- सारनाथ स्थित कछुआ प्रजनन केंद्र को पिछले दो साल से फंड नहीं मिला है। इसके चलते केंद्र का पूरा काम उधारी से चल रहा है।
- अधिकारियों के मुताबिक कछुआ वन्यजीव विहार को भदौही-इलाहाबाद-मिर्जापुर ले जाने के चलते भ्रम की स्थिति के कारण ऐसी स्थिति बनी।
- कछुआ विहार को दूसरी जगह ले जाने के पीछे कछुओं की संख्या में आई कमी को बताया जा रहा है लेकिन इसके पीछे अंतर्देशीय जलमार्ग भी बड़ी वजह मानी जा रही है।
वाराणसी जिले के सारनाथ स्थिति कछुआ प्रजनन केंद्र में मौजूद करीब 900 कछुओं का दाना-पानी उधारी पर चल रहा है। सुनने में यह बात थोड़ी अजीब लगती है लेकिन वास्तविकता यही है। क्योंकि सरकार की तरफ से पिछले दो साल से इन कछुओं के लिए जरूरी फंड ही नहीं आया है।
देश में कछुओं का अस्तित्व संकट में है। इससे निपटने के लिए कछुआ प्रजनन केंद्र बना जहां बड़ी संख्या में कछुओं का प्रजनन किया जाता है और फिर उन्हें नदी में छोड़ दिया जाता है। 1989 में अस्तित्व में आए इस प्रजनन केंद्र के लिए सरकार की तरफ से न 2020 में कोई फंड आया और न ही 2021 में। अधिकारियों का कहना है कि भ्रम की वजह से ऐसा हो रहा है।
यह भ्रम कछुआ सेंचुरी की वजह से हो रहा है। पिछले तीस साल से वाराणसी में स्थिति कछुआ सेंचुरी को सरकार ने 2019 में वहां से हटाने का निर्णय ले लिया। लेकिन यह स्पष्ट नहीं हुआ कि सेंचुरी के वाराणसी से हटने के बाद कछुआ प्रजनन केंद्र भी हटेगा या वहीं रहेगा।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए प्रभागीय वनाधिकारी, काशी वन्यजीव प्रभाग दिनेश कुमार सिंह ने बताया, “कछुआ सेंचुरी के वाराणसी से मिर्जापुर शिफ्ट होने की वजह से विभाग में भ्रम की स्थिति बन गई थी। ऐसे में वर्ष 2020 में वित्त नहीं आया था। पर अब स्पष्ट है कि सेंचुरी शिफ्ट होने के बाद भी सारनाथ स्थित कछुआ प्रजनन केंद्र को शिफ्ट नहीं किया जाएगा।” इसकी पुष्टि डीएफओ (सामाजिक वानिकीय वन प्रभाग, वाराणसी) महावीर कौजलगी भी करते हैं, यहां कछुओं से जुड़ी बहुत सारी व्यवस्था पहले से ही हैं, ऐसे में इसको हटाने का विचार नहीं है।
दिनेश कुमार सिंह ने बताया, “विभागीय बैठक में फंड नहीं आने की बात उठाई गई थी। लेकिन भ्रम की स्थिति पैदा होने के कारण अब तक बजट अवमुक्त नहीं हो पाया है। आचार संहिता लगने और चुनावी व्यस्तता के कारण बजट नहीं मिल सका है। जैसे ही फाइल सेंक्शन होनी शुरू होंगी, टर्टल ब्रीडिंग सेंटर का मद भी जारी होने की संभावना है।“
बीते दो साल में हालात यहां तक पहुंच गए कि गंगा नदी के कुदरती सफाईकर्मी कछुओं का पेट उधारी के भोजन से भर रहा है। फिलहाल सेंटर में बतागुर ढोगोका प्रजाति के 909 कछुए हैं। इनमें 712 बच्चे और 197 बड़े हैं। वनरक्षक निशिकांत सोनकर की मानें तो सभी कछुओं पर प्रतिदिन 600 से 700 रुपए खर्च किए जाते हैं। इस रकम से कछुओं के लिए चारा (लौकी, गाजर, मूली, सेव, खीरा, ककड़ी, केल्शियम) आदि की व्यवस्था की जाती है।
