- आंध्र प्रदेश के किसान एकल-फसल से अब कई तरह की फसलों की ओर मुड़ रहे हैं। माइक्रो सिंचाई से पानी की खपत भी कम हुई है।
- बाजार के दबाव और दोषपूर्ण सरकारी प्रोत्साहनों के कारण नकदी फसलों का बोलबाला बना हुआ है।
- भूजल उपयोग को नियंत्रित करने के नए तरीके, जैसे वॉटर बजटिंग और बोरवेल समूह, इस समस्या को हल करने में मददगार साबित हो सकते हैं।
शिवशंकर नक्कला को वह सुबह याद है, जब कई साल पहले उनके पिता ने उन्हें घर छोड़ने के लिए कहा था। दक्षिण भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश के सूखाग्रस्त कादिरी पुलकुंटा गांव में उन्होंने उस साल रागी और मूंगफली की फसल उगाई थी, लेकिन अनियमित बारिश और गिरते भूजल स्तर के कारण उनके खेत बर्बाद हो गए।
नक्कला ने याद करते हुए कहा, “मेरे गांव में न पानी था, न काम। हम कुछ भी नहीं उगा सकते थे। इसलिए, मैं बेंगलुरु चला गया और एक ऐसी नौकरी करने लगा जो मुझे पसंद नहीं थी।”
23 साल की उम्र में बिजनेस में मास्टर डिग्री लेकर, वह बेमन से पड़ोसी राज्य कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु जाने वाली बस में सवार हो गए। उन्होंने तपती धूप वाले खेतों को छोड़कर गोदाम की चमकती फ्लोरोसेंट रोशनी के बीच काम करना शुरू कर दिया। पैकेज पर लेबल लगाने और ट्रक में सामान भरना, बस यही उनकी दिनचर्या थी। घर आने पर हर बार वही गहरी होती निराशा उनके सामने होती- फटी हुई जमीन, खाली कुएं और माता-पिता के थके हुए चेहरे।
लेकिन कुछ साल बाद, लगभग रातोंरात गांव में पानी लौट आया। नक्कला के कुएं लबालब भर गए और उनके खेतों की मिट्टी नरम हो गई।

खतरे से वापसी
भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता है। 2021 में भारत ने 251 अरब घन मीटर (बीसीएम) भूजल निकाला—जो अमेरिका और चीन, दोनों के संयुक्त उपयोग से भी ज्यादा है। इस भारी खपत के बावजूद, आंध्र प्रदेश जैसे सूखाग्रस्त राज्यों भूजल की कमी को कम करने के लिए सक्रिय रूप से समाधान तलाश रहे हैं।
2023 में आंध्र प्रदेश में लगभग 7.48 बीसीएम भूजल निकाला गया, जो दक्षिण भारत के सबसे बड़े भूजल उपयोगकर्ता तमिलनाडु के उपयोग का लगभग का आधा है। इसमें से, 6.44 बीसीएम पानी किसानों ने सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया है। इसे आप ऐसे समझ सकते हैं- मान लीजिए, आपके पास 10 बोतल पानी है, तो आंध्र प्रदेश में लगभग 8.5 बोतलें खेती में इस्तेमाल हो जाती हैं और बाकी बचे हिस्से का उपयोग पीने या घरेलू उपयोग जैसी अन्य जरूरतों के लिए किया जाता है।
एक दशक से भी पहले, आंध्र प्रदेश के किसानों ने एकल फसली खेती से नाता तोड़ लिया था। माइक्रो सिंचाई तकनीक का प्रसार हुआ और खेतों में पानी की खपत काफी कम हो गई।
