- ‘भारत में चावल का कटोरा’ के रूप में पहचाने जाने वाले छत्तीसगढ़ में कई इथेनॉल कारखानों के लिए को सरकारी मंजूरी मिल गई है।
- हालांकि, कई प्रस्तावित जगहों पर इन फैसलों का विरोध शुरू हो गया है। स्थानीय समुदाय पर्यावरण को होने वाले संभावित नुकसान पर चिंता जता रहा है।
- कृषि और खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञों ने भी चेतावनी दी है कि ईंधन उत्पादन के लिए खाद्यान्न का इस्तेमाल लंबी अवधि में देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है।
जैसे-जैसे पेट्रोल में इथेनॉल मिलाने को लेकर चर्चाएं तेज होती जा रही है, कुमारी साहू जब भी ‘इथेनॉल’ शब्द सुनती हैं, तो तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं। उनकी चिंता वाहन के माइलेज को लेकर नहीं, बल्कि अपने परिवार के स्वास्थ्य और अपनी तरफ से उगाई जाने वाली फसलों पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर है।
साहू छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले के पथर्रा गांव में रहती हैं, जहां 2024 में इथेनॉल संयंत्र शुरू हुआ था। उनका दावा है कि कारखाने से निकलने वाले काले, बदबूदार गंदे पानी ने धान के उनके कई खेतों को बर्बाद कर दिया है।
वह मोंगाबे-हिंदी से कहती हैं, “मेरे पास साढ़े तीन एकड़ ज़मीन है। इसी से मेरी रोजी-रोटी चलती है। लेकिन मेरी धान की फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई है।” समस्याएं फसल के नुकसान से कहीं आगे तक फैली हुई हैं। “लगातार आने वाली बदबू की वजह से, मजदूर ढूंढना या अपने खेतों में काम करना भी मुश्किल हो रहा है। शराब बनाने वाली भट्टी से आने वाली असहनीय गंध के कारण कोई भी वहां कदम रखना नहीं चाहता।”
पथर्रा गांव में लगभग 250 घर हैं और सब जगह ऐसी ही चिंताएं दिखाई देती हैं। यहां के निवासियों का कहना है कि बदबू ने जीवन को असहनीय बना दिया है। दिन हो या रात, किसी भी समय गांव में तेज गंध फैल जाती है, जिससे लोगों को अपना चेहरा कपड़े से ढकना पड़ता है।
गांव के लोगों को डर है कि प्लांट से निकलने वाला गंदा पानी आखिरकार भूजल को दूषित कर देगा। वे पिछले दस महीनों से कई नए तरीकों से विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। अक्टूबर 2024 में, पुरुषों ने अपने सिर मुंडवा लिए। उन्होंने तहसीलदार से लेकर मुख्यमंत्री तक गुहार लगाई है, लेकिन उनका दावा है कि उनकी शिकायतों को नजरअंदाज किया जा रहा है।

गांव के एक युवक चंदन साहू ने कहा, “शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे बुज़ुर्गों और महिलाओं पर सार्वजनिक अशांति फैलाने का आरोप लगाकर जेल भेज दिया गया। हमारी कोई सुनवाई नहीं हो रही है। मुझे समझ नहीं आ रहा कि हम इस बदबू और प्रदूषित पानी के साथ कैसे जिएं। अगर हालात ऐसे ही रहे, तो हमें एक दिन अपना गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ेगा।” इस साल जनवरी में, पुलिस ने महिलाओं समेत गांव के लगभग 40 लोगों के खिलाफ दो अलग-अलग एफआईआर दर्ज की।
पथर्रा अकेला ऐसा गांव नहीं है जो ऐसी समस्याओं का सामना कर रहा है। अकेले बेमेतरा जिले में ही 11 इथेनॉल कारखाने स्थापित करने की योजना है और कई जगहों पर विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं।
