- ओलिव रिडले कछुए अरिबाडा (अंडे देने का समय) का मौसम शुरू होने के साथ ही अंडे देने के लिए बड़ी संख्या में ओडिशा तट की ओर जाने लगे हैं।
- कछुए नई जगहों पर अकेले भी अंडे दे रहे हैं और इस तरफ संरक्षणवादियों का ध्यान गया है। इससे भी उम्मीदें बढ़ी हैं।
- ऑलिव रिडले के प्रजनन करने के तरीके खतरे में हैं। इसलिए, जानकार मछली पकड़ने के टिकाऊ तरीकों और संरक्षण की कोशिशों में स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं।
दक्षिण भारतीय राज्य केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम में अरब सागर क्रिसमस के बाद की ठंडी रातों में अक्सर शांत रहता है। तारों से जगमगाती रात में रेतीला तट चमकता है। इन्हीं रातों में समुद्री कछुए अंडे देने के लिए तट पर आते हैं।
आठ फरवरी को जैसे प्रकृति प्रेमियों की दुआओं ने असर दिखाया। इस दिन एक अकेला ओलिव रिडले कछुआ थुंबा इक्वेटोरियल रॉकेट लॉन्चिंग स्टेशन के पास बसे गांव वेली के तट पर पहुंचा। यहां उसने 126 अंडे दिए। मछुआरे से संरक्षणवादी बने अजीत शांगुमुखम कहते हैं, “तीन स्थानीय लड़कों की नजर कछुए और अंडों पर गई।”
उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “अंडों को लेकर कुछ मतभेद भी उभरे। कुछ लोग इन्हें खाना चाहते थे, तो कुछ पुलिस स्टेशन ले जाना चाहते थे। हालांकि, ये लड़के अंडों को समुद्र तट पर ही संरक्षित करने में कामयाब रहे। अब वे उन्हें आवारा कुत्तों और ऊंची लहरों के खतरे से दूर सुरक्षित जगह पर रख रहे हैं।“
संरक्षणवादी समूह वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के साथ काम करने वाले अजीत ने पिछले साल ओलिव रिडले कछुआ के 81 अंडों को बचाने की कोशिश की थी। उन्होंने यह काम घरेलू हवाई अड्डे के पास अपने पैतृक गांव शांगुमुखम के गंभीर कटाव वाले तटों पर अस्थायी बाड़ में किया था। बदकिस्मती से, उन्हें सफलता नहीं मिली। अजीत बताते हैं, “बारिश से अंडे खराब हो गए थे, क्योंकि मौसम के हिसाब से अंडे देर से दिए गए थे।” कछुआ सात अप्रैल को आया था और अंडा सेने की 60-दिन अवधि बीतने से पहले मानसून आ चुका था।
वैसे, तिरुअनंतपुरम तट पचास हजार मछुआरों का घर भी है। अब यह जगह संरक्षणवादियों की नजर में आ रही है। यहां युवा तट पर सैर, गोताखोरी और पक्षियों को देखने जैसी गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं। यहां समुद्री कछुओं द्वारा अंडा देने के दुर्लभ उदाहरण इन युवा उत्साही लोगों की दिलचस्पी बढ़ाते हैं।

इस इलाके के तटवर्ती गांवों के लोगों को वह समय भी याद है जब समुद्री कछुए यहां नियमित तौर पर अंडा देने आते थे। लेकिन अब वे शायद रॉकेट स्टेशन के पास वाले तट जैसे एकांत समुद्री किनारों पर ही आते हैं।
तिरुवनंतपुरम शहर के उत्तरी छोर पर पुथुकुरिची गांव के 60 वर्षीय सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक एलोयसियस गोमेज याद करते हैं, “जब मैं बच्चा था, तो हर साल एक या कुछ कछुए आते थे, जिनके खोल (ऑलिव रिडली) पर सफेद रेखा होती थी। वे उस गड्ढे में छिप जाते थे जहां हम सूखी मछलियां रखते थे या फिर नारियल के पेड़ों के नीचे अपना बसेरा बना लेते थे। कछुओ के बच्चे वापस रेंगते हुए समुद्र में चले जाते थे।” “वे अचानक से गायब हो गए, लेकिन कोई तीन साल पहले उन्हें फिर से देखा गया।”