लेकिन मोंगाबे इंडिया की छह महीने की जांच से पता चलता है कि ये सुधार भूजल दोहन को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। फसलों की विविधता ने कुछ हद तक मदद की है, लेकिन बाजार के दबाव और गलत सरकारी प्रोत्साहनों की वजह से नकदी फसलें (कैश क्रॉप्स) अभी भी हावी हैं। पानी बचाने की रणनीतियां अक्सर ऐसी खेती को समर्थन कर देती हैं जो और ज्यादा पानी मांगती है। इस बीच, भूजल तक बिना नियंत्रण पहुंच असमानताएं बढ़ा रही है, जिससे कई किसान नुकसान में हैं।
आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में पारिस्थितिक खेती को बढ़ावा देने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था, एक्सियन फ्रेटर्ना इकोलॉजी सेंटर के यारागोंडा वेंकट मल्लारेड्डी ने कहा, “अब ज्यादातर किसानों के पास भूजल तक पहुंच है, लेकिन इसके बढ़ते उपयोग से एक ऐसा चक्र बन रहा है जहां संसाधन दबाव में बना हुआ है।” उन्होंने आगे बताया, “यह कुछ-कुछ ऐसा है जैसे तेजी से पैसे निकालने के लिए बैंक खाते में ज्यादा पैसा जमा करना।”
स्रोत: केंद्रीय भूजल बोर्ड, जल संसाधन मंत्रालय, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग। द्वारा- अनुपमा चंद्रशेखरन/मोंगाबे
पानी बचाने के लिए पानी के बहाव को धीमा करना
राज्य के दो सबसे शुष्क जिले (अनंतपुर और श्री सत्य साईं) में बोरवेल बहुत गहराई तक खुदे हुए हैं। ये संकरे और गहरे कुएं जमीन के अंदर भूजल तक पहुंचने के लिए बनाए जाते हैं। नक्कला के खेत में कुआं जमीन में 670 फीट तक गहरा था। जहां तक नक्कला को याद है, गांव के हर किसान परिवार के लिए पानी पाना उनकी अपनी जिम्मेदारी थी। लेकिन अब यह सोच धीरे-धीरे बदलने लगी है।
2018 में बेंगलुरु में अपने गोदाम की नौकरी से घर लौटते समय, नक्काला ने स्थानीय अधिकारियों को एक सूखे गांव के तालाब के आसपास झाड़ियां साफ करते देखा। यह काम सामान्य सफाई जैसा ही लग रहा था। दरअसल यह आंध्र प्रदेश की जलग्रहण परियोजनाओं का हिस्सा था—एक ऐसी पहल जो 1986 से चली आ रही थी, जिसका उद्देश्य भूजल पुनर्भरण के लिए तटबंध, जलधारा अवरोधक और छोटे तालाब बनाना था।
जैविक कृषि समूह एक्सियन फ्रेटर्ना के मल्लारेड्डी ने बताया, “इन योजनाओं का मकसद बहते पानी की गति को धीमा करना था ताकि वह जमीन में रिस सके।”
अनंतपुर के कलेक्टर विनोद कुमार वासुदेव 2016 में शुरू हुई इस यात्रा में आए एक अहम मोड़ को याद करते हैं। जिला प्रशासन ने शासन के हर स्तर को शामिल करते हुए एक अभियान शुरू किया था।
कुमार ने बताया, ” राजस्व, तालुका और गांव स्तर के सभी अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने के लिए विशिष्ट लक्ष्य दिए गए थे कि पानी अपने क्षेत्र में ही रुका रहे। परिवारों और संस्थानों के मुखियाओं को वर्षा जल को वहीं इकट्ठा करने के तरीके खोजने का काम सौंपा गया था जहां वह गिरता है।”
