- 2025 सतत विकास रिपोर्ट में भारत 167 देशों में 99वें पायदान पर है। यह रिपोर्ट के दस साल के इतिहास में भारत का सबसे अच्छा प्रदर्शन है।
- हालांकि बिजली, खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन और स्वच्छता तक पहुंच बेहतर हुई है, फिर भी पानी की कमी और कोयले पर निर्भरता टिकाऊ प्रगति में अभी भी बाधा है।
- जलवायु से जुड़ी कार्रवाई, स्वच्छ ऊर्जा और शहरी प्रदूषण में कमी सहित पर्यावरण संबंधी बड़े लक्ष्यों में प्रगति या तो वैसी ही बनी हुई है या खराब हो रही है।
- जानकार चेतावनी देते हैं कि संसाधनों को टिकाऊ बनाने और इन्हें लागू करने पर ज्यादा ध्यान दिए बिना, शायद भारत 2030 के महत्वपूर्ण विकास लक्ष्यों हासिल नहीं कर पाए।
भारत पहली बार सालाना सतत विकास रिपोर्ट में शीर्ष 100 देशों में शामिल हुआ है। यह रिपोर्ट 17 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की प्रगति का आकलन करती है। 2025 की रिपोर्ट में भारत 167 देशों में 99वें पायदान पर है। भारत 2024 में 109वें और 2023 में 112वें पायदान पर था। हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि पर्यावरण से जुड़े लक्ष्यों को लेकर स्थिरता (सस्टेनेबिलिटी) की चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं।
इस साल की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत के सतत विकास (एसडीजी) के सिर्फ एक-तिहाई लक्ष्य ही “हासिल किए जा सकते हैं।” वहीं अन्य लक्ष्यों पर प्रगति सीमित हुई है और कुछ लक्ष्यों में स्थिति खराब हो रही है। इन लक्ष्यों को 2030 तक हासिल किया जाना है।
भारत सतत विकास के 17 लक्ष्यों में से दो को पूरी तरह हासिल करने के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। ये लक्ष्य गरीबी उन्मूलन (एसडीजी 1) और गैर-बराबरी में कमी (एसडीजी 10) में कमी है। अन्य लक्ष्यों जैसे भुखमरी खत्म करना (एसडीजी 2), उद्योग, नवाचार और बुनियादी ढांचा (एसडीजी 9), टिकाऊ शहर और समुदाय (एसडीजी 11), जिम्मेदारी के साथ उपभोग और उत्पादन (एसडीजी 12) और भूमि पर जीवन (एसडीजी 15) में प्रगति रुकी हुई है। अन्य लक्ष्य जैसे कि किफायती और स्वच्छ ऊर्जा (एसडीजी 7) और पानी के नीचे जीवन (एसडीजी 14) में सामान्य सुधार दिखाई दे रहा है।
सबसे चिंताजनक स्थिति जलवायु कार्रवाई (एसडीजी 13) को लेकर है, जो बिगड़ती प्रवृत्ति को दिखाता है। यह दिखाता है कि जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों से निपटने के लिए भारत की कोशिशों में सुधार नहीं हो रहा है। इसमें मिले अंक संकेत देते हैं कि नीतिगत बदलाव और मजबूती से धरातल पर उतारे बिना, भारत एसडीजी लक्ष्यों को पाने के 20230 के लक्ष्य से चूक सकता है।
यह सालाना रिपोर्ट 2016 से जारी की जा रही है। इसे संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क (एसडीएसएन) की ओर से तैयार किया जाता है, जो सतत विकास लक्ष्यों पर कार्रवाई करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव के तहत काम करता है।
पानी का संकट और कोयला
राष्ट्रीय आंकड़े बेहतर तस्वीर पेश करते हैं। भारत लगभग सब तक बिजली पहुंचाने, रसोई के लिए स्वच्छ ईंधन और सुरक्षित स्वच्छता का दावा करता है। उदाहरण के लिए, 80% ग्रामीण परिवारों के पास अब नल से जल की सुविधा है। बिजली की पहुंच शत-प्रतिशत है और 85% लोग खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल करते हैं।
फिर भी वैश्विक आकलन में सतर्कता बरती गई है। 2025 की रिपोर्ट में साफ पानी और स्वच्छता (एसडीजी 6) के मामले में भारत के प्रदर्शन में सिर्फ “मामूली सुधार” बताया गया है, जिसमें मीठे पानी का बहुत ज्यादा दोहन और पानी की अधिक खपत वाले सामान के आयात के छिपे हुए नुकसान का हवाला दिया गया है।

बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय (बीबीएयू) में पृथ्वी एवं पर्यावरण विज्ञान विद्यालय (एसईईएस) के प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता बताते हैं कि “हमने पानी को फिर से इस्तेमाल करने में ज्यादा प्रगति नहीं की है।,” यानी देश जितना पानी निकालता है, उतना उद्योगों द्वारा दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है और कुल मिलाकर, मीठे पानी का दोहन बढ़ता ही जा रहा है। वह चेतावनी देते हैं कि भारत को संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल पर ध्यान केंद्रित करना होगा। वे कहते हैं, “कोई भी संसाधन के विवेकपूर्ण इस्तेमाल की बात नहीं कर रहा है। आपके मीठे पानी को खत्म किया जा रहा है और उसे उसी अवस्था में प्रकृति को वापस नहीं लौटाया जा रहा है जिस अवस्था में आपने उसे लिया था।” यह संकेत देते हुए कि देश को यह सोचना होगा कि उद्योगों द्वारा पानी का इस्तेमाल करने के बाद उसका क्या होता है।
दत्ता कहते हैं कि औद्योगिक विकास अक्सर उन क्षेत्रों में केंद्रित होता है जहां पहले से ही पानी की कमी है, इसलिए नीति बनाते समय यह पक्का किया जाना चाहिए कि इस्तेमाल के बाद पानी को फिर से उपयोग करने लायक बनाया जाए, खासकर बिजली संयंत्रों जैसी बड़ी जगहों पर। वे ऐसे नियमों का सुझाव देते हैं जो उद्योगों को कूलिंग और अन्य जरूरतों के लिए साफ किए गए गंदे पानी का इस्तेमाल करने के लिए बाध्य करें। लेकिन मौजूदा गति के हिसाब से वह चेतावनी देते हैं, “हम 2030 में सतत विकास लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएंगे।”
किफायती और स्वच्छ ऊर्जा (एसडीजी 7) की दिशा में भारत की प्रगति भी कुछ ऐसी ही तस्वीर पेश करती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इसमें मामूली सुधार हो रहा है, लेकिन यह लक्ष्य हासिल करने के लिए पर्याप्त नहीं है। बिजली की पहुंच लगभग सर्वव्यापी है और नवीन ऊर्जा क्षमता का तेजी से विस्तार हो रहा है, फिर भी भारत की ऊर्जा जरूरतों में अभी भी कोयले का ही बोलबाला है और इससे कार्बन उत्सर्जन ज्यादा हो रहा है। हरित ऊर्जा की ओर तेजी से कदम बढ़ाए बिना यह लक्ष्य पटरी से उतर जाएगा।
चिंतन रिसर्च फाउंडेशन के जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा परिवर्तन केंद्र के केंद्र प्रमुख देबजीत पालित कहते हैं, “हमने लगभग शत-प्रतिशत बिजली कनेक्शन दे दिए हैं, लेकिन अभी भी ग्रिड से आने वाली बिजली का 70% से ज्यादा अधिक हिस्सा कोयले से ही आता है। स्थापित क्षमता में नवीन ऊर्जा का योगदान लगभग 45% है, फिर भी असल उत्पादन के संदर्भ में हाल के सालों में उनकी हिस्सेदारी 22%-24% के आसपास रही है। हमारा अनुमान है कि 2030 तक नवीन ऊर्जा क्षमता के और विस्तार के साथ कोयले की हिस्सेदारी 50% से नीचे आ जाएगी।”
पालित कहते हैं, ” हालांकि भारत दुनिया के शीर्ष पांच कार्बन उत्सर्जक देशों में शामिल है, फिर भी हमारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बेहद कम है। पिछले दशक में, हमारी अर्थव्यवस्था लगभग 6.5 से 8% वार्षिक दर से बढ़ी है, जबकि हमारे कार्बन उत्सर्जन में सिर्फ 4% की बढ़ोतरी हुई है। यह दिखाता है कि हम अपनी वृद्धि की कार्बन तीव्रता में सुधार कर रहे हैं।”
वह रसोई के लिए स्वच्छ ईंधन से जुड़े मुद्दे पर भी प्रकाश डालते हैं। पालित कहते हैं, “एलपीजी ने स्वच्छ रसोई तक पहुंच बढ़ाने में मदद की है, लेकिन यह अभी भी जीवाश्म ईंधन है। असली लक्ष्य हरित ग्रिड से संचालित बिजली से खाना पकाना है। यह बदलाव रातोंरात नहीं होगा, लेकिन हम सही रास्ते पर हैं।”

विकास जारी पर स्थिरता बनी चुनौती
भारत में तेजी से शहरीकरण के साथ आने वाली चुनौतियों को कई रिपोर्टों में दर्ज किया गया है, जिसमें हालिया एसडीजी रिपोर्ट भी शामिल है। यह चार संकेतकों का इस्तेमाल करके टिकाऊ शहरों और समुदायों (एसडीजी 11) पर भारत के प्रदर्शन का आकलन करती है। इनमें झुग्गी बस्तियों में रहने वाली शहरी आबादी का अनुपात, वायु प्रदूषण, पानी के बेहतर स्रोत तक पहुंच और सार्वजनिक परिवहन शामिल हैं। सार्वजनिक परिवहन तक पहुंच को छोड़कर, अन्य तीन संकेतकों पर प्रदर्शन या तो स्थिर है या खराब हो रहा है। हर चार में से लगभग एक शहरी भारतीय अभी भी झुग्गी या अनौपचारिक बस्तियों में रहता है। वायु प्रदूषण भी गंभीर बना हुआ है और इसकी पुष्टि अन्य रिपोर्टों से होती है। हाल ही में विश्व बैंक के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत के सभी 1.4 अरब लोग विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सुरक्षा सीमाओं से ज्यादा बाहरी वायु प्रदूषण के संपर्क में हैं।
