- झारखंड में बारिश के दिनों में एक खास तरह का मशरूम – रुगड़ा – साल के जंगलों में पाया जाता है। यह आदिवासियों के लिए पोषण और कमाई का बड़ा जरिया है।
- बदलते मौसम, कम होती बारिश और साल के सिमटते जंगलों के चलते इसके उत्पादन पर दबाव लगातार बढ़ रहा है।
- रुगड़ा को लम्बे समय तक रखने और अन्य मशरूम की तरह इसे एक नियंत्रित माहौल में उगाने की कोई तकनीक अभी तक विकसित नहीं हो पाई है।
अगस्त महीने के शुरुआती सोमवार का दिन था। झारखण्ड के रांची जिले में साल के जंगल के किनारे बसे तेतरी गांव की रहने वाली अंजली लकड़ा (38) अचानक से पेड़ों के बीच से निकलीं। उनके सिर पर टोकरी थी और टोकरी में थे कुछ 10-20 जंगली मशरूम जिसे स्थानीय भाषा में रुगड़ा कहा जाता है। उनके चेहरे पर एक मायूसीभरी थकान थी। करीब चार घंटे जंगल की खाक छानने के बावजूद भी इन्हें इतना ही रुगड़ा मिल पाया जिसे उनका 10 लोगों परिवार बमुश्किल दो बार ही खा सकेगा।
थकी हुई अंजली बड़े उदास लहजे में कहती हैं, “इतनी ही मेहनत से कभी इतना रुगड़ा मिल जाता था कि हमलोग पूरा खाते भी थे और कुछ बेच भी आते थे।” अंजली बताती हैं, “साल 2009 में इतना रुगड़ा हुआ था कि एक घंटे में तीन से चार किलो तक रुगड़ा मिल जाता था। लेकिन अब एक किलो भी मिल जाए तो बहुत है।”
रुगड़ा जमीन के अंदर उगने वाला ऐसा मशरूम है जिसे स्थानीय लोग बड़े चाव से खाते हैं और इसे पोषण के लिहाज से बड़ा उपयोगी माना जाता है।
तेतरी से ही सटा खसीदाग गाँव भी साल के जंगल के पास ही बसा हुआ है। यहां रहने वाली एलबिना एक्का (50) पहले रुगड़ा निकालने के लिए जंगल जाती थीं लेकिन अब उन्होंने यह छोड़ दिया है। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “अब हमें रुगड़ा खरीद कर खाना पड़ता है।” वह इसकी वजह भी बताती हैं, “पहले लोग बोलते थे कि जंगल को जलाने से रुगड़ा बनता है, इसलिए अब लोग जंगल जला रहे हैं। इसके अलावा जंगल काटे जा रहे हैं और पेड़ भी कम हो रहे हैं।”
रांची के आसपास रुगड़ा पर लंबे वक्त तक काम कर चुके और वाराणसी स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ वैजिटेबल रिसर्च में प्रधान वैज्ञानिक डॉ सुदर्शन मौर्य ने मोंगाबे हिन्दी को बताया, “बदलते मौसम के अलावा जंगल में आग की घटनाएं, खास कर पतझड़ के समय में साल के बीज इकट्ठा करने के लिए साल की गिरी हुई पत्तियों को जलाना, रुगड़ा का उत्पादन कम होने के प्रमुख कारणों में से एक है।”
हालांकि रांची और इसके आसपास के बाजारों में रुगड़ा की आमद में किसी तरह की कमी नहीं दिखाई देती है। रांची के डेली मार्केट में रुगड़ा के थोक व्यापारी श्रवण कुमार साहू ने मोंगाबे हिन्दी को बताया, “रांची के बाजार में छत्तीसगढ़, ओडिशा और बंगाल से भी रुगड़ा आ रहा है। इसलिए यहां कोई कमी नहीं दिखाई दे रही। हालांकि झारखंड में उत्पादन कम हो रहा है लेकिन दूसरे राज्यों से इसकी भरपाई हो रही है।”
रुगड़ा को पुट्टु या पुटका या शाकाहारी मटन भी कहा जाता है। दरअसल, झारखंड में आदिवासी समाज के लिए रुगड़ा पोषण के अलावा जीविकोपार्जन का बड़ा साधन है। साल के जंगल के पास रहने वाले आदिवासी बारिश के मौसम में रुगड़ा को जंगल से निकालते हैं। अंजली कहती हैं, “आम तौर पर दो तरह का रुगड़ा होता है। धूप के साथ कम पानी में बनने वाला रुगड़ा मटमैला होता है। इसका ऊपर और अंदर का हिस्सा दोनों ही बहुत स्वादिष्ट होता है। वहीं ज्यादा पानी में होने वाला रुगड़ा सफेद होता है। लेकिन जब रुगड़ा खिच्चा होता है तभी स्वादिष्ट लगता है।”