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की मदद से, ग्रामीणों ने छतों पर जल संचयन प्रणालियां, सोख्ता गड्ढे, बोरवेल पुनर्भरण संरचनाएं बनाने और खेतों की मेड़ पर पेड़ लगाने का काम शुरू किया।
इसी योजना के तहत, कादिरी पुलकुंटा के निवासियों ने नक्कला के प्लॉट के बगल की जमीन से कंटीली झाड़ियां और झाड़-झंखाड हटाने का काम शुरू किया। उनके खेत से दिखाई देने वाली एक पहाड़ी के पीछे एक नहर थी, जिसमें पास के बांध से पानी आता था।
जैसे ही खबर फैली, एक बड़ी और शोर मचाती भीड़ पहाड़ी पर इकट्ठी हो गई, ताकि वे एक खुदाई मशीन को गरजते और मिट्टी को खोदते हुए देख सकें। नहर का पानी बहकर नक्कला के खेत के बगल के साफ किए गए इलाके में भरने लगा। लोगों ने तालियां बजाकर और सीटी मारकर अपनी खुशी का इजहार किया था।

नक्कला ने कहा, “जब मैंने टैंक में पानी भरते देखा तो मुझे लगा, मानो मेरी प्यास बुझ रही है।” फिर उन्होंने टैंक में छलांग लगाई और तैरना शुरू कर दिया। “पानी बहुत ठंडा था और शरीर में खुजली होने लगी, लेकिन उस समय मेरे लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी।”
जैसे-जैसे टैंक का पानी जमीन में समाता गया और उनके बोरवेल तक पहुंचा, भूजल स्तर – जो कभी पहले काफी नीचे था- 90 फीट तक बढ़ गया।
उसी साल, नक्कला ने बिना इस्तीफा दिए अपना सामान पैक किया और बेंगलुरु में चार साल की कड़ी मेहनत को पीछे छोड़कर अपने खेत की ओर लौट आने के लिए बस में सवार हो गए।
जड़ों तक पानी पहुंचाने वाले छोटे पाइपों से पानी की खपत घटी
अनंतपुर और श्री सत्य साईं में लंबे काले पाइप खेतों से होकर गुज़रते हैं और फिर आंगन में लपेट कर रख दिए जाते हैं। आंध्र प्रदेश माइक्रो इरिगेशन प्रोजेक्ट (APMIP) ने लंबे समय से ड्रिप और स्प्रिंकलर सिस्टम को भारी छूट पर, यहां तक कि छोटे किसानों के लिए फ्री में उपलब्ध कराया है, जिससे खेती में बड़ा बदलाव आया है।
एपीएमआईपी के प्रोजेक्ट डायरेक्टर रघुनाथ रेड्डी ने कहा, “ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई ने पारंपरिक खेती के तरीकों को पूरी तरह से बदल दिया है।” इस परियोजना ने संकरी पाइपों के जरिए सीधे पौधों की जड़ों तक पानी पहुंचाने को बढ़ावा दिया, जिससे पानी की बर्बादी कम हुई है। “फ्लड इरिगेशन में, पानी पूरे खेत में फैल जाता है, जिससे बहुत सारा पानी बर्बाद हो जाता है। ड्रिप इरिगेशन जड़ों तक सही मात्रा में पानी पहुंचाता है, जिससे 30% पानी की बचत होती है।”
आंध्र प्रदेश के कई किसान अब माइक्रो सिंचाई को सामान्य तरीका मान चुके हैं और हर बूंद पानी का अधिकतम उपयोग कर रहे हैं। 2015 से राज्य में 930.000 हेक्टेयर जमीन माइक्रो सिंचाई के तहत आ चुकी है — जो श्री सत्य साई जिले के आकार के बराबर है। हर 10 हेक्टेयर में से 3 हेक्टेयर पर माइक्रो सिंचाई अपनाए जाने की दर के साथ, आंध्र प्रदेश 10 में एक हेक्टेयर के राष्ट्रीय औसत से आगे निकल गया है। अनंतपुर जिला, राज्य की कुल माइक्रो सिंचाई वाली जमीन का लगभग पांचवां हिस्सा होने के साथ, इस मामले में सबसे आगे है।
