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हलमा: सामुदायिक भागीदारी से सूखे का हल निकालते झाबुआ के आदिवासी

झाबुआ जिले में सामुदायिक श्रमदान 'हलमा' में शामिल होने जा रहीं भील महिलाएं। झाबुआ-अलीराजपुर के 1,322 गांवों में 500 कुओं की मरम्मत और गहरीकरण,मेड बधान, नलकूप सुधारने, चैकडैम, बोरीबधान बनाने जैसी जल संरचनाओं के निर्माण का काम हलमा से भील समुदाय ने किए हैं। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

झाबुआ जिले में सामुदायिक श्रमदान 'हलमा' में शामिल होने जा रहीं भील महिलाएं। झाबुआ-अलीराजपुर के 1,322 गांवों में 500 कुओं की मरम्मत और गहरीकरण,मेड बधान, नलकूप सुधारने, चैकडैम, बोरीबधान बनाने जैसी जल संरचनाओं के निर्माण का काम हलमा से भील समुदाय ने किए हैं। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

  • पश्चिमी मालवा पठार में आने वाला झाबुआ अर्ध-शुष्क जलवायु वाला पहाड़ी क्षेत्र है। यह इलाका पलायन और सूखे के लिए जाना जाता है। यहां रहने वाले आदिवासियों के लिए जल संकट कई समस्याएं लेकर आता है।
  • इस समस्या का समाधान आदिवासियों ने अपने पारंपरिक ज्ञान में खोजा। सामुदायिक भागीदारी ‘हलमा’ की मदद से यहां कई तालाब बनाए गए हैं।
  • पहाड़ों पर कई केंटूर ट्रेंच बना कर पानी को सहेजा जा रहा है। इससे जमीन के नीचे जलस्तर बढ़ा है और मिट्टी में नमी भी। इससे कभी एक फसल लेने वाला किसान अब साल में दो-दो फसलें ले रहा है।

मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के सूखे पहाड़ गर्मी की शुरुआत में ही आग उगल रहे हैं। साढ़ गांव की बाड़ी बोदरी फलिया की एक बेहद जर्जर झोपड़ी में 12 साल की गली अपने से छोटे दो भाई-बहनों के लिए चूल्हे पर रोटी सेक रही है। गली, संता और केतन के माता-पिता दिवाली पर मजदूरी के लिए गए थे। तब से वापस नहीं लौटे हैं। पड़ोस में रहने वाले रूपसिंह ने बताया, “गली और उसके भाई-बहन गांव में अकेले रहते हैं। गली के पिता बहादुर बाखड़ा के खेत पर सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। इससे खेती में भारी नुकसान हुआ और उन्हें कर्ज लेना पड़ा। इसी कर्ज को चुकाने के लिए वे मजदूरी के लिए गुजरात गए हुए हैं।”

दरअसल, जल संकट झाबुआ जिले में रहने वाले आदिवासियों की प्रमुख चिंता है। ये संकट उनके लिए कई समस्याएं लेकर आता है। पीने के पानी समस्या तो इनमें सबसे विकराल है। फसलों को पानी देने का संकट अलग से है। इससे वे साल में सिर्फ एक ही फसल ले पाते हैं। इसके चलते पलायन, मजदूरी, भुखमरी और शोषण का कुचक्र शुरू होता है। 

लेकिन इन दिनों साढ़ गांव में बना एक तालाब चर्चा मे है। इसे देखने देश के दूसरे प्रदेशों से कई इंजीनियर, मैनेजमेंट और डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले आ रहे हैं। बहतर (72) करोड़ लीटर की क्षमता वाला ये तालाब सूखे से ग्रसित भील आदिवासियों के इस गांव की पेयजल और सिंचाई की समस्या का समाधान है। सामुदायिक भागीदारी से साल 2017 में ‘हलमा’ बुलाने के बाद इस तालाब का निर्माण हुआ।

क्या है हलमा?

शिवगंगा संस्था से जुड़े झाबुआ के आदिवासी कार्यकर्ता राजाराम कटारा हलमा के बारे में बताते हैं, “हलमा भील समाज की प्राचीन परंपरा है। जब कोई व्यक्ति गांव में संकट में फ़ंस जाता है और अपनी पूरी ताकत लगाने के बाद भी उस संकट से नहीं निकल पाता, तो वो हलमा का आह्वान करता है। गांव के लोग हलमा के जरिए सामाजिक दायित्व निभाकर कर उस व्यक्ति को संकट से निकालते हैं।”