इस केंद्र का सालाना बजट करीब पांच लाख रुपए है। लेकिन दो वर्ष से धनराशि नहीं मिलने से कर्मचारी भी परेशान हैं।
गंगा एक्शन प्लान के तहत 1989 में कछुआ सेंचुरी या विहार की स्थापना वाराणसी में हुई थी। तब यह देश में ताजे पानी में पहला कछुआ वन्यजीव विहार था। वाराणसी के मालवीय ब्रिज राजघाट से रामनगर किला तक लगभग सात किलोमीटर के दायरे में यह सेंचुरी बनाई गई थी।
गंगा नदी में बनी इस सेंचुरी में कछुओं को छोड़ने के लिए सारनाथ में प्रजनन केंद्र बनाया गया। स्थानीय अधिकारियों के अनुसार यहां हर साल कछुओं के करीब दो हजार अंडे चंबल और यमुना नदी से लाए जाते हैं। इनमें से करीब आधे अंडों से ही बच्चे निकलते हैं। यहां एक साल तक इन्हें संरक्षित करने के बाद गंगा में छोड़ दिया जाता है।
साल 2019 में कछुआ सेंचुरी को वाराणसी से हटाकर भदौही-इलाहाबाद-मिर्जापुर ले जाने का सैद्धांतिक फैसला हुआ। इसकी अधिसूचना साल 2020 में जारी हुई। इसके बाद से ही कछुआ प्रजनन केंद्र के बुरे दिन शुरू हो गए।
क्या जलमार्ग परियोजना की भेंट चढ़ गयी कछुआ सेंचुरी?
वाराणसी स्थित कछुआ वन्यजीव विहार को भदौही-इलाहाबाद-मिर्जापुर ले जाने की कई वजहें बतायीं जा रही हैं। सरकार की ओर से जारी आदेश में मानवीय गतिविधियों के साथ-साथ कई अन्य चीजों को इसका कारण बताया गया। एक तरह से देखा जाए तो यह सही भी लगता है। एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 30 वर्षों में लगभग 40 हजार कछुए गंगा में छोड़े गए। लेकिन साल 2018 में वाराणसी के वन विभाग की ओर से कराई गई गणना में सिर्फ 11 कछुओं की पुष्टि हुई। भारतीय वन्यजीव संस्थान से जुड़े एक सूत्र ने बताया, “संस्थान ने भारत सरकार के कहने पर ‘रैपिड इकोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ गंगा’ कराया था। इसमें ही कछुओं की संख्या नगण्य मिलने पर वाराणसी स्थित कछुआ सेंचुरी को डिनोटिफाइड किया गया।“ इसी सर्वे में कछुओं की संख्या नगण्य मिली थी।
सरकार की ओर से भी कछुआ विहार को दूसरी जगह ले जाने के लिए यही दलील दी गयी। लेकिन इसे केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजना से भी जोड़कर देखा जा रहा है।
अंतर्देशीय वाटरवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया (आईडब्ल्यूएआई) के वाराणसी के असिस्टेंट जनरल मैनेजर अरविंद कुमार ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “आईडब्ल्यूएआई प्रोजेक्ट के वाराणसी आने पर मानव व्यवधान बढ़ना संभव लग रहा था। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर की वजह से भी गंगा में मानव व्यवधान प्रबल होने की संभावना पूर्व से ही थी। ऐसे में सरकार के सर्वे में जब कछुओं की संख्या में कमी देखी गई तो वाराणसी कछुआ सेंचुरी को डिनोटिफाइड करके मिर्जापुर, इलाहाबाद और भदोही के बीच 30 किलोमीटर के इलाके में सेंचुरी को नोटिफाइड कर दिया गया।”
