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ग्रीन क्रेडिट से पर्यावरण संरक्षण को प्रोत्साहन, लेकिन चाहिए मजबूत नियामक तंत्र

कर्नाटक के बेल्लारी में थर्मल पॉवर प्लांट। तस्वीर- प्रणव कुमार/मोंगाबे।

कर्नाटक के बेल्लारी में थर्मल पॉवर प्लांट। तस्वीर- प्रणव कुमार/मोंगाबे।

  • केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम का प्रस्ताव तैयार किया है। इसके तहत व्यक्ति, संगठन और उद्योग पहले से तय पर्यावरण-अनुकूल गतिविधियों के लिए क्रेडिट पा सकते हैं और फिर उसे बेच सकते हैं। फिर इसका व्यापार भी किया जा सकता है।
  • माना जा रहा है कि इस कार्यक्रम से पर्यावरण संरक्षण को प्रोत्साहन मिलेगा। लेकिन जानकारों को चिंता है कि अगर इसे ठीक से विनियमित नहीं किया गया तो इससे ग्रीनवाशिंग को बढ़ावा मिल सकता है।
  • हालांकि स्कीम को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं। मसलन, क्रेडिट की गणना किस तरह की जाएगी। लाभों को मापने का तरीका क्या होगा। और अगर क्रेडिट में धोखाधड़ी की गई, तो क्या होगा।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने टिकाऊ विकास और पर्यावरण संरक्षण को आगे बढ़ाने के लिए “ग्रीन क्रेडिट” स्कीम का प्रस्ताव तैयार किया है। इसके तहत व्यक्ति, संगठन और उद्योग पर्यावरण के लिए फायदेमंद मानी जाने वाली स्वैच्छिक गतिविधियों के लिए ग्रीन क्रेडिट पा सकते हैं। लेकिन जानकारों ने चेतावनी दी है कि उचित निगरानी या मजबूत नियामक तंत्र के बिना, यह योजना ग्रीनवॉशिंग (पर्यावरण को बचाने से जुड़े झूठे वादे) या डबल काउंट के मामलों को सामने ला सकती हैं।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने 27 जून को ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम का मसौदा जारी किया। इसमें पर्यावरण को बचाने से जुड़े आठ कामों को शामिल किया गया है। इनके लिए व्यक्तियों और अन्य संस्थाओं को क्रेडिट देने का प्रस्ताव है। कार्यक्रम के मसौदे में कहा गया है कि इन क्रेडिट को “घरेलू बाजार में व्यापार के लिए उपलब्ध कराया जा सकता है।”

इससे पहले भारत ने ऊर्जा खपत को कम करने के लिए इसी तरह के तंत्र पर काम किया है। और अब अपना घरेलू कार्बन बाजार बनाने के लिए कार्बन क्रेडिट के व्यापार में उतर रहा है।

लेकिन कार्बन बाजार के विपरीत – जो प्रति टन उत्सर्जित कार्बन की एक मानक इकाई की कीमत तय करता है – ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम (जीसीपी) में अभी तक अलग-अलग गतिविधियों के लिए मिलने वाले लाभों को मापने की कोई मानक इकाई नहीं है। इनमें पौधारोपण से लेकर टिकाऊ बुनियादी ढांचे तक के क्षेत्र शामिल हैं। कार्यक्रम के मसौदे में कहा गया है कि जीसीपी को एक अलग बाजार तंत्र के रूप में विकसित करने की कल्पना की गई है। लेकिन अगर “ग्रीन क्रेडिट” के चलते कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आती है तो यह कार्बन बाजार के साथ ओवरलैप हो सकता है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट में जलवायु परिवर्तन की कार्यक्रम प्रबंधक अवंतिका गोस्वामी ने मोंगाबे इंडिया को बताया, यहां तक कि कार्बन क्रेडिट पर नज़र रखना, जो सिर्फ एक ही गैस पर केंद्रित है, जटिल काम है और इसे भी रेगुलेट करना चुनौतियों से भरा है। उसी तरीके को अन्य पारिस्थितिक तंत्रों और प्रदूषण क्षेत्रों तक बढ़ाने से ग्रीनवॉशिंग का बड़ा खतरा पैदा होता है। “यह इस बात पर भी गंभीर सवाल उठाता है कि निगरानी कितनी कठोर होगी और प्रदूषण में कमी और जैव विविधता को बचाने की जिम्मेदारी किसे लेनी चाहिए।”

