महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त क्षेत्र भंडारा में 300 साल पुराने कई तालाब मौजूद हैं। हालांकि, बेशरम जैसे पौधे और बाहरी नस्ल की मछलियों की वजह से इन तालाबों के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है।सरकार की बेरुखी के बाद इन तालाबों और स्थानीय मछलियों को बचाने की जिम्मेदारी यहां के मछुवारे समाज ने उठाई है। तालाब संरक्षण का इनका पारंपरिक तरीका बेहद कारगर साबित हो रहा है।भंडारा और गोंदिया जिले में चल रहे अभियान की वजह से तकरीबन पांच दर्जन तालाबों को न सिर्फ नया जीवन मिला बल्कि लोगों के रोजी-रोटी का संकट भी कम हुआ।मनीष राजनकर और शालू कोल्हे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता तालाब संरक्षण में स्थानीय समुदाय की मदद कर रहे हैं। बेहया, बेशरम या थेथर, देश के विभिन्न इलाकों में अलग नामों से प्रचलित यह पौधा तमाम जल-स्रोतों को लील रहा है। इसके प्रकोप से महाराष्ट्र का विदर्भ जैसा सूखा प्रभावित इलाका भी नहीं बच सका है। यूं तो बेशरम नाम का यह पौधा पानी की अधिकता वाले स्थानों पर उगता है और फैलता जाता है। लेकिन विदर्भ जैसे क्षेत्र जहां पानी की भारी किल्लत है, वहां भी इस पौधे ने काफी तबाही मचायी है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी ये पौधे न केवल जिंदा रह सकते हैं, बल्कि खूब फैलते हैं। शायद इसी वजह से इसे बेशर्म या बेहया नाम से पुकारा जाता है। बेशरम के पौधे और कुछ बाहरी आक्रामक तेवर की मछलियों की वजह से विदर्भ के तालाब वाले शहर भंडारा के तीन सदी पुराने तालाबों का अस्तित्व संकट में आ गया है। पर यह कहानी भंडारा के समस्या की नहीं बल्कि उसके समाधान की है। भंडारा निवासी मनीष राजनकर अपने आसपास के तालाबों को इस कदर खराब होते देखा तो उन्होंने इसपर काम करने की ठानी। कॉलेज के दिनों में ही राजनकर का रुझान पक्षी दर्शन की तरफ बढ़ा और उनके प्रोफेसर के जरिए पर्यावरण में आ रहे बदलावों की तरफ उनका ध्यान आकर्षित हुआ। भंडारा और गोंदिया में करीब 15,000 तालाब हैं जिनका इस्तेमाल खेती और मछली-पालन के लिए होता है। तस्वीर- भंडारा निसर्ग व संस्कृति अभ्यास मंडल (बीएनवीएसएएम) अविभाजित भंडारा जिला को एक समय तालाबों वाले जिले के नाम से ख्याति प्राप्त थी। राजनकर स्थिति को वापस पहले जैसा बनाना चाहते थे। इस जिले में तकरीबन 15,000 तालाब हुआ करते हैं। इन्हें आम बोलचाल में मामा तालाब कहते हैं जिसका पूरा मतलब हुआ माजी मालगुजारी तालाब। इन तालाबों से जमींदारों को मालगुजारी मिलती थी जो कि एक तरह का कर हुआ करता था। तालाब के पानी का इस्तेमाल खेती और मछली-पालन के लिए होता था। उस वक्त भंडारा जिले का मतलब था धान के हरे-भरे खेत, पास में स्थित शानदार अभयारण्य, प्रवासी पक्षियों से गुलजार हजारों छोटे-बड़े तालाब, वैनगंगा नदी और 500 एकड़ में फैला नावेगांव बांध। आगे चलकर भंडारा जिले से गोंदिया को अलग कर एक नया जिला बना दिया गया। हालांकि, दोनों जिलों के जल-स्रोतों का सूरतेहाल करीब-करीब एक जैसा ही है। इस हस्तक्षेप के बीज आज से तकरीबन 25 वर्ष पहले अंकुरित हुए जब राजनकर अपने प्रकृति प्रेम में अपने घर लौटे। उनके मन में अपने इलाके के लिए कुछ सार्थक करने की