उन्होंने कहा, “जिस इलाके में नयी कछुआ सेंचुरी नोटिफाइड हुई है वहां से बड़े जहाज नहीं गुजरेंगे। बड़े जहाज सिर्फ वाराणसी से पश्चिम बंगाल और आगे के लिए चलेंगे। इलाहाबाद, मिर्जापुर और भदोही मार्ग पर छोटे जहाज ही चलेंगे जो नियम के दायरे में होगा।”
राष्ट्रीय जलमार्ग-1 वाराणसी से होकर पश्चिम बंगाल के हल्दिया तक जाता है। इसकी लंबाई 1,620 किलोमीटर है। इसमें वाराणसी के अलावा साहिबगंज और हल्दिया में मल्टी मॉडल रीवर वाटर टर्मिनल यानी बंदरगाह बनाए गए हैं जहां बड़े जहाज लंगर डालते हैं। वाराणसी में बंदरगाह रामनगर में है। कछुआ वन्य विहार से इसकी दूरी लगभग 2.3 किलोमीटर है। मल्टी-मोडल ट्रांसपोर्ट का पर्यावरण पर असर के आकलन को लेकर बनाई गई मसौदा रिपोर्ट के लिए कई लोगों से बात की गई थी। काशी वन मंडल कछुआ वन्यजीव विहार के तत्कालीन डीएफओ अजय राय ने पांच आपत्तियां दर्ज कराई थी। इसमें उन्होंने कहा था कि
जहाजों के नियमित संचालन से कछुओं पर असर पड़ेगा। जल परिवहन से होने वाला शोर कछुओं को प्रभावित करेगा। निर्माण के दौरान जमने वाली गाद जलीय जंतुओं के लिए परेशानी खड़ी करेगी। जहाजों से तेल रिसने की आशंका गंगा नदी की गुणवत्ता को दूषित करेगी। ठोस कचरे का प्रबंधन वैज्ञानिक तरीके से किया जाना चाहिए।
हालांकि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के महामना मालवीय गंगा शोध केंद्र के अध्यक्ष व प्रोफेसर बीडी त्रिपाठी कहते हैं, “वाराणसी में बने कछुआ सेंचुरी की लोकेशन ठीक नहीं था। बहुत ज्यादा व्यवधान क्षेत्र होने के कारण यहां कछुए बच नहीं पा रहे थे। दूसरी ओर बालू का जमाव गंगा की दाहिनी और तेजी से बढ़ रहा था। इससे जगह-जगह बालू के टीले बन गए थे। ऐसे में गंगा की धारा का दबाव घाटों पर अधिक हो रहा था। कटान बढ़ने के कारण ही कछुआ सेंचुरी को यहां से डिनोटिफाइड करके प्रयागराज, मिर्जापुर और भदोही की सीमा में ले जाया गया।“
इन आपत्तियों को देखते हुए परियोजना से पड़ने वाले बुरे असर को कम करने की कोशिश भी की गई। राष्ट्रीय जलमार्ग-1 के लिए तैयार पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्टों में कहा गया है कि परियोजना के असर से गंगा की वनस्पति और जलीय जीवों को बचाने के लिए तय किया गया है कि कछुआ वन्यजीव विहार से हर घंटे एक या दो जहाज की गुजरेंगे। जहाजों की गति भी हर घंटे पांच किलोमीटर होगी। रिपोर्ट में कहा गया कि इस गति पर 110-140 डेसिबल (डीबी) शोर पैदा होगा। जबकि कछुओं के व्यवहार में बदलाव के लिए शोर का स्तर 150 डीबी है जो जहाजों द्वारा उत्पन्न शोर से अधिक है। रिपोर्ट में आगे लिखा गया कि इसलिए कछुओं की व्यवहार प्रतिक्रियाओं पर प्रभाव नगण्य होने का अनुमान है।
वाराणसी के आबोहवा से विमुख हो चले थे कछुए
भारतीय वन्यजीव संस्थान के रिसर्चर गौरा चंद्र दास बताते हैं, “वर्ष 2018 में भारतीय वन्यजीव संस्थान ने वाराणसी के राजघाट से रामनगर तक कुल 7 किलोमीटर के दायरे में लगभग एक महीने तक कछुओं की गणना की थी। इस दौरान सिर्फ 11 कछुए ही पाए गए। इसकी तुलना में आसपास के इलाकों में अधिक कछुए मिले। इन इलाकों में चंद्रावती, ढकवा, सरसोल और सुजाबाद शामिल हैं। उन्होंने कहा कि कछुआ सेंचुरी में कछुआ के साथ-साथ विभिन्न प्रजाति की मछलियां, डॉल्फिन, उद्बिलाव और प्रवासी पक्षी भी आसानी से सरवाइव कर लेते हैं।
उन्होंने बताया कि वाराणसी कछुआ सेंचुरी में मानवीय व्यवधान और नाव के इंजन के वाइब्रेशन से पानी में जो कंपन और आवाज होती है, वह भी कछुओं के यहां से हटने का बड़ा कारण है। दास के मुताबिक हवा की तुलना में पानी में आवाज 10 गुना अधिक सुनाई देती है। कछुए शांतिप्रिय होते हैं इस कारण वह इन इलाकों को ही छोड़ देते हैं।
भारतीय वन्य जीव संस्थान से ही जुड़े रिसर्चर आशीष पांडा बताते हैं कि पिछले 30 सालों में गंगा के भीतर 40 हज़ार से अधिक मांसाहारी और शाकाहारी कछुए छोड़े गए हैं। उन्होंने कहा कि गंगा में कछुओं की अधिकांश प्रजातियों की आबादी में गिरावट की प्रवृत्ति देखी गई है। प्राकृतिक आवास में विघटन का मुख्य कारण रेत का खनन और नदी में खेती है। इससे कछुओं को धूप सेंकने और अंडा देने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं मिल पाता। इसके अलावा जल प्रदूषण और नदियों पर बांध का निर्माण भी कछुओं के लिए हानिकारक है।
मुश्किल में है कछुए
पांडा के मुताबिक गंगा में कुल 13 प्रकार के कछुए पाए जाते हैं। इनमें से 10 प्रजातियां संकटग्रस्त है। जबकि तीन प्रजाति विलुप्त प्राय है। कछुओं के 13 में से 10 प्रजाति भारतीय वन्यजीव अधिनियम 1972 शेड्यूल वन के तहत शामिल है। यानी इस प्रजाति के कछुओं को छूने मात्र से भी कई धाराओं में जेल हो सकती है। भारत में जितनी भी नदियां हैं वहां मानव व्यवधान बढ़ने से कछुओं की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इसी कारण अंडे भी कम होते जा रहे हैं।
मछली के जाल में कछुओं का पकड़ में आना सामान्य बात है। ऐसे कछुए अधिकतर मछली खाकर अपना जीवन यापन करते हैं और मछली के साथ जाल में फंस जाते हैं।
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इन कछुओं की बड़े पैमाने पर तस्करी भी होती है। उत्तर भारत से कछुओं को उत्तर पूर्वी भारत और उत्तर पूर्वी देशों में बड़ी मात्रा में भेजा जाता है। चीन, मंगोलिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, वर्मा समेत कई देशों में कछुओं की तस्करी अधिक मात्रा में होती है।
पिछले नौ साल में सिर्फ वाराणसी पुलिस ने 7,000 से अधिक कछुए जब्त किये हैं। वन रक्षक निशिकांत सोनकर के मुताबिक, “समय-समय पर पुलिस द्वारा कछुओं की बरामदगी कर यहां सुपुर्द किया जाता है। इनकी देखभाल और इलाज करने के पश्चात वन विभाग उन्हें अनुमति के साथ गंगा में छोड़ देता है।“ उन्होंने कहा कि पिछले कई वर्षों में पुलिस द्वारा जो कछुए टर्टल ब्रीडिंग सेंटर को सुपुर्द किए गए हैं उनके आंकड़े भी यहां मौजूद हैं।
बैनर तस्वीरः वाराणसी के सारनाथ स्थिति कछुआ प्रजनन केंद्र। यहां ऐसे टैंक में करीब 900 कछुए मौजूद हैं। तस्वीर- चंदन पांडेय