2022 में श्री सत्य साई को अनंतपुर से अलग करने के बाद भी ऐतिहासिक तुलना के लिए दोनों जिलों का एक साथ आंकड़ा लिया गया है। कोविड महामारी के दौरान माइक्रो सिंचाई के तहत आने वाले अतिरिक्त क्षेत्रों में गिरावट आई है और अब तक यह स्थिति महामारी से पहले के स्तर पर नहीं पहुंच पाई है।
एपीएमआईपी के रेड्डी ने कहा, “बाढ़ सिंचाई एक एकड़ (लगभग आधा हेक्टेयर) के लिए पर्याप्त है, लेकिन ड्रिप सिंचाई से किसान पानी बचाते हुए दो या उससे अधिक एकड़ में खेती कर सकते हैं।”
रामणामूर्ति जोन्ना के खेत के किनारे बड़ी-बड़ी नीली प्लास्टिक की पिपियां रखी हैं, जिनमें तीखी गंध वाला जैविक खाद भरा है। उनके खेत में केले के पेड़ पके गुच्छों के भार से झुके हुए हैं। जमीन पर, पतले, पुआल जैसे पाइप खेत में एक-दूसरे से सटे हुए हैं, जो पेड़ों तक यह उर्वरक पहुंचा रहे हैं।
आंध्र प्रदेश के सूखाग्रस्त अनंतपुर जिले में नौ एकड़ जमीन के मालिक 58 वर्षीय जोन्ना जैसे किसानों ने माइक्रो सिंचाई की सुविधा के कारण रागी और एकल-फसल वाली मूंगफली की खेती छोड़कर उच्च आय वाली फलों की फसलों की ओर रुख कर लिया है। उनके लिए यह बदलाव बहुत जरूरी था।
2019 में, भीषण सूखे के कारण जोन्ना के पास मूंगफली की फसल, काम या पीने का पानी नहीं था। किसान ने कर्ज लिया था। उन्हें बैंक की किश्तें टालनी पड़ीं और अपनी पत्नी का सोना भी गिरवी रख दिया।
उधर, पिछले साल आंध्र प्रदेश सरकार ने भी माइक्रो सिंचाई पाइपों पर सब्सिडी देने पर विचार करने की अपनी मंशा जता दी। साथ ही, बागवानी विभाग ने फल किसानों के लिए ऐसी सहायता योजनाएं शुरू कीं जो खाद और कीटनाशक के खर्च का लगभग 40-50% कवर करती हैं। इन्हीं योजनाओं का फायदा उठाते हुए जोन्ना ने बागवानी की ओर रुख किया है।
आज, जोन्ना के खेत में केले के पेड़ हवा में धीरे-धीरे झूम रहे हैं, तो वहीं पतले काले माइक्रो सिंचाई पाइप पूरे खेत में फैले हुए हैं।
रामनमूर्ति जोन्ना ने अपने खेत में खड़े होकर कहा “हालांकि रागी को कम पानी की जरूरत होती है और यह चार महीनों में उग जाता है, फिर भी यह केले से होने वाली आय के बराबर नहीं है।” उनके खेत में केले के पेड़ एक-दूसरे के काफी करीब लगाए गए हैं ताकि तेज धूप और सूखे की वजह से पानी का नुकसान कम हो।
केले की खेती में विविधता लाने और सूक्ष्म सिंचाई में पूरी तरह से निवेश करने के बावजूद, पिछले साल सूखे ने भारी नुकसान पहुंचाया। केले के बड़े पत्ते पीले पड़ गए और फल छोटे हो गए। अब जोन्ना सोच में हैं— कि अगला मौसम क्या लेकर आएगा?