पास के ही रांका गांव में पंचायत के सरपंच घनाराम निषाद लंबे समय से 35 एकड़ ज़मीन पर बन रही इथेनॉल संयंत्र का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “हम पथर्रा की हालत देख चुके हैं। हम इथेनॉल कारखाने के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन, अगर ऐसी सुविधा कृषि भूमि पर और गांव के पास बनाई जाती है, तो यह आपदा लाएगी। प्रदूषण ने पथर्रा के लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। हम अपने गांव को अगला पथर्रा नहीं बनने देंगे।”
नदी घाटी मोर्चा के संयोजक और जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंदोपाध्याय ने कहा कि इन संयंत्रों के लिए अधिग्रहीत की गई ज्यादातर जमीन में चारागाह, श्मशान घाट और गौशालाएं जैसी गांव की सार्वजनिक संपत्तियां शामिल हैं, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच रहा है। उन्होंने आगे कहा कि गांव के निवासियों और पर्यावरणविदों के विरोध के बावजूद, कोई गहन वैज्ञानिक समीक्षा नहीं की गई है।
हालांकि, सरकार इस उद्योग का बचाव करती है। अगस्त के पहले हफ़्ते में जब कोंडागांव के किसानों ने प्रदूषण और फसल के नुकसान की चिंता जताई, तो गांव के दौरे पर आए कृषि मंत्री रामविचार नेताम ने कहा, “हम किसी भी नुकसान की भरपाई के लिए योजना बनाएंगे। इकाई अभी पूरी तरह से शुरू भी नहीं हुई है; इसे चलने दीजिए। यह राज्य के लिए नई पहल है। यह इस जिले के किसानों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे राज्य के लिए बड़ा अवसर है।”
छत्तीसगढ़ में इथेनॉल को बढ़ावा
सितंबर 2023 में कबीरधाम जिले में सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत ₹1.41 अरब की लागत से इथेनॉल डिस्टिलरी स्थापित की गई थी। 80,000 लीटर प्रतिदिन की क्षमता वाला यह शीरा-आधारित संयंत्र एक साल के भीतर ही बंद हो गया, क्योंकि इसे कच्चा माल नहीं मिल पाया।
हालांकि, इस इकाई में कच्चे माल के रूप में गन्ना इस्तेमाल होता था, लेकिन यह इससे आगे आने वाली चुनौतियों के बारे में पता चलता है। राज्य सरकार इथेनॉल उत्पादन को लेकर आक्रामक तरीके से कोशिश कर रही है। 2024 में सरकार ने विधानसभा को बताया था कि उसने छत्तीसगढ़ में 34 नई इथेनॉल डिस्टिलरी के लिए समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए हैं। केंद्र सरकार के एक दस्तावेज़ में कहा गया है कि राज्य में 42 संयंत्रों को मंजूरी दी गई है, जिनमें से ज्यादातर अनाज आधारित हैं। सरकार का कहना है कि नौ संयंत्रों में उत्पादन शुरू हो चुका है।

हालांकि, जानकारों की दलील है कि भारत में धान के कटोरे छत्तीसगढ़ में बड़े पैमाने पर इथेनॉल संयंत्र स्थापित करने से कई जटिलताएं आ सकती हैं। बंदोपाध्याय ने कहा कि धान और पराली पर आधारित कई संयंत्रों के कारण खाद्य सुरक्षा भी ख़तरे में पड़ सकती है, क्योंकि देश भर में धान की खेती पहले से ही दबाव में है।
पिछले कई सालों से, छत्तीसगढ़ सरकार धान की खरीद के लिए केंद्र सरकार की ओर से घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर अतिरिक्त बोनस दे रही है। केंद्र सरकार ने सामान्य धान के लिए ₹2,183 प्रति क्विंटल और ए-ग्रेड धान के लिए ₹2,203 प्रति क्विंटल एमएसपी तय किया है, जबकि छत्तीसगढ़ सरकार किसानों से ₹3,100 प्रति क्विंटल की दर से धान खरीदती है।
धान की इस अतिरिक्त कीमत ने राज्य में फसल विविधीकरण को पहले ही बुरी तरह प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ में किसानों को साल-दर-साल ज्यादा धान उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। धान उत्पादन की बढ़ती गति को सिर्फ एक आंकड़े से समझा जा सकता है: 2009-10 में राज्य में धान का उत्पादन 4.11 मिलियन टन था, जो 2022-23 तक दोगुने से भी ज़्यादा बढ़कर 10.5 मिलियन टन हो जाएगा।
