- थार रेगिस्तान में खेजड़ी के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अहमियत को देखते हुए इसे कल्पवृक्ष कहा जाता है। भीषण गर्मी में जब रेतीले धोरों पर कुछ नहीं होता है, तो इससे सांगरी, चारा और लकड़ी जैसी जरूरी चीजें मिलती हैं।
- पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ते सोलर प्लांट, जलवायु परिवर्तन, बारिश की अधिकता, नहर आने, मशीनी खेती और कमाई के दूसरे विकल्पों से सांगरी पर दबाव बढ़ता जा रहा है।
- वातावरण में नमी बढ़ने से खेजड़ी पर गॉल्स बनने की समस्या बढ़ती जा रही है। इससे सांगरी की फलियां नहीं बन पाती जिससे किसानों को आय के अहम साधन से वंचित होना पड़ता है।
जोधपुर जिले में ओसिआ तहसील के पास 60 साल के तिलोका राम गोदारा के 80 बीघा खेत में मई के महीने में प्याज की फसल तैयार हो रही है। खेत में चार-पांच खेजड़ी के पेड़ भी हैं और उनमें लगी हुई फली (गीली या हरी सांगरी) अब मोटी हो गई है। इसलिए, उन्हें डांगर (मवेशियों) के लिए छोड़ दिया गया है।
इन फलियों को नहीं तोड़ने की वजह पूछने पर वह कहते हैं, “जब छोटे थे, तो हमारे खेत में खेजड़ी के 20-25 पेड़ थे। उस समय खेती सिर्फ चौमासे (बारिश के चार महीनों) में होती थी। इसलिए, सांगरी में सबकी दिलचस्पी थी। तब दूसरी चीजें नहीं होती थी। यह कमाई का सबसे बड़ा जरिया था। अब भरपूर पानी की बदौलत खेती दो बार हो जाती है। इसलिए कमाई बढ़ने से सांगरी में दिलचस्पी कम होने लगी है।”
राजस्थान के राज्य वृक्ष खेजड़ी को पश्चिमी राजस्थान की बेसलाइन माना जाता है। एक वक्त खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरारिया\ Prosopis cineraria) के पेड़, जिन्हें गर्म और सूखा मौसम पसंद है, थार के रेगिस्तान में बहुतायत में थे। खेजड़ी में मार्च-अप्रैल में फलियां आती हैं, जिसे हरी और सुखाकर खाने के काम में लिया जाता है। एक समय यहां गर्मी के मौसम में सब्जियां नहीं होती थीं, तब सांगरी ही खाई जाती थी। इसलिए, खेजड़ी की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अहमियत ही इसे रेगिस्तान का कल्पवृक्ष (इच्छा पूरी करने वाला) बनाती है।
लेकिन, पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ते सोलर प्लांट, मौसम में बदलाव, मशीनी खेती और कमाई के दूसरे विकल्पों से सांगरी की अहमियत धीरे-धीरे कम होती जा रही है।अपने खेत में खेजड़ी के पेड़ के पास खड़े तिलोका राम गोदारा। थार के कई इलाकों में नहर और नलकूप से पानी आ जाने से खेती दो बार होने लगी है, इसलिए सांगरी में दिलचस्पी कम हो रही है। तस्वीर -विशाल कुमार जैन\मोंगाबे
खनन, सोलर प्लांट से खेजड़ी को नुकसान
नागौर जिले में जुंजाला एक छोटा-सा गांव है। यहां के निवासी और जुंजाला धाम मंदिर समिति के अध्यक्ष इंदरनाथ करीब 100 बीघे में खेती करते हैं जिसमें खेजड़ी के 70 से 80 पेड़ हैं।
साल 2015 में उनकी छह बीघा जमीन जिप्सम खनन में चली गई थी जिसके बारे में बात करते हुए वह कहते हैं, “मेरे उस खेत में खेजड़ी के पांच-छह पेड़ थे। (खनन के लिए) उन सबको काट दिया गया। खेजड़ी के पेड़ धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। इसलिए, पहले के मुकाबले सांगरी का उत्पादन आधा रह गया है। इलाके में सैकड़ों खदानें हैं, तो आप अंदाजा लगा लीजिए कि कितनी खेजड़ी कटी होंगी? यहां कंपनियां एक भी नया पेड़ नहीं लगाती हैं।”