जल संरक्षण के लिए दोधारी तलवार
1999 से ही अपनी जमीन का विस्तार करने और माइक्रो सिंचाई का उपयोग करके फसलों में विविधता लाने के अपने प्रयासों के बावजूद, जोन्ना के पास 2023 के सूखे के दौरान टैंकरों पर निर्भर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था—25 टैंकर, जिनमें से प्रत्येक में 5,000 लीटर पानी होता है। ये प्रयास नाकाफी साबित हुए और उनका सबसे बड़ा डर सच साबित हुआ।
जोन्ना कहते हैं, “पिछले साल की खराब पैदावर से केलों की गुणवत्ता को प्रभावित हुई और खरीदारों ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई।” जोन्ना ने अपने छह लाख रुपये के नुकसान के बारे में बताते हुए कहा, “मुझे चिंता रहती है—अगर बारिश नहीं हुई तो क्या होगा? अगर मैं बहुत ज्यादा भूजल निकाल लिया तो क्या होगा? केले को बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है, लेकिन यह फसल हमें जिंदा रखती है।”
यह चिंता आंध्र प्रदेश भर में कई लोगों की है, जहां माइक्रो सिंचाई और बाजार का दबाव अनजाने में ही बहुमूल्य जल संसाधनों के संरक्षण के प्रयासों को कमजोर कर रहा है। किसान ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने और सूखे के लिए बफर बनाने के लिए, पानी उपलब्ध होते ही इसका इस्तेमाल करने लगते हैं।
उदाहरण के लिए, मक्का को ही लें। सरकार की 2021 की इथेनॉल नीति ने जैव ईंधन सामग्री के रूप में मक्का के बाजार में तेजी ला दी है, जिससे किसान रागी जैसी पानी बचाने वाली फसलों के बजाय ज्यादा पानी की जरूरत वाले विकल्पों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। हालांकि मक्का ज्यादा आर्थिक मुनाफा देती है, लेकिन इसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है: मक्का को रागी की तुलना में काफी ज्यादा पानी की जरूरत होती है।
पिछले दस सालों में, अनंतपुर में मक्के का उत्पादन लगभग दोगुना हो गया है, 2017 से 2023 तक पैदावार बढ़कर 4.39 टन प्रति हेक्टेयर हो गई, जबकि रागी की खेती में लगभग 40% की गिरावट आई है।
कदिरी पुलकुंटा के युवा किसान नक्कला ने अच्छा मुनाफा देखकर रागी की बजाय मक्के की खेती शुरू कर दी। पिछले नवंबर में, उन्होंने अपनी मक्के की फसल 50,000 रुपये में बेचकर अच्छा मुनाफा कमाया।
अनंतपुर की संयुक्त कृषि निदेशक उमा माहेश्वरी ने कहा, “मक्के की खेती अक्सर भूजल की बेहतर पहुंच वाले इलाकों में की जाती है।”
यह बदलाव एक बढ़ते चलन का हिस्सा है जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। जैसे-जैसे ज्यादा किसान माइक्रो सिंचाई पर निर्भर होकर मक्के की खेती की ओर रुख कर रहे हैं, भूजल पर दबाव बढ़ रहा है – जबकि खाद्य सुरक्षा में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।
अपने खेत से सटे पानी से लबालब भरे टैंक के पास खड़े नक्कला ने कहा, “रागी को कम पानी की जरूरत होती है, लेकिन अब जब मेरे पास पर्याप्त पानी है, तो मैं व्यावसायिक फसलों की ओर रुख कर रहा हूं।”
नक्कला जैसे किसान इस क्षेत्र के कई लोगों की मानसिकता को दर्शाते हैं। आर्थिक प्रोत्साहन से प्रेरित होकर, वे पानी की अधिक खपत वाली फसलें उगा रहे हैं और इससे अधिक लाभ कमाने के लिए माइक्रो सिंचाई पर निर्भर रहते हैं—भले ही जल संसाधन कम होते जा रहे हों।
“अगर मेरे पास बोरवेल है, तो मुझे पानी आसानी से मिल जाएगा और इसलिए मैं धान भी उगा सकता हूं,” वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क (WASSAN) के निदेशक रवींद्र अदुसुमिल्ली ने कहा। यह एक निजी मामला है और इसपर कोई नियंत्रण नहीं होता।
नक्कला भी अब ठीक यही कर रहे हैं—अपनी जमीन को सर्दियों के चावल के लिए तैयार कर रहे हैं। मक्के की खेती के दौरान वह खेत में पाइप पर निर्भर रहते है। वहीं अब उसके ठीक उलट इस मौसम में वह अपने खेत की सीमा से लगी विशाल झील पर निर्भर करते हुए, धान के खेतों को पानी से भरने की योजना बना रहे हैं। यह सावधानीपूर्वक योजना बनाने से कहीं ज्यादा एक लापरवाह नजरिए की ओर, एक बड़ा बदलाव है।

वाटर बजटिंग और बोरवेल समूह
पानी की कमी के कारण खेती छोड़ने पर मजबूर हुए नक्कला, सरकारी उपायों जैसे कि नहरों में बाढ़ का पानी भेजना और माइक्रो सिंचाई सब्सिडी की मदद से फिर से खेती करने लगे। लेकिन जल्दी लाभ पाने की कोशिश में वे भूजल के दीर्घकालिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज कर रहे हैं। क्या जल बजटिंग और बोरवेल समूह (कलेक्टिव) से यह समस्या स्थायी रूप से सुलझ सकती है?
