- राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व और छत्तीसगढ़ में आग लगी। एक तरफ सरिस्का में आग बुझाने के लिए राज्य से केंद्र तक सब सक्रिय हो गए तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में स्थिति चिंताजनक बनी हुई है।
- छत्तीसगढ़ में सरगुजा से लेकर सुकमा तक जंगलों में आग लगी हुई। राज्य के वन विभाग का मैदानी अमला हड़ताल पर है। ऐसे में इन वनों में लगी आग को बुझाना एक मुश्किल काम है।
- वन अधिकारी कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में अभी भी आग बुझाने के पारंपरिक तरीके ही इस्तेमाल होते हैं। ब्लोअर जैसी मशीनी सुविधाएं नाम मात्र की हैं तो ऐसे में आग बुझाना एक कठिन काम होने वाला है।
यह पिछले महीने की 27 तारीख़ का मामला है, जब राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिज़र्व में आग लगने की ख़बर सामने आई। अकबरपुर रेंज के बालेटा-पृथ्वीपुरा नाका में आग की ख़बर जब तक अफसरों तक पहुंची, तब तक देर हो चुकी थी। आनन-फानन में वन विभाग के मैदानी अमले को लगाया गया। आसपास के गांवों के लोग जुटे। आग बुझाने के लिए एनडीआरएफ, एसडीआरएफ जैसी संस्थाओं की मदद मांगी गई। राज्य के वन सचिव ने अलवर पहुंच कर नेतृत्व संभाला। आग पर काबू पाने के लिए भारतीय वायुसेना के एमआई-17 हेलिकॉप्टर की मदद लेनी पड़ी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से बात कर हर मदद का भरोसा दिया। लगभग 20 किलोमीटर के दायरे में फैल चुकी आग को बुझाने के लिए चार सौ लोगों का दल दिन रात जुटा रहा। अंततः 6 दिनों के भीतर आग का दायरा सिमट गया।
लेकिन छत्तीसगढ़ के जंगल और टाइगर रिज़र्व, इस मामले में राजस्थान जितने सौभाग्यशाली नहीं हैं।
छत्तीसगढ़ के जंगल दहक रहे हैं। सरगुजा से लेकर सुकमा तक के जंगलों में आग लगी हुई है। जंगल के साथ-साथ पंछी और जानवर मारे जा रहे हैं या आग वाले इलाके से भाग रहे हैं। जंगल से निकल कर मानव आबादी की ओर भागते हाथी, भालू, तेंदुआ और दूसरे जानवरों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं। लेकिन इस पूरे दृश्य से जंगल की आग बुझाने वाला वन विभाग का मैदानी अमला अनुपस्थित है।
असल में छत्तीसगढ़ वन कर्मचारी संघ से जुड़े राज्य के लगभग दस हज़ार उप वन क्षेत्रपाल, वनपाल, वनरक्षक और भृत्य 21 मार्च से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं। वन विभाग का यह मैदानी अमला ऐसे समय में हड़ताल पर है, जब जंगलों में, साल के दूसरे दिनों की तुलना में आगजनी की घटनाएं तेज़ी से बढ़ जाती हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में फरवरी से जून तक के महीनों को जंगल में आगजनी के महीनों के रुप में देखा जाता है। आगजनी होती है और वन अमला उसे अपने प्रयास से बुझा लेता है। इस साल भी गरमी की शुरुआत के साथ ही जंगल सुलगने लगे।
राज्य के वन विभाग के आंकड़ों के अनुसार इस साल सिर्फ मार्च के महीने में छत्तीसगढ़ के जंगल में आगजनी के 11,595 मामले दर्ज किए गये। हालत ये है कि वन विभाग के अनुसार 31 मार्च को भी राज्य के वन क्षेत्र में 1571 जगहों पर आग लगी हुई हालांकि भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार मार्च महीने में छत्तीसगढ़ में आगजनी के 14,487 मामले सामने आये हैं।
जिन इलाकों में आग लगी हुई है, उनमें राष्ट्रीय उद्यान भी शामिल हैं और टाइगर रिज़र्व भी। लेकिन हर दिन सेटेलाइट से आग की एक-एक घटना और उसके दायरे की सूचना मिलने के बाद भी राज्य सरकार, आगजनी की इन घटनाओं से अनजान है।
राज्य सरकार के प्रवक्ता और वरिष्ठ मंत्री रविंद्र चौबे ने राज्य में आगजनी की घटनाओं पर मीडिया से कहा, “किस जंगल में कितनी आग लगी है, इसके बारे में राजधानी में बैठ कर बहुत ज़्यादा उत्तर नहीं दिया जा सकता… और नुकसान के संदर्भ में समझता हूं कि सरकार के द्वारा उसको रोकने के सारे उपाय किए जा रहे हैं।
लेकिन हर दिन आगजनी के गहराते आंकड़े और वन विभाग के मैदानी अमले की हड़ताल कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। पिछले महीने भर में ही जगदलपुर वाइल्ड लाइफ सर्किल के इंद्रावती टाइगर रिजर्व के इलाके में आगजनी की 1162 घटनाएं दर्ज की गईं हैं। इसी तरह जगदलपुर के ही बीजापुर डिविजन में आगजनी के 1121 और सरगुजा वाइल्ड लाइफ रेंज के गुरुघासीदास नेशनल पार्क में आगजनी के 1009 मामले दर्ज किए गये हैं। आगजनी के ये मामले हर दिन बढ़ते जा रहे हैं।