राजस्थान में पाए जाने वाले जिप्सम सहित 79 प्रकार के खनिजों में से 57 का दोहन किया जा रहा है। यहां पिछले पांच दशकों में खनिज पट्टों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। साल 1960-61 में इन पट्टों की संख्या 5,713 थी, जो 2014-15 में बढ़कर 33,375 हो गई।
राजस्थान में सौर ऊर्जा का विस्तार भी तेजी से हो रहा है। राज्य 29546.70 मेगावाट की इन्सटाल्ड कैपेसिटी के साथ सौर ऊर्जा में देश में पहले पायदान पर है। साल 2029-30 तक इसे बढ़ाकर 90,000 मेगावाट करने का प्रस्ताव है। राज्य में 31 मार्च, 2023 तक 8276 मेगावाट के 9 सौर ऊर्जा पार्क को मंजूरी दी गई थी। इसके अलावा, पिछले साल बीकानेर में तीन और फलौदी में एक सोलर पार्क के लिए 4,780 हेक्टेयर जमीन आवंटित करने को स्वीकृति दी गई थी।
हालांकि, सोलर पार्क के लिए अब तक कितनी जमीन दी गई है, इस बारे में ठीक-ठीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। मोंगाबे-हिंदी ने इस बारे में राजस्थान रिन्यूएबल एनर्जी कारपोरेशन लिमिटेड से आरटीआई के जरिए जानकारी मांगी थी। हालांकि, कानून की धारा 2 (J) का हवाला देते हुए जानकारी नहीं दी गई।
लेकिन, मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो राजस्थान में पिछले 14 सालों में 21 हजार मेगावाट सोलर एनर्जी के लिए 25 लाख पेड़ काटे गए हैं। इनमें से करीब तीन-चौथाई खेजड़ी, रोहिड़ा और देसी बबूल हैं। जानकार भी मानते हैं कि सोलर पार्क लगने से देसी वनस्पतियों को भारी नुकसान हुआ है।खेजड़ी का पेड़ और उसमें लगी सांगरी। तस्वीर – निर्मल वर्मा\मोंगाबे
बीकानेर स्थित एमजीएम विश्वविद्याल में पर्यावरण विभाग के विभागाध्यक्ष अनिल कुमार छंगाणी ने मोंगाबे-हिंदी को बताया, “जहां भी सोलर प्लांट लगते हैं, वहां वनस्पति पूरी तरह साफ कर दी जाती है। इनमें यहां की जैव-विविधता के लिए जरूरी खेजड़ी, रोहिड़ा, देसी बबूल, केर, कुमटिया जैसे मरुस्थलीय पेड़ हैं।”
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने भी साल 2022 में फलौदी के बड़ी सिड गांव में 3200 बीघा जमीन पर अवैध तरीके से खेजड़ी के 250 पेड़ काटने पर सोलर एनर्जी कंपनी के खिलाफ कार्रवाई करते हुए 10 गुना ज्यादा पेड़ लगाने का आदेश दिया था।
केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान में डिवीजन ऑफ इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम के प्रमुख धीरज सिंह जैव-विविधता के नुकसान को बड़े फलक पर देखते हैं। “खेजड़ी सांगरी, पशुओं के लिए चारा, औजार और घरों के लिए लकड़ी देती है। इसमें नाइट्रोजन फिक्स करने की क्षमता होती है। रेगिस्तान में जहां किसान के पास खाद खरीदने की क्षमता नहीं होती है, वहां यह प्राकृतिक खाद का भी काम करती है,” वह मोंगाबे-हिंदी से कहते हैं।
