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लैंटाना से हाथी और फर्नीचर बनाकर इस आक्रामक पौधे को खत्म करने की कोशिश

यूके के लंदन में करीने से सजाए गए लैंटाना से बने आदमकद हाथी। तस्वीर - मॉरीन बार्लिन/फ़्लिकर।

यूके के लंदन में करीने से सजाए गए लैंटाना से बने आदमकद हाथी। तस्वीर - मॉरीन बार्लिन/फ़्लिकर।

  • आक्रामक पौधों के फैलाव को नियंत्रित करने के लिए कुछ संस्थाओं ने एक नायाब समाधान की पेशकश की है: आक्रामक पौधों को खत्म करने के लिए उन्हें काटना और बेचना।
  • हालांकि, कुछ पहलों से पता चला है कि आक्रामक प्रजातियों से सजावटी चीजें बनाने और बेचने से सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिकी से जुड़ी चुनौतियों पैदा हो सकती हैं।
  • कुछ संरक्षणवादियों और शोधकर्ताओं का कहना है कि जैव ईंधन जैसे उद्योगों के लिए आक्रामक पौधों को बड़े पैमाने पर काटा जा सकता है, लेकिन सिर्फ सजावटी उत्पाद बना कर ऐसा करना संभव नहीं है।
  • वहीं, कुछ शोधकर्ताओं को चिंता है कि इससे आक्रामक पौधों को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहन मिल सकता है, लेकिन व्यावसायीकरण का पक्ष लेने वालों की दलील है कि कुछ प्रजातियों का बड़े पैमाने पर आर्थिक इस्तेमाल उनके फैलाव को नियंत्रित करने का एकमात्र तरीका हो सकता है।

दुनिया की सबसे कुख्यात आक्रामक प्रजातियों में से एक लैंटाना (लैंटाना कैमारा ) के फैलाव को रोकने की उम्मीद के साथ साल 2009 में एक प्रयोग शुरू हुआ था यह प्रयोग एनजीओ शोला ट्रस्ट ने तमिलनाडु के एक गांव में शुरू किया था जो लंबे समय तक चलने वाला था। एनजीओ ने गांव के स्थानीय समुदायों को लैंटाना के तनों की कटाई करने और उन्हें बेचने योग्य फर्नीचर में बदलने के लिए प्रशिक्षित किया। कार्यक्रम दो लक्ष्यों के साथ शुरू किया गया था: जंगलों पर निर्भर समुदायों के लिए अतिरिक्त आय पैदा करना और उस कुख्यात आक्रामक प्रजाति को खत्म करना जो क्षेत्र के जंगलों को ख़त्म कर रही थी।

वन्यजीव शोधकर्ता और शोला ट्रस्ट के सह-संस्थापक तर्श थेकेकारा कहते हैं, “लेकिन आठ सालों में फर्नीचर कारोबार आगे नहीं बढ़ पाया और अगर आप पूछें कि इस प्रक्रिया में कितने हेक्टेयर में लैंटाना साफ़ हुआ, तो जवाब होगा शून्य।” 

वैसे वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आक्रामक पौधों की प्रजातियां एक हजार से ज्यादा हैं। इन्हें हम और आप जानबूझकर या गलती से इनके मूल स्थान से नए क्षेत्रों में पहुँचा चुके हैं। बदले हुए वातावरण में, इनमें से कई प्रजातियां देशी पौधों की तुलना में ज्यादा आक्रामक तरीके से बढ़ने में कामयाब रही हैं। उन्होंने ना सिर्फ जंगलों, घास के मैदानों और अन्य पारिस्थितिक तंत्रों को बदल दिया है, बल्कि स्थानीय समुदायों के लिए कठिनाइयां भी पैदा की हैं और इससे सरकारों को लाखों डॉलर का नुकसान हुआ है।