अपने अपार्टमेंट में लगे सोलर रूफटॉप की जांच करता हुआ एक आदमी। तस्वीर: धीरज ऐथल/मोंगाबे।
अपने अपार्टमेंट में लगे सोलर रूफटॉप की जांच करता हुआ एक आदमी। तस्वीर: धीरज ऐथल/मोंगाबे।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, (आईआईटी) बॉम्बे में जलवायु अध्ययन में अंतःविषय कार्यक्रम की प्रोफेसर तृप्ति मिश्रा कहती हैं, “मेरा मानना ​​है कि चाहे अनिवार्य हो या स्वैच्छिक, किसी भी कार्यक्रम को मजबूत प्रक्रिया की जरूरत होती है, जिसमें तकनीकी सहायता, अच्छे माप उपकरण के अलावा स्रोत स्तर पर उचित निगरानी ज्यादा जरूरी होती है। चूंकि ग्रीन क्रेडिट या उस मामले में कार्बन मार्केट भारतीय कंपनियों के लिए नए कार्यक्रम हैं, ये निगरानी के प्रति जागरूकता सहित प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए अच्छी तरह से काम करेंगे।”

कार्यक्रम का उद्देश्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट (LiFE) आंदोलनका प्रचार करना है, जिसका उद्देश्य स्वस्थ और टिकाऊ जीवन को बढ़ावा देना है।  मिस्र के शर्म अल-शेख में कॉप-27 में LiFE अवधारणा को आगे बढ़ाया गया था, जहां इसे फैसलों के साथ लिखित रूप में शामिल किया गया था और कवर पर भी रखा गया था जो वैश्विक जलवायु कार्रवाई को प्रभावित करता है।

कार्यक्रम का मसौदा ऐसे समय में सामने आया है जब भारत जी-20 अध्यक्षता की मेजबानी कर रहा है। उसके लिए अपनी अंतरराष्ट्रीय जलवायु प्रतिबद्धताओं पर बात करनी जरूरी है। इसमें 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना शामिल है। भारत ने अपने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) में, अतिरिक्त वन और वृक्ष आवरण के जरिए ढाई से तीन बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने में सक्षम कार्बन सिंक बनाने की प्रतिबद्धता जताई है।

इन्हें मिलेगा ग्रीन क्रेडिट 

मसौदे से जुड़ी अधिसूचना में कहा गया है कि समाज का एक व्यापक वर्ग जीसीपी में हिस्सा ले सकता है। इसमें व्यक्ति, किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ), सहकारी समितियां, वानिकी और टिकाऊ कृषि उद्यम, शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकाय, निजी क्षेत्र, उद्योग और विभिन्न प्रकार के संगठन शामिल हैं।

आठ गतिविधियां जो क्रेडिट पा सकती हैं उनमें पेड़ लगाना; पानी को बचाना; प्रदूषित पानी को साफ करना; खेती के प्राकृतिक और रीजनरेटिव तरीकों को बढ़ावा देना; कचरे का प्रबंधन, कचरे को अलग-अलग करना और उसे इकट्ठा करने के तरीकों को बेहतर बनाना; वायु प्रदूषण को कम करना; मैंग्रोव का संरक्षण और और इन्हें फिर से लगाना; इमारतों के निर्माण और उसे बनाने के लिए इको मार्क लेबल प्राप्त करना शामिल हैं। इको मार्क एक लेबल है जिसे भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) पर्यावरण के लिए बेहतर उत्पादों को देता है।

दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के एसोसिएट प्रोफेसर ईश्वरन जे. नरसिम्हन ने कहा, कुल मिलाकर, यह पहल बेहतरीन है। लेकिन इसे लागू करना चुनौतियों से भरा होगा और इसके लिए खास गतिविधियों के विशेषज्ञों के साथ वैज्ञानिक समिति बनानी होगी, जो ग्रीन क्रेडिट प्राप्त करने के लिए योग्यता की सूची बना सकें।” नरसिम्हन ने कहा, “प्रशासक को यह पक्का करना चाहिए कि अलग-अलग श्रेणियों के तहत जनरेट होने वाले प्रत्येक क्रेडिट हॉट-एयर क्रेडिट‘ (अवास्तविक या वास्तविक मूल्य की कमी) नहीं है यानी जो काम पहले से ही हो रहे हैं, उनके अतिरिक्त हैं।”

जीसीपी को लागू करने का काम भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) को सौंपा गया है। यह अनुसंधान करने वाला और क्षमता विकसित करने वाला संगठन है। यह आम तौर पर किसी चीज को लागू करने का काम नहीं करता है। जीसीपी के हिस्से के रूप में, यह अन्य जिम्मेदारियों के साथ-साथ क्रेडिट देने और ग्रीन क्रेडिट की रजिस्ट्री बनाए रखने का प्रभारी भी होगा।

आईसीएफआरई को मार्गदर्शन देने वाली एक संचालन समिति होगी, जो कार्यान्वयन और सत्यापन के लिए दिशानिर्देश तैयार करेगी। किन क्षेत्रों को कार्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए, इसके लिए सुझाव देगी और इसकी समीक्षा और निगरानी करेगी। मसौदे में कहा गया है कि केंद्र सरकार समय-समय पर पूरे सिस्टम का ऑडिट करने के लिए ऑडिटरों को भी सूचीबद्ध कर सकती है।

बहुत बड़ी लैंडफिल साइट। यहां गुरुग्राम से पैदा होने वाला कचरा फेंका जाता है। तस्वीर- शाज़ सैयद/मोंगाबे।
बहुत बड़ी लैंडफिल साइट। यहां गुरुग्राम से पैदा होने वाला कचरा फेंका जाता है। तस्वीर- शाज़ सैयद/मोंगाबे।

अनिश्चितता के क्षेत्र

ऐसे बाजार तंत्रों के साथ भारत का अनुभव मिले-जुले नतीजों वाला रहा है।

साल 2012 में शुरू की गई परफॉर्म अचीव एंड ट्रेड स्कीम (PAT/पीएटी) 13 कार्बन-सघन उद्योगों को अपनी ऊर्जा खपत कम करने के लिए प्रोत्साहित करती है। बचाई गई ऊर्जा प्रमाणित की जाती है और इसे उन संस्थाओं को बेचा जा सकता है जिन्होंने अपने लक्ष्य पूरे नहीं किए हैं। पीएटी योजना का दूसरा चक्र, जो 2019 में खत्म हुआ, जिसके चलते लगभग 680 लाख टन उत्सर्जन में कटौती हुई। हालांकि, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा 2021 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि थर्मल पावर सेक्टर के लिए, सेक्टर की कुल ऊर्जा खपत की तुलना में ऊर्जा में कटौती महज तीन फीसदी थी। अध्ययन में कहा गया है, “यह इस तथ्य को उजागर करता है कि पीएटी को दिया गया लक्ष्य क्षेत्र से कुल उत्सर्जन कटौती की तुलना में बहुत कम है।” अध्ययन में पाया गया, “अनुपालन के लिए ऊर्जा बचत प्रमाणपत्र प्राप्त करने का विकल्प होने से थर्मल पावर प्लांटों के लिए ऊर्जा बचत उपायों को स्थापित करके अनुपालन प्रदर्शित करना बहुत कम खर्चीला हो जाता है।अध्ययन के मुताबिक अनुपालन नहीं करने वाले थर्मल पावर प्लांटों को हमेशा दंडित नहीं किया गया।

इसी तरह, बाजार-आधारित एक अन्य पहल, नवीन ऊर्जा प्रमाणपत्र (आरईसी), बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) और अन्य संस्थाओं को ऊर्जा बनाने वालों से इन प्रमाणपत्रों को खरीदने की सुविधा देती है, अगर वे अपने नवीन (ऊर्जा) खरीद दायित्वों (आरपीओ) को पूरा करने में असमर्थ हैं। सलाहकार सेवा के क्षेत्र में काम करने वाली इंटेलकैप (Intellecap) की 2021 की रिपोर्ट में डिस्कॉम के बीच पेनाल्टी को सही तरीके से लागू नहीं करने के चलते आरईसी की ज्यादा आपूर्ति पाई गई। यह भी पाया गया कि मांग बहुत कम बाध्यकारी संस्थाओं द्वारा संचालित थी जिनकी स्वैच्छिक भागीदारी बहुत कम थी।

जीसीपी महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है क्योंकि यह कई अलग-अलग क्षेत्रों के तहत विभिन्न गतिविधियों को कवर करता है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इसे लागू करने पर समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं।

केरल में मैंग्रोव वृक्षारोपण अभियान में स्वयंसेवक। तस्वीर- जेयू भवप्रिया/मोंगाबे।
केरल में मैंग्रोव वृक्षारोपण अभियान में स्वयंसेवक। तस्वीर- जेयू भवप्रिया/मोंगाबे।

सीपीआर के नरसिम्हन ने कहा,बाज़ार में व्यापार के लिए इन क्रेडिट को भुनाना भी एक और चिंता का विषय है। क्या खास गतिविधियों से मिलने वाले क्रेडिट, गतिविधियों के भीतर व्यापार के योग्य हैं या नहीं? अगर नहीं, तो इस बात पर स्पष्टता जरूरी है कि अलग-अलग गतिविधियों में उत्पन्न क्रेडिट की किस तरह तुलना की जा सकती है।

क्रेडिट की गणना किस तरह की जाएगीमसौदा अधिसूचना में यह सवाल स्पष्ट नहीं है, जिसमें कहा गया है कि “संसाधन आवश्यकता (एक परियोजना के लिए), पैमाने की समानता, दायरे, आकार और अन्य प्रासंगिक मापदंडों की समानता” पर विचार करने के बाद एक मूल्य निकाला जाएगा। विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ गतिविधियों के लाभ को मापना सावधानी से किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, कचरे-से-ऊर्जा संयंत्र को हरित क्रेडिट से पुरस्कृत करना प्रतिकूल हो सकता है अगर यह मिश्रित कचरे को संसाधित करता है, जिससे उत्सर्जन बहुत ज्यादा होता है।

हालांकि आईआईटी-बॉम्बे की मिश्रा स्वीकार करती हैं कि डबल काउंटिंग, ग्रीन क्रेडिट और कार्बन क्रेडिट कार्यक्रमों के लिए कोई समस्या नहीं है। वह ग्रीनवॉशिंग की आशंका पर चिंता व्यक्त करती हैं, जो उत्पादों, गतिविधियों या नीतियों को वास्तव में जितना वे हैं उससे अधिक पर्यावरण के अनुकूल या कम पर्यावरणीय रूप से हानिकारक बनाने का तरीका है। वह बताती हैं, “ग्रीन क्रेडिट को कंपनियों की कार्रवाई का पूरक माना जाता है। केवल क्रेडिट खरीदना और कोई आंतरिक कार्रवाई नहीं करना ग्रीनवाशिंग का संकेत है। यह कंपनियों के लिए इसे टिकाऊ गतिविधियों और एसडीजी लक्ष्यों के लिए कार्रवाई के तहत पार्क करने का एक आसान तरीका हो सकता है। ऐसी संभावनाएं हैं कि कंपनियां गलत तरीके से बता कर या अपने क्रेडिट को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करके, अविश्वसनीय क्रेडिट खरीदकर और कंपनियों की क्षेत्रीय गतिविधि से असंबंधित क्रेडिट खरीदकर ग्रीनवॉश कर सकती हैं।


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मसौदा अधिसूचना में इस बात का भी उल्लेख नहीं है कि अगर क्रेडिट धोखाधड़ी वाली पाई गई तो क्या होगा।

जीसीपी ने वन संरक्षण नियम (2022) के तहत मान्यता प्राप्त प्रतिपूरक वनरोपण (एसीए) योजना से जुड़ने का भी प्रस्ताव रखा है, जो निजी और सार्वजनिक संस्थाओं को गैर-वन भूमि पर वृक्षारोपण करने और उन्हें परियोजना लगाने वालों को बेचने की अनुमति देता है, जो अपनी परियोजनाओं के लिए काटे गए गए जंगल के लिए “क्षतिपूर्ति” करना चाहते हैं।

हालांकि आईसीएफआरई जीसीपी का प्रबंधन करेगा, एसीए योजना राज्य और जिला वन विभागों द्वारा प्रशासित की जानी हैं। वे दो अलग-अलग कानूनों के तहत भी आते हैं – पहला पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत और दूसरा वन (संरक्षण) अधिनियम के तहत।

स्वतंत्र कानूनी और नीति शोधकर्ता कांची कोहली ने कहा,हालांकि इन दोनों सुधारों को अलग-अलग कानूनों के तहत आगे बढ़ाया जा रहा है। उन्हें उन सुधारों की एक श्रृंखला के रूप में समझा जाना चाहिए जिन्हें सरकार को वैश्विक प्रतिबद्धताओं और राष्ट्रीय नीति से जुड़ी जरूरतों में सामंजस्य बनाने के लिए करना है। हालांकि, निगरानी जटिल होने की संभावना है क्योंकि यह सिर्फ अलग-अलग संस्थानों द्वारा नहीं किया जाएगा। अनुपालन भी दो अलग-अलग कानूनों के कानूनी मानकों के अधीन होंगे। इन दोनों प्रक्रियाओं के तहत जनरेट डेटा को समेटना चुनौती होगी, क्योंकि डबल काउंट और अन्य संबंधित अंतरालों का जोखिम है।

 

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बैनर तस्वीर: कर्नाटक के बेल्लारी में थर्मल पॉवर प्लांट। तस्वीर- प्रणव कुमार/मोंगाबे।

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