पालित का कहना है कि पीएम 2.5 प्रदूषण को कम करना तथा शहरी आबादी के लिए पानी और आवास की बेहतर व्यवस्था करना नीतिगत प्राथमिकता होनी चाहिए।
वह आगे कहते हैं कि वायु प्रदूषण के स्रोत शहरी व्यवस्थाओं में गहराई से शामिल हैं, वाहनों से निकलने वाला धुआं, निर्माण कार्य से निकलने वाली धूल और छोटे उद्योगों से लेकर पर्यावरण नियमों के खराब क्रियान्वयन तक। वे कहते हैं, “हमें वाहनों, उद्योगों और निर्माण क्षेत्र में ज्यादा समग्र, व्यापक सुधार और लगातार निगरानी की जरूरत है।” साथ ही, “कानूनों को लागू करने की व्यवस्था बहुत कमजोर है।”
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दिल्ली का उदाहरण देते हुए पालित कहते हैं कि पुराने वाहनों पर प्रतिबंध के बावजूद, 95% फिटनेस जांच अभी भी मैन्युअल रूप से की जाती हैं, जिससे रियल टाइम में पार्टिकुलेट उत्सर्जन पर नजर रखना मुश्किल हो जाता है। वह “डेटा-केंद्रित प्रवर्तन मॉडल” की वकालत करते हैं जो प्रदूषकों की सटीक निगरानी और उसे रेगुलेट कर सके।
इसके अलावा, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को नोएडा या फरीदाबाद जैसे शहरी क्षेत्रों से हटाने पर राजनीतिक और आर्थिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। वे कहते हैं, “सरकार को इस बदलाव को संभव बनाने के लिए प्रोत्साहन तंत्र बनाना चाहिए।”
जिम्मेदारी से उपभोग और उत्पादन (एसडीजी 12) पर प्रदर्शन भी गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। भारत के आर्थिक विस्तार ने जहां लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है, वहीं इसने संसाधनों के दोहन और प्रदूषण को भी बढ़ाया है। उत्पादन-आधारित वायु और नाइट्रोजन उत्सर्जन सुरक्षित सीमा से ऊपर बने हुए हैं, जबकि नगरपालिका क्षेत्र में ठोस कचरे के संग्रहण और ई-अपशिष्ट को रीसायकल करने में मामूली सुधार दिखाई दे रहा है।

जलवायु, जैव विविधता पर ध्यान देना जरूरी
सतत विकास रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु कार्रवाई (एसडीजी13) के प्रति भारत की कोशिश “कम होती जा रही हैं। ऐसा खास तौर पर जीवाश्म ईंधनों को जलाने और ऑक्सीकरण तथा सीमेंट उत्पादन से होने वाले उत्सर्जन में बढ़ोतरी से हो रहा है। भारत ने सौर और पवन ऊर्जा के विस्तार का संकल्प लिया है और अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं में सक्रिय रूप से हिस्सा लेता है। हालांकि, विकास के साथ-साथ इसके ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी बढ़ोतरी (देश अब चीन और अमेरिका को छोड़कर किसी भी देश की तुलना में कुल मिलाकर ज्यादा CO₂ उत्सर्जित करता है) हो रही है। ईंधन और सीमेंट से भारत का प्रति व्यक्ति CO₂ उत्सर्जन अभी भी काफी ज्यादा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जल के नीचे जीवन (एसडीजी 14) और भूमि पर जीवन (एसडीजी 15) की सुरक्षा के भारत की कोशिशों में बड़ी चुनौतियां बनी हुई हैं। समुद्री जैव-विविधता संरक्षण और मत्स्य प्रबंधन में सीमित प्रगति दिखाई दे रही है। ट्रॉलिंग जैसी मछली पकड़ने की गतिविधियां समुद्री जीवन पर दबाव डाल रही हैं। भूमि पर, वनों की कटाई, मिट्टी के खराब होने और आवास का विनाश भारत की जैव विविधता और वन आवरण के लिए बड़ा खतरा है। संरक्षण कार्यक्रम मौजूद हैं, लेकिन वे आवास विनाश की गति के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं।
भारत का 99वें पायदान पर पहुंचना मील का पत्थर है, लेकिन जल, ऊर्जा और प्रदूषण पर तेजी से और प्रभावी कार्रवाई के बिना, इस उपलब्धि के सफल नहीं होने का खतरा है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 4 जुलाई, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: भारत में सिर्फ दो सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अन्य लक्ष्य जैसे भुखमरी पूरी तरह खत्म करना और टिकाऊ शहर या तो स्थिर हैं या उनमें मामूली सुधार हो रहा है। तस्वीर: कुंदन पांडे/मोंगाबे।