उदाहरण के लिए, कुडज़ू (पुएरेरिया मोंटाना) को लेते हैं। यह मूल रूप से एशिया की एक बेल है जो पूरे दक्षिण-पूर्वी अमेरिका में फैल गई है और जंगल तथा नदी के किनारों पर तेजी से बढ़ती है। साथ ही, मेसकाइट प्रजाति (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) पर विचार करें जो मध्य अमेरिका का एक सख्त पेड़ है और जंगलों, झाड़ियों और चरागाहों में आक्रामक तरीक से फैल गया है।

समस्या सिर्फ यह नहीं है कि कई आक्रामक पौधे नए क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लेते हैं; उन्हें खत्म करना अविश्वसनीय रूप से दुष्कर भी हो सकता है। अधिकारियों ने कई तरीकों से उनके फैलाव को हटाने और नियंत्रित करने की कोशिश की है। इनमें उन्हें उखाड़ना और काटना, उन पर दवाओं का छिड़काव करना और यहां तक कि बीमारियों या भूखे कीड़ों को छोड़ना शामिल है।

मोंटाना विश्वविद्यालय में पेड़-पौधों से जुड़े इकोलॉजिस्ट और सहायक प्रोफेसर इज़राइल बोरोकिनी कहते हैं “लेकिन मुझे अहसास हो गया है कि इनमें से ज्यादातर तरीकों से बड़े पैमाने पर कोई फायदा नहीं हुआ है। उन्होंने 2012 में एक पेपर प्रकाशित किया था जिसमें नाइजीरिया में आक्रामक प्रजातियों पर आर्थिक नियंत्रण की दलील दी गई थी। वह कहते हैं, कुछ सरकारों के पास खरपतवारों के प्रबंधन के लिए पर्याप्त रकम नहीं है।

इसलिए, कुछ गैर सरकारी संगठन, शोधकर्ता, स्थानीय समुदाय और व्यवसाय एक नई रणनीति लेकर आए हैं: आक्रामक पौधों की कटाई करके उन्हें बेचना, ताकि ये खत्म हो जाएं। लेकिन क्या आक्रामक प्रजातियों से बने उत्पादों की मार्केटिंग इन्हें खत्म कर सकती है? आइए इस सवाल का जवाब पाने के लिए लैंटाना के उदाहरण पर फिर से लौटते हैं।

नीलगिरि की पहाड़ियों पर लैंटाना के पौधे। दक्षिण भारत में लगभग 40% संरक्षित क्षेत्रों पर इस प्रजाति ने कब्जा कर लिया है। तस्वीर- इंडियानेचर एसजी/फ़्लिकर।
नीलगिरि की पहाड़ियों पर लैंटाना के पौधे। दक्षिण भारत में लगभग 40% संरक्षित क्षेत्रों पर इस प्रजाति ने कब्जा कर लिया है। तस्वीर– इंडियानेचर एसजी/फ़्लिकर।

लैंटाना को बेचना

दरअसल, लैंटाना के दुनिया भर में फैलने की कहानी बड़ी रोचक है। यह प्रजाति मुख्य रूप से दक्षिण अमेरिका की है। 19वीं सदी में अंग्रेज लैंटाना को अफ्रीका, एशिया और ऑस्ट्रेलिया में सजावटी पौधे के रूप में लेकर आए। आज, लैंटाना को दुनिया की दूसरी सबसे कुख्यात आक्रामक प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। वहीं अधिकारियों ने इस प्रजाति से छुटकारा पाने की कोशिश में अरबों डॉलर खर्च किए हैं, लेकिन उनकी कोशिशें काफी हद तक नाकामयाब रही हैं।

उदाहरण के तौर पर दक्षिण भारत को लेते हैं। यहां के जंगलों पर लैंटाना का विस्तार लगातार हो रहा है। चूंकि यह पौधा विषैला होता है, इसलिए इसका फैलाव शाकाहारी जीवों के लिए चारे की उपलब्धता को कम कर देता है। इसकी अभेद्य झाड़ियां वन्यजीवों के घूमने और आराम करने के लिए जगह कम कर देती हैं। साथ ही, जंगलों पर निर्भर स्थानीय समुदायों के लिए लकड़ी के अलावा अन्य वन उत्पादों तक पहुंच और आजीविका कमाने के अवसर भी कम कर देती हैं।

