- भारत में रूफटॉप सोलर के विकास की क्षमता अच्छी है। लेकिन बड़ी सौर ऊर्जा परियोजनाओं को प्राथमिकता देने की वजह से इसका विकास पिछड़ गया है।
- 2022 तक रूफटॉप सोलर सेक्टर से देश में 40 गीगावॉट ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित है। लेकिन अब तक इसका 20 प्रतिशत भी हासिल नहीं किया जा सका है।
- विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हैं कि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की तुलना में रूपटॉप सोलर आर्थिक रूप से अधिक व्यवहारिक है। वैज्ञानिक मानते हैं कि ऊर्जा का विकेंद्रीकरण किया जाना चाहिए।
साल 2022 जितना नजदीक आ रहा है, भारत के लिए रूफटॉप सोलर ऊर्जा का लक्ष्य पाना मुश्किल होता जा रहा है। रूफटॉप सोलर यानी छतों पर सोलर पैनल लगाकर ऊर्जा का उत्पादन। वर्ष 2015 में सोलर रूफटॉप से 40 गीगावॉट ऊर्जा हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था। यह अक्षय ऊर्जा के 175 गीगावॉट लक्ष्य में शामिल है जिसे 2022 के अंत तक हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है।
नवीन ऊर्जा का भविष्य उज्ज्वल है। देश में अब इस 175 गीगावाट के लक्ष्य को भी बढ़ा दिया गया है। अब भारत का लक्ष्य है कि देश में कुल 450 गीगावाट की क्षमता विकसित की जाए। इसके लिए 2030 की समयसीमा निर्धारित की गयी है।
भारत ने हाल ही में अक्षय ऊर्जा की 100 गीगावाट की स्थापित क्षमता हासिल की है, लेकिन उसमें से अधिकांश बड़े पवन और सौर ऊर्जा परियोजनाओं से हासिल हुआ है। अब तक (जुलाई 2021 तक) देश लगभग 5.1 गीगावॉट रूफटॉप सोलर हासिल करने में सफल रहा है।
यह तब है जब वैज्ञानिकों ने बड़े पैमाने पर अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के विकल्प के रूप में रूफटॉप सोलर को तवज्जो देने की सलाह दी है। इससे न सिर्फ स्थानीय वातावरण पर कम असर होता है बल्कि कोई सामाजिक नुकसान भी नहीं होता। बड़ी परियोजनाएं अक्सर विस्थापन या किसी अन्य सामाजिक नुकसान के कीमत पर ही खड़ी होती हैं।
बड़ी अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं को विरोध का सामना भी करना होता है। खासकर जिनलोगों को विस्थापन का खतरा होता है वे इसका पुरजोर विरोध करते हैं।
पैनलों की साफ-सफाई के लिए अक्सर बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है। द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) के रूरल एनर्जी एंड लाइवलीहुड प्रोग्राम के निदेशक देबजीत पालित ने कहा कि राजस्थान जैसी जगहों पर जहां पानी बहुत कीमती है, वहां पैनलों को साफ करने के लिए पानी की व्यवस्था करना, चिंता का विषय होता है।
इसके अलावा जमीन पर लगे सोलर पैनल से वहां की आबोहवा को नुकसान होता है। इसको लेकर कई पर्यावरणीय चिंताएं हैं। जैसे, जहां सोलर पैनल लगे हैं वहां की वनस्पति नहीं बढ़ पाएगी। इसमें घास भी शामिल हैं जिससे छोटे-बड़े स्थानीय वन्यजीव का अस्तित्व खतरे में आ सकता है।
दूसरे जीवों का आवास भी खतरे में आ सकता है। ताजा उदाहरण ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का है। राजस्थान में बहुतायत में पाए जाने वाला यह पक्षी नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के कारण खतरे का सामना कर रहा है।
अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द इनवायरनमेंट, बेंगलुरु के मुख्य कार्यकारी अधिकारी नितिन पंडित कहते हैं, “मुद्दा जमीन के गलत वर्गीकरण का भी है।”
