- सतना जिले के मझगवां तहसील के कई गांवों में सालभर सूखे की समस्या रहती है। गांव के हैंडपंप अक्सर सूखे रहते हैं।
- 40 साल पहले यहां मवासी समुदाय के लोल्ली मवासी ने कुएं खोदना शुरू किया। बोरवेल सूखने के बावजूद उनके खोदे कुओं में सालभर पानी रहता है।
- कुओं की वजह से लोग खेती कर पा रहे हैं और किचन गार्डेन में सब्जियां उगाकर कुपोषण की समस्या का भी समाधान हो रहा है।
हरियाली ओढ़े विंध्याचल के पर्वत मध्यप्रदेश की खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं। मध्यप्रदेश के सतना जिले का मझगवां तहसील भी इसी खूबसूरत जंगल के बीच है। यहां के गांवों में आदिवासी समाज की एक बड़ी आबादी बसती है। ये वर्षों से अपनी खाने पीने की जरूरतों के लिए जंगल पर निर्भर रहे हैं।
हालांकि, मौसम का मिजाज अब बदलने लगा है। गांव की खूबसूरती गायब होने लगी है। जो जंगल गांव के दहलीज पर था, अब कई किलोमीटर दूर हो गया है। जंगल जाते-जाते गांव से पानी और पोषण भी लेता गया। पिछले कुछ वर्षों से यहां के लोग भीषण सूखे का सामना कर रहे हैं।
यहां पानी को मनाने की खूब कोशिशें हो रही है, लेकिन तरीका आधुनिक है। हर साल बोरवेल की गहराई कुछ फीट बढ़ा दी जाती है। सौ फीट पर पानी न मिला तो दो सौ फीट और अब 300 फीट गहरे बोरवेल भी पानी से महरूम हैं।
जब आधुनिक तकनीक से पानी नहीं मिला तो यहां के स्थानीय लोगों ने अपनी परंपरा में पानी की तलाश की। इस इलाके की एक सामान्य बात है, गर्मियों में जंगल के समीप गांव के लोग मिलकर गड्ढा खोदते हैं और कुछ इंतजार के बाद गड्ढे में पानी निकल आता है। इसे झिरिया कहते हैं।
इसी तकनीक का इस्तेमाल कर एक बुजुर्ग ने अपने गांव की कहानी बदल दी। यह कहानी है मझगवां तहसील के कैल्होरा पंचायत स्थित झिरिया घाट गांव की। झिरिया घाट मतलब वह जगह जहां गड्ढों में पानी निकलता हो।
इस गांव के बुजुर्ग लोल्ली मवासी ने तकरीबन 50 वर्ष पहले यहां पहला कुआं बनाया था।
पहले कुआं बना फिर गांव बसा
करीब 50 लोगों की आबादी वाला एक छोटा सा गांव आसपास के कई गावों के लिए पानी का स्रोत बना हुआ है। लोल्ली को अपनी उम्र ठीक-ठीक याद नहीं लेकिन इतिहास की जिन घटनाओं का वह जिक्र करते हैं उससे लगता है उनकी उम्र 70 पार होगी।
लोल्ली का दावा है कि उन्होंने जहां गड्ढा खोदा पानी निकल आया। “शुरुआत में मैं समाज के लोगों को सहयोग करने के लिए कुएं खोदता था, लेकिन पानी देखकर लोग मुझे इनाम देने लगे। फिर धीरे-धीरे यह मेरा पेशा बन गया,” उन्होंने बताया।
इस गांव की कहानी भी मजेदार है। करीब पचास साल पहले यहां जंगल था। झिरिया घाटी का जंगल। आसपास के इलाके ऊंचाई पर थे और झिरिया घाट नीचे था।
गांव में सूखा पड़ा। लोग परेशान थे। “तब हमारे आसपास इतने कुएं नहीं थे, बोरवेल और हैंडपंप का तो सवाल ही नहीं उठता। झिरिया घाट का यह इलाका बाकी इलाकों से नीचे है इसलिए यहां पानी मिलने की संभावना दिखी। मैंने जीवन का पहला गड्ढा यहीं खोदा था। संयोग से यहां पानी निकल आया। पानी की वजह से कुएं के आसपास लोग रहने लगे और यह एक गांव बन गया।” लोल्ली मवासी ने मोंगाबे हिन्दी को बताया।
“पहले मैं जंगल जाकर लकड़ी और भाजी लाने का काम किया करता था। लेकिन पहला कुआं खोदने के बाद इलाके के लोगों को मेरी क्षमता का पता चला। मैंने कुआं खोदने का काम किसी से नहीं सीखा है, लेकिन यही काम मेरे रोजी-रोटी कमाने का जरिया बन गया,” लोल्ली ने बताया।