थेकेकारा कहते हैं, “अब जंगल में चलना सुरक्षित नहीं है, क्योंकि लैंटाना की वजह से घास दिखाई नहीं देती है।” इसके अलावा, घना होता लैंटाना बाघों और हाथियों जैसे वन्यजीवों को इंसानों वाले जंगल के रास्तों पर चलने के लिए मजबूर करता है, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष की आशंका बढ़ जाती है।

शोला ट्रस्ट और बेंगलुरु स्थित अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) जैसे संगठनों ने लैंटाना को हटाने के लिए  दक्षिण भारत के संरक्षित क्षेत्रों के आसपास रहने वाले स्थानीय समुदायों के सामने लैंटाना से बनी चीजें और फर्नीचर बनाने का विचार रखा। लेकिन जैसा कि संगठनों ने बाद में विश्लेषण किया, कई चुनौतियों ने परियोजनाओं को सीधे तौर पर बेहतर बनने से रोक दिया।

सबसे पहले तो लैंटाना उत्पाद को लगातार बनाने की समस्या थी। उदाहरण के लिए, समुदायों के पास पहले से ही कई काम हैं। जैसे, खेती और वन विभाग के साथ कभी-कभार काम करना, चाय और कॉफी के बागानों में रोजगार, मवेशियों की देखभाल करना और लकड़ी के अलावा अन्य वन उत्पादों को बेचना।

थेकेकारा कहते हैं, “यह विचार कि वे सभी कामों को छोड़कर सिर्फ यही काम करेंगे, बिल्कुल गलत है।” “इस तरह वे उस तरह फर्नीचर नहीं बनाएंगे, जैसे किसी कारखाने में बनते हैं।”

एटीआरईई ने पाया कि मात्रा के अलावा, समुदायों के लिए लगातार बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पाद बनाना भी चुनौतीपूर्ण है जो उद्योग के मानकों को पूरा करते हैं। इसलिए, संगठन ने इंटीरियर और लाइफस्टाइल ब्रांड, पर्पल टर्टल के संस्थापक और ऊर्जा के सह-संस्थापक रदीश शेट्टी से संपर्क किया। आखिरकार, शेट्टी की टीम ने बेंगलुरु में एक केंद्र स्थापित किया जहां कंपनी के इन-हाउस डिजाइनर और कारीगर प्रोटोटाइप बनाते हैं। फिर इसे समुदायों को इसी तरह की चीजें बनाने के लिए दिया जाता है।

शेट्टी कहते हैं, ”इस तरह हम गुणवत्ता के मामले में बहुत सख्त मानक तय करते हैं।

बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान में लैंटाना झाड़ियों के बीच बैठा एक तेंदुआ (पैंथेरा पार्डस) मुश्किल से दिखाई दे रहा है। थेकेकारा कहते हैं, "अब जंगल में चलना सुरक्षित नहीं है, क्योंकि लैंटाना के कारण जमीन पर घास दिखाई नहीं देती है।" तस्वीर- सिद्दार्थ मचाडो/फ़्लिकर।
बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान में लैंटाना झाड़ियों के बीच बैठा एक तेंदुआ (पैंथेरा पार्डस) मुश्किल से दिखाई दे रहा है। थेकेकारा कहते हैं, “अब जंगल में चलना सुरक्षित नहीं है, क्योंकि लैंटाना के कारण जमीन पर घास दिखाई नहीं देती है।” तस्वीर– सिद्दार्थ मचाडो/फ़्लिकर।
ऊर्जा की ओर से लैंटाना से बनाई गई बेंच। कंपनी समुदायों की ओर से तैयार किए गए बेहतर गुणवत्ता वाले लैंटाना लैंप और फर्नीचर बेचती है। तस्वीर साभार- रदीश शेट्टी।
ऊर्जा की ओर से लैंटाना से बनाई गई बेंच। कंपनी समुदायों की ओर से तैयार किए गए बेहतर गुणवत्ता वाले लैंटाना लैंप और फर्नीचर बेचती है। तस्वीर साभार- रदीश शेट्टी।

