- कूलिंग को अब बुनियादी जरूरत की श्रेणी में रखा जाने लगा है। दुनिया भर में गर्मी बढ़ने के साथ ही घरों और काम करने की जगहों को ठंडा रखने और जल्द खराब होने वाली खाने-पीने की चीजों को ज्यादा समय तक ठीक रखने, दवाइयों व परिवहन में भी इसकी जरूरत तेजी से बढ़ रही है।
- कूलिंग में इस्तेमाल होने वाली हाइड्रोफ्लोरोकार्बन गैस में कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में गर्मी पैदा करने की कई गुना ज्यादा क्षमता है। इस उत्सर्जन को कम करके तापमान में कम से कम 0.4 डिग्री की अतिरिक्त कमी की जा सकती है।
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने मोंगाबे-हिंदी को बताया कि पर्यवारण हितैषी कूलिंग को अपना कर साढ़े तीन अरब अतिरिक्त लोगों को कूलिंग के दायरे में लाया जा सकता है।
- जानकारों का मानना है कि कूलिंग से उत्सर्जन को कम करने की ज्यादा जिम्मेदारी जी-7 और जी-20 समूह के देशों पर है, क्योंकि ये देश 80 फीसदी से ज्यादा उत्सर्जन करते हैं। साथ ही, विकसित देशों को साफ-सुथरी तकनीक का दायरा तेजी से बढ़ाने के लिए आगे आना चाहिए।
हमारी दुनिया लगातार गर्म हो रही है। इससे हमारी बुनियादी जरूरतें भी तेजी से बदल रही हैं। अब हमें रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा व स्वास्थ्य के साथ-साथ घरों और काम करने की जगहों को ठंडा रखने के बारे में भी सोचना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनईपी) का भी मानना है कि “गर्म होती दुनिया में कूलिंग लग्जरी नहीं बुनियादी जरूरत बन गई है।“
जलवायु परिवर्तन के इन दुष्प्रभावों के बीच दुनिया भर में कूलिंग उपकरण यानी एयर कंडीशनर और फ्रिज की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। यह मांग घरेलू और काम करने की जगह को ठंडा रखने, कोल्ड स्टोरेज और प्रोसेस कूलिंग से आ रही है। साथ ही, ट्रांसपोर्ट सेक्टर यानी खाने-पीने की चीजों को लाने-ले जाने और लोगों के परिवहन में भी कूलिंग की मांग बढ़ रही है।
लेकिन, हम आज जिस तरीके से अपने घरों और काम करने की जगहों को ठंडा रख रहे हैं, उससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। मौजूदा नीतियों के हिसाब से साल 2050 तक दुनिया भर में कूलिंग उपकरणों की संख्या आज के मुकाबले तीन गुनी हो जाएगी। इससे 2050 तक कूलिंग से होने वाला ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़कर 6.1 बिलिटन टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर पर पहुंच जाएगा। उस वक्त तक यह उत्सर्जन दुनिया भर में होने वाले कुल उत्सर्जन के 10 फीसदी से ज्यादा हो जाएगा।
इस मामले में भारत की स्थिति चुनौतीपूर्ण है। भारत उन देशों में शामिल है जहां कूलिंग डिग्री डेज (सीडीडी) बहुत ज्यादा हैं। यह संख्या हर साल तीन हजार से ज्यादा है। सीडीडी एक माप है जो बताता है कि किसी इमारत को ठंडा करने के लिए कितनी बिजली की जरूरत होती है। सीडीडी तब होता है जब औसत तापमान 18 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाता है और इमारत को ठंडा रखने की जरूरत होती है। हालांकि, भारत के दक्षिणी और पश्चिमी इलाकों में औसत तापमान 32 से 45 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। आशंका है कि अगली सदी की शुरुआत तक भारत के कई शहरों में तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।
एचएफसी ने बढ़ाई चिंता
कूलिंग उपकरणों में आजकल हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी: एक तरह का रसायन) का इस्तेमाल होता है। इनमें भी R-404A और HCFC-22 जैसे रेफ्रिजरेंट का उपयोग बहुत ज्यादा होता है। इन रसायनों की जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने की क्षमता बहुत ज्यादा है।
