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भूसे और पराली से मशरूम की खेती ने ओडिशा के गांवों की बदली तस्वीर

ओडिशा के सुंदरगढ़ के फुलधुडी गांव में अपनी मशरूम की फसल के साथ खड़ी कुछ महिलाएं। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे।

ओडिशा के सुंदरगढ़ के फुलधुडी गांव में अपनी मशरूम की फसल के साथ खड़ी कुछ महिलाएं। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे।

  • ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के गांव मशरूम की खेती करने और वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए कच्चे माल के तौर पर धान के अवशेषों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने जैव-अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों को अपना लिया है।
  • पहले कुछ किसान अक्सर काम की तलाश में जिले से बाहर पलायन कर जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। किसानों को मशरूम की खेती करने और वर्मीकम्पोस्ट बनाने से अतिरिक्त आमदनी हो रही है।
  • पराली के दोबारा इस्तेमाल से पराली जलाने की घटनाओं में कमी आई है। उद्योगों और खदानों के लिए जाना जाने वाला सुंदरगढ़ पहले से ही हवा में घुले जहर से जूझ रहा था। पराली जलाने की घटनाएं वहां की हवा और मिट्टी की गुणवत्ता पर असर डाल रही थीं।

ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के फुलधुडी गांव में रहने वाली 30 साल की भारती प्रूसेच के घर के पीछे की जमीन कई साल से बंजर पड़ी थी। लेकिन आज यही जमीन उन्हें लाखों की कमाई करा रही है। फिलहाल वह अपनी इस जमीन पर धान के पुआल या अवशेषों की सहायता से मशरूम की खेती करती हैं और वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए उसी पुआल का दोबारा इस्तेमाल करती है। कम लागत वाले अपने इस बिजनेस से प्रूसेच हर साल एक लाख रुपये से ज्यादा की कमाई कर रही हैं।

उजलपुर वन रेंज के पास स्थित फुलधुडी गांव में खेती पूरी तरह से बारिश पर निर्भर है और इसी के चलते किसानों का पलायन बेहद आम है। यहां रहने वाले ग्रामीणों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उनके पास खेती के अलावा कमाई का कोई जरिया नहीं था। पूर्व प्रभागीय वन अधिकारी (डीएफओ) अरुण मिश्रा ने जब किसानों को इस हालत में देखा तो वह मशरूम की खेती के जरिए स्थानीय आय को बढ़ावा देने के लिए एक पहल लेकर आए। गैर-लाभकारी संगठन ‘सेवक’ के साथ मिलकर मिश्रा ने ग्रामिणों के लिए प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम चलाए। और फिर वन विभाग की तरफ से लोगों को मशरूम की खेती करने के लिए धान के भूसे को कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया गया।

फूलधुडी में रहने वाली एक अन्य महिला कमला प्रधान याद करते हुए बताती हैं कि यह सब कैसे और कब शुरू हुआ था, “पहले हम अपनी आमदनी के लिए पूरी तरह से खेती पर निर्भर थे। मगर सिंचाई की कमी के कारण हम कुछ ज्यादा नहीं कमा पाते थे। फिर एक पूर्व वन अधिकारी ने गांव में मशरूम की खेती करने का सुझाव दिया। इसके लिए हमें ज्यादा पैसा की भी जरूरत नहीं थी। उन्होंने न सिर्फ हमें एक रास्ता दिखाया बल्कि हमें जरूरी सहायता और प्रशिक्षण भी दिया।”

फुलधुडी गांव ने 2018 में सबसे पहले इस पहल के जरिए मशरूम उगाना शुरू किया था। ‘सेवक’ के दिगंबर उपाध्याय का दावा है कि जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों ने मशरूम उगाने के लिए धान के भूसे का इस्तेमाल करना शुरू किया, यह विचार तेजी से 15 अन्य गांवों में भी फैल गया। पराली या भूसे का इस्तेमाल स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए खासा मायने रखता है। जिले के 15 गांवों में लगभग 1,000 परिवारों ने अब फसल अवशेष प्रबंधन प्रणालियों को अपनाया है। इसके जरिए न सिर्फ पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को कम किया गया है बल्कि फसल की पैदावार को अनुकूलित कर, अतिरिक्त आय भी अर्जित की है। उपाध्याय कहते हैं, “कृषि अपशिष्टों को सिर्फ अवशेषों के रूप में देखने के बजाय, उन्होंने उन्हें जैव-अर्थव्यवस्था मॉडल के मूल्यवान संसाधनों में बदल दिया है।”

कृषि ‘अपशिष्ट’ कैसे बना ‘कमाई’ का जरिया

ओडिशा में सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल धान है, जो कुल खेती वाले क्षेत्र का लगभग 46.28% है। उत्तर पश्चिमी पठार में बसे सुंदरगढ़ में मौसम हमेशा गर्म और नमी वाला रहता है। खरीफ की फसल के मौसम में भी 75% जमीन में धान लगी होती है। यही वजह है कि यहां काफी भूसा पैदा होता है, जिसे आमतौर पर कचरा समझा जाता है।

धान कटने के बाद बची हुई पराली को या तो मवेशियों के चरने के लिए छोड़ दिया जाता है या फिर अगली फसल के लिए खेत तैयार करने के लिए उसे जला दिया जाता है। हर सर्दियों में फसल के अवशेषों को जलाना भारत-गंगा के मैदानी इलाकों में वायु प्रदूषण फैलाने की एक बड़ी खबर बनता है।

वैश्विक अनुमान बताते हैं कि खुले मैदान में पराली जलाने से वायु प्रदूषण, ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन (7300 किलोग्राम CO2- प्रति हेक्टेयर समकक्ष), मिट्टी के पोषक तत्व और जैव विविधता को नुकसान और मानव स्वास्थ्य को भी खतरा है। वैश्विक स्तर पर लगभग 800-1000 मिलियन टन  भूसा निकलता है और इसमें भारत की हिस्सेदारी लगभग 126.6 मीट्रिक टन की है। भारत में जलाए जाने वाले कुल फसल अवशेषों में से चावल के भूसे की हिस्सेदारी 60% है।

लगभग 15 गांवों में धान के खेत से निकले अवशेषों को जलाने के बजाय अब उन्हें इकट्ठा करके इस्तेमाल में लाया जा रहा है। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे 
लगभग 15 गांवों में धान के खेत से निकले अवशेषों को जलाने के बजाय अब उन्हें इकट्ठा करके इस्तेमाल में लाया जा रहा है। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे

सुंदरगढ़ में तस्वीर बदल चुकी है। अब यहां फसल के अवशेष, खाद और बचे हुए कार्बनिक पदार्थ सहित कृषि अपशिष्ट को पर्यावरणीय दायित्व के बजाय एक संपत्ति के रूप में देखा जा रहा है। सीप मशरूम की खेती के लिए धान के भूसे से प्राकृतिक बैड तैयार किया जाता है। ये मशरूम आम तौर पर कपास के अपशिष्ट, छप्पर वाली छतों या धान के भूसे जैसे सब्सट्रेट्स पर उगाए जाते हैं, जिससे साल भर खेती की जा सकती है। ऑयस्टर मशरूम को कभी जंगली मशरूम माना जाता था क्योंकि वे मुख्य रूप से सड़ने वाली लकड़ी पर उगते थे। लेकिन अब स्थानीय स्तर पर बड़े पैमाने पर इनकी खेती की जा रही है। 

मशरूम उगाने का 25 दिनों का चक्र होता है। इस दौरान फसल की नियमित रूप से देखभाल करने और पानी देने की जरूरत होती है। धान से बने बैड में प्रतिदिन कम से कम तीन किलोग्राम मशरूम की फसल पैदा करने की क्षमता होती है। बाजार में एक किलोग्राम मशरूम 400 रुपये में बिकता है।

फुलधुडी में 18 मशरूम खेती यूनिट्स हैं, जिनमें से हर एक में 200 बैड हैं। ग्रामीणों ने बताया कि एक यूनिट 25 दशमलव भूमि क्षेत्र तक फैली हुई होती है।

मशरूम उगाने के बाद बचे हुए कचरे से निपटने की समस्या सामने आई तो इसके लिए भी एक समाधान ढूंढा गया। 2021 के आखिर में सुंदरगढ़ के इन गांवों ने मशरूम की खेती से बचे धान के भूसे के कचरे को फेंकने की बजाय वर्मीकम्पोस्ट और प्राकृतिक खाद बनाने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। पराली को मिट्टी की उर्वरता में सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण घटक माना जाता है। जर्नल ऑफ फार्माकोग्नॉसी एंड फाइटो केमिस्ट्री में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, धान की बालियों में लगभग 40% नाइट्रोजन, 30-35% फॉस्फोरस, 80-85% पोटेशियम, 40-45% सल्फर और 80% सिलिकॉन होता है। और यह उनके अवशेषों में भी बना रहता है। पेपर में आगे लिखा है कि चावल का भूसा अपने उच्च सिलिकॉन और कम लिग्निन सामग्री के कारण अन्य भूसे से अलग दिखता है।

धान के बचे हुए अवशेषों यानी पुआल से मशरूम बेड तैयार किए जाते हैं। बाद में इन्हें वर्मीकम्पोस्ट बनाते हुए दोबारा इस्तेमाल में लाया जाता है। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे।
धान के बचे हुए अवशेषों यानी पुआल से मशरूम बेड तैयार किए जाते हैं। बाद में इन्हें वर्मीकम्पोस्ट बनाते हुए दोबारा इस्तेमाल में लाया जाता है। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे।

सालभर आमदनी और प्रवासन में कमी

सुंदरगढ़ में किसान वन उपज और खेती के लिए बारिश पर काफी ज्यादा निर्भर रहते हैं। मानसून के मौसम से पहले और बाद में उनकी आय बहुत कम या बिल्कुल नहीं होती है। इससे गांवों से बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है।

फुलधुडी गांव के 42 वर्षीय सुरामा कालू कहती हैं, “गांव के कई पुरुष काम की तलाश में पलायन कर जाते थे, जबकि हम औरतें घर की देखभाल के लिए यहीं रह जाती थी। दिहाड़ी मजदूरी वाली नौकरियां अब तक आम थीं। क्योंकि गांव में सिंचाई का कोई साधन नहीं है। इस वजह से सर्दियों और गर्मियों में कोई भी फसल उगाना बड़ा ही मुश्किल काम होता है।”

कालू के परिवार के पास तीन एकड़ खेत है जहां वे धान और सब्जियां उगाती हैं। मशरूम की खेती और वर्मीकम्पोस्टिंग के काम से जुड़ने से पहले उनकी सालाना आय 60,000 से 70,000 रुपये तक थी। वह कहती हैं, “इस साल मैंने धान से होने वाली आय के अलावा 1 लाख रुपये अलग से कमाए हैं। मेरे बेटे की जल्द ही शादी होने वाली है। मैं अब उसके लिए एक पक्का घर बनाने की सोच रही हूं।” 

ज्यादातर परिवार अब इस वर्मीकम्पोस्ट को अपने खेतों में इस्तेमाल करने लगे हैं। इससे रासायनिक उर्वरकों पर उनकी निर्भरता तो कम हुई ही है, साथ ही बची हुई खाद को बेचकर वह अतिरिक्त पैसे भी कमा रहे हैं। भारती ने इस साल लगभग 70 क्विंटल वर्मीकम्पोस्ट बनाया है, जिसमें से 65 क्विंटल 15 रुपये प्रति किलोग्राम से बेची और 97,500 रुपये कमाए।

2022 से अब तक 15 गांवों ने 2891.4 क्विंटल वर्मीकम्पोस्ट का उत्पादन किया है। इसमें से व्यक्तिगत उपयोग के बाद 2471.4 क्विंटल बेचा गया, जिससे 49,42,800 रुपये की आमदनी हुई। इसी दौरान 30,63,320 रुपये की कीमत का मशरूम भी बेचा गया। अकेले 2023 में अब तक 56.26 क्विंटल मशरूम और 2,244 क्विंटल वर्मीकम्पोस्ट का उत्पादन किया गया है।

उपाध्याय बताते हैं, “ज्यादातर लोगों ने वर्मीकम्पोस्ट पिट के लिए अपने बेकार पड़े पानी के टैंकों का इस्तेमाल किया ताकि खर्चा कम हो। उन्होंने इन टैंको को घर के पिछले हिस्से में रख दिया। शुरुआती लागत केवल केंचुओं के लिए थी (700 रुपये प्रति किलोग्राम), लेकिन अब वे खुद ही अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं। शुरूआती सफलता के बाद सरकारी विभाग ने भी मशरूम यूनिट लगाने के लिए अपने कदम आगे बढ़ाए हैं।” ज्यादातर मशरूम खुदरा में बेचे जाते हैं, जबकि वर्मीकम्पोस्ट को वन विभाग खरीदा लेता है।

फुलधुडी से लगभग 10 किमी दूर मंगसपुर ग्राम पंचायत के एक गांव सागरपाली में निवासियों ने एक चारा बैंक भी तैयार किया है और वे गाय पालने लगे हैं। ऐसा कर खाद के लिए गाय के गोबर की लागत भी न के बराबर हो जाती है।

खेत में लगी सब्जियां कीटों के संक्रमण से बची रहें, इसके लिए खेतों में वर्मीकम्पोस्ट का इस्तेमाल किया जाता है। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे 
खेत में लगी सब्जियां कीटों के संक्रमण से बची रहें, इसके लिए खेतों में वर्मीकम्पोस्ट का इस्तेमाल किया जाता है। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे

सागरपाली में रहने वाली 49 वर्षीय ज्योत्सना पटेल कहती हैं, “हमारा विचार यह है कि जो भी जरूरी कच्चा माल है उसका उत्पादन करें, लागत को कम करने और कचरे को कम करने के लिए उनका उपयोग और दोबारा उपयोग करते रहें। हम गांव में मौजूद लगभग हर तरह के कच्चे माल का इस्तेमाल कर रहे हैं। बाजार की खरीद पर हमारी निर्भरता पूरी तरह से कम हो गई है।” 

वह आगे कहती हैं, “जो फसलें हम आमतौर पर उगाते हैं वे मौसमी होती हैं। इसकी वजह से अनिश्चितता बनी रहती है। लेकिन अब हमारे पास साल भर की आमदनी का जरिया है। इसके लिए पूरा परिवार एक साथ मिलकर काम करता है। कोई भी बाहर काम की तलाश में घर नहीं छोड़ता।” 

मशरूम के बीज बोने के बाद आमतौर पर मशरूम तैयार होने में 20-25 दिन लगते हैं। नया चक्र शुरू होने से पहले कम से कम छह महीने तक उसमें मशरूम लगते रहते हैं। 

खराब हवा और जंगल की आग पर काबू

ओडिशा के मानचित्र पर सुंदरगढ़ एक औद्योगिक जिले के रूप में नजर आता है। यह लौह अयस्क, चूना पत्थर, मैंगनीज, डोलोमाइट और फायर क्ले (अग्नि सह मिट्टी) से समृद्ध होने के कारण राज्य के खनिज मानचित्र में एक प्रमुख स्थान रखता है। यहां की हवा आमतौर पर काफी खराब स्तर की श्रेणी में आती है।

हालांकि ओडिशा में पराली जलाने और इसके प्रभावों पर कोई विशेष अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन शोध से पता चला है कि यह स्थानीय और क्षेत्रीय जलवायु और स्थानीय लोगों की सेहत पर असर डालता है।

कृषि विज्ञान केंद्र, सुंदरगढ़ की वरिष्ठ वैज्ञानिक लक्ष्मीप्रिया प्रधान बताती हैं, “जिले में पराली जलाने का चलन है। लेकिन इससे उतना प्रदूषण नहीं होता जितना खनन गतिविधियों से होता है। लेकिन इसकी भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। वायु प्रदूषण बढ़ाने के अलावा, पराली जलाने से मिट्टी की सेहत पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। कई महत्वपूर्ण जीव मर जाते हैं जो मिट्टी को उपजाऊ बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं।”


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इस सबके अलावा इन गांवों में पराली जलाने से कई बार जंगल में भी आग लगी है, जिससे वनस्पतियों और जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। सुंदरगढ़ के डीएफओ प्रदीप मिरासे कहते हैं, “ये गांव वन क्षेत्र के बहुत करीब हैं। पराली जलाना इन गांवों में आम है और उसे जलाकर छोड़ दिया जाता है। ये आग अक्सर वन क्षेत्रों में भी आग फैलने का कारण बनती है।” 

भारतीय वन सर्वेक्षण की वेबसाइट के आंकड़ों के अनुसार, इन गांवों के आसपास उजलपुर वन रेंज के तहत उजलपुर ब्लॉक में 2023 में 33 आग लगने की घटनाएं हुईं हैं।

स्थानीय निवासी कृषि कचरे को रीयूज और रीसाइकिल करके प्रदूषण को रोकने का प्रयास कर रहे हैं। कृषि अवशेषों को जलाने की पुराने समय से चली आ रही परंपरा वातावरण में हानिकारक प्रदूषक छोड़ती है और मिट्टी की सेहत पर असर डालती है। कृषि में जैव-अर्थव्यवस्था को अपनाकर कृषि कचरे का दोबारा से उपयोग किया जाता है। इसकी वजह से हानिकारक उत्सर्जन कम होता है और मिट्टी की सेहत भी दुरूस्त बनी रहती है। 

पहले लोग मशरूम की खेती करने के लिए धान की पुआल की जगह किसी और विकल्प का इस्तेमाल कर रहे थे या फिर उन्हें खरीद रहे थे। प्रदीप मिरासे कहते हैं, “जब हमने ये सब देखा, तो हमने उन्हें इसकी बजाय खेतों से निकले अवशेषों का इस्तेमाल करने का सुझाव दिया। इस प्रकार लागत को कम किया गया। लेकिन हमारे सामने सवाल था कि उसके बाद बचे इस कचरे का क्या होगा, इसलिए हमने वर्मीकम्पोस्टिंग शुरू की।” 

 

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बैनर तस्वीर: ओडिशा के सुंदरगढ़ के फुलधुडी गांव में अपनी मशरूम की फसल के साथ खड़ी कुछ महिलाएं। तस्वीर- ऐश्वर्या मोहंती/मोंगाबे।

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