अनंतपुर में भूजल विभाग के एक पूर्व अधिकारी पुरुषोत्तम रेड्डी ने कहा, “वर्षों के हस्तक्षेप के बावजूद, भूजल निष्कर्षण और पुनर्भरण दरों के बीच लगातार असंतुलन के कारण हम जल स्तर को स्थिर नहीं कर पाए हैं।”
भूजल तक अनियमित पहुंच असमानता पैदा करती है, जहां अमीर किसान कई बोरवेल लगाकर अन्य किसानों की तुलना में अधिक पानी लेते हैं, वहीं छोटे किसानों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
कुछ किसान, जैसे फल उत्पादक जोन्ना, दूसरे क्षेत्रों से पानी लाते हैं, जिससे अन्य जगहों पर भूजल और कम हो जाता है। हालांकि पिछले साल अच्छी बारिश के कारण जोन्ना ने टैंकर किराए पर नहीं लिए। लेकिन उन्होंने अधिक पानी की आवश्यकता वाले केले की खेती जारी रखी, इस उम्मीद में कि बेहतर उपज होगी ताकि वह पश्चिम एशिया को निर्यात कर अपने नुकसान की भरपाई कर सके।
रेड्डी ने कहा, “अच्छी बारिश वाले साल में, पानी का दोहन कम हो सकता है, लेकिन कम बारिश वाले साल में, यह अपेक्षित स्तर से ज्यादा हो जाता है।”
पानी की कमी को दूर करने के लिए, एक्सियन फ्रेटर्ना के मल्लारेड्डी जल बजट के विचार का समर्थन करते हैं। यह कुछ हद तक घरेलू बजट को मैनेज करने जैसा है – इससे किसानों को यह पता लगाने में मदद मिलती है कि उनके पास कितना पानी है और वे इसका कैसे समझदारी से इस्तेमाल करें, जिससे पानी खत्म होने या बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने से बचा जा सकेगा।
मल्लारेड्डी ने बताया, “हम देखते हैं कि कितना भूजल उपलब्ध है, बारिश कितनी हुई, टैंकों में कितना पानी है, कितने खेत हैं और उनमें कौन सी फसलें उग रही हैं। हम पानी का बजट बनाते हैं और किसानों से इस बारे में चर्चा करते हैं।”
बोरवेल समूह (कलेक्टिव) एक और उपाय हो सकता है। भूजल एक साझा संसाधन है और इसका जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल इसे खत्म कर सकता है। बोरवेल समूह किसानों को एक साझा जल प्रणाली साझा करने में मदद कर सकते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि कोई भी अपने उचित हिस्से से ज्यादा पानी न ले। अनंतपुर जिले में ऐसे समूह पहले से ही काम कर रहे हैं।
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वीएएसएसएएन के अदुसुमिल्ली ने कहा, “किसान अपने बोरवेल को एक साझा ग्रिड से जोड़ते हैं, जिससे पानी का समान वितरण होता है।” गांव के तालाबों जैसी पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणालियों का भी लाभ उठाया जा सकता है। दक्षिण भारत में, तमिलनाडु में एरिस और आंध्र प्रदेश में चेरुवु नामक इन प्राचीन प्रणालियों में वर्षा जल को संग्रहित करने के लिए आपस में जुड़े तालाबों का इस्तेमाल किया जाता था, जिससे यह ढलान से नीचे बहकर भूजल के स्तर को बढ़ाता था। इन तालाबों को स्वच्छ रखने से वर्षा जल का स्तर बढ़ता है, इनकी देखरेख और पानी को बनाए रखना अब पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है।