आज, शेट्टी की कंपनियां समुदायों की ओर से तैयार किए गए बेहतर गुणवत्ता वाले लैंटाना लैंप और फर्नीचर बेचती हैं। वे हवाई अड्डों, आवासीय और कारोबारी जगहों के लिए बड़े लैंटाना-आधारित सजावटी सामान भी बनाते हैं।

फिर भी, इन उत्पादों को बड़े पैमाने पर बेचना एक चुनौती बनी हुई है। उदाहरण के लिए, लोगों के बीच जागरूकता की कमी है। संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों के बाहर बहुत से लोग इस पौधे के बारे में नहीं जानते हैं। इसके अलावा, जंगलों में प्रचुर मात्रा में लैंटाना की झाड़ियां हैं, लेकिन वहां से बड़ी मात्रा में इनके तने निकालना और उन्हें साल के हर समय उपलब्ध कराना मुश्किल है।

शेट्टी कहते हैं, ”अगर यह मेरे लिए मांग के अनुसार पूरे 365 दिन उपलब्ध ना हो, तो यह बेहद अव्यवहार्य हो जाता है।

उन्होंने आगे कहा, लैंटाना के तने के बंडलों को काटकर बाद में इस्तेमाल के लिए इकट्ठा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि काटे गए तनों को लगभग तुरंत काम में लेने की जरूरत होती है।

शेट्टी कहते हैं, “तो, अब हम कई गैर सरकारी संगठनों के साथ काम कर रहे हैं जो हमारे लिए लैंटाना खरीद सकते हैं, इसलिए हम एक जगह पर निर्भर नहीं हैं।”

हालांकि, थेकेकारा का संगठन अब लैंटाना फर्नीचर को अव्यवहार्य मानता है। अब वे लैंटाना को आदमकद हाथी की मूर्तियों में बदलने के लिए जंगल में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के छोटे समूहों के साथ काम करते हैं, जो दुनिया भर में हाई-प्रोफाइल प्रदर्शनियों में बेचे जाते हैं।

थेकेकरा कहते हैं, “मूर्ति बनाने में लगभग 10 लोग लगते हैं। ये लोग एक साथ काम करते हैं और वे जब चाहें जा सकते हैं और उनकी जगह कोई दूसरा आ सकता है।” “तो, मूर्ति समय पर तैयार हो जाती है और वे किस तरह काम करते हैं और वे अपने बीच पैसे का बंटवारा किस तरह करते हैं, इसमें बहुत लचीलापन है।”

फर्नीचर कारोबार की तुलना में मूर्तियों की नीलामी से ज्यादा आमदनी हुई है। थेकेकारा का कहना है कि फर्नीचर बनाने के पहले आठ सालों में समुदायों को लगभग 30 लाख रुपये ($36,000) की कमाई हुई, जबकि हाथी बनाने के छह सालों में उन्हें लगभग 3.5 करोड़ रुपये ($420,000) की आमदनी हुई।

लैंटाना से हाथी की मूर्ति बनाते कारीगर। शोला ट्रस्ट लैंटाना को आदमकद हाथी की मूर्तियों में बदलने के लिए जंगलों में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के छोटे समूहों के साथ काम करता है, जो दुनिया भर में हाई-प्रोफाइल प्रदर्शनियों में लगती हैं। तस्वीर साभार- द शोला ट्रस्ट/द रियल एलीफेंट कलेक्टिव
लैंटाना से हाथी की मूर्ति बनाते कारीगर। शोला ट्रस्ट लैंटाना को आदमकद हाथी की मूर्तियों में बदलने के लिए जंगलों में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के छोटे समूहों के साथ काम करता है, जो दुनिया भर में हाई-प्रोफाइल प्रदर्शनियों में लगती हैं। तस्वीर साभार- द शोला ट्रस्ट/द रियल एलीफेंट कलेक्टिव

कारोबारी गतिविधियों से आक्रामक प्रजातियों पर कितना अंकुश?