जोखिम भरा समझौता
खाद्य और कृषि नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने कहा कि खाद्यान्नों को ईंधन के रूप में इथेनॉल में बदलना उस देश के लिए एक भयावह विचार है, जहां शायद दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग रहते हैं। “ऐसे समय में जब बड़ी आबादी एक दिन का खाना भी नहीं जुटा पा रही है, इंसानों को खाना खिलाना ज्यादा जरूरी है; गाड़ियां तो इंतजार कर सकती हैं।”
शर्मा ने बताया कि छत्तीसगढ़ में एक किलो धान की पैदावार में लगभग 3,000 लीटर पानी लगता है। किसानों पर अक्सर पानी के बहुत ज्यादा इस्तेमाल का आरोप लगाया जाता है, लेकिन यह फसल अपने आप में बहुत ज़्यादा पानी लेती है। पंजाब में भी यही स्थिति रही—वहां प्रति किलो धान के लिए लगभग 5,000 लीटर पानी की जरूरत होती है और राज्य अब भूजल संकट की चपेट में है, जिसके कई ब्लॉक “रेड जोन” घोषित किए गए हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि छत्तीसगढ़ का भी यही हश्र हो सकता है, जिससे खेती और पीने के पानी दोनों पर ख़तरा मंडरा रहा है।

शर्मा ने आगे कहा, “इथेनॉल के मामले में भी यही चिंताएं हैं। जब इसके दुष्प्रभाव सामने आएंगे, तब इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा। क्या किसी मंत्री या वैज्ञानिक को जवाबदेह ठहराया जाएगा? जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी, यही सिलसिला चलता रहेगा, मुनाफा कोई खाएगा, जबकि दोष किसी और पर मढ़ा जाएगा। सरकार को जरूरी सवाल का भी जवाब देना होगा, इथेनॉल बनाने के लिए लाखों लीटर पानी कहां से आएगा?”
दूसरे विशेषज्ञ भी ऐसी ही चिंताएं जताते हैं। उनकी दलील है कि इथेनॉल बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा टूटा हुआ या खराब गुणवत्ता वाला चावल भी खाने योग्य होता है और आमतौर पर मध्याह्न भोजन, राशन योजनाओं या निर्यात में इस्तेमाल किया जाता है।
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अखिल भारतीय किसान सभा के नेता नंद कश्यप ने कहा, “जब वैश्विक भूख सूचकांक में भारत अभी भी निचले पायदान पर है, तो भोजन से ईंधन बनाना नैतिक और रणनीतिक रूप से गंभीर भूल हो सकती है। दुनिया भर में, हम देख रहे हैं कि जैसे-जैसे इथेनॉल उत्पादन खाद्यान्नों पर निर्भर होता जा रहा है, किसान खाद्यान्नों के बजाय ईंधन के रूप में बेहतर कीमत देने वाली फसलों की ओर रुख करने लगे हैं। इससे बाजार की अस्थिर दरें, मंडियों में कीमतों में उलटफेर और खाने-पीने की चीजें महंगी हो सकती हैं।”
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने कहा कि इथेनॉल के लिए धान को प्रोत्साहित करना पर्यावरण के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। “जब देश अपने लोगों का पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहा है, तो भोजन जलाकर ईंधन बनाना स्थायी रास्ता नहीं है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों को यह तय करना होगा: क्या हमें जलवायु लक्ष्यों को पाने के लिए खाद्य सुरक्षा और भूजल का त्याग करना चाहिए? और क्या ‘विकास’ अब औद्योगिक विस्तार का दूसरा नाम बन गया है, भले ही वह कृषि और किसानों को कुचल दे?”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 22 अगस्त, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: इथेनॉल प्लांट को लेकर अपनी चिंताएं साझा करती हुई छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले के पथर्रा गांव की कुमारी साहू। तस्वीर: आयुषी शर्मा/मोंगाबे।