मनीष राजनकर, शालू कोल्हे और धीवर समाज के लोग भंडारा और गोंदिया के तालाबों को संरक्षित कर रहे हैं। इसके लिए तालाबों से हानिकारक वनस्पतियों को साफ किया जाता है। इलस्ट्रेशन- देबांशु मौलिक

विदर्भ के तालाब की सरकार ने भी की अनदेखी

भंडारा और गोंदिया जिले में कई मछुआरा समितियां हैं, लेकिन तालाबों पर मालिकाना हक विभिन्न सरकारी विभागों का है। इस वजह से वहां के तालाबों के साथ स्थानीय लोगों का जुड़ाव कम है। ऐसे धरोहरों को लेकर सरकारी लापरवाही से सब वाकिफ हैं। नतीजा यह होता है कि इन तालाबों का देख-रेख करने वाला कोई नहीं होता।

तालाब के ऊंचाई वाले इलाके की जमीन पर अतिक्रमण है जिसे सरकार रोकने में नाकाम रही है। स्थानीय समुदाय का दखल न होने की वजह से तालाबों की तरफ ध्यान नहीं दिया गया जिससे वहां की जैव-विविधता भी खत्म होती गई।

एक तरफ इन तालाबों पर ये सारे संकट थे तो दूसरी तरफ सरकार ने इन तालाबों में आक्रामक प्रजाति की मछलियों के बीज डाल दिए। इससे स्थानीय तालाबों का और नुकसान हो गया। ये मछलियां इन तालाबों के लिए नई थी और इन्होंने स्थानीय मछलियों को चट करना शुरू कर दिया। इस वजह से तालाब पर निर्भर स्थानीय मछुआरा समुदाय को नुकसान होना शुरू हो गया।

क्लेरिस यानी वायुस्वासी मांगुर भंडारा के तालाब की स्थानीय मछली है। यह कम पानी और दलदल वाले तालाब में भी अपने सांस लेने के मजबूत तंत्र की वजह से जीवित रह सकती हैं। तालाब की सफाई के बाद इस स्थानीय मछली-पालन को प्रोत्साहन मिला। तस्वीर- बीएनवीएसएएम
क्लेरिस यानी वायुस्वासी मांगुर भंडारा के तालाब की स्थानीय मछली है। यह कम पानी और दलदल वाले तालाब में भी अपने सांस लेने के मजबूत तंत्र की वजह से जीवित रह सकती हैं। तालाब की सफाई के बाद इस स्थानीय मछली-पालन को प्रोत्साहन मिला। तस्वीर- बीएनवीएसएएम

वर्ष 2010 में केंद्र सरकार ने वेटलैंड्स (संरक्षण और प्रबंधन) नियम लागू किया तब भी यहां के तालाबों की अनदेखी हुई। सरकार ने भाग एक और भाग दो में वेटलैंड्स की सूची जारी की ताकि इनका संरक्षण हो सके। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की इस सूची में यहां का कोई भी तालाब शामिल नहीं हो पाया। मंत्रालय की संयुक्त सचिव मंजू पांडे ने कहा कि वेटलैंड्स का चयन राज्य सरकार के द्वारा होता है।

विदर्भ विकास बोर्ड ने विदर्भ में मत्स्य और एक्वाकल्चर के विकास की कार्य योजना तैयार की लेकिन इसमें वेटलैंड्स और मछलीपालन योग्य तालाबों को बचाने की बात शामिल नहीं थी।

मछुआरों ने किया जैव-विविधता के साथ मछली पालन

मछुआरे के सहकारिता समूहों ने हर चार से पांच तालाबों पर एक तालाब ऐसा चुना जिसके जरिए कमाई के साथ जैव-विविधता की रक्षा भी सुनिश्चित हो सके।

“मनीष भाऊ ने हमसे पूछा कि क्या तालाब के भीतर पौधों को बचाने के लिए कुछ किया जा सकता है। हमने कहा बिल्कुल, जैसे जमीन पर पौधे लगाते हैं वैसे ही जलीय पौधों को तालाब में भी लगाया जा सकता है,” तुम्सारे ने अपने पारंपरिक ज्ञान का खजाना खोलते हुए बताया।

स्थानीय प्रजाति के जलीय पौधों को जमा कर मछुआरे नए तालाब में इसे रोपते हैं। इससे मछलियों के लिए चारा और तालाब का पोषण स्तर बढ़ता है। तस्वीर- बीएनवीएसएएम
स्थानीय प्रजाति के जलीय पौधों को जमा कर मछुआरे नए तालाब में इसे रोपते हैं। इससे मछलियों के लिए चारा और तालाब का पोषण स्तर बढ़ता है। तस्वीर- बीएनवीएसएएम

मानसून से पहले तालाब की मिट्टी को तैयार कर स्थानीय जलीय पौधे लगा दिए गए। इनमें चीला, चीउल, फंदा, चौरा, हलदुली, राजुली, सिंगीफूल और सफेद कमल जैसे जलीय पौधे शामिल हैं। इसके अलावा, हाइड्रिला वर्टिकिलाटा, सेराटोफिलम डिमर्सम, वेलीसनेरिया स्पाइरलिस और तैरने वाले पौधे जैसे निम्फाइड्स इंडिकम, निम्फाइड्स हाइड्रॉफिला, निम्फिया क्रिस्टाटा भी लगाए गए। तालाबों में और एलोचार्सिस और डलसिस जैसे आंशिक रूप से पानी में रहने वाले पौधे भी लगाए गए।

इन तालाबों में दादक, नाघुर, मरद, मोथारी, सावादा, शिंगुर और कटवा जैसी स्थानीय मछलियां पाली गईं। इन मछलियों के बदौलत बिना किसी अतिरिक्त पोषक पदार्थ के खर्च के सहकारिता संगठनों ने 200 से 700 प्रतिशत तक का मुनाफा कमाया। इस पहले के बाद दूसरे तालाबों में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाने लगी। 

राजनकर के काम में सहयोग करने के लिए स्थानीय मछुआरा समाज से शालू कोल्हे आगे आयीं। उन्होंने महिलाओं को एकत्रित कर उन्हें तालाब के बारे में जागरूक किया।

समुदाय के लोगों ने तालाब में स्थानीय पौधे लगाए। तस्वीर- बीएनवीएसएएम

इलस्ट्रेशन- देबांशु मौलिक। मौलिक पुणे से हैं और उन्हें कहानियों, किताब और वीडियो के लिए इलस्ट्रेशन और एनिमेशन बनाना पसंद है।

Article published by Manish Chandra Mishra
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