प्रबल इच्छा थी। लोगों ने सलाह दिया कि इस इलाके को समझने के लिए उन्हें स्थानीय लोगों के साथ समय बिताना चाहिए। वर्ष 2000 में वे गोंदिया के अंदरुनी गांव अर्जुनी मोरगांव में रहने चले गए। डेढ़ वर्ष के करीब उन्होंने उस गांव में बिताया। दिन भर वे पतिराम तुमसारे नाम के एक मछुआरे की दिनचर्या समझने में बिताते। तुमसारे स्थानीय धीवर समाज से आते हैं जिनका पुश्तैनी पेशा मछली-पालन होता है। तुमसारे जम्हाली गांव के निवासी हैं। “सीखने के लिहाज से पतिराम भाऊ के साथ बीता समय बेहतरीन था। मैं उन्हें मछली पकड़ने वाली जाल ठीक करते देखता। साथी मछुआरों के साथ उनकी बातचीत सुनता और फिर तालाब पर जाकर मछली पकड़ने के संघर्ष को समझता। मछली पकड़ने के बाद उसे बेचने की प्रक्रिया और उसकी बारीकियां भी मैंने समझी,” राजनकर ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। इस प्रक्रिया में राजनकर को यह समझ आया कि अगर स्थानीय लोगों के हाथ नेतृत्व दिया जाए तो कोई भी बदलाव मुमकिन है। राजनकर जल-स्रोतों पर निर्भर समुदाय की स्थिति सुधारने के मकसद से इस क्षेत्र के बिगड़ते तालाबों की स्थिति ठीक करना चाहते थे। मछुआरा समाज धीवर के साथ समय बिताने के बाद राजनकर का अनुभव कह रहा था कि इनकी पारंपरिक तरीकों से तालाबों को बेशरम से मुक्त किया जा सकता है। उन्होंने यह भी पाया कि समाज की महिलाएं इस काम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती हैं और अक्सर इसका नेतृत्व कर रही होती हैं। वर्ष 1996 में राजनकर ने भंडारा निसर्ग व अभ्यास मंडल (बीएनवीएसएएम) के साथ काम करना शुरू किया। यह संस्था 1993 से ही पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही है। तुम्सारे ने भी 15 वर्ष पहले इस संस्था के साथ जुड़कर काम करना शुरू किया। बेशरम के पौधों की वजह से कामखुरा गांव के तालाब का यह हाल हो गया था। गांव के लोगों ने इसे हाथ से हटाकर तालाब को मुक्त किया। तस्वीर- बीएनवीएसएएम बेशरम के पौधे, तिलापिया और ग्रास कार्प मछली से तबाह हुआ तालाब का जलीय जीवन भंडारा और गोंदिया के तालाब पर भी देश के दूसरे स्थानों की तरह बेशरम नाम के पौधे का आतंक है। विज्ञान की भाषा में इसे इपोमिया फिस्टुलोसा (Ipomoea fistulosa) कहते हैं। तालाब के एक कोने से शुरू होकर यह पौधा बहुत कम समय में पूरे तालाब में फैल जाता है। पानी में मछलियों और दूसरे जलीय जीव और पौधों के लिए मौजूद पोषण बेशरम अकेला ही चट कर जाता है। अगर इंसान इसे न हटाए तो यह बढ़ता ही जाएगा। इसके अलावा तालाबों में तिलापिया, मांगुर, ग्रास कार्प जैसी आक्रामक मछलियों का पालन शुरू हुआ। इससे स्थानीय मछलियों की संख्या घटती चली गई। ये मछलियां तालाब के भीतर मौजूद वनस्पति खाती हैं और छोटी मछलियों को बढ़ने से पहले ही खा जाती हैं। यद्यपि इन मछलियों का विकास तेजी से बढ़ती हैं और इससे मुनाफा भी अधिक होता है, पर इसको पकड़ने के लिए विशेष तरह का जाल चाहिए। इस जाल के इस्तेमाल से तालाब के भीतर मौजूद वनस्पति भी खत्म हो जाती है। स्थानीय मछलियों को साल भर पाला जा सकता है और पकड़कर बेचा जा सकता है, जबकि बाहरी नस्ल की मछलियां किसी खास मौसम में ही पाली जाती हैं। इससे मछुआरों के टिकाऊ रोजगार पर भी संकट आया।