कॉप-28 के दौरान पर्यावरण हितैषी कूलिंग के लिए “कीपिंग इट चिल: हाउ टू मीट कूलिंग डिमांड वाइल कटिंग इमिशन” रिपोर्ट जारी करने वाले यूएनईपी ने मोंगाबे हिंदी को ईमेल के जरिए बताया, “एचएफसी का इस्तेमाल जलवायु के लिए हानिकारक है, क्योंकि ये रेफ्रिजरेंट ग्रीनहाउस गैसे हैं। इनमें अणु के स्तर पर कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में हजारों गुना ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग क्षमता (जीडब्ल्यूपी) है। एचएफसी का लगातार इस्तेमाल दुनिया भर में वार्मिंग को काफी हद तक प्रभावित कर रहा है। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के किगाली संशोधन के अनुसार एचएफसी से होने वाले उत्सर्जन से बचकर देश तापमान में कम से कम 0.4 डिग्री की अतिरिक्त कमी कर सकेंगे।“
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दरअसल, 1920 के दशक में कूलिंग उत्पादों और फ्रिज में इंसानी सेहत के लिए जहरीले पाए गए रसायन इस्तेमाल होते थे। इनके बचने का एकमात्र उपाय क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) थे। लेकिन बाद में पता चला कि सीएफसी ओजोन परत में छेद के लिए जिम्मेदार है। ओजोन परत को नुकसान से बचाने के लिए एक जनवरी, 1989 से मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल अस्तित्व में आया। इसके बाद से कूलिंग उपकरणों में एचएफसी का इस्तेमाल शुरू हो गया।
हालांकि, बाद में पता चला कि एचएफसी ताकतवर ग्रीनहाउस गैस है जिसकी जलवायु में बदलाव लाने की क्षमता कार्बन डाईऑक्साइड के मुकाबले कई गुना अधिक है। इसके बाद मॉन्ट्रियाल प्रोटोकोल में किगाली संशोधन किया गया जो एक जनवरी 2019 से लागू हुआ। इसके तहत विकसित देशों का एक समूह 2019 से एचएफसी की खपत को चरणबद्ध तरीके से कम करना शुरू करेगा। विकासशील देश 2024 से यह काम शुरू करेंगे और कुछ देश 2028 से। 150 से ज्यादा पक्षों ने अब तक इस संशोधन को माना है।
भारत ने 2021 में इस संशोधन को स्वीकार कर लिया था। तब सरकार ने कहा था कि सभी हितधारकों से बातचीत के बाद 2023 तक राष्ट्रीय रणनीति तैयार की जाएगी। वहीं हाइड्रोफ्लोरोकार्बन के उत्पादन और खपत के उचित नियंत्रण की अनुमति देने के लिए मौजूदा कानूनी ढांचे में संशोधन 2024 के मध्य तक किया जाएगा। भारत 2032 से चार चरणों में एचएफसी के अपने चरण को 2032 में 10%, 2037 में 20%, 2042 में 30% और 2047 में 80% की कुल कमी के साथ पूरा करेगा।
कुलिंग से जुड़ी यूएनईपी रिपोर्ट लिखने वाली प्रमुख हस्तियों में राधिका खोसला भी शामिल रही हैं। उन्होंने मोंगाबे हिंदी को ईमेल के जरिए बताया, “भारत दुनिया के उन शुरुआती देशों में शामिल है जिसने नेशनल कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) बनाया है। यह उपयोगी शुरुआत है। लेकिन इसकी सफलता इस पर निर्भर करती है कि शासन के अलग-अलग स्तरों पर इस योजना को कितने असरदार ढंग से लागू किया जा सकता है। केंद्र और राज्य सरकारें खास तौर पर शहरों मे जितनी जल्दी अच्छी तरह से पहचानी गई कमजोर आबादी और बुनियादी ढांचे की सुरक्षा पर आधारित पूर्व चेतावनी प्रणाली लागू कर सकती हैं, उतने ही बेहतर तरीके से भारत अपने लोगों की सुरक्षा कर पाएगा।” खोसला ऑक्सफोर्ड इंडिया सेंटर फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट में एसोसिएट प्रोफेसर और रिसर्च डायरेक्टर भी हैं।
