जेनेटिक संसाधनों के सबसे बड़े प्रदाता जिन्हें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डीएसआई में बदला जाता है, उनमें निम्न और मध्यम आय वाले देश नहीं बल्कि अमेरिका, चीन, कनाडा और जापान हैं। ये चार देश अंतर्राष्ट्रीय न्यूक्लियोटाइड सीक्वेंस डाटाबेस सहयोग (INSDC) डाटाबेस द्वारा रखे गए वैश्विक डीएसआई डाटासेट के 52% के लिए स्रोत देश थे, जो तीन वैश्विक डीएसआई डाटाबेस का एक कोर सेट है। वहीं भारत का इसमें हिस्सा 3.46% था। कम से कम 94 देश भारतीय डीएसआई का इस्तेमाल कर रहे हैं। वहीं भारतीय वैज्ञानिक 150 देशों के डीएसआई का इस्तेमाल कर रहे हैं। 

भारतीय वैज्ञानिक 150 देशों के डीएसआई का उपयोग करते हैं, जबकि 94 देश भारतीय डीएसआई का उपयोग करते हैं। तस्वीर- एम्बर स्कोल्ज़
भारतीय वैज्ञानिक 150 देशों के डीएसआई का उपयोग करते हैं, जबकि 94 देश भारतीय डीएसआई का उपयोग करते हैं। तस्वीर- एम्बर स्कोल्ज़

वहीं स्कोल्ज़ ने कहा कि सभी देश डीएसआई के प्रदाता और उपयोगकर्ता हैं।

स्कोल्ज़ के अनुसार, इस तरह डीएसआई के संचालन से जुड़े भविष्य के नीतिगत फैसलों में भौगोलिक प्रावधान और उपयोग प्रवृत्तियों की जटिलता का ध्यान रखा जाना चाहिए।

भारत ने 1994 में सीबीडी पर दस्तख्त किए थे। भारत द्वारा सीबीडी की पुष्टि करने के बाद, भारत ने अपनी सीमाओं के भीतर संधि को लागू करने के लिए 2002 में जैविक विविधता कानून बनाया। ऐसा करने वाला भारत शुरुआती देशों में शामिल था। जैव विविधता कानून लागू करने के लिए 2003 में राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) बनाया गया। कानून की बड़ी विफलताओं में से एक यह है कि पहुंच-लाभ साझाकरण प्रावधानों के तहत अर्जित लाभ उन समुदायों तक नहीं पहुंच रहे हैं जिन्हें इसका 95% हिस्सा मिलना चाहिए था।

बहुपक्षीय फ्रेमवर्क

प्रस्तावित ढांचे पर विस्तार से बताते हुए स्कोल्ज़ कहती हैं कि गैर-वाणिज्यिक और वाणिज्यिक इस्तेमाल के पूरे वैल्यू चैन पर निजी उपयोग और डीएसआई के अलग-अलग हिस्सों को ट्रैक करने और ट्रेस करना छोड़ देना चाहिए। इसके बजाय, डीएसआई के सिस्टम में जाने की शुरुआत में एक स्नैपशॉट लिया जा सकता है और धन के वितरण को बेहतर करने के लिए इस जानकारी का इस्तेमाल किया जा सकता है।

वो कहती हैं, “और साइड इफेक्ट यह है कि लालफीताशाही के बिना जटिल, शोध और विकास की एक एकीकृत प्रक्रिया हो सकती है। क्या डीएसआई उपयोगकर्ताओं ने आसान, वैश्विक नियमों के आधार पर एक बहुपक्षीय फंड में (पैसा) डाला है, और जब आप फंड से रकम बांटना चाहते हैं, तो आप पूछते हैं कि किस देश ने जेनेटिक संसाधनों तक पहुंच प्रदान की जिसके चलते डीएसआई हासिल हुआ? उन देशों को बोनस भुगतान मिलता है या वे बहुपक्षीय प्रणाली से ज्यादा पहुंच के हकदार होते हैं क्योंकि वे सिस्टम में ज्यादा डीएसआई डालते हैं। यह उचित लगता है।” 

यह स्वीकार करते हुए कि सभी पक्ष लाभ साझा करने के लिए एक बहुपक्षीय प्रणाली पर भरोसा करने में हिचकिचाते हैं, देशों को ऐसी प्रणाली में अपना भरोसा बनाने के लिए आगे आना होगा। साथ ही वित्तीय प्रतिबद्धताएं उस भरोसे को बनाने में मदद करेंगी। स्कोल्ज़ ने कहा, “मुझे लगता है कि इस भरोसे को कायम करने का भार उद्योगों पर है और शायद औद्योगिक देशों को भी वित्तीय प्रतिबद्धताओं पर शुरुआत में डटे रहकर यह दिखाना होगा कि वे चाहते हैं कि ये प्रणाली काम करे।”

डीएसआई साइंटिफिक नेटवर्क का मानना है कि सीबीडी के नागोया प्रोटोकॉल के सिद्धांतों पर आधारित पहुंच-लाभ साझाकरण की एक द्विपक्षीय प्रणाली, जिसमें प्रत्येक सीक्वेंस और उपयोगकर्ता लेनदेन के लिए एंड-यूज़र और मूल देश के बीच अनुमति की आवश्यकता होती है जो डीएसआई के संबंध में “निषेधात्मक रूप से जटिल होता है, डेटा इंटरऑपरेबिलिटी को प्रभावित करता है और ज्ञान के विस्तार के लिहाज से पूरी तरह सही नहीं है।”

वार्ष्णेय ने कहा कि वैज्ञानिक संगठन और अन्य हितधारक बहुपक्षीय तंत्र की वकालत करते हैं। इनका मानना है कि वर्तमान में बड़े पैमाने पर डाटासेट और डीएसआई से जुड़ा ज्ञान डाटाबेस और वैज्ञानिक सहयोग के एक जटिल नेटवर्क के माध्यम से साझा किया जाता है।

डीएसआई का मतलब

भारत के नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज के पूर्व निदेशक केसी बंसल कहते हैं कि परिभाषा पर स्पष्टता की कमी भी डीएसआई से निपटने में वार्ताकारों के लिए चुनौतियां बढ़ाती हैं। डीएसआई एक प्लेसहोल्डर है और प्रतिस्थापन के लिए शब्द पर कोई सहमति नहीं बन पाई है।

बंसल ने कहा, “सीबीडी के नागोया प्रोटोकॉल में लागू पहुंच और लाभ साझाकरण तंत्र जेनेटिक संसाधनों (यानी कि भौतिक सामग्री) पर केंद्रित है। लेकिन डीएसआई जीनोम सीक्वेंस के माध्यम से प्राप्त की जाने वाली जानकारी है। उन्नत तकनीकों, विशेष रूप से ओमिक्स के कारण, हम अपने (भौतिक रूप) जेनेटिक संसाधनों को डीएसआई में बदलने में सक्षम हुए हैं। और इन डीएसआई को खुले डाटाबेस में रखा गया है।”

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि बहुपक्षीय लाभ साझा करने के तंत्र पर चर्चा करने से पहले डीएसआई की परिभाषा स्पष्ट की जानी चाहिए। तस्वीर- इब्राहिम खैरोव / विकिमीडिया कॉमन्स
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि बहुपक्षीय लाभ साझा करने के तंत्र पर चर्चा करने से पहले डीएसआई की परिभाषा स्पष्ट की जानी चाहिए। तस्वीर- इब्राहिम खैरोव / विकिमीडिया कॉमन्स

डीएसआई तब तक अस्तित्व में नहीं आता है जब तक कि कोई वैज्ञानिक इस पर प्रयोग नहीं करता है और नया डाटा सामने नहीं लाता है।

“तो, डीएसआई का उत्पादन करने के लिए कोई चीज बीच में (जिसमें सबसे अहम धन और कर्मचारियों का समय भी खर्च होता है) होती है। इस नई, गैर-भौतिक जानकारी को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि इसकी तुलना सीक्वेंस के वैश्विक पुस्तकालय से नहीं की जाती। इस प्रकार, वैज्ञानिक नियमित रूप से बड़े डाटाबेस में इन डाटा का आदान-प्रदान करते हैं जो उन्हें पहचानने और समझने में मदद करते हैं कि इन डाटा का क्या मतलब है। वार्ष्णेय बताते हैं, यह खुली प्रणाली द्विपक्षीय (एक वैज्ञानिक, एक देश) पहुंच और लाभ साझाकरण प्रक्रिया को शासित करना बेहद चुनौतीपूर्ण बनाती है।” दुविधा यह है कि इन आंकड़ों को समझने योग्य और उपयोग करने लायक बनाने के लिए जरूरी खुली प्रणाली को तोड़े बिना कोई डिजिटल डाटा से लाभ किस तरह प्राप्त कर सकता है?


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वार्ष्णेय कहते हैं, “चूंकि जीव विज्ञान बहुत तेजी से बदल रहा है, डीएसआई की परिभाषा भी बहुत अहम हो जाएगी। वार्ताकारों को डीएसआई पर किसी भी समझौते को भविष्य में प्रमाणित करना चाहिए ताकि व्यापक परिभाषा पक्की करने का प्रयास किया जा सके जो व्यापक लाभ-साझाकरण को सक्षम बनाती हो और किसी भी तकनीकी विकास और कृत्रिम बुद्धि जैसे डीएसआई के इस्तेमाल को इसमें शामिल करती हो। ऐसी परिभाषा जो न्यूक्लियोटाइड सीक्वेंस डाटा (डीएनए/आरएनए) और अन्य ओमिक्स जानकारी (ट्रांसक्रिप्टोम, प्रोटीन और मेटाबोलाइट्स) को शामिल करती है, जिसके चलते जेनेटिक संसाधनों का भविष्य में फुल-प्रूफ उपयोग का रास्ता बनेगा।”

डीएसआई साइंटिफिक नेटवर्क के सदस्च बंसल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “इससे पहले कि हम लाभ-साझाकरण और बहुपक्षीय दृष्टिकोण की बात करें, हमें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि हम इसे किस तरह संभालते हैं, (जैसा कि कुछ देश चाहते हैं) डीएसआई को जेनेटिक संसाधनों से डीलिंक (भौतिक) करना या डीएसआई को जेनेटिक संसाधनों से जोड़ना।”

 

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