- वन्यजीव संरक्षण में ड्रोन का व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है, जिससे आवास सर्वेक्षण, जानवरों की ट्रैकिंग और उनकी आबादी का अनुमान जैसे काम आसान और अधिक सटीक हो गए हैं।
- ड्रोन के कई फायदे हैं, लेकिन सीमित बैटरी लाइफ, बढ़ी हुई लागत और तकनीक का जिम्मेदारी से उपयोग करने की आवश्यकता जैसी चुनौतियां बनी हुई हैं।
- शोधकर्ता वन्यजीव संरक्षण में सहभागी दृष्टिकोण अपनाने और विभिन्न हितधारकों की भागीदारी की बात करते हैं।
- बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए ड्रोन को रेडियो कॉलरिंग जैसी अन्य तकनीकों के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
डुगोंग पर रिसर्च करने वाले सागर राजपुरकर को गुजरात की कच्छ की खाड़ी में डुगोंग की खोज करते हुए एक बड़ी सफलता हाथ लगी। राजपुरकर ने मोंगाबे इंडिया से कहा, “हमें फीडिंग ट्रेल्स से पता था कि डुगोंग पानी में मौजूद हैं, लेकिन हमारे पास उन्हें देखे जाने के पुख्ता सबूत या उनकी कोई तस्वीर नहीं थी।”
सबूत ड्रोन से मिले। उस इलाके में कई बार उड़ाए गए इन ‘मैकेनिकल बर्ड्स’ ने उथले किनारों पर मौजूद इन गोल-मटोल जीवों की स्पष्ट तस्वीरें खींचीं। वह आगे कहते हैं, “यह हमारे अध्ययन में एक बड़ी सफलता थी। GEER फाउंडेशन के साक्षात्कार सर्वेक्षण में गुजरात में इनकी आबादी 10 से 15 होने का अनुमान लगाया गया था।” राजपुरकर भारतीय वन्यजीव संस्थान के CAMPA-डुगोंग परियोजना के लिए डुगोंग का अध्ययन कर रहे हैं, जो पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (CAMPA) द्वारा फंड की जा रही लुप्तप्राय प्रजाति को फिर से खोजने के कार्यक्रम का हिस्सा है। उनका कहना है कि ड्रोन ने उन्हें भारत के सभी डुगोंग वाले क्षेत्रों – तमिलनाडु, गुजरात और अंडमान-निकोबार में डुगोंग को देखने में मदद की है।
द ग्रासलैंड्स ट्रस्ट के संस्थापक मिहिर गोडबोले ने बताया कि महाराष्ट्र के खुले प्राकृतिक वातावरण में ड्रोन से ली गई भेड़ियों की हवाई तस्वीरों ने उनके बारे में कुछ अनोखी विशेषताएं उजागर की हैं, जो संभावित रूप से दुनियाभर में भेड़ियों पर होने वाली स्टडी में क्रांति ला सकती हैं। भेड़िये और लकड़बग्घे जैसे सामाजिक मांसाहारी जानवर झुंड बनाकर रहते हैं और उनके झुंड में कमजोर से लेकर ताकतवर तक, कई स्तर होते हैं और उनके व्यवहार को समझने के लिए इन झुंडों के भीतर के हर जानवर की पहचान करना महत्वपूर्ण है। गोडबोले कहते हैं कि भेड़ियों की हवाई तस्वीरों से ऐसे निशान मिले हैं जो उनकी विशिष्ट पहचान हो सकते है।
भेड़ियों के संरक्षण में एक बड़ी चुनौती हर एक भेड़ियों की अलग से पहचान करना रहा है, जो तेंदुए या बाघ जैसे अन्य मांसाहारी जानवरों की तुलना में मुश्किल है। “हम वर्तमान में ड्रोन और अन्य तरीकों से 30 से अधिक भेड़ियों का अध्ययन कर रहे हैं। ड्रोन द्वारा ली गई हवाई तस्वीरों के बिना, यह संभव नहीं होता।” महाराष्ट्र का वन विभाग और द हैबिटेट्स ट्रस्ट इस परियोजना के सहयोगी हैं।

ड्रोन के कई फायदे
तकनीक वन्यजीवों को बचाने के प्रयासों में बहुत बदलाव लेकर आया है, खासकर उन जगहों पर जहां इंसान और जानवरों के बीच टकराव बढ़ रहा है, जैसे कि जंगलों के बाहर। ड्रोन बहुत बड़े इलाकों में उड़ सकते हैं और अच्छी तस्वीरें ले सकते हैं, जिससे संरक्षण के काम को बहुत मदद मिलती है। शोधकर्ता कहते हैं कि ड्रोन इंसानों के घंटों के काम को बचाते हैं और ईंधन जैसे खर्चों को भी कम करते हैं।
पिछले साल, टेक्नोलॉजी फॉर वाइल्डलाइफ फाउंडेशन ने विंग्स फॉर वाइल्डलाइफ नामक एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें पूरे भारत में वन्यजीव और पर्यावरण संरक्षण में हवाई ड्रोन तकनीक के उपयोग पर प्रकाश डाला गया। रिपोर्ट में 15 केस स्टडीज शामिल की गईं, जो देश भर में विभिन्न क्षेत्रों और आवासों में ड्रोन के अलग-अलग इस्तेमाल को दर्शाती हैं। शोधकर्ताओं, चिकित्सकों, वन अधिकारियों और प्रौद्योगिकीविदों के साथ साक्षात्कार के जरिए ‘विंग्स फॉर वाइल्डलाइफ’ जैव विविधता के संरक्षण और पारिस्थितिक कल्याण को बढ़ावा देने में ड्रोन की महत्वपूर्ण क्षमता को दिखाया गया है।
रिपोर्ट की लेखिका नैन्सी एलिस और नंदिनी मेहरोत्रा ने मोंगाबे इंडिया के साथ ऑनलाइन बातचीत में बताया कि ड्रोन डेटा इकट्ठा करने में मदद करते हैं और मौजूदा संरक्षण प्रयासों को बेहतर बनाने में मददगार हो सकते हैं। मेहरोत्रा कहती हैं, “यह उन जगहों पर रिसर्च को आसान बनाता है जहां पहुंचना मुश्किल होता है। यह पानी के अंदर की प्रजातियों के अध्ययन में विशेष रूप से उपयोगी है क्योंकि ड्रोन कम परेशान करने वाले होते हैं।” उनका कहना है कि डुगोंग जैसी शर्मीली प्रजातियों को नाव से देखना मुश्किल हो सकता है। दूसरी ओर, ड्रोन, जब एक निश्चित ऊंचाई पर उड़ाए जाते हैं, तो जीवों को परेशान नहीं करते हैं। इसके अलावा, यह मुश्किल इलाकों में शोधकर्ता के लिए जोखिम को भी कम करते हैं।
एलिस आगे कहती हैं, “हवाई ड्रोन आसमान में काफी ऊपर तक जा सकते हैं; उस ऊंचाई से एक जंगली जानवर को देखना जमीन पर खड़े होकर जानवर को देखने का एक बड़ा फायदा है क्योंकि वहां सूरज की चकाचौंध जैसी अलग-अलग स्थितियां होती हैं।” लेखकों ने यह भी बताया कि पानी के अंदर की प्रजातियों के मामले में, पानी की गंदलाहट नावों पर देखने की क्षमता को प्रभावित करती है। ऐसे में ड्रोन और भी फायदेमंद हो जाते हैं।
मेहरोत्रा के मुताबिक, चूंकि ड्रोन तकनीक शुरू में वन्यजीव सर्वेक्षणों के लिए विकसित नहीं की गई थी। “इसलिए हम पहले से मौदूद ड्रोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें वन्यजीवों के अध्ययन के लिए अनुकूलित किए जाने की जरूरत है। दरअसल जब आप उन्हें सिर्फ तस्वीरें और वीडियो के लिए नहीं, बल्कि वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करते हैं, तो यह पता लगाने की आवश्यकता होती है कि तकनीक क्या कर सकती है और इसे वन्यजीव अध्ययन के लिए कैसे अनुकूलित किया जा सकता है।”

गोडबोले कहते हैं कि संरक्षण में ड्रोन का एक और उपयोग आवास सर्वेक्षण है। टीम खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों पर काम करती है जहां ड्रोन से तस्वीरें लेने के लिए दृश्यता अच्छी होती है। उन्होंने बताया, “इन तस्वीरों से आवास के स्वास्थ्य का आकलन किया जा सकता है। यहां तक कि आक्रामक प्रजातियों की भी पहचान की जा सकती है।”
द ग्रासलैंड्स ट्रस्ट जानवरों की गणना, उनके व्यवहार और जनसंख्या का अनुमान लगाने के लिए भी ड्रोन का उपयोग करता है। गोडबोले कहते हैं, “विशेष रूप से संरक्षित क्षेत्रों के बाहर, खुर वाले जानवरों (जैसे हिरण, गाय आदि) का सर्वेक्षण पहले कभी नहीं किया गया था। लेकिन अब यह ड्रोन के कारण संभव हुआ है। उन्होंने यह भी बताया कि “थर्मल ड्रोन रात में वन्यजीवों की गतिविधियों का पता लगाने में मदद करते हैं। इससे संघर्षों को कम करने में मदद मिल सकती है क्योंकि वन्यजीव ज्यादातर रात में ही सक्रिय होते हैं।”
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (एनसीएफ) के गणेश रघुनाथन स्थानीय वन विभाग के कर्मचारियों के सहयोग से तमिलनाडु के वलपराई के घुमावदार इलाके में हाथियों और उनकी गतिविधियों की निगरानी के लिए मुख्य रूप से ड्रोन का उपयोग करते हैं। रघुनाथन बताते हैं, “यह इलाका बिखरा हुआ और घुमावदार है। हाथियों के झुंड अक्सर अलग हो जाते हैं, अलग-अलग दिशाओं में जाते हैं और फिर बाद में मिल जाते हैं। उन्हें पैदल ट्रैक करना मुश्किल हो जाता है, खासकर पहाड़ी इलाकों में।” ड्रोन ने इस कमी को पूरा कर दिया है, जिससे हाथियों पर नजर रखना काफी आसान हो गया है। उन्होंने कहा कि इसके कई बड़े फायदे हैं, क्योंकि मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली बड़े पैमाने पर हाथियों की गतिविधियों पर नजर रखने पर निर्भर करती है। एनसीएफ ड्रोन का उपयोग अन्य जंगली जानवरों, रेडियो कॉलर के साथ ट्रांसलोकेटेड हाथियों को ट्रैक करने या फिर उस इलाके को समझने के लिए भी करता है।
मेहरोत्रा ड्रोन के कई उपयोगों का जिक्र करते हुए कहती हैं कि ड्रोन तस्वीरों का इस्तेमाल ऑर्थोमोसाइक बनाने के लिए किया जा सकता है। ऑर्थोमोसाइक का मतलब हाई रिज़ॉल्यूशन वाली तस्वीरें जिनका इस्तेमाल किसी परिदृश्य का अध्ययन करने के लिए किया जा सकता है। वह बताती हैं “एक ड्रोन एक ही तस्वीर ले सकता है, लेकिन जब इसे एक निश्चित अंतराल पर चित्र लेने के लिए प्रोग्राम किया जाता है, तो यह एक ग्रिड बना सकता है। उदाहरण के लिए, ड्रोन कई तस्वीरों लेता है, जिन्हें बाद में एक हाई-रिज़ॉल्यूशन इमेज बनाने के लिए एक साथ जोड़ा जाता है। इस इमेज का इस्तेमाल मेपिंग के लिए किया जा सकता है। हम इस तकनीक को ज्यादातर उन मानचित्रों को बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं जो हमें आवासों का बहुत अधिक विस्तार से अध्ययन करने की अनुमति देते हैं। इसी तरह, ड्रोन का उपयोग 3D मॉडल बनाने के लिए भी किया जा सकता है।”

बाधाओं को पार करते हुए
मोंगाबे इंडिया से बात करने वाले सभी शोधकर्ता ड्रोन-आधारित अध्ययनों में विश्वसनीय परिणाम प्राप्त करने के लिए एक भागीदारीपूर्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता पर जोर देते हैं। वे इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि सफलता के लिए वन विभागों और स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर काम करना जरूरी है।
हालांकि, ड्रोन के साथ अपनी चुनौतियां भी हैं। सीमित बैटरी लाइफ, जानवरों की ट्रैकिंग के लिए सही समय का ध्यान रखना और ड्रोन के इस्तेमाल के लिए वन विभाग से अनुमति लेना, खासकर संरक्षित क्षेत्रों में, कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिनसे शोधकर्ताओं को जूझना पड़ता है।
