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बदलते मौसम में खेती-बाड़ी के लिए विकसित होती बेहतर तकनीक

हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोधकर्ता कंगनी (फोक्सटेल मिलेट) के पौधे की ऊंचाई मापते हुए। तस्वीर - हैदराबाद विश्वविद्यालय के टमाटर जीनोमिक्स रिसोर्सेज की रिपॉजिटरी से।

हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोधकर्ता कंगनी (फोक्सटेल मिलेट) के पौधे की ऊंचाई मापते हुए। तस्वीर - हैदराबाद विश्वविद्यालय के टमाटर जीनोमिक्स रिसोर्सेज की रिपॉजिटरी से।

  • खेती-बाड़ी से जुड़ी तकनीक या एग्रीटेक भारतीय कृषि में कई चुनौतियों का हल निकालकर बदलाव को आगे बढ़ा रही है।
  • किसानों के लिए वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिए उपग्रह आधारित प्रौद्योगिकी, मिट्टी की तेजी से जांच करने वाली मशीनें और जीन में बदलाव करके मौसम के हिसाब से तैयार किए गए बीज, बुवाई से पहले वाले चरण में इस्तेमाल होने वाली खेती से जुड़ी कुछ नई तकनीकें हैं।
  • हालांकि आर्थिक स्थिति, तकनीकी अवसंरचना और क्षेत्रीय कृषि एवं खाद्य सुरक्षा नीतियों या पहलों जैसे कारकों के चलते भारत में किसानों की ओर से इन प्रौद्योगिकियों को अपनाना एक जैसा नहीं हो सकता है।
  • तीन हिस्सों वाली यह सीरीज भारत में खेती-बाड़ी से जुड़ी तकनीक में हुई प्रगति के बारे में बताती है। इस पहले हिस्से में बुवाई से पहले की अवस्था में सामने आ रही प्रौद्योगिकियों पर चर्चा की गई है। दूसरे और तीसरे हिस्से में फसलों के बढ़ने के दौरान और कटाई के बाद फसल तैयार करने में इस्तेमाल की जाने वाली प्रौद्योगिकियों पर चर्चा की गई है।

भारत में किसान हमेशा मौसम के हिसाब से खेती-बाड़ी का काम करते रहे हैं। हालांकि, हाल के सालों में बारिश और मौसम से जुड़ी भविष्यवाणी करना चुनौती बन गया है। वहीं, देश की आबादी साल 2050 तक 170 करोड़ तक पहुंच सकती है। इस वजह से खाने-पीने की चीजों की मांग बढ़ने की उम्मीद है।  इसलिए खेती को जलवायु पर कम निर्भर और ज्यादा आधुनिक बनाने की जरूरत है।

कृषि प्रौद्योगिकी को बोलचाल की भाषा में एग्रीटेक कहा जाता है। इसका उद्देश्य कम उत्पादकता, मौसम के हिसाब से खेती, मिट्टी की उर्वरता, खेती से कम आय, कर्ज और बीमा, बंटी हुई आपूर्ति श्रृंखला, कटाई के बाद होने वाले नुकसान वगैरह जैसी चुनौतियों का हल खोजना है। कुछ शोधकर्ताओं और स्टार्टअप के लिए ये समाधान खेत में बीज बोने से पहले ही शुरू हो जाते हैं।

मौसम के हिसाब से बीज बनाना

हम आज जो चावल खाते हैं, उसे हमारे पूर्वजों ने जंगली चावल को खेतों में उगाकर तैयार किया है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के चलते इस फसल को पर्यावरण से जुड़ी कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। लाखों साल पहले चावल और मोटे अनाज दोनों एक ही घास परिवार से विकसित हुए थेलेकिन, अब मोटे अनाज ज्यादा गर्मी झेल सकते हैं और चावल की तुलना में इन फसलों के लिए कम पानी की जरूरत होती है। मोटे अनाजों ने कौन-से गुण प्राप्त किए हैं, जो चावल ने खो दिए हैं? हैदराबाद विश्वविद्यालय के मिलेट लैब के शोधकर्ता यही समझने की कोशिश कर रहे हैं।