वह कहते हैं कि उन्होंने 38 कुएं खोदे हैं जिनमें से सिर्फ एक कुएं से पानी नहीं निकल पाया। “लोग कहते हैं कि मैं जमीन पर खड़ा होकर बता सकता हूं कि नीचे पानी है कि नहीं, लेकिन यह सच नहीं है। हमारे इलाके की मिट्टी में उपरी सतह में ही पानी है। नीचे जाने के बाद यहां पानी नहीं मिलता। इसलिए हमारे खोदे कुएं सफल हुए,” लोल्ली ने बताया।
करीब 50 साल पहले झिरियाघाट गांव का पहला कुआं बनाया होगा। तब यह मात्र 15 फीट गहरा था। हाल के वर्षों में उसे 20 फीट का किया गया। कुएं में ऊपर तक पानी भरा रहता है।
लोल्ली मवासी के दोनो बेटे सर्वेश और पूरन मवासी भी अब कुआं खोदने का काम कर अपने पिता की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। मोंगाबे हिन्दी से बात करते हुए सर्वेश ने बताया कि जब से हैंडपंप फेल हो रहे हैं कुआं बनवाने वालों की मांग बढ़ी है।
“इस साल गर्मी से काफी पहले गांव के सारे हैंडपंप सूख गए। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान गांव वालों ने मिलकर दो कुएं खोदे और एक कुएं का जिर्णोद्धार किया है। इन तीनों में पानी आ रहा है,” सर्वेश ने बताया।
पिछले एक दशक से लगातार मझगवां में सूखे की समस्या लगभग हर साल दोहरा रही है। जिला प्रशासन ने वर्ष 2017 में सूखे से हुए नुकसान का आंकलन किया था। जिले की 158 करोड़ रुपए की फसल तबाह हो गई। आज के समय में भी इस जिले में बोरवेल से अधिक कुएं हैं। जिले में 15,162 बोरवेल और 16,166 कुएं हैं जो सिंचाई के काम आते हैं।
जहां बोरवेल फेल वहां कुआं कैसे हो गया सफल
सतना जिले को लेकर सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की एक रिपोर्ट कहती है कि भौगौलिक स्थिति को देखते हुए जमीन के भीतर दो तरह की संरचना बनती है। यानी मिट्टी के भीतर दो तरह की परतें हैं।
यह इलाका ऊपरी विंध्य क्षेत्र में आता है। यहां की जमीन की बनावट को तकनीकी भाषा में कैमूर और रीवा सीरीज फॉर्मेशन कहते हैं। इसमें या तो कठोर पत्थर होते हैं या फिर बलुई पत्थर से बनी अपेक्षाकृत कमजोर परत। जमीन के भीतर पानी कमजोर चट्टानों की परत के बीच जमा होती है।
मझगवां ब्लॉक की बनावट को लेकर जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के डिप्टी डायरेक्टर जनरल हेमराज सूर्यवंशी ने मोंगाबे हिंदी को जमीन की बनावट और पानी के बीच संबंध के बारे में विस्तार से बताया।
गहराई पर पानी न होना और ऊपरी सतह पर पानी होने की स्थिति को वह तकनीकी भाषा में तेजी से वेदरिंग की प्रक्रिया होना बताते हैं। इसका मतलब पानी गहराई तक नहीं पहुंच रहा है।
“सतना के इस इलाके में सेल अधिक हैं। इसे आसान भाषा में समझें तो जमीन में पत्थर की ऐसी परतें हैं जिन्हें पानी भेदकर भीतर नहीं जा पाता। जमीन के भीतर पत्थरों की खाली परत में पानी और ऑक्सीजन की वजह से एक रासायनिक प्रक्रिया होती है जिसे अंग्रेजी में ऑक्सीडेशन कहते हैं। इसके फलस्वरूप पानी मिट्टी की परतों के बीच जमा होता है। हालांकि, जब गहराई में जाते हैं तो ऐसा नहीं होता,” सूर्यवंशी कहते हैं।
उन्होंने बताया कि कुएं का पानी लेने वाला हिस्सा भी काफी बड़ा होता है और धीरे-धीरे पानी इकट्ठा होता रहता है। जमीन की ऐसी बनावट होने की वजह से बोरवेल में ऐसा संभव नहीं हो पाता।
“अगर आसपास कोई तालाब या बांध हो तो उस इलाके के कुएं तेजी से रिचार्ज होते होंगे,“ सूर्यवंशी कहते हैं।
सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के मध्यप्रदेश प्रमुख डॉ. सीके जैन कहते हैं कि जमीन के भीतर की बनावट की वजह से यहां कुएं अधिक सफल हैं।
परंपरा में है सूखे का समाधान, इसलिए जीवित किए 185 कुएं
