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गोडावण का 410 दिनों का सफर बता गया कि इसे कैसे बचाया जा सकता है

राजस्थान के डेजर्ट नेशनल पार्क में गोडावण। तस्वीर- डॉ. राजू कसाम्बे, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0).

राजस्थान के डेजर्ट नेशनल पार्क में गोडावण। तस्वीर- डॉ. राजू कसाम्बे, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0).

  • कभी भारत के घास के मैदानों में बड़े झुंडों में उड़ते हुए देखा जाने वाला गोडावण या ग्रेट इंडियन बस्टर्ड अब विलुप्त होने के कगार पर है। जंगल में इनकी संख्या 150 से भी कम रह गई है।
  • एक साल तक चले ट्रैकिंग अध्ययन से पता चलता है कि यह पक्षी दक्कन के विशाल, खंडित भूभाग में कैसे घूमते और रास्ता तय करता है।
  • ये निष्कर्ष पुराने अनुमानों को गलत साबित करते हैं और राज्य की सीमाओं से परे पूरे क्षेत्र को शामिल करने वाली समन्वित संरक्षण रणनीतियों की तत्काल आवश्यकता पर जोर देते हैं।

कभी भारत के घास के मैदानों में बड़े झुंडों में उड़ते हुए देखा जाने वाला गोडावण या ग्रेट इंडियन बस्टर्ड अब विलुप्त होने के कगार पर है। आज जंगलों में इनकी संख्या 150 से भी कम रह गई है यानी पिछले पांच दशकों में इनकी आबादी 80% से ज्यादा घटी है। आवास का नुकसान, शिकार, बिजली की तारों से टकराव और खेती के बदलते तरीके इनकी घटती संख्या के कुछ बड़े कारण हैं।

हालांकि, संरक्षणवादी लंबे समय से जानते हैं कि ये पक्षी बहुत लंबी दूरी तय कर एक जगह से दूसरी जगह पर घूमते रहते हैं, लेकिन उनके पास इनके रोजमर्रा के सफर के बारे में विस्तृत आंकड़े उपलब्ध नहीं थे। एक साल तक चला नया ट्रैकिंग अध्ययन अब इस स्थिति को बदल रहा है। इस अध्ययन से पता चलता है कि गोडावण इंसानों की बसावट वाले खंडित भूभाग में कैसे एक जगह से दूसरी जगह जाता है।

भारतीय वन्यजीव संस्थान (डबल्यूआईआई) के वैज्ञानिक और इस अध्ययन के सह-लेखक बिलाल हबीब कहते हैं, “ग्रेट इंडियन बस्टर्ड जैसी प्रजाति, जो बहुत बड़े इलाके में घूमती है, उसे बचाने के लिए हमें यह बारीकी से समझना होगा कि वह अपने रहने की जगह का इस्तेमाल कैसे करती है, खासकर जहां इंसानी गतिविधि बहुत ज्यादा हो। यह जानकारी सिर्फ इस प्रजाति को बेहतर ढंग से समझने के लिए ही नहीं, बल्कि यह संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने के लिए भी बेहद जरूरी है, मसलन किन क्षेत्रों में संरक्षण क्षेत्र बनाया जाए और बिजली की तारों जैसे खतरों को कैसे कम किया जाए।”

सही दिशा में कदम

आज महाराष्ट्र, कर्नाटका, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में गोडावण की आबादी स्थानीय विलुप्ति के गंभीर खतरे का सामना कर रही है। उनकी गतिविधियों का अध्ययन करने और क्षेत्र में उनके सामने आने वाली चुनौतियों को समझने के लिए, शोधकर्ताओं ने महाराष्ट्र के सोलापुर के पास नन्नज बस्टर्ड अभयारण्य का रुख किया। यह खेतों से घिरा एक छोटा घास का मैदान है। यह अर्ध-शुष्क (कम नमी वाला) इलाका है, जहां परती भूमि, खराब हो चुकी घास, पथरीली जमीन और खेत हैं। यहां गर्मियों में तापमान 44°C तक पहुंच जाता है और साल में औसतन लगभग 600 मिमी ही बारिश होती है।

