- केरल के कासरगोड में एक जैव विविधता प्रबंधन समिति आक्रामक पौधों को हटाकर और देशी प्रजातियों को लगाकर नदी के एक हिस्से को फिर से बहाल कर रही है।
- 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में केवल 18 प्रतिशत स्थानीय निकायों ने जैव विविधता प्रबंधन समिति का गठन किया और उसमें से सिर्फ सात प्रतिशत ने ही पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर तैयार किया है, जो समीति का मुख्य काम है।
- केरल में 1200 जैव विविधता प्रबंधन समितियां हैं। 2012 की शुरुआत में सभी स्थानीय स्वशासन में इस समिति का गठन करने वाला यह भारत का पहला राज्य था।
केरल का कासरगोड जिला 12 नदियों का घर है, जिनमें से चिथारी इसके तटीय इलाके से होकर गुजरने वाली एक छोटी सी नदी है। चिथारी नदी इरिया कस्बे के पास से निकलती है और उत्तर की ओर बहती हुई केरल के अजानूर गांव में अरब सागर में गिरती है। 25 किलोमीटर लंबी यह नदी उत्तरी केरल में मैंग्रोव वनों के अंतिम ठिकानों में से एक है। 2020 में चिथारी नदी से ट्री-स्पाइडर क्रेब की एक नई प्रजाति –लेप्टार्मा बीजू खोजी गई, जो लेप्टार्मा वंश से है।
जैव विविधता प्रबंधन समिति के संयोजक श्यामकुमार पुरवणकर कहते हैं, “चिथारी नदी एक बड़े धान के खेत से होकर बहती है, जहां मैं नियमित रूप से पक्षियों को देखने जाता हूं।” वह आगे कहते हैं, “हमें एक बार वहां एक टैगा फ्लाईकैचर मिला था, जो फिर कभी नहीं दिखा।” पेशे से वास्तुकार और एक उत्साही पक्षीविज्ञानी, पुरवणकर नदी के आवासों के प्रबंधन और संरक्षण के सामान्य दृष्टिकोण की आलोचना करते हैं। उन्होंने कहा, “नदी के किनारों की सुरक्षा का हवाला देते हुए, जो हम आज अक्सर देखते हैं, वह है कंक्रीट की दीवारों का तर्कहीन निर्माण। सफाई के नाम पर, हम लापरवाही से कैथा कडुकल (पैंडनेस झाड़ियां) जैसी नदी की वनस्पतियों को काट देते हैं, इसकी वजह से नदी के किनारे का कटाव होता है।”

2021 में, पुरवणकर ने स्थानीय संरक्षण प्रयासों में मदद करने के लिए अपनी पंचायत के जैव विविधता प्रबंधन समिति (बीएमसी) से संपर्क किया। जब उन्हें समिति का संयोजक बनने का मौका मिला, तो उन्होंने जोश और उत्साह के साथ जिम्मेदारी संभाली। पुरवणकर के नेतृत्व में, पुल्लूर पेरिया पंचायत बीएमसी चिथारी की सहायक नदी को फिर से जीवंत करने के लिए जब एक कार्य योजना पर विचार कर रही थी, तभी उन्हें केरल राज्य जैव विविधता बोर्ड की तरफ से नदियों की बहाली के लिए कुछ प्रस्तावों का पता चला। पुरवणकर बताते हैं, “कमेटी ने चितरी की सहायक नदी के किनारे एक जैव विविधता सर्वेक्षण करने और उसके किनारों पर खराब भूमि के एक हिस्से की पहचान कर उसे बहाल करने की योजना प्रस्तावित की। बोर्ड ने परियोजना को मंजूरी दे दी क्योंकि पहले किसी ने भी बीएमसी के जरिए ऐसा कुछ प्रस्तावित नहीं किया था।”
आम जनता की ताकत
1992 में जैविक विविधता पर हुई ऐतिहासिक संधि पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए थे। इसके बाद, 2002 में भारत ने जैव विविधता अधिनियम बनाया। इसका मकसद था देश में मौजूद जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की रक्षा करना, उनका सही तरीके से इस्तेमाल करना, और उनसे होने वाले फायदों को सभी में बराबर बांटना।
इस कानून को लागू करने के लिए सरकार ने कई स्तर पर संगठन बनाए। सबसे ऊपर राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) है। फिर हर राज्य में राज्य जैव विविधता बोर्ड (एसबीबी) हैं। और सबसे नीचे, स्थानीय स्तर पर जैव विविधता प्रबंधन समितियां (बीएमसी) बनाई गई हैं।
अधिनियम के मुताबिक, जैव विविधता प्रबंधन समितियों का मुख्य काम स्थानीय जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की रक्षा करना, उनका सही तरीके से इस्तेमाल करना और उनके बारे में जानकारी जुटाकर लिखना है। लेकिन, 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में केवल 18% स्थानीय निकायों ने ही बीएमसी का गठन किया था, और उनमें से भी केवल 7% ने ही ‘पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर’ (पीबीआर) बनाया था, जो कि बीएमसी का सबसे जरूरी काम है।
हालांकि, अब ये आंकड़े कुछ बेहतर हुए हैं, लेकिन ज्यादातर बीएमसी अभी भी कागजों पर ही चल रही हैं। इसकी वजह है कि उन्हें पैसे और सही मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है, और वे स्थानीय स्तर पर ठीक से काम नहीं कर पा रही हैं।
केरल राज्य इस मामले में एक अलग उदाहरण है। केरल राज्य जैव विविधता बोर्ड (केएसबीबी) के सदस्य सचिव वी. बालकृष्णन का कहना है कि “हम पहले राज्य थे जिन्होंने 2012 की शुरुआत में ही सभी स्थानीय स्व-शासी निकायों में जैव विविधता प्रबंधन समितियों का गठन किया और ‘पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर‘ तैयार किया। बीएमसी के कामकाज के मामले में हम अन्य राज्यों से कहीं बेहतर हैं।”

बालाकृष्णन अपनी सफलता का श्रेय मजबूत पंचायत राज व्यवस्था और केरल सरकार की केएसबीबी द्वारा बनाई गई योजनाओं को लागू करने की इच्छाशक्ति को देते हैं। वैसे तो सभी राज्य जैव विविधता बोर्डों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने राज्यों में बीएमसी के कौशल निर्माण और क्षमता को सुनिश्चित करें, लेकिन केरल तकनीकी सहायता समूहों (टीएसजी) का एक मजबूत नेटवर्क लागू करने में सक्षम रहा है – टीएसजी में प्रत्येक जिले के लिए 10-सदस्यीय टीम होती है, जिसमें वनस्पति विज्ञान, प्राणी विज्ञान और कृषि के प्रोफेसर शामिल होते हैं – जो बीएमसी को उनकी गतिविधियों में मार्गदर्शन कर सकते हैं।
बालकृष्णन बताते हैं कि उनके पास जमीनी स्तर पर मौजूद मानव संसाधन बहुत अच्छे हैं: ऊर्जावान सेवानिवृत्त लोग हमेशा उपलब्ध रहते हैं और बीएमसी के साथ काम करने के लिए तैयार रहते हैं, चाहे वे पूर्व पशु चिकित्सक हों या वन और कृषि अधिकारी। उन्होंने बताया, “केरल में श्यामकुमार (पुरवणकर) जैसे नागरिक वैज्ञानिक (जैसे बर्डवॉचर और तितली के शौकीन) भी हैं, जिनका हम लाभ उठा सकते हैं!”
योजना तैयार करने से लेकर उसे लागू करने तक
सबसे पहले, पुल्लुर पेरिया पंचायत बीएमसी के सदस्यों ने चिथारी नदी की सहायक नदी के किनारे पेड़ों, झाड़ियों, जड़ी-बूटियों, पक्षियों, मकड़ियों, तितलियों, पतंगों, ओडोनेट्स, स्तनधारियों और हर्पेटोफौना का प्रारंभिक सर्वे किया। इसके बाद, समिति ने पायलट बहाली परियोजना के लिए मक्कारामकोडु और वेल्लूर वायल पुलों के बीच दो किलोमीटर के हिस्से की पहचान की। पंचायत की जमीन के एक हिस्से पर, अवैज्ञानिक नदी प्रबंधन के कारण भारी गिरावट आई थी और अतीत में बाढ़ ने कई पेड़ों को उखाड़ दिया था। पुरवणकर कहते हैं, “सर्वे के बाद, हमने पंचायत के कुछ वार्ड सदस्यों को साइट पर घुमाया और उन्हें दिखाया कि कैसे ट्रेलिंग डेजी (स्फाग्नेटिकोला ट्राइलोबाटा) जैसी आक्रामक प्रजातियां काफी ज्यादा मात्रा में हैं। नए पौधे लगाने से पहले उन्हें उखाड़ना होगा।”
हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा करना परियोजना के प्रमुख लक्ष्यों में से एक था। पुरवणकर बताते हैं, “हम स्थानीय नागरिकों को शामिल करना चाहते थे ताकि वे इस तरह के प्रयासों की आवश्यकता को समझें। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत श्रमिकों के जरिए वहां मौजूद आक्रामक प्रजातियों को हटाने का काम किया गया।” पुल्लूर पेरिया पंचायत राज्य का पहला स्थानीय स्वशासन संस्था थी जिसने मनरेगा श्रमिकों के बीच आक्रामक प्रजातियों के बारे में जागरूकता पैदा की। पुरवणकर कहते हैं, “हमने उनके लिए आक्रामक पौधों की प्रजातियों पर एक क्लास ली और लगभग 100 लोगों ने इस अभ्यास में भाग लिया। उम्मीद है कि अगली बार जब वे कोई आक्रामक प्रजाति देखेंगे, तो वे हमसे पूछे बिना ही उसे हटा देंगे।”