भोपाल स्थित गैर लाभकारी संस्था विकास संवाद ने जमीन की बनावट को समझा। यह संस्था कुपोषण हटाने को लेकर काम करती है। संस्था के निदेशक सचिन कुमार जैन बताते हैं, “हमने पाया कि पानी इस इलाके की कई समस्याओं की जड़ है। पानी होगा तो खेती होगी और फिर पोषण भी। बुंदेलखंड और बघेलखंड के इलाके की जमीन पथरीली है और यहां भूजल अधिक गहराई पर भी मौजूद नहीं है। हमने काम करते हुए पाया कि कुपोषण से पहले पानी की समस्या पर काम करना होगा।”
विकास संवाद ने सतना, रीवा और पन्ना जिले में 185 कुओं को जीवित किया है, जिससे 400 एकड़ की खेती भी सिंचित हुई है।
“हमने देखा कि परंपरागत रूप से यहां के लोग कुएं पर निर्भर थे। सतना में पिछले 25 वर्षों में मौसम काफी बदला है और इसी दौरान यहां के कुएं भी खराब हो गए। नया कुआं बनाने के बजाए हमने कुओं को पुनर्जीवित किया है और लोगों को उनकी खुद की तकनीक से जोड़ा है,” सचिन कहते हैं।
मध्यप्रदेश कुपोषण में आगे, पानी आते ही बदलने लगी गांव की तस्वीर
मझगवां के मवासी आदिवासी हमेशा से जंगल पर निर्भर रहे हैं और पानी की कमी की वजह से जंगल भी सिमटता जा रहा है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की वर्ष 2017 की रिपोर्ट कहती हैं कि सतना के घने जंगलों में वर्ष 2011 की अपेक्षा तीन फीसदी की कमी आई है। महज 6 वर्ष में जिले ने 13 घने जंगलों में से एक खो दिया और इसी दौरान 32 कम घने जंगलों का नुकसान हुआ है।
जंगल सिमटने से इस क्षेत्र को कई नई चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इनमे कुपोषण भी एक समस्या है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 की रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश में 42.8 प्रतिशत पांच साल के कम उम्र के बच्चों का वजन कम है। सतना जिले के ग्रामीण इलाकों के 42.9 फीसदी बच्चे इस श्रेणी में आते हैं। प्रदेश में 28.4 फीसदी महिलाओं का वजन जरूरत (बॉडी मास इंडेक्स) से कम है।
विकास संवाद से जुड़े राकेश कुमार मालवीय बताते हैं कि मध्यप्रदेश में कुपोषण की वजह से बच्चों की मृत्यु होती रही है। विकास संवाद के संज्ञान में मई 2008 में आया, जब उचेहरा विकासखंड की पुरैना पंचायत के हरुदआ और नगझीर गांवों में कुपोषण के कारण 6 बच्चों की मौत हो गई। बच्चों की मृत्यु का सिलसिला चलता रहा।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने सतना में बच्चों की मौत के मामले पर फरवरी 2009 में जनसुनवाई भी की थी।
“विकास संवाद ने कुपोषण से लड़ने के लिए एक रास्ता निकाला और वह रास्ता है समुदाय को सशक्त करने का। पानी की कमी सशक्तिकरण की राह में रोड़ा था, इसलिए हमने समुदाय की मदद से ही उनके तालाब और कुओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया,” राकेश कहते हैं।
राकेश ने बताया कि सतना, रीवा, पन्ना के तकरीबन 100 गांवों में यह प्रयास चल रहे हैं। पानी की समस्या से जूझते कई गांव अब साल में दूसरी फसल ले रहे हैं, किचन गार्डेन में सब्जियों का उत्पादन हो रहा है जिससे जीविका के साथ पोषण भी मिलने लगा है।
पानी की उपलब्धता के बाद झिरिया घाट निवासी कृष्णा मवासी के जीवन में बदलाव आया। कृष्णा कहती हैं कि उन्होंने पानी मिलने से किचन गार्डेन लगाया। “कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान न सिर्फ मैंने अपनी बच्ची का कुपोषण दूर किया बल्कि उन सब्जियों को गांव के 15 घरों में बांटा भी। यह संभव हो पाया पानी की उपलब्धता की वजह से,” कृष्णा ने बताया।
बैनर तस्वीर- कोविड-19 की वजह से लगाए गए लॉकडाउन के दौरान झिरिया घाट गांव के लोगो ने श्रमदान कर नया कुआं खोदा। फोटो- मनीष चन्द्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी