- झारखंड में कुछ उद्यमी आदिवासी पारपंरिक व्यंजनों को अपने रेस्टोरेंट के जरिए आम लोगों तक पहुंचाने की कवायद में लगे हैं। पारंपरिक स्वाद और नए अंदाज के साथ परोसे जा रहे इस खाने का स्वाद लोगों को काफी पसंद आ रहा है।
- ये पहल सिर्फ खाना परोसने तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि स्थानीय किसानों से जुड़कर एक नेटवर्क भी बना रही है।
- हालांकि, जानकारों का कहना है कि इन प्रयासों के बीच यह जरूरी है कि स्थानीय समुदाय ही इस भोजन के सबसे बड़े उपभोक्ता बने रहें।
झारखंड की राजधानी रांची में मार्च का पहला हफ्ता है, लेकिन पसीने से तर-बतर करने वाली गर्मी अभी से परेशान करने लगी है। 25 वर्षीय गौरव मरांडी और उनकी मां रुत कच्छप ने उसकी परवाह नहीं की। चिलचिलाती धूप से बचने के लिए उन्होंने अपने चेहरों को कपड़े से ढका और साइकिल पर सवार होकर अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट पहुंच गए। उन्होंने चिल्का रोटी (स्थानीय रोटी), साग और मछली करी का ऑर्डर दिया और अपने खाने का इंतजार करने लगे।
हजारीबाग जिले के रहने वाले मरांडी फिलहाल रांची में रहते हैं और महीने में कम से कम तीन बार इस ‘आजम एंबा’ रेस्टोरेंट में जरूर आते हैं। कांके रोड की भीड़-भाड़ से दूर यह रेस्टोरेंट एक शांत कॉलोनी में स्थित है। बाहर से देखने पर यह कच्ची छत वाले एक आधे-अधूरे मकान जैसा लगेगा। लेकिन अंदर घुसते ही एक हरा-भरा आंगन और आदिवासी जीवन की कहानियां बयां करती हुई दीवारों पर बनी पेंटिंग्स आपको हैरान कर देंगी।
दरवाजे पर खड़े एक कर्मचारी ने बड़े ही विनम्र अंदाज में मेहमानों से जूते उतारने की गुजारिश की। अंदर आते ही व्हाइटबोर्ड पर लिखा ‘जोहार’ आपका स्वागत करेगा। दरअसल यह झारखंड का पारंपरिक अभिवादन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला शब्द है। रेस्टोरेंट “झारखंड का स्वाद” कहकर अपना परिचय देता है। वहीं बोर्ड पर मेनू की लिस्ट भी है, जिसकी शुरुआत मौसमी साग-सब्जियों और फूलों से बने व्यंजनों से होती है। उस दिन, मेनू में चाकड़ झोर (कसिया टोरा का सूप), कुदरूम फूल या रोसेले (हिबिस्कस सबडेरिफा) की चटनी, बेंगा (सेंटेला एशियाटिका) की चटनी, जिरहुल फूल (इंडिगोफेरा कैसियोइड्स) के पकौड़े, लाल चावल और कई अन्य पारंपरिक व्यंजन शामिल थे। मेनू के एक हिस्से में चिल्का रोटी (चावल के आटे से बनी रोटी) और पीठा (चावल के आटे से बने और भाप में पके हुए डंपलिंग जिनमें दाल भरी होती है) का भी नाम था।
मरांडी कहते हैं, “जिस खाने के लिए हम तरसते हैं, वह और कहीं नहीं मिलता।” उनका इशारा इस बात पर है कि रांची के ज्यादातर रेस्टोरेंट में स्थानीय या पारंपरिक खाना नहीं मिलता। उनकी मां भी उनकी हां में हां मिलकार कहती है, “यह हमें अपने घर की याद दिला देता है।”
रांची में पिछले कुछ सालों में जो गिने-चुने रेस्टोरेंट खुले हैं, उनमें आजम एंबा भी है, जो झारखंड का आदिवासी खाना लोगों तक पहुंचा रहा है। रेस्टोरेंट की संस्थापक अरुणा तिर्की कहती हैं कि यह कुरुख भाषा का शब्द है, जिसका मतलब होता है “लजीज खाना”। ‘कुरुख’ उरांव समुदाय द्वारा बोली जाने वाली भाषा है और तिर्की खुद उरांव आदिवासी समुदाय से आती हैं।
आजम एंबा के साथ, रांची में मंडी एड़पा और झारखंड की राजधानी से लगभग 40 किलोमीटर दूर खूंटी में ‘द ओपन फील्ड’ भी स्थानीय चीजों से नए-नए पकवान बना रहे हैं और आदिवासी खानपान संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। खूंटी लाख उत्पादन के लिए भी मशहूर है।
‘द ओपन फील्ड’ के रोजाना के मेनू पर एक सरसरी नजर डालने पर आपको स्थानीय सामग्रियों से बने कई व्यंजन जैसे गुलगुला चटनी, दाल पीठा वगैरह मिल जाएंगे। इसके मौसमी मेनू में जिरहुल फूल चोखा (जिरहुल के फूलों के साथ मसले हुए आलू), किण्वित चावल का पेय, महुआ खीर और कई अन्य पारंपरिक पकवान शामिल हैं।
रांची के करमटोली के इसी परिसर में कपिल विनोद टोप्पो ‘मंडी एड़पा’ के साथ-साथ ‘कैफे डी आर्टे’ रेस्टोरेंट भी चलाते है, जहां कोरियाई भोजन के साथ-साथ देशी भोजन भी परोसा जाता है। वह कहते हैं, “युवा कोरियाई भोजन के लिए आते हैं, लेकिन 40 से ऊपर के लोग स्थानीय भोजन में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं।” उनके मेनू में शाकाहारी और मांसाहारी दोनो तरह के व्यंजन हैं। जिनमें अलग-अलग तरह के डम्पलिंग और रोटियां जैसे डंबू, पत्ता रोटी, सकाम पीठा और मडवा मोमो, चावल और मांस से बने पकवान जैसे सूरी भात, पटपोरा वगैरह शामिल हैं।
विशेषज्ञ इन पहलों को भारत में एक बड़े बदलाव के रूप में देख रहे हैं। नेशनल कोएलिशन फॉर नेचुरल फॉर्मिंग में सरकार की भागीदारी का समर्थन करने वाले रोहित पारख कहते हैं कि आदिवासी खानपान उत्पादन और उपभोग में हमेशा से प्राकृतिक पर्यावरण से गहराई से जुड़ा रहा है। यह रिश्ता आज भी भारत के कई इलाकों में दिखता है, चाहे वह उगाई गई फसलें हों या फिर जंगलों से मिलने वाली हरी-सब्जियों को मिलने वाली नई पहचान हो। रांची की तरह उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ जैसे अन्य राज्यो में भी रेस्टोरेंट आदिवासी खाने को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहे हैं।
नेटवर्क फॉर कंजर्विंग सेंट्रल इंडिया (एनसीसीआई) जैसी पहलों से जुड़े एक स्वतंत्र शोधकर्ता सौमिक बनर्जी ने झारखंड में आदिवासी भोजन और स्वास्थ्य का अध्ययन करते हुए 19 साल बिताए हैं। रांची के कुछ ऐसे रेस्टोरेंट का दौरा करने के बाद वे कहते हैं कि उनके प्रयास देशी व्यंजनों को फिर से लोगों के सामने लाने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। उन्होंने बताया, “शहरों में रहने वाले लोग इन व्यंजनों से अनजान थे, और यहां तक कि गांवों में लोग भूलने लगे थे, जबकि ये खाना सेहत और प्रकृति के अनुकूल है। ये रेस्टोरेंट उन्हें वापस लाने में मदद कर रहे हैं।” बनर्जी यह भी कहते हैं कि ये जगहें पारंपरिक खाने को थोड़ा नया रूप देकर पेश कर रही हैं, जैसे मेनू में मोमोज को स्थानीय स्वाद देकर शामिल करना। उनके मुताबिक, “यह स्थानीय खाने को लोकप्रिय बनाने की अच्छी रणनीति है।”
टोप्पो बताते हैं कि उन्होंने कुछ व्यंजनों में कुछ बदलाव किया है ताकि लोग उन्हें और पसंद करें। वहीं तिर्की कहती हैं कि उन्होंने सिर्फ छोटे-छोटे ही बदलाव किए हैं, जैसे कभी-कभी स्वाद बढ़ाने के लिए मक्खन का इस्तेमाल करना। द ओपन फील्ड चलाने वाली मनीषा उरांव का कहना है कि व्यंजनों को अच्छे तरीके से पेश करना जरूरी है, लेकिन परंपरा से कोई समझौता नहीं होना चाहिए।

ऐसे शुरू हुआ ये सफर
तिर्की अपनी इस पहल की शुरूआत के पीछे की वजह अपने परिवार को मानती हैं। उनके दिवंगत पिता ‘फिलिप तिर्की’ जो एक मिशनरी स्कूल में शिक्षक थे, अपने बच्चों को स्थानीय भोजन के फायदे समझाते रहते थे। हालांकि, उनका यह विचार और मजबूत तब हुआ, जब उन्होंने 2016 में झारखंड सरकार के कल्याण विभाग द्वारा रांची में आयोजित एक खानपान प्रतियोगिता में भाग लिया। उन्होंने संथाली खाना बनाया और प्रथम पुरस्कार जीता। उसके बाद, उन्हें सरकारी विभागों से ऑर्डर मिलने लगे। इस पहचान से उत्साहित होकर, उन्होंने सेंटर फॉर ट्राइबल फूड एंड क्यूजीन सेंटर की स्थापना की।
उन्होंने महसूस किया कि इसके नाम से लगता है कि वो खाने के अलावा और भी बहुत कुछ करते हैं। इसलिए 2018 में, उन्होंने इसका नाम बदलकर आजम एंबा रेस्टोरेंट कर दिया। शुरुआत में, कई आदिवासी लोग उत्सुकता से रेस्टोरेंट में आते थे। लेकिन जब मीडिया में इसके बारे में खबरें आईं और लोगों ने एक-दूसरे को बताया तो ये और मशहूर हो गया। कोरोना के बाद, उनके पति राणा रॉय ने इसके बारे में और रिसर्च किया और इसे लोकप्रिय बनाने की कोशिश की। उनका 2023 में देहांत हो गया। तिर्की बताती हैं कि पिछले साल दिसंबर में, वन विभाग के कहने पर उन्होंने गेटल्सुद डैम पर आजम एंबा की एक नई ब्रांच खोली है।
और पढ़ेंः मोटे अनाज की खेती से बदल रही ओडिशा के आदिवासी महिलाओं की जिंदगी
टोप्पो बताते हैं कि उन्हें आदिवासी खाने को बढ़ावा देने की प्रेरणा आध्यात्मिकता से मिली है। दक्षिण कोरिया में एक प्राइवेट कंपनी में काम करते हुए उन्हें वहां की समाजिक जीवन शैली और खाद्य संस्कृति ने काफी प्रभावित किया था। वह कहते हैं, “वहां रामेन बाउल बहुत लोकप्रिय हैं और मैंने महसूस किया कि ये मेरे इलाके के माड़-भात से काफी मिलता-जुलता है।”
कोविड महामारी के बाद, टोप्पो अपना खुद का खाने से जुड़ा बिजनेस शुरू करना चाहते थे। उन्होंने अरुणा तिर्की के वीडियो देखे और फैसला किया कि वे एक ऐसा रेस्टोरेंट खोलेंगे जहां आदिवासी और कोरियन खाना, दोनों परोसा जाएगा। उनका रेस्टोरेंट में फिलहाल दोनों तरह का खाना मिलता है, लेकिन अब वे रांची के 10 माइल चौक पर एक नया रेस्टोरेंट खोलने की योजना बना रहे हैं, जो मुख्य रूप से स्थानीय खाने पर केंद्रित होगा।
द ओपन फील्ड की ओरांव भी तिर्की को इसका श्रेय देती हैं और कहती हैं कि तिर्की की पहल से उन्हें आत्मविश्वास मिला। हालांकि, उनकी यात्रा 2018 में खुंटी में एक गुलाब की खेती के बिजनेस के साथ शुरू हुई थी। लोग खेत देखने आते और वहां का स्थानीय खाकर उसके मुरीद हो जाते थे। इस बिजनेस के जरिए वे किसानों के साथ जुड़ गए थे।
वह बताती हैं, “हमारे गुलाब का बिजनेस नहीं चला, लेकिन हम किसानों के साथ काम करना जारी रखना चाहते थे, इसलिए 2021 में, हमने स्थानीय भोजन को बढ़ावा देने और एक वैल्यू चेन बनाने का काम शुरू किया।”
ओरांव ने शुरुआत में 11 महिलाओं से कृषि उत्पाद लेना शुरू किया था और अब ये संख्या खुंटी और गुमला जिलों के लगभग 300 किसानों तक पहुंच गई है। जल्द ही इसके साथ और भी जिले जुड़ जाएंगे। उन्होंने समझाते हुए कहा, “लक्ष्य सिर्फ स्थानीय भोजन को बढ़ावा देना नहीं है, बल्कि एक वैल्यू चेन बनाना भी है।”
आज, उन्हें देश के अलग-अलग हिस्सों से बड़े होटलों और कार्यक्रमों से स्वदेशी व्यंजनों को प्रदर्शित करने के लिए निमंत्रण मिलते रहते हैं। उनका कहना है, “किसी भी बड़े सरकारी कार्यक्रम, जैसे मेलों में, अब आदिवासी भोजन के लिए एक खास सेक्शन होता है।” वे पिछले कुछ वर्षों के उस रुझान की ओर इशारा करती हैं, जहां स्वदेशी भोजन को बढ़ावा देने वाला एक इकोसिस्टम उभरा है। ओरांव और उनकी टीम झारखंड के आदिवासी व्यंजनों और उनके अनोखे तरीकों के दस्तावेजीकरण करने पर भी काम कर रहे हैं।

अरुणा तिर्की का सप्लाई चेन बनाने का सफर भी कुछ ऐसा ही है। शुरुआत में, वे सीधे बाजार से कच्चा माल लेती थीं। 2022 में, उन्होंने सप्लाई नेटवर्क बनाने पर ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने गुमला का दौरा किया और एक फूड फेस्टिवल का आयोजन किया, जिससे ज्यादा लोगों को उनकी पहल से जुड़ने में मदद मिली। नतीजतन, उनके पेश किए जाने वाले खाद्य पदार्थों की रेंज भी बढ़ गई। उन्होंने कहा, “आज, हम 50 मौसमी आइटम पेश करते हैं, जिनमें 20 प्रकार की हरी पत्तेदार सब्जियां और 10 प्रकार के फूल शामिल हैं, जिनमें से एक महुआ भी है।” हालांकि, वे मछली, चिकन, धनिया पत्ती और टमाटर जैसी जल्दी खराब होने वाली चीज़ों के लिए अभी भी स्थानीय बाजार पर निर्भर हैं, लेकिन ज्यादातर अन्य सामग्री स्थानीय हाट या समुदाय से सीधे ली जाती है। तिर्की अक्सर दूर-दराज के गांवों में जाकर पारंपरिक खाने की तलाश करती हैं और नए व्यंजन अपने मेनू में जोड़ती रहती हैं।
तिर्की और ओरांव के विपरीत, टोप्पो अभी भी पारंपरिक व्यंजन तैयार करने के लिए कच्चे माल के लिए बाजार पर निर्भर हैं। टोप्पो खुद कहते हैं, “सामग्रियों की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती है।”

आदिवासी खाद्य प्रणालियों को बनाए रखना जरूरी
2019 में, तिर्की एक स्लो फूड मूवमेंट में शामिल हुईं। यह वैश्विक आंदोलन अच्छे, साफ और उचित भोजन की वकालत करता है, साथ ही जैविक और सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित करने का काम करता है। वह बताती हैं कि आदिवासी खाद्य प्रणालियां स्वभाव से ही पुनर्योजी हैं यानी वो प्रकृति को खराब नहीं करते, बल्कि उसकी मदद करते हैं। वह एक पत्तेदार सब्जी का जिक्र करते हुए कहती हैं, “उदाहरण के लिए, फुटकुल को लें। इसे काटने में पौधे को पतला करना शामिल है, जो इसकी वृद्धि के लिए जरूरी है।”
और पढ़ेंः रुगड़ा: आदिवासियों के पोषण का बड़ा जरिया लेकिन बदलते मौसम से उत्पादन पर दबाव
पारख कहते हैं कि पारंपरिक खाद्य पदार्थों के प्राथमिक उपभोक्ता स्थानीय समुदाय होने चाहिए। वह सावधानी बरतने की सलाह देते हुए कहते हैं कि उन क्षेत्रों में जहां ये खाद्य पदार्थ पारंपरिक रूप से नहीं उगाए जाते, वहां इनका बहुत ज्यादा प्रचार-प्रसार न किया जाए क्योंकि इससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो सकता है। उदाहरण के तौर पर, उत्तराखंड में कुछ फसलों के अधिकतम कटाव से उनकी उपलब्धता कम हो गई है। इसलिए इस तरह की कोशिशों में सावधानी और उम्मीद दोनों रखनी चाहिए।
सभी उद्यमी अपनी पहल से जुड़े एक महत्वपूर्ण पहलू को व्यक्त करते हैं – वो है गर्व। अपने अनुभव साझा करते हुए, तिर्की कहती हैं, “पहले, यह गलतफहमी थी कि मेरी समुदाय की खान-पान की आदतें किसी संकट या गरीबी से जुड़ी हैं। लेकिन अब, यह बदल रहा है, और कई परिवार अपने पारंपरिक आहार पर गर्व कर रहे हैं और उन्हें घर पर भी पका रहे हैं।”
पारख के मुताबिक, लंबे समय से, इन खाद्य पदार्थों को “गरीबों का खाना” कहा जाता रहा है और शहरी आहार को ऊंचा दर्जा दिया गया। इस सोच को बदलने की जरूरत है, लेकिन ध्यान रहे कि आदिवासी संस्कृतियां अक्सर फसलों को समुदाय में साझा करने पर जोर देती है न कि उन्हे बेचने पर। केवल अतिरिक्त हिस्सा ही बजार में जाता है। पारख को उम्मीद है कि उद्यम और रेस्टोरेंट इन खाद्य पदार्थों के लिए उचित मूल्य दे सकते हैं, लेकिन इससे साझा करने और सामुदायिक एकजुटता की पारंपरिक अर्थव्यवस्था को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।
बनर्जी भी इसी तरह की चिंता साझा करते हैं। वह कहते हैं कि ये पहल शहरी उपभोक्ताओं के बीच जागरूकता बढ़ा रही है, लेकिन ग्रामीण समुदाय अपनी खाद्य परंपरा के पोषण और सांस्कृतिक महत्व को भूल रहे हैं। उन्होंने कहा, “अगर हम प्रचार और अत्यधिक दोहन के बीच संतुलन बना सके, तो हम इन पौष्टिक खाद्य पदार्थों को फिर से जीवित कर सकते हैं।” इसके लिए सरकार को इन खाद्य पदार्थों की खेती और संरक्षण में सक्रिय रूप से समर्थन देना होगा। उनका सुझाव है कि इन्हें एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) और मिड डे मील कार्यक्रमों में शामिल करने से जागरूकता बढ़ सकती है और बेहतर पोषण सुनिश्चित हो सकता है।

यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 12 मार्च 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: आजम एंबा रेस्टोरेंट का एक कर्मचारी पारंपरिक तरीके से ढेकी चावल (बिना पॉलिश किया हुआ भूरा चावल) तैयार कर रहा है। तस्वीर-कुंदन पांडे/मोंगाबे