यही वजह है कि पिछले कुछ सालों से राजस्थान में पारंपरिक प्रजातियों के पेड़ों को बचाने के लिए बड़े स्तर पर आंदोलन चल रहा है। इसके लिए थार के कई बड़े शहरों में बंद का आयोजन किया गया है। जानकार बायोलॉजिकल डायवर्सिटी कानून में 2023 में किए गए संशोधनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) के सदस्य दाउ लाल बोहरा ने मोंगाबे-हिंदी को बताया, “2023 में पहले राजस्थान स्टेट बायोडायवर्सिटी बोर्ड के पास यह अधिकार था कि वह राज्य में पारंपरिक पेड़ काटने वालों पर मामला दर्ज करा सकते थे। साल 2023 में इससे जुड़ी धारा 58 खत्म कर दी गई जिससे यह प्रावधान निष्प्रभावी हो गया। दूसरी दिक्कत यह है कि सोलर एनर्जी के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) की जरूरत नहीं है। इन वजहों से पेड़ों के साथ-साथ इन पर निर्भर जानवर भी खत्म हो रहे हैं।”
जोधपुर स्थित साउथ एशिया बायोटेक्नोलॉजी सेंटर के संस्थापक भागीरथ चौधरी मोंगाबे-हिंदी से कहते हैं, “सरकार को कंपनियों को कानूनी रूप से बाध्य करना चाहिए कि जहां सोलर प्लांट लग रहा है, वहां इसके चारों तरफ और उस पूरे क्षेत्र के अंदर पौधे लगा कर हरित पट्टी विकसित की जाए। ‘एक प्लेट एक पेड़’ का नियम बना कर इसे लागू किया जाए।”हाल के वर्षों में, किसानों ने देखा है कि फूल आने के बाद खेजड़ी के पेड़ों पर गॉल या कीट लग जाते हैं, जिससे सांगरी उत्पादन में बाधा आती है। तस्वीर – निर्मल वर्मा/मोंगाबे।
बढ़ती बारिश, पानी से बढ़ा दबाव
खेजड़ी एक तरह से थार की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी है। एक खेजड़ी से 80 साल तक उपयोगी चीजें मिलती हैं, जिसकी कीमत करीब 20 हजार से 30 हजार रुपए है। इसके अलावा ऑक्सीजन, जानवरों के लिए आवास और जैव-विविधता जैसी सेवाएं भी मिलती हैं। लेकिन, मौसम में बदलाव से बारिश ज्यादा होने, नहरें आने और पानी की खपत बढ़ने से दबाव बढ़ने लगा है।
हाल मे हुए एक अध्ययन के मुताबिक 2001 से 2023 के बीच थार में मॉनसूनी बारिश में 63 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। सिंह कहते हैं, “ज्यादा बारिश और अधिक नमी खेजड़ी के मूल स्वरूप के विपरीत है। इस स्थिति में इस पर फंगस, बैक्टीरिया और अन्य सूक्षम जीवों का आक्रमण बहुत ज्यादा होता है और बड़े से बड़े पेड़ भी अचानक सूख जाते हैं।”
हाल के सालों में खेजड़ी के पेड़ पर मंजर आने के बाद गिल्टू (गॉल्स) बनने की समस्या से किसान परेशान हैं। इससे सांगरी नहीं बन पाती है और किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।
बीकानेर कृषि विश्वविद्यालय में अनुवांशिक और पादप प्रजनन संकाय के विभागाध्यक्ष सुजीत यादव इसे जलवायु परिवर्तन और कीटों द्वारा होस्ट बदलने से जोड़कर देखते हैं। वह कहते हैं, “अधिकतर कीट की तरह ही खेजड़ी पर आने वाला माइट्स एरियोफिस प्रोसोपिडिस बहुत छोटा जीव है। पहले तापमान में वेरिएशन इतना था कि इसके अंडे बच नहीं पाते थे। आज स्थिति यह है कि ज्यादा तापमान में भी अंडे बच जाते हैं। पहले ये कीट फल वाले पौधों पर ही आते थे। अब वे सांगरी वाले पेड़ पर पलने लगे हैं। इसलिए, फलियां बनने के समय कीड़े बहुत तेजी से ऐक्टिव हो रहे हैं।”
वह इस समस्या को खेजड़ी की छंटाई से जोड़कर देखते हैं। यादव कहते हैं, “जहां खेजड़ी की नियमित छंटाई होती है, वहां ये कीट अधिक तापमान के कारण बच नहीं पाते हैं। लेकिन, जहां खेजड़ी की छंटाई नहीं की जाती है, वहां इन माइट्स को फलने-फूलने के लिए पर्याप्त नमी और अनुकूल वातावरण मिलता है।” यादव को राजस्थान के खास कृषि उत्पादों को जीआई टैग के तहत संरक्षण दिलाने हेतु तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में भी नामित किया गया है।
थार में नहर और नलकूप से खेती और सिंचित भूमि भी तेजी से बढ़ी है। साल 1980 से 2015 के बीच खेती का रकबा 74 फीसदी और सिंचित क्षेत्र 24 फीसदी बढ़ा है। उत्तर-पश्चिम इलाके में नहरों से सिंचाई बढ़ी है। वहीं 1990 के बाद ट्यूबवेल से सिंचाई में बहुत तेजी आई है। इससे किसान खरीफ के साथ-साथ रबी सीजन में भी खेती कर रहे हैं।
जोधपुर स्थित शुष्क वन अनुसंधान संस्थान (आफरी) की वन कीट विशेषज्ञ शिवानी भटनागर के अनुसार खेजड़ी में गिल्टू (flower gall) का मुख्य कारण एक प्रकार के माइट्स द्वारा किया गया संक्रमण है। माइट संक्रमण विशेष रूप से उन क्षेत्रों में अधिक देखा गया है जहां भूमिगत जल (नलकूप) या नहरों से सिंचाई के कारण वातावरण में नमी अधिक होती है। साथ ही, हाल के सालों में वर्षा में हुई वृद्धि ने भी इसकी तीव्रता को बढ़ाया है। भटनागर बताती हैं कि गंभीर संक्रमण की स्थिति में खेजड़ी के पेड़ों पर 20 फीसदी फलियां ही आती हैं।
वैसे सांगरी में मार्च से मंजर आने लगते हैं। इसके बाद अप्रैल के मध्य से आखिर तक इसमें फलियां लगती हैं। नागौर के सलेऊ गांव के किसान उगमा राम भाटी 35 डिग्री सेल्सियस तापमान को सांगरी के विकास के लिए सबसे अच्छा मानते हैं। इस दौरान हवा का रुख भी बहुत अहम होता है।
वहीं, तिलोका राम भी अपने अनुभव से कहते हैं, “अच्छी सांगरी के लिए मार्च के आखिर में हवा दक्षिण-पश्चिम की तरफ बहनी चाहिए। अगर हवा उत्तर-पश्चिम की है, तो मंजर झड़ जाते हैं।”खेजड़ी के पेड़ और उनमें लगी सांगरी। तस्वीर – निर्मल वर्मा\मोंगाबे
मशीनी खेती से बढ़ता नुकसान
खनन और सोलर पार्क ही सांगरी का उत्पादन कम होने की वजह नहीं हैं। साल 2014 की एक रिसर्च के मुताबिक भूजल के बेतरतीब इस्तेमाल से खेजड़ी तेजी से घट रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक बारिश वाली जमीन में 50 और 60 के दशक में खेजड़ी पेड़ों का प्रति हेक्टेयर घनत्व 90 था। लेकिन इस सदी के दूसरे दशक में थार के 12 शुष्क जिलों में हर हेक्टेयर इनकी संख्या घटकर 35 रह गई।
सिंह कहते हैं, “खेतों में ट्रैक्टर, कल्टीवेटर, रोटेवर, डिस्क फ्लो पेड़ों (खेजड़ी) के बहुत पास से गुजरते हैं और जमीन को जोतने के साथ-साथ इसका समतलीकरण करते हैं। इससे गहराई तक जाने वाली चारों तरफ फैली इन पेड़ों की जड़ें कट जाती हैं। इससे पेड़ को उतना पानी नहीं मिल पाता जितना चाहिए।”
हालांकि छंगानी जैसे जानकार इसे सोलर प्लांट में पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल से भी जोड़ते हैं। उन्होंने कहा, “सोलर प्लेट्स की सफाई के लिए पानी की बहुत ज्यादा जरूरत होती है। यह जरूरत आसपास के तालाब और दूसरे प्राकृतिक स्त्रोत से पूरी की जाती है और वे अब मॉनसून से पहले अप्रैल-मई में ही सूख जाते हैं। इसलिए, भूजल रिचार्ज नहीं हो पाता है और खेजड़ी को नुकसान होता है।”
जमीन पर हो रहे इन बदलावों के बीच ओसिया के पास खेतसर गांव की ओमी देवी खान-पान की आदतों में आ रहे बदलावों को इससे जोड़कर देखती हैं।
“पानी की अधिकता से हरी सब्जियां खूब हो रही हैं। उन्हें तोड़ना और बनाना बहुत आसान है। इसलिए, बच्चे भी हरी सब्जियां ही खाना चाहते हैं,” वह कहती हैं।
बैनर तस्वीर: सूखी सांगरी छांटती महिलाएं। तस्वीर – विशाल कुमार जैन