‘द मिलेट लैब’ के सहायक प्रोफेसर एम मुथमिलारसन बताते हैं, “आजकल फसलें कई तरह के तनावों का सामना कर रही हैंइससे कृषि क्षेत्र को भारी नुकसान हो रहा है। जैविक तनाव जैसे रोग (फफूंद, विषाणु, जीवाणु) और गैर-जैविक तनाव जैसे सूखा, गर्मी, लवणता फसल की वृद्धि और उपज को प्रभावित करते हैं।” जीन-एडिटिंग (जीन में बदलाव करना) नामक जैव प्रौद्योगिकी फसल के बीज के मौजूदा जीन में बदलाव करके उन्हें इन मुश्किलों और बदलती जलवायु का सामना करने के लिए तैयार करने में मदद करती है।

हैदराबाद विश्वविद्यालय के मिलेट लैब की पीएचडी छात्रा पूजा शुक्ला मोटे अनाज के पत्तों से डीएनए को अलग करने के लिए अभिकर्मकों का इस्तेमाल करते हुए। तस्वीर – विश्वविद्यालय के टमाटर जीनोमिक्स रिसोर्सेज रिपोजिटरी से।
हैदराबाद विश्वविद्यालय के मिलेट लैब की पीएचडी छात्रा पूजा शुक्ला मोटे अनाज के पत्तों से डीएनए को अलग करने के लिए अभिकर्मकों का इस्तेमाल करते हुए। तस्वीर – विश्वविद्यालय के टमाटर जीनोमिक्स रिसोर्सेज रिपोजिटरी से।

जीन में बदलाव करके तैयार की गई फसलों के सुरक्षित होने से जुड़ी आशंकाओं के बारे में मुथमिलारसन कहते हैं, “जीन संपादन के मामले में हम कोई नया जीन नहीं डाल रहे हैं, जैसा कि अनुवांशिक रूप से बदले गए जीवों (जीएमओ) की प्रक्रिया में होता है। हम मौजूदा जीन को सावधानी के साथ बदल रहे हैं, ताकि उन्हें बदलते मौसम के हिसाब से तैयार किया जा सके और वे विदेशी-डीएनए मुक्त हों।”

एमआईटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी में बायोसाइंसेज एंड टेक्नोलॉजी की एसोसिएट प्रोफेसर मानसी मिश्रा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसे सही तरीके से बताएं, क्योंकि जीन एडिटिंग हमें सामूहिक रूप से कुछ ऐसे गुण शामिल करने की सुविधा देती है जो फसल को जलवायु के हिसाब से या कीटों के हिसाब से तैयार करने में मदद करते हैं। अगर हम बायोटेक्नोलॉजी की मदद से बीजों को बदल सकते हैं, तो हम भविष्य में बेहतर किस्म की फसलों की कल्पना कर सकते हैं जिनकी उत्पादकता ज्यादा होगी।”

जैव प्रौद्योगिकी से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि जीन में बदलाव करके तैयार किए गए बीजों को बाजार में लाने की कोशिशें तेज करना जरूरी है। मुथमिलारसन कहते हैं, “नए बीजों को विकसित करने में समय लगता हैइसे विकसित होने में सालों लग जाते हैं। हमें शोध में तेजी लानी होगी और ऐसे बीज विकसित करने होंगे जो कई मुश्किलों को आसानी से झेल सकें, क्योंकि सूखे को झेलने वाला बीज कीटों से नहीं लड़ सकता है।” 

उत्पादकता और पोषण सुरक्षा को बेहतर बनाने के लिए कई संस्थान जीन में बदलाव वाली फसलें विकसित करने पर काम कर रहे हैंलेकिन, अभी तक उनका व्यवसायीकरण नहीं हुआ है। जैव प्रौद्योगिकी विभाग की ओर से जीनोम में बदलाव वाले पौधों के सुरक्षा मूल्यांकन के लिए भारत के दिशा-निर्देश यह स्पष्ट करते हैं कि जीन में बदलाव करके पौधों को पर्यावरण और मनुष्यों के लिए सुरक्षित बनाने के मकसद से जैव सुरक्षा संबंधी चिंताओं का उचित मूल्यांकन जरूरी है। इसमें जीनोम-संपादित पौधों के जोखिम मूल्यांकन में नियामक समितियों की भूमिका और जिम्मेदारियों पर भी जोर दिया गया है।