हरिपुरम की 60 वर्षीय देवकीट्टी उन कार्यकर्ताओं में से एक थीं जिन्होंने क्लास में हिस्सा लिया था। उन्होंने कहा, “हमें आक्रामक प्रजातियों के नाम और उन्हें पहचानने के तरीके सिखाए गए।” क्लास लेने के बाद, उन्होंने चिथारी नदी की सहायक नदी के किनारे दो दिनों तक आक्रामक पौधों की प्रजातियों को हटाने का काम किया। उन्होंने कहा, “हम कलेक्टर की तरफ से शुरू किए गए वृक्षारोपण अभियान का भी हिस्सा थे।” कार्यकर्ता पूरे वर्ष चिथारी नदी के किनारे सफाई प्रयासों में शामिल रहते हैं, जहां आक्रामक प्रजातियों के बारे में उनका ज्ञान उपयोगी साबित होता है।
परियोजना के अगले चरण के लिए, समिति ने 10-12 देशी प्रजातियों के पौधे तैयार करने के लिए कान्हांगद ब्लॉक पंचायत एग्रो सर्विस सेंटर के साथ मिलकर काम किया। इन प्रजातियों को फिर से लगाने के लिए पहचाना और चुना गया था। कृषि सेवा केंद्र (एएससी) सरकारी प्रतिष्ठान हैं जो इलाके में किसानों के लिए वन-स्टॉप शॉप के रूप में काम करते हैं। पुरवणकर ने कान्हांगड ब्लॉक की एएससी प्रमुख नवीसा थुबीवी के समर्पित प्रयासों की सरहाना करते हुए कहा, “कृषि सेवा केंद्र ने अपनी नर्सरी में हमें जिन पौधों की आवश्यकता थी, उन्हें तैयार करने और पोषण करने के लिए चार से छह महीने तक काम किया।”
थुबीवी खुश हैं कि उन्हें परियोजना का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने कहा, “हमने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और सही तरीके से अंजाम तक पहुंचाया। हमने मुंडा (पांडनस एसपी) और कैथा (पांडनस टेक्टोरियस) जैसी स्थानीय प्रजातियों पर ध्यान केंद्रित किया, जो पानी को रोक सकती हैं और किनारों को कटाव से बचा सकती हैं।” थुबीवी इस बात से भी सहमत हैं कि यह आसान नहीं था और उन्हें कुछ प्रजातियों के साथ बार-बार प्रयास करना पड़ा। उन्होंने बताया, “हमें नदी में चट्टानों के बीच से आमथली (ट्रेमा ओरिएंटलिस) और कल्लर वांची (रोटूला एक्वाटिका) के पौधे चुनने थे। कल्लर वांची जैसी प्रजातियों के तो, पांच में से एक या दो (पौधे) ही बच पाते थे।”
रास्ता आसान नहीं
पौधे लगाने का पहला दौर पूरा करने में दो साल लग गए, भले ही वे आक्रामक प्रजातियों को हटाने और कृषि सेवा केंद्र के माध्यम से पौधे जुटाने पर समानांतर रूप से काम कर रहे थे। पुरवणकार के अनुसार, वे दिसंबर तक, पूर्वोत्तर मानसून के खत्म होते ही, निराई और फिर से पौधे लगाने का अगला दौर शुरू कर देंगे।
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तत्काल अगले कदमों के लिए, पुरवणकार वनस्पति सर्वेक्षण सूची को अपडेट करना चाहते हैं। उनका मानना है कि कई घास और पौधे, खासकर जलीय पौधे, उनके ध्यान से बच गए हैं। हाल ही में, पुरवणकार ने चिथारी सहायक नदी के किनारे वनस्पति सूची विकसित करने के लिए चिड़ियाघर आउटरीच संगठन (1985 से भारत में वन्यजीव संरक्षण पर काम करने वाला एक गैर सरकारी संगठन) के साथ अनुदान के लिए आवेदन किया है। उन्हें उम्मीद है कि इससे व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य नर्सरी बन सकती है जो देशी जंगली पौधों का पोषण कर सके और राज्य में सभी बहाली परियोजनाओं की जरूरतों को पूरा कर सके।
हालांकि चिथारी नदी परियोजना को केवल तीन साल के लिए तैयार किया गया है, पुरवणकार का मानना है कि प्रकृति को अपने नियंत्रण में लेने में अभी पांच या छह साल और लगेंगे, और उसके बाद ही वे बता पाएंगे कि परियोजना सफल रही है या नहीं। थुबीवी दृढ़ हैं कि पंचायत योजना 2025 में समाप्त होने के बाद भी वे परियोजना को नहीं छोड़ेंगी। वह कहती हैं, “जब तक मैं पद पर हूं, हम नदी की रक्षा के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं, करते रहेंगे।“
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 13 नवंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: जागरूकता पैदा करने के अपने लक्ष्य के एक हिस्से के तौर पर बीएमसी सरकार की महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत कार्यकर्ताओं को आक्रामक प्रजातियों की पहचान करने और उन्हें हटाने के लिए प्रशिक्षित करता है। तस्वीर: पुल्लूर पेरिया पंचायत बीएमसी के सौजन्य से।