मल्लारेड्डी ने कहा, “हम बस यही उम्मीद कर सकते हैं कि ज्यादा से ज्यादा किसान इन तरीकों को अपनाएंगे। किसान समझते हैं कि हालात किस ओर जा रहे हैं, लेकिन वे ज्यादा पानी की खपत वाली फसलें उगाने के लिए मजबूर हैं क्योंकि वे कम समय में ज्यादा कमाना चाहते हैं, चाहे भविष्य में कुछ भी हो।”
नक्काला की किस्मत भले ही चमक उठी हो, लेकिन अगर वह अपने खेतों में पानी भरकर भूजल को सोख लेंगे, तो उनकी फसलों के फिर से सूखने का खतरा है। फिलहाल, तो वह हर बूंद का इस्तेमाल करते रहेंगे—जब तक कि पानी पहले की तरह सूख न जाए।
अध्ययन का तरीका: आंध्र प्रदेश में पानी के इस्तेमाल और खेती के तरीकों को समझने के लिए लेखक ने पिछले दस साल से भी ज्यादा समय के अलग-अलग आंकड़ों का अध्ययन किया। भूजल के आंकड़े जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय के केंद्रीय भूजल बोर्ड की वार्षिक रिपोर्टों से लिए गए हैं। आंध्र प्रदेश में भूजल के इस्तेमाल में कमी की जांच के लिए, 2015 से अगस्त 2024 के बीच माइक्रो सिंचाई के आंकड़े प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना पोर्टल से निकाले गए। यह समझने के लिए कि कौन सी फसलें जल-प्रधान हैं, उन्होंने यूनेस्को-आईएचई की 2010 की एक रिपोर्ट का हवाला दिया, जो फसलों के “ब्लू वॉटर फुटप्रिंट” पर आधारित है। इस रिपोर्ट में प्रति टन उत्पादित फसल के लिए बारिश (ग्रीन वॉटर ब्लूप्रिंट) और सतही या भूजल संसाधनों (ब्लू वॉटर फुटप्रिंट) से प्राप्त जल की मात्रा का राज्यवार अनुमान दिया गया है।
मक्का और रागी की खेती का क्षेत्र, उत्पादन और पैदावार से जुड़े आंकड़े कृषि मंत्रालय के आर्थिक और सांख्यिकी निदेशालय (डीईएस) से लिए गए। जबकि संबंधित सिंचाई आंकड़े आंध्र प्रदेश में डीईएस की कृषि रिपोर्ट से प्राप्त हुए हैं।
2022 में अनंतपुर ज़िले से श्री सत्य साई जिले के अलग होने के बाद भी, ऐतिहासिक तुलना के लिए दोनों को साथ-साथ लिया गया है।
डेटा क्लीनिंग और विश्लेषण सभी गूगल शीट्स पर किए गए हैं और इन्हें यहां देखा जा सकता है।
इस रिपोर्ट को तैयार करने में पर्यावरण डेटा पत्रकारिता अकादमी का सहयोग मिला है। यह इंटरन्यूज़ के अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क और थिबी का एक प्रोग्राम है।
यह स्टोरी लेखक और इंटरन्यूज़ व थिबी के मार्गदर्शकों ईवा कॉन्स्टान्तरस, स्वेता डागा और आइका रे के सहयोग से तैयार की गई है।
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 9 अप्रैल 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: खेतों में काम करते हुए किसान। भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता है। वर्ष 2023 में भारत ने 241.3 अरब घन मीटर भूजल निकाला — जो अमेरिका और चीन के संयुक्त उपयोग से भी अधिक है। तस्वीर: अनुपमा चंद्रशेखरन।