आगज नी की भयावहता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि 46665.7 हेक्टेयर में फैले गुरुघासीदास नेशनल पार्क में इस साल आगजनी के 1055 मामले सामने आए हैं, जिसमें पार्क का 2,962.17 हेक्टेयर हिस्सा यानी 6.34 फीसदी हिस्सा चपेट में आ चुका है।
1,35,192 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले छत्तीसगढ़ का 44.24 फ़ीसदी यानी 59,816 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा वनों से आच्छादित है। यह देश के कुल वन क्षेत्र का 7.71 प्रतिशत है। इसमें 25,897 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन, 24,036 वर्ग किलोमीटर संरक्षित वन और 9,883 वर्ग किलोमीटर अवर्गीकृत वन है। वन क्षेत्रफल के हिसाब से मप्र (94,689 वर्ग किलोमीटर), महाराष्ट्र (61,952 वर्ग किलोमीटर) और ओड़िसा (61,204 वर्ग किलोमीटर) के बाद देश में छत्तीसगढ़ चौंथे स्थान पर है। लेकिन लगातार होती आगजनी की घटनाओं ने वन विभाग की चिंता बढ़ा दी है। हड़ताल पर गया मैदानी अमला अपनी मांगों पर अड़ा हुआ है।
छत्तीसगढ़ वन कर्मचारी संघ के अध्यक्ष मूलचंद शर्मा ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “जंगल में लगी आग से हम चिंतित हैं। हमारे लिए दुखद है कि जिस जंगल को हमने अपने खून-पसीने से पाला-पोसा है, वह हमारे सामने जल रहा है। लेकिन राज्य बनने के बाद से हम अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन करते रहे हैं। हर बार हमें आश्वासन दिया गया कि हमारी सभी मांगें मान ली जाएंगी परंतु ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में हमने बहुत मज़बूरी में हड़ताल पर जाने को फ़ैसला किया।”
पुरानी मांग को लेकर वन विभाग का मैदानी अमला गया हड़ताल पर
वन कर्मचारी संघ का आरोप है कि 2003 में वनरक्षकों का वेतनमान 3050-4590 स्वीकृत किया गया लेकिन उसे लागू नहीं किया गया। 2008 में जब कर्मचारियों ने हड़ताल की तो इसे लागू किया गया लेकिन बाद में इसमें नये आदेश जोड़ दिए गये। इसके कारण वेतन और पेंशन के मामले उलझने लगे। कर्मचारी संघ की मांग है कि 2003 के वेतन निर्धारण को पूरी तरह से लागू किया जाए। संघ का कहना है कि वन कर्मचारी माओवाद प्रभावित इलाकों में बिना किसी हथियार के अवैध उत्खनन, कटाई व शिकार के ख़िलाफ़ कार्रवाई जैसे जोखिम वाले कई काम करते हैं। लेकिन कर्मचारियों को उचित वेतन नहीं मिलता।
कर्मचारी संघ की मांग है कि पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और हिमाचल प्रदेश की तरह, अलिपिकवर्गीय कर्मचारियों वनरक्षक, वनपाल, उपवनक्षेत्रपाल और वन क्षेत्रपाल को संशोधित वेतनमान दिया जाए। इसी तरह राज्य में नये ज़िलों के गठन के बाद 2013 में विभागीय सेटअप के पुनरीक्षण की मांग की गई थी। लेकिन उस पर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई।
छत्तीसगढ़ के अलग-अलग जंगली इलाकों में लगभग 600 हाथी हैं। कर्मचारी संघ की मांग है कि हाथी प्रभावित वन मंडलों में हाथियों से निपटने के लिए विशेष रुप से प्रशिक्षित दस्ता का गठन किया जाए और इस दस्ते को हाथियों के उत्पात से बचाव हेतु आवश्यक संसाधन भी उपलब्ध कराए जाएं।
कर्मचारी संघ की मांग है कि भृत्य एवं वानिकी चौकीदारों को भी पदोन्नति का लाभ देने और दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों को नियमित किया जाए। साथ ही दूसरे राज्यों की तरह वन विभाग में कार्यरत कर्मचारियों के पदनाम, वर्दी और पहचान चिन्ह में बदलाव की भी पुरानी मांग आज तक लंबित है।
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संघ के अध्यक्ष मूलचंद शर्मा कहते हैं, “वन विभाग के कर्मचारियों को अपने नियमित काम के अतिरिक्त राज्य में तेंदूपत्ता समेत दूसरे लघु वनोपज के काम में भी योगदान देना होता है। हमने सरकार से कहा कि कई महीनों के अतिरिक्त काम के बदले कम से कम एक महीने अतिरिक्त का वेतन तो मिलना ही चाहिए। लेकिन हमारी मांग अनसुनी है।”
आग के पीछे महुआ और तेंदूपत्ता?
हालांकि वन विभाग के अधिकारियों का मानना है कि हड़ताली कर्मचारियों की वापसी के बाद भी, वन विभाग के पास आगजनी से निपटने की चुनौतियां बनी रहेंगी।
कांकेर के एक वन अधिकारी बताते हैं कि वन विभाग का एक बीट लगभग 700 से 900 हेक्टेयर का होता है, जिसमें एक फारेस्ट गार्ड और फायर वाचर की तैनाती रहती है। ऐसे में अगर आगजनी हो जाए तो दो लोगों के लिए इस आग पर क़ाबू पाना लगभग असंभव होता है। इसके अलावा उनका दावा है कि जंगल में लगी आग को बुझाने के लिए आज भी पुराने संसाधन ही उपलब्ध हैं और पुराने तौर-तरीकों से ही आग बुझाया जा रहा है।
इस अधिकारी ने कहा, “जंगल की ही झाड़ी तोड़ कर उसी से पीट-पीट कर अगर आग बुझाना हो तो आपको क्या लगता है कि आग पर कितने दिनों में क़ाबू पाया जा सकता है? बड़ी मुश्किल से कुछ इलाकों में आग बुझाने वाले ब्लोअर ख़रीदे गए हैं। लेकिन उनकी संख्या भी ऊंट के मुंह में जीरे जैसी है।”
बस्तर इलाके के एक वन अधिकारी का दावा है कि बस्तर के इलाके में आगजनी के शत-प्रतिशत मामले मानव निर्मित हैं। जंगल में महुआ चुनने के लिए, महुआ के पेड़ के नीचे झाड़ियों में आग लगा दी जाती है और वही आग फैल जाती है। कई इलाकों में तेंदू पत्ता के लिए जंगल में आग लगा दी जाती है और आग बुझने के महीने-डेढ़ महीने बाद तेंदू के नए और कोमल पत्ते आते हैं, जिसका संग्रहण करने वालों को अच्छी क़ीमत मिलती है। वन अधिकारी का दावा है कि कई बार तो तेंदू पत्ता के ठेकेदार अच्छे पत्तों के लोभ में, लोगों को दबाव व प्रलोभन दे कर जंगल में आग लगाने के लिए मज़बूर करते हैं।
लेकिन छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला तेंदूपत्ता और महुआ के अलावा आगजनी की घटनाओं को खनन माफ़िया से भी जोड़ते हैं। आलोक शुक्ला का कहना है कि वन अधिकार क़ानून के तहत सरकार ने वन संसाधन के कागज भर बांट दिए। अगर वन प्रबंधन में समुदाय की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाती तो आगजनी की घटनाओं को रोकने में समुदाय की भी बड़ी भूमिका हो सकती थी।
वे राज्य सरकार के पिछले महीने के आंकड़ों के आधार पर कहते हैं कि राज्य में पिछले कुछ दिनों में आगजनी की जितनी घटनाएं हुई हैं, उसमें 5,712.51 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ है। बस्तर इलाके में आगजनी की 3482 घटनाएं हुईं, जिसमें केवल 439.34 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ लेकिन सरगुजा के इलाके में आगजनी की 4122 घटनाएं हुईं और इसमें 4,213 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ है। सरगुजा और हसदेव अरण्य, वही इलाका है, जहां कोयला खनन से पहले कूप कटाई का हवाला दे कर लाखों पेड़ काट डाले गये।
हालांकि राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक राकेश चतुर्वेदी छत्तीसगढ़ के जंगलों में लगी आग से अधिक चिंतित नहीं हैं। उनका दावा है कि वन विभाग के अधिकारी, दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों के साथ मिल कर जंगल की आग पर काबू पाने की कोशिश में हैं। वे आग बुझाने के उपकरणों से कहीं अधिक प्रभावी, पारंपरिक तरीके को मानते हैं। उनका कहना है कि आग बुझाने के लिए ब्लोअर जैसे उपकरण महज प्रायोगिक तौर पर ख़रीदे गये हैं और उनकी बहुत अधिक उपयोगिता नहीं है।
चतुर्वेदी ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “कर्मचारी जिन मांगों को लेकर हड़ताल पर हैं, उनमें से कई मागें ऐसी हैं, जिनका फैसला मंत्रीमंडल की बैठक में ही संभव है। कुछ मांगें वित्त विभाग से संबंधित हैं। ऐसे में तुरत-फुरत का फैसला संभव नहीं है। हम फिलहाल तो आग से निपट ही रहे हैं।”
ज़ाहिर है, अभी छत्तीसगढ़ को आने वाले कुछ और दिनों तक जंगल की आग के बुझने का इंतजार करना होगा। लेकिन जंगल में लगने वाली आग के कारणों को रोकना सबसे बड़ी चुनौती है और अभी कम से कम, इस चुनौती से निपटने के लिए वन विभाग के पास न तो कोई योजना है और ना ही इच्छाशक्ति।
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बैनर तस्वीरः छत्तीसगढ़ के जंगलों में आग लगी हुई है, जंगल की आग बुझाने वाला वन विभाग का मैदानी अमला अनुपस्थित है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल