- पश्चिमी घाट का नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र वनों की कटाई, उत्खनन और बड़े पैमाने पर अनियोजित विकास से खतरे में है।
- जलवायु परिवर्तन का बढ़ता दबाव इस अनोखी प्राकृतिक विरासत को और भी अधिक क्षरण और विनाश की तरफ ले जा रहा है।
- कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण, वैज्ञानिक अब स्थानीय समुदायों से संरक्षण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आगे आने का आग्रह कर रहे हैं।
दक्षिण एशिया के सबसे जैव विविधतापूर्ण और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक ‘पश्चिमी घाट’ पर खतरे बढ़ते जा रहे हैं। वनों की कटाई, उत्खनन और बड़े पैमाने पर अनियोजित विकास से प्रभावित यह क्षेत्र, अब जलवायु परिवर्तन के बढ़ते दबावों का सामना कर रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण तीव्र होती चरम मौसम की घटनाएं पारिस्थितिक संकट को और बढ़ा रही हैं।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद और 2024 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित माधव गाडगिल ने चेतावनी देते हुए कहा, “पश्चिमी घाट चरम मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण और जलवायु परिवर्तन से अचानक आने वाली बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती जी रही हैं।” संरक्षण कानूनों को लागू करने में विफलता पर दुख व्यक्त करते हुए उन्होंने मोंगाबे इंडिया से कहा, “कानूनों को सख्ती से लागू करने की जरूरत है।” उन्होंने प्रभावशाली लॉबी के प्रभाव की ओर इशारा किया जो सुरक्षा उपायों को दरकिनार करते हुए, स्थानीय समुदायों पर अपने अधिकारों को छोड़ने का दबाव डाल रहे हैं।
2011 में, गाडगिल की अध्यक्षता वाली एक समिति ने पश्चिमी घाट के सतत विकास के लिए एक व्यापक रूपरेखा का प्रस्ताव रखा था। समिति ने पारिस्थितिक महत्व के आधार पर क्षेत्र को तीन इको-सेंसिटिव ज़ोन (ईएसजेड) में विभाजित किया, जिसमें उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में खनन, उत्खनन, वनों की कटाई और बड़े पैमाने पर निर्माण जैसी विनाशकारी गतिविधियों पर सख्त प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी।
हालांकि, इस रिपोर्ट का राज्य सरकारों और उद्योगों, दोनों ने जोरदार विरोध किया और तर्क दिया कि इसकी सिफारिशें अव्यावहारिक हैं और आर्थिक विकास में बाधा डालेंगी। राजनीतिक विरोध के चलते इन सिफारिशों को लागू नहीं किया जा सका। समिति की अध्यक्षता करने वाले गाडगिल ने पश्चिमी घाट में पर्यावरण विनाश के परिणामों के बारे में गंभीर चेतावनी जारी की थी।
मौसम और बारिश के पैटर्न में बदलाव
पश्चिमी घाट भारत के मानसून को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अरब सागर से आने वाली नम हवाएं पहाड़ों से ऊपर उठने के लिए मजबूर होती हैं, जिसे ऑरोग्राफिक लिफ्टिंग कहा जाता है। इससे बादल बनते हैं और वर्षा होती है, जबकि दूसरी तरफ कम बारिश होती है। इसका मतलब है कि देश में सबसे भारी वर्षा पश्चिमी ढलानों पर होती है और पूर्वी हिस्से में वर्षा छाया क्षेत्र बनता है, जिससे यह क्षेत्र काफी शुष्क हो जाता है।
रिसर्च से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले इन वायुमंडलीय प्रक्रियाओं में बदलाव वर्षा के पैटर्न को बदल रहे हैं। कोचीन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (सीयूएसएटी) के एडवांस सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रडार रिसर्च के निदेशक अभिलाष एस. ने कहा, “दक्षिण-पूर्वी अरब सागर गंभीर चक्रवातों और गहरे संवहनीय बादलों के लिए एक हॉटस्पॉट बनता जा रहा है।” उन्होंने मोंगाबे इंडिया को समझाते हुए बताया कि गहरे समुद्री जल के गर्म होने और वायुमंडलीय परिवर्तनों के कारण मध्य-क्षोभमंडलीय चक्रवाती भंवर (हवा के घूमते हुए द्रव्यमान जो नमी को खींचकर वर्षा को तेज करते हैं) बढ़ गए हैं।
क्षोभमंडल, पृथ्वी के वायुमंडल की सबसे निचली परत है जहां अधिकांश मौसमी घटनाएं होती हैं। यह ध्रुवों पर लगभग 6 किमी से लेकर भूमध्य रेखा पर 18-20 किमी तक फैली हुई है। मध्य-क्षोभमंडलीय चक्रवाती भंवर कम दबाव वाले क्षेत्रों के चारों ओर घूमते हुए वायु द्रव्यमान हैं, जो आमतौर पर सतह से 3-7 किमी ऊपर होते हैं। ये भंवर नम हवा को खींचकर वर्षा को बढ़ा सकते हैं और बदले में, मौसम की गड़बड़ी को तेज कर सकते हैं। वैज्ञानिकों ने समझाया कि इन भंवरों की गति और ताकत पश्चिमी घाट जैसे क्षेत्रों में वर्षा के समय और तीव्रता को प्रभावित करती है।

गर्म होता समुद्र
हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि 1995 से अरब सागर के तेजी से गर्म होने से भारतीय उपमहाद्वीप पर भयंकर चक्रवात बन रहे हैं और मजबूत हो रहे हैं। मॉडल दिखाते हैं कि एशियाई मानसून क्षेत्र में अन्य मानसून क्षेत्रों की तुलना में अत्यधिक वर्षा में बड़े बदलाव आ रहे हैं, जो वैश्विक तापमान के प्रति इसकी संवेदनशीलता को दर्शाता है।
केरल में हो रहे बदलाव इसका एक बड़ा उदाहरण है – सबसे बड़ी मुसिबतें 2018 और 2019 की बाढ़ थी, जो विपरीत मौसम की घटनाओं की वजह से आई थीं। 2022 के सीयूएसएटी के एक अध्ययन में कहा गया, “2019 के मानसून के मौसम के दौरान केरल में जबरदस्त बादल फटे और बाढ़ आई। उसे देखकर लगता है कि भारत के पश्चिमी तट पर वर्षा का तरीका बदल रहा है। पहले जो बारिश ज्यादातर एक जैसी होती थी अब वो संवहनीय यानी अचानक, तेज और भारी मात्रा में हो रही है।”
आर्द्र परिस्थितियों से बनने वाले संवहनीय बादल, इस क्षेत्र में आमतौर पर पाए जाने वाले उथले, परतदार स्तरीय बादलों की तुलना में गहरे और बर्फ से भरपूर होते हैं। वैज्ञानिकों नोट किया कि 2018 में परतदार बादल ने लंबे समय तक बने रहने वाली बारिश की, जबकि 2019 में गहरे संवहनीय बादलों के कारण कम समय में ज्यादा बारिश हुई।
आपदा जोखिम के परिणाम
गाडगिल ने बताया, “बारिश के ये तेज झटके खतरनाक हो सकते हैं।” ऐसी बारिश से मिट्टी का कटाव, अचानक बाढ़ और भूस्खलन हो सकता है। पश्चिमी घाट पर खड़ी ढलानों और कम समय में होने वाली तेज बारिश के कारण मुख्य रूप से भूस्खलन होते हैं। इसका एक दुखद उदाहरण 2024 का वायनाड भूस्खलन था, जिसमें 254 लोगों की जान गई और 128 लोग लापता हो गए थे।
आपदा से पहले, वायनाड के दो मौसम केंद्रों में बहुत भारी बारिश हुई। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के अध्ययन में पाया गया कि पुथुमाला और चेम्बरा में 24 घंटे के भीतर क्रमशः लगभग 350 मिमी और 300 मिमी बारिश हुई। कुल मिलाकर, यह 1713 मिमी की कुल वर्षा का लगभग पांचवां हिस्सा है, जो जिले में पूरे 2024 मानसून सीजन (जून से सितंबर 2024) में हुई थी। यह भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईआईएमडी) द्वारा दर्ज किए गए सामान्य औसत 2464 मिमी से 30% कम थी।
विडंबना यह है कि भारत में गर्मियों के मानसून (जून से सितंबर) के दौरान होने वाली बारिश 1951 से 2015 तक लगभग 6% कम हो गई है, जिसमें पश्चिमी घाट में उल्लेखनीय गिरावट आई है। साथ ही, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के भारतीय क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के 2020 के आकलन के अनुसार, पश्चिमी घाट में अधिक चरम वर्षा की घटनाओं के साथ लगातार अनियमित बारिश हो रही है।
अध्ययन ने भूस्खलन की बढ़ती घटनाओं को खड़ी ढलानों, तीव्र बारिश और बड़े पैमाने पर हो रहे उत्खनन से जोड़ा है।