वहीं छह किलोमीटर दक्षिण में मछुआरे डेविडसन एंथनी एडिमा (40) को समुद्र में उन्हें देखना बहुत पसंद है। वे कहते हैं, “वे किनारे पर या बहती हुई लकड़ी की छाया में तैरते हैं, लेकिन कभी तट पर नहीं आते।”
तिरुवनंतपुरम के दक्षिणी हिस्सों में भी मछुआरे उस समय को याद करते हैं जब कछुए यहां अंडे देने आते थे। पोझियूर गांव के 70 साल के मछुआरे मरियान्नी मियालपिल्लई याद करते हैं, “वे झुंड में आते थे, बसेरा बनाते थे, अंडे देते थे और चले जाते थे।”
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के महासागर और तट कार्यक्रम (Oceans and Coasts Programme) के शोधकर्ता अल बादुश बताते हैं कि केरल के तटों पर अंडे देने को एकांत में ऐसा करना माना जाता है। इसका मतलब है कि वे समूहों में अंडे नहीं देते हैं। वे कहते हैं, “कछुए कभी-कभार आते हैं और बसेरा बनाते हैं।” उन्होंने आगे कहा, “केरल एकाध बसेरा बनाने वाली जगह है। वहीं तमिलनाडु के पूर्वी तट पर बसेरों की सामान्य संख्या पाई जाती है और ओडिशा में बड़े पैमाने पर ऐसा किया जाता है।”
सामूहिक अंडे देने देने की दुलर्भ घटना
साल 2025 में बड़े पैमाने पर अंडे देने का मौसम शुरू हो गया है। इसे अरिबाडा के नाम से जाना जाता है। स्पेनिश भाषा में इसका मतलब है आगमन। संरक्षणवादी और स्थानीय समुदाय हजारों मादा समुद्री कछुओं का स्वागत करने के लिए तैयार हो रहे हैं। इनमें कछुओं की लेदरबैक (डर्मोचेलिस कोरिएसी), ग्रीन (चेलोनिया मायडास), हॉक्सबिल (एरेटमोचेलिस इम्ब्रिकेटा), लॉगरहेड (कैरेटा कैरेटा) और समूह के सबसे छोटे और सबसे ज्यादा तादाद में पाए जाने वाले ऑलिव रिडले (लेपिडोचेलिस ओलिवेसिया) शामिल हैं।
जैतून के हरे रंग जैसे खोल की वजह से इन्हें ओलिव रिडले नाम दिया गया है। इन्हें हिंद महासागर, प्रशांत और अटलांकि महासागर का गर्म पानी भाता है। इनका मुख्य भोजन जेलीफिश, झींगा, घोंघे, केकड़े और मछली के अंडे हैं। संरक्षणवादियों का अनुमान है कि एक हजार बच्चों में से सिर्फ एक ही व्यस्क होने तक जिंदा रह पाता है। बाकी कछुओं का गीदड़, पक्षियां, केकड़े, आवारा कुत्ते जैसे जीव-जंतु शिकार कर लेते हैं। ट्राउलिंग जैसी मछली पकड़ने की गतिविधि भी इनके असमय मौत का कारण है।
चूंकि, एक मादा 80 से 120 तक अंडे देती है। कभी-कभी वे एक मौसम में दो बार भी अंडे देती हैं जिससे बच्चों के बचे रहने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए, ज्यादा मृत्यु दर के बावजूद संतुलन बना रहता है।
अंडे से बाहर आने के बाद छोटे-छोटे कछुए समुद्र के नीले पानी में चले जाते हैं। वे लंबी दूरी तय करते हैं और बाद में फिर अपने जन्म की जगह पर वापस आते हैं। इस तरह यह चक्र पूरा होता है।

ओलिव रिडले के अरिबाडा भी बहुत कम हैं। इनमें से ज्यादातर मेक्सिको और मध्य अमेरिका के प्रशांत तट और भारत के पूर्वी तट पर हैं। इसके विपरीत, अकेले में अंडा देने वाले समुद्र तट उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, हर महाद्वीप पर और कई द्वीपों में बंटे हुए हैं।