इस साल 26 फरवरी को झाबुआ की हाथीपावा पहाड़ी पर विशाल हलमा का आवाहन किया गया था। इसमें झाबुआ अलीराजपुर के 1,322 गांवों में शिवगंगा वालंटियर ने 40 हज़ार परिवारों में हलमा का निमंत्रण दिया। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे
इस साल 26 फरवरी को झाबुआ की हाथीपावा पहाड़ी पर विशाल हलमा का आवाहन किया गया था। इसमें झाबुआ अलीराजपुर के 1,322 गांवों में शिवगंगा वालंटियर ने 40 हज़ार परिवारों में हलमा का निमंत्रण दिया। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे
इस साल फरवरी में झाबुआ जिले के हाथीपावा पहाड़ी पर हलमा बुलाया गया। यहां महिलाओं की भागीदारी भी देखी गई। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे
इस साल फरवरी में झाबुआ जिले के हाथीपावा पहाड़ी पर हलमा बुलाया गया। यहां महिलाओं की भागीदारी भी देखी गई। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

साढ़ गांव के ग्राम इंजीनियर खुमान किहोरी बताते हैं, हमने गांव में पानी के संकट से निपटने के लिए हलमा बुलाया था। इसी हलमा से सामुदायिक भागीदारी के तहत बिना एक पैसा खर्च किए तालाब बनाया गया। इस तालाब को 150 लोगों ने 45 दिन में बनाया। पास के सुरीनाला गांव के किसान भी इस तालाब से लाभ ले रहे हैं।”

एक अन्य ग्राम इंजीनियर जोगड़िया मेडा बताते हैं, मेरे साथ गांव के पांच लोगों को 2016-17 में इंदौर के एक इंजीनियरिंग संस्थान में तीन दिन के लिए तालाब बनाने का प्रशिक्षण लेने भेजा गया था। यहां हमें तालाब बनाने की जरूरी जानकारियां मिली।” 

इंदौर के श्री गोविंदराम सेकसरिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी एंड साइंस (एसजीएसआईटीएस) के सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर डॉ संदीप नरुलकर 2007 से झाबुआ के आदिवासियों को तालाब निर्माण, बोरी बधान, कुआं और कंटूर ट्रैंच बनाने का प्रशिक्षण देते आ रहे हैं। 

“चूंकि ये लोग मजदूरी के जरिये निर्माण कामों से जुड़े रहते हैं, तो इनमें निर्माण की समझ होती है। इनके अंदर पानी सहेजने का पुरखों का ज्ञान भी है जो इनके काम आ रहा है,” डॉ नरुलकर बताते हैं। “हम इनको सरल भाषा मे सिविल इंजीनियरिंग की आधारभूत जानकारी देते हैं कि तालाब बनाते समय कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी हैं। तालाब के बधान में कौन सी मिट्टी उपयोग करनी है। कितनी धसाई करनी है। नींव को रेतीला और पथरीला बनाना है, ताकि पानी का रिसाव न हो,” वह आगे कहते हैं। 

कोहरी बताते हैं, अगर किसी कॉन्ट्रैक्टर से ये तालाब बनवाया जाता तो इसमें करोड़ो की लागत आती। काम करने वालों के लिए कुछ खाना यहीं बनता कुछ गांव के दूसरे लोग लाकर देते थे। इस तरह सामुदायिक भागीदारी से 60 फीट ऊँचे और 450 फीट लंबे बधान वाले इस तालाब का निर्माण संभव हो पाया।”

गांव के ही किसान किसान बदरिया मेडा बताते हैं, “पहले तो जानवरों तक के पीने के लिए पानी नहीं था। गाय को भी दिन में एक बार ही पानी पिला पाते थे। सुबह पीने के लिए पानी लेने जाते थे तो दोपहर में लौटते थे। फसल भी सिर्फ बारिश में ही ले पाते थे। पर अब दो-दो फसल ले रहे हैं। जमीन के नीचे का जलस्तर भी बढ़ा है। आस-पास की बावड़ियों में भी पानी आ गया है।”

साढ़ से 22 किलोमीटर दूर नवापाढ़ा गांव में वीरसिंह बामनिया, बापू निनामा और बाला भूरिया के खेत लहलहा रहे हैं। वीरसिंह अपने खेत में गेंहू, चना, मक्का, प्याज़, बैगन की फसल लगा रहे हैं।

वीरसिंह कहते हैं, “पहले हम गेहूं की फसल में पानी नहीं दे पाते थे। फिर हमने 2020 में हलमा बुला कर अपने गांव में 14 करोड़ लीटर की क्षमता वाला तालाब बनाया। अब हम गेहूं में भी तीन-चार बार पानी दे देते हैं।”