यूएनईपी भी एचएफसी में कटौती के लक्ष्य को किगाली संशोधन के लिए अहम मानता है। संगठन ने बताया, “2050 तक कूलिंग उपकरणों में 16 अरब मिनी-स्प्लिट एयर कंडीशनिंग इकाइयों के बराबर बढ़ोतरी होगी। इससे बिजली ग्रिड पर भार और ज्यादा बढ़ेगा। हम जानते हैं कि उत्सर्जन ना सिर्फ एयर कंडीशनर और रेफ्रिजरेटर जैसी कूलिंग इकाइयों को चलाने के लिए बिजली की खपत से होता है, बल्कि अभी इस्तेमाल में आने वाले रेफ्रिजरेंट से भी होता है।“
दरअसल, रेफ्रिजरेंट कई तरह से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं। एक तो उपकरण को चलाने के दौरान लीकेज के जरिए और दूसरा उपकरण को बनाने, इसे इंस्टॉल करने, रख-रखाव करने और इसकी लाइफ खत्म होने पर।
यूएनईपी की रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में कूलिंग उपकरणों से 4.1 बिलियन टन के कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होने का अनुमान था। इसमें करीब दो-तिहाई (64%) बिजली से संबंधित और बाकी (36%) कूलिंग उपकरणों से था। कूलिंग उपकरणों से हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी) और एचएफसी गैसें उत्सर्जित होती हैं। वहीं एचसीएफसी का उत्सर्जन अब भी विकासशील देशों में हो रहा है।
वहीं, एक अध्ययन के मुताबिक कूलिंग क्षेत्र में होने वाले कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 29.7 फीसदी लीकेज से होता है। स्पेस कुलिंग में यह आंकड़ा बढ़कर 30.7 फीसदी हो जाता है। रेफ्रिजरेशन सेक्टर में यह आंकड़ा 27.4 फीसदी है।
पर्यावरण हितैषी विकल्प की जरूरत
यूएनईपी की रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा कूलिंग टेक्नोलॉजी ज्यादातर वेपर कंप्रेशन साइकल पर आधारित हैं। इनमें एक कंप्रेशर, कंडेंसर, एक्सपेंशन डिवाइस और इवेपोरेटर होता है। रिपोर्ट कहती है कि कूलिंग उपकरणों की कुशलता बढ़ाने के लिए कई तरह की तकनीक सामने आई हैं। इनमें एडवांस्ड हीट एक्सचेंजर और वेरिएबल-स्पीड कंप्रेशर शामिल हैं। ये तकनीक सीधे और परोक्ष दोनों रूप से उत्सर्जन को कम कर सकती है। एक तो इनमें बिजली कम लगती है और दूसरा रेफ्रिजरेंट की जरूरत कम हो जाती है।
रिपोर्ट चार मॉडल परिदृश्य की भी बात करती है। इनमें से एक “कूलिंग के लिए बेहतरीन उपाय” करना शामिल है। इसके तहत हरियाली बढ़ाकर कूलिंग उपकरणों की वृद्धि दर कम की जाएगी। नए कूलिंग उपकरणों के साथ बिजली की खपत कम की जाएगी। मौजूदा उपकरणों की कुशलता बढ़ाई जाएगी। साथ ही, एचएफसी की इस्तेमाल और इससे होने वाले उत्सर्जन को किगाली संशोधन से ज्यादा तेजी से कम करना होगा।
भारत में इन उपायों को अपनाने पर राधिका खोसला कहती हैं, “भारत की आबादी दुनिया में सबसे ज्यादा है जो भीषण गर्मी के संपर्क में आएगी। इसके लिए जरूरी चीज बिल्ट एनवायरनमेंट पर ध्यान केंद्रित करना और ऐसी इनडोर और आउटडोर जगहें बनानी है जिसमें पेसिव कूलिंग की सुविधा हों और गर्मी से बचने के लिए बिजली आधारित कूलिंग की जरूरत नहीं हो। यह बड़ा खतरा है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।”
इन उपायों को अपनाने से साल 2022 से 2050 के बीच बिजली की क्युमुलेटिव खपत में 1,10,000 टेरावाट-घंटे की बचत होने का अनुमान है। इससे 28 साल की अवधि के दौरान उपभोक्ताओं को 17 ट्रिलियन डॉलर की बचत होगी। साथ ही, इस दौरान अधिकतम बिजली की मांग में 1.5 से 2 टेरावाट की कमी आएगी। आसान भाषा में समझें तो इस अवधि के दौरान एक हजार मेगावाट के 1,500 से 2,000 बड़े बिजलीघरों और इससे संबंधित ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन पर आने वाले खर्च से बचा जा सकेगा। यह साल 2050 तक बिजली क्षेत्र में चार से पांच ट्रिलियन डॉलर की बचत को दिखाता है।