“जैसे बंजर भूमि, जमीन का एक वर्गीकरण है। यह 1970 के दशक के बाद चलन में आया। यह शब्द भारत के औपनिवेशिक अतीत का एक अवशेष है जहां देश के कई प्राचीन घास के मैदान और झाड़ियों के क्षेत्र को बंजर घोषित कर दिया जाता है। इन्हें बंजर तो कह दिया जाता है लेकिन स्थानीय पारिस्थितिक के लिए इनका काफी महत्व होता है,” उन्होंने कहा।
भारत के राष्ट्रीय बंजर भूमि एटलस (नेशनल वेस्टलैंड एटलस) भारत के राज्यों में ऐसी ‘बंजर भूमि’ की स्थिति को सूचीबद्ध करता है। इसकी नवीनतम 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, 2008-09 से 2015-16 तक लगभग 8,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को “गैर-बंजर भूमि वर्ग” में लाया गया है।
भारत के अर्ध-शुष्क ओपन नेचुरल इकोसिस्टम का मानचित्रण करने वाले एक नए अध्ययन से पता चलता है कि भारत के मौजूदा संरक्षित क्षेत्र में पांच प्रतिशत भी ऐसे स्थान को संरक्षण नहीं मिला है। जबकि इस तरह के वन देश में 300,000 वर्ग किलोमीटर में (या10 प्रतिशत) हैं।
“भारत में ऐसे वनों पर सबसे अधिक खतरा बड़े सोलर पार्क से है,” इस अध्ययन में एक लेखक ने लिखा।
अध्ययन ने सुझाया है कि इस नक्शे से यह तय करने में मदद मिलेगी कि उस स्थान पर किसी ऊर्जा की परियोजना या अन्य विकास परियोजना लाई जाए या पेड़ लगाकर और दूसरे तरीकों से वहां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की कोशिश की जाए।
रूफटॉप सोलर की संभावना और चुनौतियां
संरक्षण के हितैशी रूपटॉप सोलर पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह देते हैं। शुरू में रूफटॉप के विकास में काफी वृद्धि दर्ज की गई थी। 2019 में इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) द्वारा भारत में रूफटॉप सोलर क्षमता पर एक रिपोर्ट के अनुसार, रूफटॉप सोलर 2012 और 2018 के बीच काफी विकास हुआ। करीब 116 प्रतिशत की दर से और इस तरह यह देश में सबसे तेजी से बढ़ने वाला अक्षय ऊर्जा का क्षेत्र था। पर बाद में इसकी गति कम हो गयी।
“हालांकि, भारत में रूफटॉप सोलर अभी बहुत शुरुआती चरण में है, लेकिन इस क्षेत्र में बहुत बड़ी संभावनाएं हैं,” टाटा पावर के एक प्रवक्ता ने कहा। यह कंपनी भारत की सबसे बड़ी बिजली कंपनियों में से एक है, जो आवासीय, वाणिज्यिक और औद्योगिक बिल्डिंग के छतों पर सोलर पैनल लगाती है। वह आगे कहते हैं कि नवाचार से इसमें और तेजी से वृद्धि हो सकती है।
“इनमें माइक्रोइनवर्टर शामिल हैं जो कम धूप में भी बिजली की अबाध सप्लाई कर सकती हैं। ऐसे इनवर्टर वहां कारगर हो सकते हैं जहां पारंपरिक रूफटॉप सोलर उतना प्रभावी नहीं है। नई तकनीक से इमारतों और अपार्टमेंट की बालकनियों के सामने सौर पैनलों को लगाने में मदद मिलेगी,” उन्होंने कहा।
हालांकि, बिजली एक ऐसा विषय है जो राज्य और केंद्र दोनों के दायरे में आता है, उन्होंने कहा।
“कोविड-19 महामारी की मार और इस क्षेत्र को अधिक तवज्जो न देने की वजह से राज्यों में रूफटॉप सोलर में आपेक्षित वृद्धि नहीं देखी गई,” उन्होंने आगे कहा।
ऊर्जा अर्थशास्त्री और आईईईएफए रिपोर्ट के सह-लेखकों में से एक, विभूति गर्ग ने बताया कि नेट बनाम ग्रॉस मीटरिंग पर नीतिगत अनिश्चितता ने बहुत भ्रम पैदा किया है। नेट मीटरिंग सौर ऊर्जा के घरेलू या वाणिज्यिक उत्पादकों को अपनी बची हुई ऊर्जा को वापस
ग्रिड में निर्यात करने की अनुमति देता है। इस बिजली का उपयोग वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) करती हैं। इसे ऊर्जा को बिजली के बिल में समायोजित किया जाता है। अगर उपभोग से अधिक ऊर्जा का उत्पादन हुआ तो निश्चित दर पर पैसा मिलने का प्रावधान होता है।
“इस नीति को सुदृठ बनाने की जरूरत है। मीटरिंग के जरिए ऊर्जा का आदान प्रदान तो होता है, लेकिन घरों की छत पर महंगे सोलर उपकरण लगाने में उपभोक्ता के लिए कोई मदद या प्रोत्साहन का प्रावधान नहीं है,” उन्होंने जोर देकर कहा।
“पर्याप्त वित्तीय विकल्पों की कमी भी एक चिंता का विषय रही है क्योंकि रूफटॉप सोलर लगाने की शुरुआती लागत अभी भी अधिक है। अगर रूफटॉप सोलर लगाने में वित्तीय सहायता की जाए तो इस योजना को बल मिलेगा,” आईईईएफए की रिपोर्ट में तर्क दिया गया है।
लेकिन पंडित इस बात पर जोर देते हैं कि रूफटॉप सोलर हमारी बड़ी परियोजनाओं की तुलना में अधिक व्यवहारिक है। “बड़े उद्योगों, गोदामों और सार्वजनिक भवनों के पास छत पर काफी स्थान है। पर हम इसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं,” उन्होंने सवाल किया।
रूफटॉप सोलर के पक्ष में नीतियां
ऊर्जा क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस बात से सहमत हैं कि रूफटॉप सोलर को बढ़ावा देने की जरूरत है। इसके लिए कई बदलाव किए जा सकते हैं। नीति में बदलाव बेहद महत्वपूर्ण है।
“जब हमने शुरुआत की, तो हमने 100 या 500 मेगावाट की कई बड़ी बड़ी परियोजनाएं देखीं। लेकिन किसी भी स्थिति में, विकेंद्रीकृत ऊर्जा जैसे रूफटॉप सोलर अधिक टिकाऊ है,” आईआईटी बॉम्बे में ऊर्जा विज्ञान और इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख रंगन बनर्जी कहते हैं। “जमीन हमेशा एक समस्या है, इसलिए बड़ी परियोजनाओं के बजाय वितरित फोटोवोल्टिक (सोलर पैनल) को अपनाना अधिक व्यावहारिक है,” उन्होंने कहा।
देबजीत पालित भी सौर ऊर्जा के विकेंद्रीकरण से सहमत हैं। उन्होंने कहा, ‘इससे ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन लॉस को कम करने के लिए जेनरेशन प्वाइंट के करीब बिजली के इस्तेमाल को बढ़ावा देना चाहिए।
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इसके अलावा, भंडारण शक्ति, बैटरी की जरूरत से तय होगा कि भविष्य में सोलर रूफटॉप कितना सफल होगा। क्योंकि उपभोक्ताओं को बिजली की आपूर्ति के लिए डिस्कॉम (बिजली आपूर्ति करने वाली कंपनी) पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा, गर्ग ने टिप्पणी की।
“इससे डिस्कॉम को दिन के केवल कुछ हिस्से के लिए ऐसे उपभोक्ताओं को बिजली की आपूर्ति के लिए बुनियादी ढांचा बनाने की जरूरत होगी जिससे लागत में कमी आएगी। लेकिन इसके लिए भारत को ‘टाइम ऑफ डे’ प्राइसिंग को लागू करने की जरूरत है ताकि निवेशकों और डेवलपर्स को सोलर रूफटॉप के साथ भारत में बैटरी लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।
हालांकि, रूफटॉप सोलर पर ध्यान केंद्रित करने का मतलब यह नहीं है कि बड़ी परियोजनाओं को पूरी तरह से बंद कर दिया जाना चाहिए। पंडित ने कहा कि बड़ी परियोजनाओं सही स्थान पर लगाया जाए सुनिश्चित किया जाना चाहिए। जैसे खदान के क्षेत्र जो पहले से खराब हो चुके हों।
“हम किसी भी तरह से सौर ऊर्जा संयंत्र का विरोध नहीं कर रहे हैं,” उन्होंने कहा।
पंडित ने विशेष रूप से वाणिज्यिक क्षेत्र और स्कूलों और सरकारी कार्यालयों जैसे सार्वजनिक भवनों में रूफटॉप सोलर को प्रोत्साहित करने पर बल दिया।
बैनर तस्वीर: उत्तराखंड में छतों पर सोलर पैनल लगाता एक कारीगर। तस्वीर- वर्षा सिंह