साढ़ गांव में बहादुर मेडा और बदरिया मेडा हलमा से बनाये तालाब को देख रहें हैं. इस तालाब की मदद से वे अब साल में दो-दो फ़सल ले सकते हैं.
साढ़ गांव में बहादुर मेडा और बदरिया मेडा हलमा से बनाये तालाब को देख रहें हैं। इस तालाब की मदद से वे अब साल में दो-दो फ़सल ले सकते हैं। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे
पानी उपलब्ध होने की वजह से नवापाढ़ा गांव में वीरसिंह बामनिया, बापू निनामा और बाला भूरिया के खेत लहलहा रहे हैं। वीरसिंह अपने खेत में गेंहू, चना, मक्का, प्याज़, बैगन की फसल लगा रहे हैं। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे
पानी उपलब्ध होने की वजह से नवापाढ़ा गांव में वीरसिंह बामनिया, बापू निनामा और बाला भूरिया के खेत लहलहा रहे हैं। वीरसिंह अपने खेत में गेंहू, चना, मक्का, प्याज़, बैगन की फसल लगा रहे हैं। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

साढ़, सगोला,खेड़ा, बावड़ी बड़ी, नवापड़ा सहित झाबुआ और अलीराजपुर में भील आदिवासियों ने समुदायिक भागीदारी के जरिए गाँवों में हलमा बुला कर 91 तालाबों का निर्माण किया है। झाबुआ और अलीराजपुर के 900 गांवों में 900 युवाओं ने ग्राम इंजीनियर के तौर पर प्रशिक्षण प्राप्त किया है। मेड बधान, कुआँ बनाने और गहरीकरण, नलकूप सुधारने, चैकडैम, बोरीबधान बनाने के काम में पारंगत हुए हैं। अभी तक 481.43 करोड़ लीटर से ज्यादा की जल धारण क्षमता की जल संरचनाएँ हलमा के जरिए बनाई गईं हैं।

झाबुआ-अलीराजपुर के 1,322 गांवों में 500 कुओं की मरम्मत और गहरीकरण,मेड बधान, नलकूप सुधारने, चैकडैम, बोरीबधान बनाने जैसी जल संरचनाओं के निर्माण का काम हलमा से भील समुदाय ने किए हैं।

इसी साल 26 फरवरी को झाबुआ की हाथीपावा पहाड़ी पर विशाल हलमा का आवाहन किया गया था। इसमें झाबुआ अलीराजपुर के 1,322 गांवों में शिवगंगा वालंटियर ने 40 हज़ार परिवारों में हलमा का निमंत्रण दिया। इन्होंने झाबुआ के हाथीपावा पहाड़ी को हराभरा बनाने के लिए दो लाख से ज्यादा कुंटूर ट्रैंच का निर्माण किया। 150 गांवों में डेढ़ लाख पेड़ भी लगाए गए हैं। इन इलाकों में हलमा के जरिए पानी को रोकने के कई अन्य काम भी किए गए हैं।


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राजाराम काटारा हमें बताते हैं, उत्तर में माही नदी और दक्षिण में नर्मदा के बीच 1320 गांवों में भील,भीलाला जनजाति रहती है। यह पहाड़ी,अर्ध-शुष्क जलवायु वाली मानसून की अनिश्चितता से जूझता इलाका है। यहां आमतौर पर औसत वार्षिक वर्षा 855 मिलीमीटर के आसपास होती है। वहीं अधिकतम तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तो न्यूनतम सात डिग्री सेल्सियस के आसपास होता है। यहां लाल, काली, पथरीली, दोमट मिट्टी पाई जाती है। यहां रहने वाली जनजाति यहां की जैव-विविधता पर निर्भर है। इसलिए ये जनजाति अपनी पुरातन परंपराओं और कुदरती ज्ञान को अपने अंदर समेटे हुए है। इसके चलते जंगल भी बचे हुए हैं और जनजाति समुदाय भी अपना अस्तित्व बचाए हुए है।”

बावड़ी बड़ी गांव के 18 वर्षीय सुनील डामोर मजदूरी के लिए गुजरात जाते हैं। सुनील और उनके पिता उदय डामोर के पास बिना सिंचाई वाली डेढ़ एकड़ जमीन है जिससे वे केवल बारिश में बोई जाने वाली मक्का और कपास उगा पाते हैं। मक्का सिर्फ घर में खाने में काम आता है। उसे वे मंडी में नहीं बेच पाते और कपास से पर्याप्त मुनाफा नहीं हो पाता। घर में नगदी की हमेशा तंगी रहती है। इसलिए आधे परिवार को मजदूरी के लिए दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता है। 

उदय बताते हैं, “सूखे से निपटने के लिए मैने गांव में तालाब बनाने के लिए हलमा का आव्हान किया था। जिसमें हमने मिलकर एक करोड़ लीटर क्षमता का तालाब बनाया था। ये तालाब गांव की दूसरी तरफ है जिससे मुझे कोई व्यक्तिगत फायदा नहीं हुआ पर गांव के अन्य लोगों के खेत इस तालाब से सिंचित होते हैं। हमें अभी गांव में और ज्यादा तालाब बनाने की जरूरत है जो हम हलमा के जरिये सामुदायिक भागीदारी से बनाएंगे।”

केंटूर ट्रेच के फायदे

बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय में भूविज्ञान के प्रोफेसर विपिन व्यास बताते हैं, “केंटूर ट्रेंच से बहुत फायदा होता है। इनसे भूजल रिचार्ज होता है। साथ ही मिट्टी की नमी भी बढ़ती है, जिससे आस-पास जैव-विविधता भी विकसित होती है। कई तरह के पेड़पौधे और घास पनपना शुरू होते हैं। इस इलाके में पहाड़ी ढलानों पर पहले से कोई खास प्लांटेशन नहीं हैं तो ये केंटूर ट्रैंच यहां पानी भी रोकते हैं और मिट्टी का कटाव भी। जो मिट्टी बारिश में बह कर जाती है वो इन केंटूर ट्रैंच में जमा हो जाती है। 

वो कहते हैं, पहाड़ों पर केंटूर ट्रैंच की इस तरह की संरचना बनाई जाती है कि वो एक-दूसरे को ओवरलेप करते हैं। जब एक केंटूर ट्रैंच में पानी भरता है तभी आगे वाले ट्रैंच में पानी पहुंचता है। भूजल स्तर बढ़ाने, मिट्टी का कटाव रोकने और मिट्टी में नमी बनाए रखने की ये एक उपयोगी तकनीक है।”

हलमा के दौरान पहाड़ी पर केंटूर ट्रेंच खोदते लोग। केंटूर ट्रेंच से बहुत फायदा होता है। इनसे भूजल रिचार्ज होता है। साथ ही मिट्टी की नमी भी बढ़ती है, जिससे आस-पास जैव-विविधता भी विकसित होती है। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे
हलमा के दौरान पहाड़ी पर केंटूर ट्रेंच खोदते लोग। केंटूर ट्रेंच से बहुत फायदा होता है। इनसे भूजल रिचार्ज होता है। साथ ही मिट्टी की नमी भी बढ़ती है, जिससे आस-पास जैव-विविधता भी विकसित होती है। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

व्यास आगे बताते हैं, “पानी का बहाव अलग-अलग स्तर पर होता है। केंटूर ट्रैंच फर्स्ट आर्डर चैन का हिस्सा हैं। जब बारिश शुरू होती है तो पानी ढलान की तरफ बहता है तो ये फर्स्ट आर्डर स्ट्रीम बनाता है। केंटूर ट्रैंच पहली आर्डर और दूसरे आर्डर में पानी रोकने का तरीका है। अगर पानी और नीचे आता है तो धाराएं और बड़ी होती जाती हैं। इससे तीसरे और चौथे स्तर की स्ट्रीम बनती है जिनको हम नाले और छोटी नदी कह सकते हैं। इन पर हम बोरी बधान या चेक डैम के माध्यम से पानी रोक सकते हैं। वैसे इस क्षेत्र में वर्षा की कमी नहीं है। इस क्षेत्र में जरूरत है पानी रोकने की, मिट्टी की नमी बनाए रखने की। केंटूर ट्रैंच,तालाबों और बोरी बधान बहुत बेहतर तरीके हैं पानी सहेजने के।”

झाबुआ में राजीव गाँधी वॉटरशेड मिशन के लिए काम कर चुके नागपुर यूनिवर्सिटी में जियोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर अभय वाराड़े हमें बताते हैं, प्रकृति के पास अपने प्राकृतिक समाधान होते हैं, पर कुछ समय से ये व्यवस्था कई कारणों से टूटी हैं। झाबुआ की जैसी भौगोलिक परिस्थितियां हैं, उनमें पेड़-पौधे कम होने के चलते यहां जमीन में पानी रोकने की क्षमता कम है। यहाँ जमीन पर पानी रोकने की क्षमता बढ़ानी चाहिए जो ‘रीज टू वेली’ अवधारणा के तहत पहाड़ी ढलानों पर केंटूर ट्रैंच बना कर और समतल इलाकों में चैक डैम और बोरी बधान बना कर किया जा सकता है। पिछले कुछ सालों में हुए कुछ प्रयासों से यहां के कुछ क्षेत्रों में भूजल में बढ़ोतरी देखने को भी मिली है। पानी सहजने के लिए लोगों की सामुदायिक भागीदारी बहुत आवश्यक है।”

 

बैनर तस्वीरः झाबुआ जिले में सामुदायिक श्रमदान ‘हलमा’ में शामिल होने जा रहीं भील महिलाएं। झाबुआ-अलीराजपुर के 1,322 गांवों में 500 कुओं की मरम्मत और गहरीकरण,मेड बधान, नलकूप सुधारने, चैकडैम, बोरीबधान बनाने जैसी जल संरचनाओं के निर्माण का काम हलमा से भील समुदाय ने किए हैं। तस्वीर- सतीश मालवीय/मोंगाबे

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