यूएनईपी ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “इन उपायों को अपनाकर कूलिंग और इससे जुड़े सेक्टर से होने वाले उत्सर्जन को 60 फीसदी तक कम किया जा सकता है। साथ ही, साल 2050 तक जोखिम वाले साढ़े तीन अरब अतिरिक्त लोगों को पर्यावरण हितैषी कूलिंग की सुविधा दी जा सकती है।“
जी-7, जी-20 देशों को आना होगा आगे
यूएनईपी ने 2023 में 193 देशों में ग्लोबल कूलिंग पॉलिसी स्टॉकटेक सर्वे किया। 193 देशों में हुए इस सर्वे का मकसद यह समझना था कि अलग-अलग देशों में पर्यावरण हितैषी कूलिंग से जुड़ी नीतियों को लागू करने की स्थिति क्या है। सर्वे में 41 ऐसे सवाल थे जो सीधे या परोक्ष तौर पर पर्यावरण हितैषी कूलिंग से जुड़े हुए हैं।
सर्वे से पता चला कि लगभग सभी देशों ने मिनिमम एनर्जी परफ़ॉर्मेंस स्टैंडर्ड (एमईपीएस यानी बिजली को लेकर कुशल), एनर्जी कोड और रेफ्रिजरेंट उत्सर्जन मे से एक के जरिए पर्यावरण हितैषी कूलिंग को आगे बढ़ाने की अहमियत को समझा है।
- 115 देशों ने कूलिंग और रेफ्रिजरेंट टेक्नोलॉजी के लिए एमईपीएस लागू किया है। लेकिन एशिया, ओसियाना और अफ्रीका में 40 से 60 फीसदी देशों ने एमईपीएस में कूलिंग और रेफ्रिजरेशन अप्लाएंस को शामिल नहीं किया है।
- 83 देशों ने राष्ट्रीय स्तर पर बिल्डिंग एनर्जी कोड को लागू किया है।
- सिर्फ 53 देशों ने एमईएसपी के जरिए तीनों मोर्चों पर रेगुलेटरी फ्रेमवर्क लागू किया है।
सर्वे में पाया गया कि सबको कुलिंग की सुविधा उपलब्ध कराने और इसमे लगने वाली बिजली की खपत और उत्सर्जन कम करने के लिए नियामक कोशिशों को मजबूत करना होगा। अगर इस मोर्चे पर तेजी से काम नहीं किया गया, तो 2022 के मुकाबले 2050 में कूलिंग से उत्सर्जन महज दो फीसदी की कम होगा।
यूएनईपी ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “एमईपी ऊर्जा प्रदर्शन के न्यूनतम स्तर को मापता है जिसे इलेक्ट्रिक अप्लाएंस, उपकरणों को बेचने या आवासीय/कारोबारी उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किए जाने से पहले पूरा करना या उससे ज्यादा होना चाहिए। जैसे, भारत में स्टार लेबलिंग कार्यक्रम एमईपीएस पर आधारित है और बाजार में बेचे जा रहे उपकरणों/इकाइयों की कुशलता के स्तर को विनियमित करने की कोशिश करता है।“
राधिक खोसला भी पर्यावरण हितैषी कूलिंग के लिए जी-7 और जी-20 देशों की भूमिका को अहम मानती हैं। उन्होंने मोंगाबे हिंदी को ईमेल के जरिए भेजे जवाब में कहा कि जी-7 और जी-20 की नीतियां और इन्हें असरदार तरीके से लागू करना बहुत अहम है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अनुमान है कि 2022 में कूलिंग से वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 80 प्रतिशत से ज्यादा जी-20 देशों में हुआ। इस सदी के मध्य तक जी-20 देश 2050 तक उत्सर्जन में 70 प्रतिशत से ज्यादा की कमी लाने की क्षमता रखते हैं।
लेकिन, इन सबके बीच जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वित्तीय मदद और तकनीक हस्तांतरण बड़ा मुद्दा है। भारत जैसे विकासशील देश लगातार इसकी मांग करते रहे हैं।
यूएनईपी का भी मानना है कि पर्यावरण हितैषी कूलिंग के लिए विकसित देशों को आगे आना होगा। संगठन ने कहा, “असल में कूलिंग के पेसिव उपायों, कुशलता बढ़ाने और कम जलवायु परिवर्तन क्षमता वाले अप्लाएंस/उपकरण में तेजी लाने के लिए वित्त की जरूरत है। विकसित देशों को साफ-सुथरी तकनीक को तेजी से फैलाने के लिए आगे आना चाहिए और इन्हें सुलभ और इनकी पहुंच बढ़ाने के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध करानी चाहिए।”
बैनर तस्वीरः जलवायु परिवर्तन के इन दुष्प्रभावों के बीच दुनिया भर में कूलिंग उपकरण यानी एयर कंडीशनर और फ्रिज की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। तस्वीर- विशाल कुमार जैन