गोडबोले बताते हैं कि ड्रोन आमतौर पर 25 से 30 मिनट तक उड़ते हैं। वह कहते हैं, “अब ऐसे बेहतर मॉडल उपलब्ध हैं जो 40 से 45 मिनट तक चल सकते हैं। हम भेड़ियों के अध्ययन के लिए अक्सर ड्रोन, स्थानीय निगरानीकर्ताओं और कैमरा ट्रैप तस्वीरों का इस्तेमाल करते हैं। रात में, हम निगरानी के लिए थर्मल ड्रोन पर निर्भर हैं और इसके लिए, हमें रात भर सक्रिय रहने के लिए छह से आठ अतिरिक्त बैटरियों और दो ड्रोन की आवश्यकता होती है। हालांकि यह काफी महंगा पड़ता है, लेकिन मानवीय प्रयासों और कुछ अन्य लागतों को भी बचाता है।”
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मेहरोत्रा कहती हैं कि ज्यादातर मामलों में, क्योंकि यह एक नया तरीका है, हम काम करते-करते ही सीखते हैं। वह कहती हैं, “आप कितनी भी प्लानिंग कर लो, आपको हमेशा कुछ न कुछ नया पता चलता ही रहता है।” कुछ प्रजातियों को दूसरों की तुलना में ड्रोन के उपयोग के अधिक सटीक समय की आवश्यकता होती है। मेहरोत्रा कहती हैं, “नदी की डॉल्फिन हर तीन से पांच मिनट में, बस एक पल के लिए सांस लेने आती हैं। उस पल को सही समय पर कैप्चर करना – ये जानना कि डॉल्फिन कब ऊपर आएगी, ड्रोन को किस एंगल पर रखना है और अच्छी तस्वीरें लेने के लिए कितने इलाके को कवर करना है – ये सब आप गलतियां करके ही सीखते हैं।” उन्होंने आगे कहा, “जरूरी ये है कि आपको पता हो कि इस तकनीक का इस्तेमाल कब और कहां करना है, न कि बस इसे आंख बंद करके इस्तेमाल करना शुरू कर देना है।”

तकनीक का जिम्मेदारी से उपयोग
रघुनाथन यह भी चेतावनी देते हैं कि ड्रोन का उपयोग समझदारी से किया जाना चाहिए क्योंकि इससे जीवों को परेशानी हो सकती है। वन्यजीवों और इसका उपयोग करने वालों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। वह कहते हैं, “ड्रोन का उपयोग इस तरह से नहीं किया जाना चाहिए कि यह वन्यजीवों को परेशान करे या किसी भी तरह से उनके व्यवहार को बदले।”
मेहरोत्रा और एलिस दोनों इस बात से सहमत हैं। उनका कहना है कि तकनीक का सही तरीके से इस्तेमाल करना जरूरी है। उससे समझौता नहीं किया जा सकता है। एलिस ने कहा, “पहला कदम हमेशा यह आकलन करना होता है कि क्या यह (ड्रोन का उपयोग) वास्तव में जरूरी है और फिर हम वहां से आगे बढ़ते हैं।” घड़ियाल जैसी शर्मीली प्रजाति के अध्ययन का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया, “घड़ियाल आवाज के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। संरक्षण रिसर्च में, ये जरूरी है कि हम उन्हें कम से कम परेशान करें, इसलिए हम ड्रोन को इतनी ऊंचाई पर उड़ाते हैं कि उसकी आवाज से उनके व्यवहार में कोई बदलाव न आए। किसी खास प्रजाति के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल करते समय हम इस बात का खास ध्यान रखते हैं।” मेहरोत्रा कहती हैं, “हमें खतरों और फायदों दोनों को समझना होगा, और हमें हमेशा इस तकनीक का नैतिक रूप से इस्तेमाल करने का विकल्प होना चाहिए।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 3 फरवरी 2025 प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: ड्रोन से ली गई भेड़ियों की हवाई तस्वीरों में अलग-अलग जानवरों की पीठ और गर्दन पर विशिष्ट पैटर्न दिखाई दिए, जो संभावित रूप से उनके विशिष्ट पहचान साबित हो सकते हैं। तस्वीर- श्रेयस नकाटे/द ग्रासलैंड्स ट्रस्ट