जैसा कि लैंटाना की कहानी से पता चलता है, आक्रामक प्रजातियों से लोग पैसा कमा सकते हैं।

स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट फॉर फॉरेस्ट, स्नो एंड लैंडस्केप रिसर्च के वैज्ञानिक रॉस शेकलटन कहते हैं, “कई आक्रामक प्रजातियों का आर्थिक इस्तेमाल होता है – यही वजह है कि कई को दूसरी जगहों पर लगाया गया था।”

लेकिन आक्रामक प्रजातियों के फैलाव पर अंकुश लगाने के लिए उनका कारोबारी दोहन प्रयोगात्मक रूप से या छोटे पैमाने पर किया गया है।

इथियोपिया में, गैर सरकारी संगठनों ने 2000 के दशक में पी. जूलीफ्लोरा की कटाई के लिए समुदायों को सहकारी समितियां बनाने में मदद की। यह मेसकाइट के कई प्रकारों में से एक है और इसे बाजार के लिए चारकोल में बदल दिया गया। यही नहीं, बीज की फली को जानवरों के चारे के लिए आटे में बदल दिया गया। कीनिया और भारत के कुछ हिस्सों में स्थानीय समुदायों ने भी मेसकाइट से चारकोल बनाने और बेचने का प्रयोग किया है।

अमेरिका में रेस्तरां ने अपने मेन्यू में जापानी नॉटवीड (रेनौट्रिया जैपोनिका), कुडज़ू और ऑटम ऑलिव (एलेग्नस अम्बेलटा) जैसी आक्रामक प्रजातियों को शामिल किया है। स्लोवेनिया में, अधिकारी जापानी नॉटवीड पल्प से कागज बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस बीच, नाइजीरिया में उद्यमी बहुत ज्यादा आक्रामक दक्षिण अमेरिकी जलकुंभी (इचोर्निया क्रैसिप्स) से हस्तशिल्प बना रहे हैं, जबकि कीनिया में वे प्रजाति को जैव ईंधन में बदल रहे हैं।

लेकिन आक्रामक पौधों के फैलाव को कम करने में इन कोशिशों का क्या असर होता है? इसका पता लगाने के लिए बहुत ज्यादा निगरानी नहीं की गई है। लेकिन शोधकर्ता इसका जवाब नहीं में देते हैं।

अमेरिका के जॉर्जिया में पेड़ों पर कुडज़ू, अमेरिका के रेस्तरां ने अपने मेनू में जापानी नॉटवीड, कुडज़ू और ऑटम ऑलिव जैसी आक्रामक प्रजातियों को शामिल किया है। तस्वीर - स्कॉट एहार्ट/विकिमीडिया कॉमन्स।
अमेरिका के जॉर्जिया में पेड़ों पर कुडज़ू, अमेरिका के रेस्तरां ने अपने मेनू में जापानी नॉटवीड, कुडज़ू और ऑटम ऑलिव जैसी आक्रामक प्रजातियों को शामिल किया है। तस्वीर – स्कॉट एहार्ट/विकिमीडिया कॉमन्स।
पोलैंड में जापानी नॉटवीड। स्लोवेनिया में, अधिकारी जापानी नॉटवीड पल्प से कागज बनाने की कोशिश कर रहे हैं। तस्वीर - अब्राहम/विकिमीडिया कॉमन्स।
पोलैंड में जापानी नॉटवीड। स्लोवेनिया में, अधिकारी जापानी नॉटवीड पल्प से कागज बनाने की कोशिश कर रहे हैं। तस्वीर – अब्राहम/विकिमीडिया कॉमन्स।

उदाहरण के लिए, लैंटाना के मामले में, जंगली में इसका फैलाव बहुत बड़ा है: दक्षिण भारत में लगभग 40% संरक्षित क्षेत्रों को इस पौधे ने अपने कब्जे में ले लिया है। और फर्नीचर या अन्य लैंटाना उत्पाद बनाने के लिए, समुदायों और कंपनियों को सिर्फ कुछ सीधे तनों की जरूरत होती है, बाकी पौधे को बिना छुए ही छोड़ दिया जाता है। नतीजतन, लैंटाना का फैलाव जारी है।

यही कारण है कि संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले शोला ट्रस्ट जैसी गैर-लाभकारी संगठन अब बायोमास ऊर्जा जैसे उद्योगों में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे हैं, जहां हर रोज़ टन के हिसाब से पूरे लैंटाना पौधों की लुगदी बनाई जा सकती है या ईंधन के लिए जलाया जा सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बड़े पैमाने पर समस्या से निपटने का यही एकमात्र तरीका हो सकता है।

वह कहते हैं, इसे लक्ष्य को हासिल करने के लिए, थेकेकरा का कहना है कि उन्हें संरक्षित क्षेत्रों के आसपास कई लैंटाना हटाने वाली इकाइयां बनाने की उम्मीद है, जिसे स्थानीय समुदाय चलाएंगे। इन इकाइयों से बड़ी मात्रा में लैंटाना निकाले जाएंगे, इसे साइट पर चूरा बनाया जाएगा और फिर से बेचा जाएगा। फिर, लगभग 60 सालों में, आप लैंटाना को ख़त्म होते हुए देख सकते हैं।

उन्होंने आगे कहा,लैंटाना को इस व्यापक पैमाने तक फैलने में 200 साल लग गए। इसे साफ करने में 60 साल लगना बहुत उचित है।” 

लेकिन कुछ शोधकर्ता आक्रामक प्रजातियों के इस तरह वाणिज्यिक इस्तेमाल को लेकर आशंकित भी हैं।

शेकलटन कहते हैं, “अगर लक्ष्य स्थानीय आजीविका को बढ़ावा देना और गरीब ग्रामीण परिवारों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाना है, तो शायद इस्तेमाल तक पहुंचा जा सकता है।” “लेकिन तब आप कभी भी प्रजाति को पूरी तरह से नहीं हटाएंगे क्योंकि आप उस पर निर्भरता बना लेंगे।”

थेकेकरा स्वीकार करते हैं कि आक्रामक प्रजातियों के लिए बाजार बनाने में समस्याएं हो सकती हैं। लेकिन उनका कहना है कि लैंटाना को हटाने का कोई दूसरा विकल्प नहीं है, खासकर तब जब इस प्रजाति का फैलाव बहुत व्यापक है और सरकारों के पास इसे प्रबंधित करने के लिए पैसे नहीं हैं।

वह कहते हैं, “इसका व्यावसायीकरण और बाज़ार में लाना जोखिम भरा है, क्योंकि वे प्राकृतिक दुनिया के विनाश के मूल में हैं, इसलिए चुपचाप बैठे रहना और यह कहना कि हम कुछ नहीं करेंगे, कोई विकल्प नहीं है।”

हालांकि, नाइजीरिया में आक्रामक पौधों के व्यावसायिक इस्तेमाल की वकालत करने वाले बोरोकिनी का कहना है कि कुछ रूपरेखाएं बनाना अहम है, ताकि आक्रामक प्रजातियों को खत्म करने का आखिरी लक्ष्य हासिल किया जा सके।

कर्नाटक के बीआरटी टाइगर रिजर्व में आवास प्रबंधन के लिए लैंटाना को हटाया गया है। तस्वीर - टीआर शंकर रमन/विकिमीडिया कॉमन्स।
कर्नाटक के बीआरटी टाइगर रिजर्व में आवास प्रबंधन के लिए लैंटाना को हटाया गया है। तस्वीर – टीआर शंकर रमन/विकिमीडिया कॉमन्स।

बोरोकिनी का कहना है कि लोगों को यह समझाना अहम है कि आक्रामक प्रजातियों से होने वाले आर्थिक लाभ दरअसर बहुत छोटे लक्ष्य हैं।

असर में, इसका नक्शा बनाना अहम है कि आक्रामक पौधे कहाँ हैं; उदाहरण के लिए, थेकेकरा की टीम लैंटाना की सीमा को मैप करने के लिए ड्रोन और आर्टिफिशिलय इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर रही है, ताकि वे बाद में निगरानी कर सकें कि प्रजाति को कब और कहाँ से हटाया जाता है और इस प्रक्रिया में क्या कोई देशी पेड़ काटा गया है।

बोरोकिनी का कहना है कि एक अन्य अहम विचार यह पक्का करना है कि जिस जगह से आक्रामक पौधे की कटाई की जाती है वह उस स्थान से ज्यादा दूर न हो जहां इसे काम में लिया जाना है।

वे कहते हैं, “क्योंकि अगर ये जगहें एक-दूसरे से बहुत दूर हैं, तो बीजों के अचानक गिरने की बहुत ज्यादा संभावना होगी, जो आक्रामक प्रजातियों को फैला सकती है और इन्हें हटाने के खिलाफ जा सकती है।” 

सिर्फ आक्रामक प्रजातियों की कटाई के बारे में सोचना ही पर्याप्त नहीं है। थेकेकरा का कहना है कि एक बार हटा दिए जाने के बाद, भूमि को जल्दी से पुराने स्वरूप में लाने की जरूरत है, ताकि आक्रामक प्रजाति वापस ना आएं। उन्होंने आगे कहा, लेकिन जहां ज्यादातर सरकारी और गैर सरकारी संगठनों का बजट आक्रामक प्रजातियों को हटाने पर खर्च किया जाता है, वहीं बहाली पर बहुत कम सोचा जाता है और बहुत कम पैसा आवंटित किया जाता है।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि आखिरकार लैंटाना भारत में इतनी बड़ी समस्या है कि बड़े पैमाने पर इसका व्यावसायीकरण अपरिहार्य हो सकता है।

थेकेकारा कहते हैं, “यह होने वाला है चाहे हम इसे पसंद करें या नहीं।” मुझे लगता है कि हम संरक्षणवादियों और शोधकर्ताओं को यह पक्का करने के लिए सबसे आगे रहना होगा कि यह अच्छी तरह से हो; हम खुद नियंत्रण और संतुलन स्थापित करते हैं।

CITATION:

Thekaekara, T., Vasanth, N., & Thornton, T. F. (2013). Diversity as a livelihood strategy near Mudumalai, Tamil Nadu: an inquiry. In Livelihood strategies in Southern India: Conservation and poverty reduction in forest fringes (pp. 49-69). New Delhi: Springer India. doi:10.1007/978-81-322-1626-1_4

Dakhil, M. A., El-Keblawy, A., El-Sheikh, M. A., Halmy, M. W., Ksiksi, T., & Hassan, W. A. (2021). Global invasion risk assessment of Prosopis juliflora at biome level: Does soil matter? Biology10(3), 203. doi:10.3390/biology10030203

Borokini, T. I., & Babalola, F. D. (2012). Management of invasive plant species in Nigeria through economic exploitation: Lessons from other countries. Management of Biological Invasions3(1), 45-55. doi:10.3391/mbi.2012.3.1.05

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Mehari, Z. H. (2015). The invasion of Prosopis juliflora and Afar pastoral livelihoods in the Middle Awash area of Ethiopia. Ecological Processes4(1). doi:10.1186/s13717-015-0039-8

 

यह खबर पहली बार Mongabay.com पर प्रकाशित हुई थी।

बैनर तस्वीर: यूके के लंदन में करीने से सजाए गए लैंटाना से बने आदमकद हाथी। तस्वीर – मॉरीन बार्लिन/फ़्लिकर।

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