जानकारों का मानना है कि रुगड़ा बनने के लिए साल और बारिश के अलावा एक खास तरह का तापमान जरूरी होता है। लेकिन मौसम में आ रहे बदलाव, कम होती बारिश, बढ़ता तापमान और घटते जंगल से रुगड़ा के उत्पादन पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है।
घटती बारिश और बढ़ता तापमान
भारत मौसम विज्ञान विभाग के राधेश्याम शर्मा और एस के कोटाल ने झारखंड में मौसम के बदलते मिजाज का गहराई से अध्ययन किया है। उनके अध्ययन के अनुसार, “झारखंड में प्रति दशक 13 मिलीमीटर की दर से मौसमी वर्षा में कमी आई है। रांची, जमशेदपुर और डाल्टनगंज के वार्षिक औसत उच्चतम तापमान में प्रति दशक की दर से क्रमश: 0.58 डिग्री सेल्सियस, 0.47 डिग्री सेल्सियस और 0.29 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई है।” अपने अध्ययन के लिए शर्मा ने 1901 से 2018 के आंकड़ों का इस्तेमाल किया है।
रायपुर स्थित इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में वरिष्ठ वैज्ञानिक हरविंदर कुमार सिंह ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “रुगड़ा बहुत ज्यादा नमी में बनता है। बारिश की कमी वाले साल में रुगड़ा का उत्पादन घट जाता है।” वो आगे बताते हैं, “दरअसल जो लोग रुगड़ा निकालते हैं, वो एक भी रुगड़ा जमीन के अंदर नहीं छोड़ते हैं। इससे फिर से रुगड़ा नहीं बन पाता है। इसलिए जब तक जंगल से इसे निकालने पर कुछ बंदिशें नहीं होंगी, तब तक इसका वेजिटेशन कवर नहीं बढ़ेगा।”
साल के जंगल और रुगड़ा का रिश्ता
रांची के डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान विभाग की प्रमुख डॉ शालिनी लाल और उनकी टीम में शामिल प्रोफेसर डॉ गीतांजलि सिंह के साथ शोधकर्ता विनीत विशाल और सोमनाथ मुंडा साल 2019 से लगातार झारखंड में रुगड़ा पर रिसर्च कर रहे हैं। इस टीम के अब तक छह पेपर प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ लाल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “साल के पेड़ विशेष रूप से नमी, घनापन, छाया, रेतीली लेटराइट मिट्टी और गिरी हुई पत्तियों से बनने वाले कार्बनिक पदार्थ प्रदान करते हैं। ये स्थितियां रुगड़ा के बनने के लिए बेहद अनुकूल हैं। लाल ने बताया कि मिट्टी के ऊपर उगने वाले जंगली मशरूम की अन्य प्रजातियों के विपरीत, रुगड़ा अकेले या गुच्छों में साल के पेड़ के नीचे मिट्टी के अंदर उगता है।”
हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि साल के जंगलों पर भी दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2020 में छपे एक रिसर्च पेपर में लिखा गया, “रांची में छोटानागपुर पठार क्षेत्र के साल जंगल सदियों से इंसानी दबाव महसूस कर रहे हैं। इंसानी बस्तियां बसाने, सड़कें बनाने और खेती के लिए साल जंगल के एक बड़े हिस्से को साफ किया गया है। कानूनी सुरक्षा के बावजूद बचे हुए जंगल भी सुरक्षित नहीं हैं। लकड़ी और जलावन के लिए अवैध कटाई, गैर-लकड़ी उत्पाद जमा करना, चराई, जंगल में आग और शिकार से खतरा बना हुआ है।” शोधकर्ताओं ने लिखा कि साल के जंगल अलग-अलग तरह की प्रजातियों की विविधता (137 प्रजातियों के पौधे) के चलते पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बहुत जरूरी हैं।
वहीं सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड में पर्यावरण विज्ञान विभाग में प्रोफेसर पूर्वी सैकिया ने रुगड़ा और साल के जंगल के बीच संबंध पर मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “साल का पत्ता बड़ा होता है। जब पत्ता पेड़ से लगा होता है, तो ये सूरज की रोशनी रोकता है। वहीं जब ये गिरता है, तो जमीन के भीतर नमी को बनाए रखता है। इसीलिए एक सीजन में जब पत्ते लगे रहते हैं, तो शेडिंग इफेक्ट होता है। जब पत्ता गिरता है, तो मल्चिंग इफेक्ट होता है। रुगड़ा बनने के लिए मिट्टी में नमी जरूरी है और साल का पेड़ बखूबी यह काम करता है।”
आगे आने वाले वर्षों में साल के जंगल की स्थिति पर सैकिया बताती हैं, “बारिश के दिनों की संख्या घटती जा रही है। ऐसे में साल के बीज से पौधे तो खूब बन रहे हैं। लेकिन छोटे पौधे के बचने की दर बहुत कम है। लेकिन किसी जंगल को लंबी अवधि के हिसाब से देखें हैं, तो उसमें हर तरह के पेड़ होने चाहिए। मतबल पुराने, नए पेड़ या फिर छोटे पौधे भी। इस तरह, साल के जंगलों में नए पौधों के बचने की दर घट रही है। इस तरह, 50-60 साल के बाद साल के जंगल घटने लगेंगे।”
उन्होंने कहा, “अगर लंबे वक्त तक बारिश नहीं होती है, तो पुराने पेड़ों को पानी मिलता रहता है क्योंकि उनकी जड़ें दूर तक और गहराई तक फैली होती हैं। लेकिन जो नए पेड़ हैं उनकी जड़ें 10-15 सेमी तक ही होती हैं। तो उन्हें पानी मिलने में दिक्कत होती है। इस तरह, आने वाले समय में रुगड़ा के उत्पादन पर भी असर पड़ सकता है क्योंकि रुगड़ा का बनना पूरी तरह साल के पेड़ पर निर्भर है।”
ऐसे बनता है रुगड़ा
रुगड़ा पर काम करन वाले जानकारों का मानना है कि रुगड़ा (अर्थस्टार) एक अलग तरह का फंगस है। झारखंड के गांवों में रहने वाली अधिकांश आबादी आजीविका के लिए मशरूम जैसे वन और गैर-वन लकड़ी उत्पादों पर निर्भर है।
डॉ लाल बताती हैं कि रुगड़ा मिट्टी की सतह के ठीक नीचे उगता है। ये जंगली मशरूम पूरी तरह पक जाने पर तारे जैसी आकृतियों में विभाजित हो जाते हैं और इसलिए इन्हें “अर्थस्टार” और “फॉल्सअर्थस्टार” नाम दिया गया है। इंडेक्स फंगोरम डेटाबेस के अनुसार गेस्ट्रम में 330-350 से अधिक प्रजातियां शामिल हैं जबकि एस्ट्रायस में अब तक 12 प्रजातियां शामिल की गई हैं।
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उनके मुताबिक झारखंड से अब तक अर्थस्टार की सिर्फ तीन प्रजातियां रिपोर्ट की गई हैं। इसमें संथाल परगना की राजमहल पहाड़ियों से मिलने वाला चंदन रुगड़ा या काला रुगड़ा (एस्ट्रायसओडोरेटस) है। वहीं पश्चिमी सिंहभूम जिले से सादा रुगड़ा (एस्ट्रायसएशियाटिक्स) और रांची जिले से जियास्ट्रमगेस्ट्रुमैफएल्बोनाइग्रम यानी इसकी संरचने तारे की तरह होती है।
लाल ने मोंगाबे-हिंदी को बताया, “ये तीनों ही जंगली मशरूम साल के पेड़ों की जड़ों के साथ एक तरह के रेशे का जाल (एक्टोमाइकोराइज़ा) बनाते हैं। पहले यह माना जाता था कि झारखंड में मिलने वाली ये सभी प्रजातियां लाइकोपेरडॉन (पफबॉल की आकृति) प्रजाति की हैं। हालांकि, डीएनए बारकोडिंग और आणविक फ़ाइलोजेनेटिक अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट रूप से तीन अलग-अलग प्रजातियों में बांटी गई हैं। गेस्ट्रम का आकार तारे जैसा होता है। वहीं लाइकोपर्डन पफबॉल जैसा होता है। जबकि एस्ट्रायस, फॉल्स स्टार जैसी आकृति में होता है यानी बाहरी आवरण फटने के बाद स्टार की जैसी आकृति बनती है।
वहीं डॉ मौर्या ने बताया, “बिजली कड़कने और बारिश के चलते वातावरण का नाइट्रोजन पानी में घुलकर साल के जंगल के समृद्ध कार्बन सोर्स के साथ C:N अनुपात बनाता है। यह रुगड़ा के रेशे के विकास में अहम भूमिका अदा कता है और रुगड़ा बहुत तेजी से बनने लगता है।”
अन्य मशरूम से विपरीत रुगड़ा को अब तक कल्चर नहीं किया जा सका है। यानी कृत्रिम माहौल में इसे उगाया नहीं जा सका है। इस पर लाल कहती हैं, “रुगड़ा के बीज नहीं होते हैं लेकिन पाउडर जैसा बेसिडियोस्पोर होता है। ये जब जमीन में नमी पर पड़ता है तो रेशा (माइसीलियम) बनाता है। फिर माइसीलियम बन जाने पर यही रुगड़ा बनाता है।”
रुगड़ा से जुड़ी कई तरह के तकनीकी अध्ययनों के बावजूद इसके बनने और विकास के बारे में जानकारी बहुत कम है। डॉ लाल के मुताबिक, “फंगस विज्ञानियों ने हाल के दशकों में कई तरह के मशरूम को कृत्रिम तरीके से उगाया है लेकिन रुगड़ा के साथ ऐसा संभव नहीं हो पाया है।”
लेकिन रांची के ही सेंट जेवियर्स कॉलेज के रजिस्ट्रार प्रभात केनेडी सोरेंग ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “इमने इसे कंट्रोल्ड माहौल में उगाने की कोशिश की। हमें इसमें सफलता भी मिली। लेकिन इसमें अभी आगे और काम करने की आवश्यकता है, ताकि पोषण की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके।” इसी विषय पर कॉलेज के वनपस्ति विज्ञान विभाग के प्रमुख अजय कुमार श्रीवास्तव और प्रभात केनेडी का रिसर्च पेपर भी प्रकाशित हो चुका है।
कुपोषण और रुगड़ा
वैसे तो झारखंड में कुपोषण घट रहा है। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद झारखंड में आज भी यह बड़ी समस्या है। नवजात शिशुओं में यह तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में जानकारों का मानना है कि रुगड़ा इस समस्या से पार पाने में कारगर हथियार साबित हो सकता है क्योंकि इसमें पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं। एक रिसर्च के मुताबिक रुगड़ा में प्रोटीन के साथ साथ और भी जरूरी पोषक तत्व पाए जाते हैं। मोंगाबे के साथ साझा किए गए अपने रिसर्च पेपर में शोधकर्ताओं ने लिखा कि रुगड़ा को आहार में सप्लीमेंट के तौर पर किया जा सकता है। साथ ही कई तरह की बीमारियों के इलाज में इनका इस्तेमाल किया जा सकता है।
आदिवासियों के बीच इस मशरूम की महत्ता पर जोर देते हुए साहित्य अकादमी के सदस्य और लेखक महादेव टोप्पो कहते हैं, “आदिवासी रुगड़ा को बड़े चाव से खाते हैं। तभी बेचते हैं जब उनकी जरूरत पूरी हो जाती है।”
बैनर तस्वीरः विभिन्न प्रकार के रुगड़ा मशरूम। इनमें से कुछ को वैज्ञानिक कृत्रिम माहौल में उगाने का प्रयास कर रहे हैं। तस्वीर- विशेष प्रबंध