भारत में ओडिशा के गहिरमाथा, रुशिकुल्या और देवी नंदा के मुहाने ओलिव रिडले के सबसे बड़े प्रजनन स्थल हैं। इस साल ओडिशा के गंजाम जिले के रुशिकुल्या तट पर साढ़े छह लाख से ज्यादा ओलिव रिडले कछुए बड़े पैमाने पर अंडे देने के लिए आए हैं।
तमिलनाडु के कुड्डालोर के तट पर अंडे देने की एक और जगह पर मछुआरों का एक समूह कछुओं और उनके अंडों की सुरक्षा के लिए काम करता है। इस बीच, चेन्नई में जनवरी और फरवरी में लगभग एक हजार ओलिव रिडले की मौत से चर्चा शुरू हो गई। इस बहस ने सरकार को कार्रवाई करने के लिए प्रेरित किया है। मंगलुरु के समुद्र तटों पर करीब दो दशकों के अंतराल के बाद अंडे देने का एक और मामला ऐसा करने की कुछ पुरानी और व्यापक जगहों के फिर से इस काम में आने का संकेत देते हैं।
रहस्यमयी सफर
ओलिव रिडले भोजन की खोज में कई रास्तों पर आते-जाते हैं। इनमें समुद्र और खुले महासागर शामिल हैं। घूमने और किसी भी परिस्थिति में ढल जाने की उनकी क्षमता शायद उन्हें बदलते माहौल में बचे रहने में मदद करती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि समुद्री कछुओं की सभी प्रजातियों में ओलिव रिडले की तादाद सबसे ज्यादा है।
वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी-इंडिया के समुद्री कार्यक्रम के वरिष्ठ वैज्ञानिक अनंत पांडे कहते हैं, “ओलिव रिडले कभी-कभी बड़े समूहों में समुद्र तट के पास संभोग करते हैं और मादा प्रजनन के लिए तट पर आती हैं। वह कहते हैं,“अभी भी हम निश्चित तौर पर यह नहीं जानते हैं कि वे अंडा देने के बाद कहां जाती हैं, लेकिन उन्हें तैरकर लंबी दूरी तय करने के लिए जाना जाता है। भारत के पूर्वी तट से ओलिव रिडले कछुओं को श्रीलंका के तट और भारत के पश्चिमी तक उनके पहुंचने की बात सामने आई है।
रुशिकुल्या और गहिरमाथा में साल 2023 में किए गए अध्ययन से पता चला कि कछुओं के अंडे देने पर कई कारकों का असर होता है। इनमें चांद की अवस्था, ज्वार चक्र, बारिश, हवा की स्थितियां और तापमान शामिल है। दोनों जगहों पर अरिबाडा ठंड के महीनों में हुआ, खास तौर पर तेज दक्षिणी हवाओं के बाद या इससे मिलती-जुलती परिस्थितियों में।
कछुओं पर खतरा
तिरुअनंतपुरम के दक्षिणी छोर पर पोझियूर गांव में समुद्र में बह गए घरों के मलबे के बीच बैठे गांव के लोग उन दिनों को याद करते हैं जब कछुए तट पर आते थे। उन्हें कछुओं की करी और भूने हुए कछुओं के खून का स्वाद अब भी याद है। इसे औषधीय महत्व वाला खाना माना जाता था। वहां मौजूद रहे गोमेज याद करते हैं, “कुछ लोग अंडे से स्टू बनाते थे और आवाज के लिए खोल को फोड़ते थे।”अजीत तटीय पानी में मृत पाए गए कछुओं की कहानियां सुनाते हैं जिनके गले में रस्सियां बंधी होती थी।
समुद्री कछुए भी इसी तरह के खतरे से दो-चार होते हैं। ट्राउल की जाल और फेंकी गई घोस्ट गियर अतिरिक्त खतरे पैदा करते हैं। भारत के सिर्फ ओडिशा में ही, ट्राउलर करीब दस हजार कछुओं को मार देते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन, प्लास्टिक प्रदूषण और तटों के विकास से भी कछुओं की आबादी पर असर पड़ता है।
पांडे कहते हैं, “ पारंपरिक हुक और लाइन गियर की जगह तट के पास लगाए जाने वाले ट्रॉल जाल ही कछुओं को फंसाते हैं।” जाल में फंसे कछुओं को बाहर निकालने वाले उपकरण कछुओं को भागने में मदद करते हैं, लेकिन मछुआरे अक्सर उनका इस्तेमाल करने से बचते हैं, क्योंकि ये उपकरण बड़ी मछलियों को भी भगा देते देते हैं। पांडे सुझाव देते हैं, “डिजाइनरों, मछुआरों और संरक्षणवादियों को इन उपकरणों को फिर से डिजाइन करने के लिए आपस में सहयोग करना चाहिए।” वे कहते हैं, “अंडे देने वाली जगहों की सुरक्षा, मछली पकड़ने और कछुओं के व्यापार पर प्रतिबंध जैसी संरक्षण कोशिशों ने कछुओं की मौत कम करने में मदद की है।”

लोगों की भागीदारी
भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के पारिस्थितिकी अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर कार्तिक शंकर बताते हैं कि कछुओं की मौत नई घटना नहीं है। ऑलिव रिडले द्वारा एकांत जगहों पर प्रजनन की बढ़ती प्रवृत्ति शायद लंबी अवधि की संरक्षण कोशिशों का नतीजा है।
उनका सुझाव है कि अगर मामला ऐसा है, तो कभी-कभी होने वाली कछुओं की मौत से बचने के लिए कठोर और खास संरक्षण उपायों की जरूरत नहीं है। वह कहते हैं,“बेहतर यह है कि मछली पकड़ने के टिकाऊ तरीकों और स्थानीय लोगों की भागीदारी को तटीय संरक्षण के साथ लाया जाए।”
चेन्नई के तट पर 1980 के दशक में छात्र के तौर पर संरक्षण कोशिशों को आगे बढ़ाने वाले शंकर सफलता की दो कहानियां सामने रखते हैं। चेन्नई में छात्रों का समुद्री कछुआ संरक्षण नेटवर्क है जो 1988 से स्थानीय लोगों भागीदारी से अंडा देने की जगहों का प्रबंधन और उनका संरक्षण कर रहा है। केरल के कोट्टापुझा मुहाने में मैंग्रोव को बहाल करते हुए कछुओं के अंडों की रक्षा करने वाले मछुआरे। इसके विपरीत, ओडिशा और अन्य क्षेत्रों में कछुओं के संरक्षण को अक्सर स्थानीय विरोध का सामना करना पड़ता है, जहां मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगाए गए हैं।
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हालांकि, शंकर का कहना है कि पारंपरिक संरक्षणवादी तरीका 20 सालों में विकसित नहीं हुआ है, लेकिन उन्हें नई स्थानीय पहलों में उम्मीद नजर आती है।
जैसा कि अजीत तिरुवनंतपुरम में तटीय संरक्षणवादी युवाओं की नीति को परिभाषित करते हैं, “सिर्फ सख्त संरक्षण से काम नहीं चलेगा। सफलता तब मिलेगी, जब हम संरक्षण उपायों को मछली पकड़ने के टिकाऊ तरीकों और जागरूकता बढ़ाने के साथ जोड़ेंगे, जिससे यह पक्का हो कि कछुए और मछुआरे दोनों फल-फूल सकें।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 26 फरवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में ऑलिव रिडले कछुआ। 2025 के सामूहिक प्रजनन के मौसम की शुरुआत के साथ, अलग-अलग प्रजातियों की हजारों मादा भारत के समुद्र तट पर आने वाली हैं। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए अनिरनॉय की तस्वीर।