इस बीच, मिश्रा ने वैज्ञानिक समुदायों के बीच और ज्यादा सहयोग का आह्वान किया है। कृषि से जुड़ी जैव प्रौद्योगिकी के लिए जी-20 देशों के बीच सहयोग को आगे बढ़ाने के बारे में पॉलिसी बीफ्र में वे लिखती हैं, “विकासशील और कम आय वाले देशों में खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जी-20 तकनीकी सहयोग को प्राथमिकता दे…इन क्षेत्रों में जानकारी साझा करना, तकनीकी सहयोग और तकनीकी इनोवेशन के साथ-साथ वैज्ञानिक समुदाय और शिक्षा जगत में क्षमता निर्माण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”

जलवायु परिवर्तन और कीट-प्रतिरोधी बीजों को मजबूत बनाने में नैतिक और सुरक्षा संबंधी विचार अभी भी बने हुए हैंलेकिन, मुथमिलारासन जीन में बदलाव के भविष्य को लेकर उम्मीदों से भरे हुए हैं। वे चिंता जताते हैं,”हालांकि एक चीज़ जो जीन में बदलाव वाले बीज नहीं कर सकते, वह है मिट्टी को बेहतर बनाना। उर्वरक की खपत बढ़ रही है और खेती के तहत भूमि नहीं बढ़ रही है। यह मिट्टी को बंजर और खराब बना रहा है।” 

क्या होगा अगर किसान बुवाई से पहले ही अपनी मिट्टी की सेहत के बारे में जान सकें, जो फसल की पैदावार पर सीधा असर डालती है?

मिट्टी की तेजी से जांच

एग्रीटेक स्टार्टअप कृषितंत्र ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआईआरआर) के साथ मिलकर कृषि-रास्ता (Krishi-RASTAA) नामक तेजी से मिट्टी की जांच करने वाली मशीन बनाई है। किसान अपने खेत से मिट्टी का नमूना लेकर उसे अपने नजदीकी कृषि-रास्ता केंद्र पर ले जा सकते हैं और आधे घंटे में ‘मृदा स्वास्थ्य कार्ड’ पा सकते हैं।

कृषितंत्र के सीईओ और संस्थापक संदीप कोंडाजी बताते हैं, “मिट्टी की जांच करने वाली प्रयोगशालाओं को बुनियादी ढांचे, रसायनों को संभालने के लिए कुशल कर्मचारियों और भवन बनाने के लिए पूंजीगत खर्च की जरूरत होती है। इसलिए, हमने पूरी चीज को छोटे क्यूबिक-फीट-उपकरण में बदल दिया। हमने मशीन लर्निंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी उन्नत तकनीकों को शामिल किया और प्रक्रिया को डेटा-संचालित और कुशल बनाया।”

कृषि-रास्ता और कृषितंत्र द्वारा विकसित मृदा परीक्षण मशीन की मदद से जांच के लिए मिट्टी का नमूना लेकर आता हुआ किसान। तस्वीर - कृषितंत्र।
कृषि-रास्ता और कृषितंत्र द्वारा विकसित मृदा परीक्षण मशीन की मदद से जांच के लिए मिट्टी का नमूना लेकर आता हुआ किसान। तस्वीर – कृषितंत्र।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड 12 मापदंडों के बारे में पता लगाता है। इसमें पीएच, नाइट्रोजन, कार्बनिक कार्बन, सल्फर वगैरह शामिल हैं। इसमें किसानों के लिए मिट्टी की स्थिति में सुधार करने के मकसद से सुझाव भी दिए जाते हैं। कोंडाजी बताते हैं, “यह जानकारी किसानों को सिंचाई और खेती से जुड़ी अन्य प्रथाओं के बारे में पहले से ही बेहतर फैसला लेने में मदद करती है, जिससे आखिरकार पैदावार में बढ़ोतरी होती है।”

उन्होंने बताया कि एआई से चलने वाली मृदा परीक्षण प्रणालियां मिट्टी के मुख्य मापदंडों की लगातार निगरानी कर सकती हैं और रियल टाइम में जानकारी दे सकती हैं। इससे किसानों को फसल बोने से पहले मिट्टी के लिए प्रबंधन रणनीतियों को लागू करने में मदद मिल सकती है।

उपग्रह से मदद

एक और रियल-टाइम एग्रीटेक समाधान जिसे कृषि से जुड़े बैंक और बीमा कंपनियां अपना रही हैं, वह है सैटेलाइट डेटा। अगर किसानों के पास क्रेडिट स्कोर नहीं है, तो बैंक किस आधार पर उन्हें कर्ज देंगे? सैटश्योर (SatSure) जैसे स्टार्टअप इस फैसले को आसान बना रहे हैं।

डीप टेक डिसीजन इंटेलिजेंस कंपनी सैटश्योर के महाप्रबंधक हिरेन दोशी कहते हैं, “बैंकों को यह समझने के लिए कि कितना कर्ज स्वीकृत करना है, उन्हें किसान की आय क्षमता के बारे में जानने की जरूरत है, जिसका खेती के इतिहास या भूमि की उत्पादकता के बारे में व्यापक जानकारी के बिना पता लगाना मुश्किल काम है। यहीं पर हमारी तकनीक काम आती है।” 

सैटश्योर खेत के लिए रिपोर्ट बनाने के लिए सैटेलाइट डेटा का इस्तेमाल करता है, जो बैंकों को कृषि के लिए कर्ज देने का फैसला लेने में मदद करता है। दोशी कहते हैं कि यह तकनीक भारत में लगभग 15-20 बैंकों में मौजूद है। इनमें निजी, सार्वजनिक और सहकारी बैंक शामिल हैं।

वह इस प्रक्रिया को विस्तार से समझाते हैं, “एक बार जब हमें पता चल जाता है कि किसान के पास कौन-सी जमीन है, तो बैंकों के लिए 38 अलग-अलग मापदंडों को शामिल करके रिपोर्ट तैयार की जाती है। इसमें उगाई गई फसल, सिंचाई के तहत भूमि, उपज, मौसम में बदलाव से जुड़ा जोखिम, आय की संभावना वगैरह के बारे में सवालों के जवाब दिए जाते हैं। इसे सैटस्कोर नामक आसान स्कोर के रूप में इकट्ठा किया जाता है। कृषि ऋण प्रक्रिया में पहले बहुत समय लगता था, लेकिन अब इस विज्ञान-आधारित, बेहतर रिपोर्ट के साथ बैंक जल्दी से कर्ज की प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकते हैं।”

सैटश्योर डीप टेक कंपनी है जो खेती से जुड़ी रिपोर्ट बनाने के लिए सैटेलाइट डेटा का इस्तेमाल करती है, जिससे बैंकों को कृषि कर्ज का फैसला लेने में मदद मिलती है। सैटश्योर का प्रतिनिधि ग्राफ़िक।
सैटश्योर डीप टेक कंपनी है जो खेती से जुड़ी रिपोर्ट बनाने के लिए सैटेलाइट डेटा का इस्तेमाल करती है, जिससे बैंकों को कृषि कर्ज का फैसला लेने में मदद मिलती है। सैटश्योर का प्रतिनिधि ग्राफ़िक।

उपग्रह डेटा बीमा कंपनियों को बीमारियों या चरम मौसमी घटनाओं के बाद खेती को हुए नुकसान के लिए मुआवजा देने में भी मदद करता है। दोशी कहते हैं, “हम फसल के नुकसान की सीमा का विश्लेषण करके उन दावों का आकलन करने में उनकी मदद करते हैं।”

राज्य सरकारें भी आपदा घोषित करने, बीमा कंपनियों से भुगतान के लिए अनुरोध करने और असरदार कृषि नीतियां विकसित करने से पहले फसल के नुकसान की सीमा को समझने के लिए उपग्रह डेटा का इस्तेमाल करने में दिलचस्पी रखती हैं। वैज्ञानिक रिपोर्ट सरकारों को प्रभावित क्षेत्रों के लिए राहत उपायों की घोषणा करने में भी मदद करती है।

सैटेलाइट तकनीक को बढ़ावा देने के लिए दोशी का मानना ​​है कि राज्यों को अपने डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार करना चाहिए। “मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और हरियाणा के पास डिजिटल भूमि रिकॉर्ड हैं, इसलिए वहां काम करना आसान है। साथ ही, फैसला लेने में सैटेलाइट डेटा के इस्तेमाल को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने में सरकार का समर्थन, सार्वजनिक क्षेत्र और सहकारी बैंकों को तकनीक को बहुत तेजी से अपनाने में मदद करेगा।”

अपनाने में असमानता

शोधकर्ता, स्टार्टअप, शैक्षणिक संस्थान और सरकारी विभाग जलवायु के हिसाब से खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि प्रौद्योगिकियों को लगातार बेहतर बना रहे हैंलेकिन, भारत में इन प्रौद्योगिकियों को अपनाना एक जैसा नहीं है। इस एग्रीटेक बूम में किसानों का एक वर्ग शामिल नहीं है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के सेंटर फॉर द फोर्थ इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन के प्रमुख पुरुषोत्तम कौशिक ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “यह (अपनाना) अक्सर खेती से जुड़े तरीकों, स्थानीय एग्रीटेक चुनौतियों, आर्थिक स्थितियों, तकनीकी बुनियादी ढांचे और राज्य कृषि और खाद्य सुरक्षा नीतियों/पहलों जैसे कई कारकों से प्रभावित होता है।” वे आगे कहते हैं, “भारत में कृषि जलवायु क्षेत्र अलग-अलग हैं, जिनमें से हर में अलग तरह की फसल उपयुक्तता और प्रभुत्व है, इसलिए पक्के तौर पर फसलों के संबंध में एग्रीटेक समाधान भी अलग-अलग होते हैं।” 

कौशिक तेलंगाना की एआई फॉर एग्रीकल्चर इनोवेशन पहल का हिस्सा हैं, जो भारत में एग्रीटेक सेवाओं को बढ़ाने के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) है। उनका मानना ​​है कि खेती की प्रक्रिया को टिकाऊ और न्यायसंगत तरीके से चलाने के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी के जरिए बेहतर पारिस्थितिकी तंत्र जरूरी है।


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इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (ICRISAT) के इनोवेशन हब के प्रमुख श्रीकांत रूपावतारम मोंगाबे-इंडिया से कहते हैं, “सवाल यह नहीं है कि किसान नई तकनीकों को कितना स्वीकार करते हैं। किसान बहुत बुद्धिमान हैं, वे तेजी से तकनीक अपना रहे हैं। अब सवाल यह है कि लोग उत्पादन के लिए ज्यादा आउटपुट कीमतों और कम इनपुट प्रक्रियाओं के लिए किस तरह एक साथ आते हैं… और इन तकनीकों की लास्ट माइल कनेक्टिविटी, यानि सुविधाओं के अपने गंतव्य तक पहुँचने की प्रक्रिया, अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग है। भारत के कुछ हिस्सों में फोन नेटवर्क से कनेक्टिविटी एक मुद्दा है जिसे बेहतर बनाने की जरूरत है।”

प्रौद्योगिकी को हासिल करने में लैंगिक अंतर एक और चुनौती है। दूरसंचार गैर-लाभकारी संस्था GSMA की 2023 की रिपोर्ट में कहा गया है कि आज भी भारत में, खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में, पुरुषों की तुलना में महिलाएं इंटरनेट या मोबाइल मनी जैसी मुख्य सेवाओं वाले मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने की संभावना कम रखती हैं।

 

यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 11 अप्रैल 2024 को प्रकाशित हुई थी।

बैनर तस्वीर: हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोधकर्ता कंगनी (फोक्सटेल मिलेट) के पौधे की ऊंचाई मापते हुए। तस्वीर – हैदराबाद विश्वविद्यालय के टमाटर जीनोमिक्स रिसोर्सेज की रिपॉजिटरी से।

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