अप्रैल 2015 में, कई दिनों तक भोजन स्थलों और जल स्रोतों की निगरानी करने के बाद, टीम ने इस पक्षी के आने-जाने वाले नियमित रास्तों पर फंदें लगाकर एक युवा नर (पूरी तरह से व्यस्क नहीं) को पकड़ा। पकड़ने के बाद, उसके स्वास्थ्य, शारीरिक स्थिति और किसी भी चोट के निशान के लिए सावधानीपूर्वक जांच की गई। फिर, उस पर सौर ऊर्जा से चलने वाला एक जीपीएस/आर्गोस ट्रांसमीटर लगाया गया। यह ट्रांसमीटर दिन में जब पक्षी सबसे ज्यादा सक्रिय रहता था (सुबह 05:30 से शाम 07:30 बजे तक), उस दौरान सात बार उसकी लोकेशन रिकॉर्ड करता था। इसके अलावा, यह हर दूसरे दिन सैटेलाइट के जरिए भी उसकी लोकेशन की जानकारी भेजता था।

गोडावण जिसके शरीर पर सोलर ऊर्जा से चलने वाला एक सोलर आर्गोस-जीपीएस ट्रांसमीटर लगाया गया था। यह ट्रांसमीटर दिन में पक्षी के सबसे सक्रिय घंटों के दौरान सात बार उसकी लोकेशन रिकॉर्ड करता था। तस्वीर – राजा पुरोहित।
गोडावण जिसके शरीर पर सोलर ऊर्जा से चलने वाला एक सोलर आर्गोस-जीपीएस ट्रांसमीटर लगाया गया था। यह ट्रांसमीटर दिन में पक्षी के सबसे सक्रिय घंटों के दौरान सात बार उसकी लोकेशन रिकॉर्ड करता था। तस्वीर – राजा पुरोहित।

इस अध्ययन के मुख्य लेखक और भारतीय वन्यजीव संस्थान के प्रोजेक्ट साइंटिस्ट शहीर खान कहते हैं, “ग्रेट इंडियन बस्टर्ड अपनी बेतरतीब लगने वाली गतिविधियों के लिए जाना जाता है, इसलिए हमने बहुत सटीक जानकारी देने वाली जीपीएस टेलीमेट्री तकनीक को चुना। हमने एक हल्का, 20-ग्राम का सौर ऊर्जा से चलने वाला आर्गोस ट्रांसमीटर इस्तेमाल किया, ताकि पक्षी की उड़ान में कोई रुकावट न आए। इसने हमें सटीकता, बार-बार लोकेशन की जानकारी और रियल-टाइम में डेटा डाउनलोड करने का एक बेहतरीन मेल दिया, जो कि पिछले अध्ययनों में हासिल करना संभव नहीं था।”

410 दिनों में, महाराष्ट्र और कर्नाटका के कुछ हिस्सों में इस पक्षी की गतिविधियों को रिकॉर्ड किया गया, जिससे 3,300 से ज्यादा लोकेशन की जानकारी मिली। इस डेटा की मदद से शोधकर्ताओं को उसके आने-जाने के रास्तों का पता लगाने, हर दिन तय की गई दूरी का हिसाब लगाने और उन ‘मुख्य क्षेत्रों’ को पहचानने में मदद मिली जहां वह सबसे ज्यादा समय बिताता था। साथ ही, यह समझने के लिए कि उसे किस तरह का आवास पसंद है, उसकी लोकेशन की जानकारी को सैटेलाइट से मिली वनस्पतियों के डेटा के साथ जोड़ा गया।

एक घुमक्कड़ पक्षी

ट्रैक किए गए पक्षी ने कुल मिलाकर लगभग 2,209 किलोमीटर की यात्रा की, जिसका मुख्य क्षेत्र 2,633 वर्ग किलोमीटर था, जबकि घूमने का कुल दायरा 12,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक था। उसके प्रवास की दूरियां मौसम के अनुसार बदलती रहीं – सबसे लंबी दूरी गर्मियों में थी, जब उसके लिए भोजन और आश्रय की कमी थी (लगभग 6.17 किमी/दिन), सबसे छोटी दूरी मानसून के बाद थी, तब भोजन शायद अधिक मात्रा में उपलब्ध था (3.15 किमी/दिन) और सर्दियों के दौरान इसका औसत सफर बीच का रहा (लगभग 5.39 किमी/दिन)।

जीपीएस डेटा से इस पक्षी की “लेवी उड़ान पैटर्न” के बारे में भी पता चला, यानी ज्यादातर छोटी-छोटी उड़ानें और बीच-बीच में कुछ लंबी यात्राएं। यह भोजन खोजने का एक ऐसा तरीका है जो अक्सर उन प्रजातियों में देखा जाता है जिन्हें ऐसी चीजें खोजनी होती हैं जो एक जगह पर न मिलकर अलग-अलग जगहों पर बिखरी होती हैं।

खान कहते हैं, “इसका मतलब था कि पक्षी यूं ही बिना किसी मकसद के नहीं घूमता, बल्कि वह एक सोची समझी खोज की रणनीति पर काम कर रहा था।”

अध्ययन में 10 “गतिविधि समूहों” की भी पहचान की गई, जहां यह पक्षी कई दिनों तक रुका रहा। ये जगहें ज्यादातर परती या बंजर भूमि थीं, जिनके बाद खरीफ की फसल वाले खेत आते थे। इन इलाकों में मध्यम घनत्व की वनस्पति थी, जो शिकारियों से सुरक्षा देती थी और भोजन के रूप में टिड्डों व छोटे सरीसृपों के मिलने का अच्छा स्रोत थीं। हबीब कहते हैं, “ये क्षेत्र इस पक्षी के लिए बहुत आवश्यक भोजन क्षेत्र हैं, लेकिन भूमि-उपयोग में बदलाव, खेती के बढ़ते दबाव और बुनियादी ढांचे के विकास के कारण यहां तेजी से बदलाव आ रहा है। इनमें से ज्यादातर भूमि निजी स्वामित्व के हाथों में हैं।”

इस अध्ययन का लक्ष्य मानव-प्रधान परिदृश्यों (इंसानों के प्रभाव वाले इलाकों) में गोडावण के व्यवहार को समझना था। अध्ययन में 10 "गतिविधि समूह" पहचाने गए, जो ऐसे क्षेत्र थे जहां यह पक्षी कई दिनों तक रुका रहा। ये इलाके ज्यादातर खुली परती या बंजर भूमि और खरीफ की फसल वाले खेत थे। तस्वीर – धृतिमान मुखर्जी।
इस अध्ययन का लक्ष्य मानव-प्रधान परिदृश्यों (इंसानों के प्रभाव वाले इलाकों) में गोडावण के व्यवहार को समझना था। अध्ययन में 10 “गतिविधि समूह” पहचाने गए, जो ऐसे क्षेत्र थे जहां यह पक्षी कई दिनों तक रुका रहा। ये इलाके ज्यादातर खुली परती या बंजर भूमि और खरीफ की फसल वाले खेत थे। तस्वीर – धृतिमान मुखर्जी।

खास बात यह है कि इस पक्षी ने अपना ज्यादातर समय संरक्षित क्षेत्रों (जैसे अभयारण्य) के बाहर बिताया और वह कृषि भूमि पर बहुत अधिक निर्भर था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें संरक्षण के लिए ऐसे तरीके अपनाने की जरूरत है जो खेती वाले इलाकों को लेकर काम करें, न कि उनके खिलाफ। खान कहते हैं, “हम जमींदारों और किसानों के साथ मिलकर खेती को गोडावण की जरूरतों के लिए ज्यादा अनुकूल बना सकते हैं, जैसे कुछ मौसम में छोटी वनस्पति वाली फसलें उगाकर या कीटनाशकों का कम इस्तेमाल करके।”

संरक्षण पर पुनर्विचार

हालांकि इस पक्षी ने बिजली की बड़ी लाइनों से बचने की कोशिश की, फिर भी उसने साल में 67 बार उन्हें पार किया, जो इस बात की याद दिलाता है कि उसके इलाके में फैले तारों के घने जाल से टकराने का कितना खतरा है। हबीब कहते हैं, “आज दक्कन क्षेत्र में बस्टर्ड के लिए सबसे बड़ा खतरा, बढ़ते बुनियादी ढांचे, खासतौर पर सिर के ऊपर से गुजरने वाली बिजली की लाइनें और खेती के बदलते तरीकों से है। हालांकि उनके आवासों का नष्ट होना लंबे समय से एक चिंता का विषय रहा है, पर अब बिजली की तारों से टक्कर ही उनकी मौत का सबसे बड़ा कारण बन रहा है, खासकर उन खुले, खेती वाले इलाकों में, जहां ये लाइनें उनके आने-जाने के मुख्य रास्तों को काटती हैं।”

इन निष्कर्षों से साफ हो जाता है कि संरक्षण के प्रयास पूरे क्षेत्र पर किए जाने चाहिए, जैसे खतरनाक बिजली की तारों को जमीन के नीचे डालना या उन पर चेतावनी चिह्न लगाना, घास के मैदानों को फिर से बहाल करना, बुनियादी ढांचे को मुख्य क्षेत्रों से दूर रखना और अलग-अलग राज्यों के बीच मिलकर काम करना। शाहीर खान कहते हैं, “एक अकेला पक्षी जिलों और राज्यों में बिखरे हुए आवासों का उपयोग करके हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर सकता है।”


और पढ़ेंः [समीक्षा] गोडावण, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते एक पक्षी की कहानी


भारत में एक दीर्घकालिक संरक्षण, प्रजनन और पुनर्प्राप्ति कार्यक्रम भी चल रहा है। जैसे-जैसे इन पक्षियों को फिर से बसाने के प्रयास आगे बढ़ रहे हैं, उनके प्रमुख आवासों की पहचान करना और उन्हें सुरक्षित करना महत्वपूर्ण होगा। यह न केवल जंगल में बचे हुए पक्षियों के लिए, बल्कि भविष्य की आबादी के लिए सुरक्षित जगह सुनिश्चित करने के लिए भी जरूरी है। हबीब कहते हैं, “इन क्षेत्रों को सुरक्षित रखने से भविष्य की आबादी को सहारा मिलेगा और इस प्रजाति के अपने पूरे इलाके में जीवित रहने की संभावनाओं में काफी सुधार हो सकता है।”

हालांकि अध्ययन में केवल एक ही पक्षी पर नजर रखी गई थी, लेकिन इससे इस बारे में दुर्लभ और सूक्ष्म जानकारी मिली कि एक ग्रेट इंडियन बस्टर्ड मानव-प्रधान परिदृश्य में कैसे घूमता है। खान कहते हैं, “इस अध्ययन ने हमारी समझ को बदल दिया है। पहले हम ग्रेट इंडियन बस्टर्ड  को ज्यादातर एक ही जगह पर रहने वाला और केवल घास के मैदानों तक सीमित पक्षी मानते थे। अब हम यह मानने लगे हैं कि यह एक घुमंतू (खानाबदोश) पक्षी है जो बहुत बड़े इलाके में घूमता है और ऐसे गतिशील, आपस में जुड़े हुए, और बहु-उपयोगी परिदृश्यों पर निर्भर है। यही समझ अब आगे के संरक्षण की योजना को दिशा देगा।”

 


यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर  29 अगस्त 2025 को प्रकाशित हुई थी।


बैनर तस्वीर: राजस्थान के डेजर्ट नेशनल पार्क में गोडावण। तस्वीर- डॉ. राजू कसाम्बे, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0).

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