गाडगिल ने वायनाड आपदा को “मानव निर्मित त्रासदी” करार दिया। इसके लिए उन्होंने राज्य सरकारों को दोषी ठहराया और उस पर घाटों में सतत विकास के लिए उनकी समिति की 2011 की सिफारिशों की अनदेखी करने का आरोप लगाया।

कई प्रभाव
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय का आकलन बताता है कि उत्तरी गोलार्ध पर एरोसोल की भूमिका ग्लोबल वार्मिंग के कारण बारिश में होने वाली बढ़ोतरी के प्रभाव को कम करने में बहुत अहम है। एरोसोल हवा में तैरते हुए ठोस या तरल कण होते हैं। ये प्राकृतिक स्रोतों से भी आ सकते हैं, जैसे धूल, समुद्री नमक, ज्वालामुखी की राख और परागकण। इसके अलावा, ये इंसानी गतिविधियों से भी पैदा होते हैं, जिनमें औद्योगिक धुआं, गाड़ियों का धुआं, जैविक पदार्थ को जलाना और खनन शामिल हैं।
एरोसोल, वायुमंडल में सूर्य की किरणों के अवशोषित या बिखरने के तरीके को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे पृथ्वी या तो गर्म हो सकती है या ठंडी। ये बादल बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन कणों का प्रभाव उनके आकार, संरचना और वायुमंडलीय प्रक्रियाओं के साथ उनकी परस्पर क्रिया पर निर्भर करता है।
गाडगिल ने बताया, “एरोसोल अत्यधिक वर्षा की घटनाओं को जन्म दे सकते हैं।” 2024 के एक अध्ययन से पता चला था कि “कुछ परिस्थितियों में, अवशोषित एरोसोल अत्यधिक वर्षा को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ा सकते हैं, भले ही औसत वर्षा कम हो रही हो।”
पश्चिमी घाट में अब ये प्रभाव साफतौर पर देखे जा रहे हैं। जहां औसत वर्षा कम हो रही है, वहीं दूसरी तरफ क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है। गाडगिल ने इस क्षेत्र में बढ़ते एरोसोल भार में योगदान देने वाले एक संभावित कारक के रूप में पर्यावरण क्षरण की ओर भी इशारा किया।
गाडगिल के अनुसार, बड़े पैमाने पर हो रहा उत्खनन, जिसमें से अधिकांश अवैध हैं, वायुमंडल में भारी मात्रा में धूल को इकट्ठा कर रहा है। उन्होंने कहा, “पश्चिमी घाट में दर्जनों खदानें चल रही हैं और उनमें से कई अवैध हैं।” नए बंदरगाह, ब्रेकवाटर और सीवॉल जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं पत्थर खनन को बढ़ावा देकर और पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को अस्थिर करके स्थिति को और खराब कर रही हैं।
गाडगिल ने जोर देकर कहा, “हमें सख्ती से कानून लागू करने की आवश्यकता है।” उन्होंने नुकसान को कम करने और पश्चिमी घाटों को और अधिक बिगड़ने से बचाने के लिए सख्त कानून लागू करने की मांग की।
पर्यावरण का बड़े पैमाने पर विनाश
इस बीच, वायनाड का संवेदनशील क्षेत्र विकास और पर्यावरणीय के नुकसान के कारण लगातार मुश्किलों का सामना कर रहा है। वायनाड में 2024 के भूस्खलन के बाद, सैटेलाइट से मिली तस्वीरों से पता चलता है कि जिले में कम से कम 48 पत्थर की खदानें हैं, जिनमें से 15 पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों (ईएसए) में स्थित हैं। अंतरिक्ष वैज्ञानिक कृष्णस्वामी कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाली एक उच्च-स्तरीय टीम द्वारा 2013 में पहचाने गए इन क्षेत्रों को प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों के तहत अपने परिदृश्य के कम से कम पांचवें हिस्से के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें जैव विविधता से भरपूर क्षेत्र, वन्यजीव गलियारे और विरासत स्थल शामिल हैं। संवेदनशील क्षेत्रों में खनन, उत्खनन और अन्य पर्यावरणीय हानिकारक गतिविधियों पर प्रतिबंध है ताकि उनकी पारिस्थितिक अखंडता को सुरक्षित रखा जा सके।
केरल के राजनीतिक नेतृत्व ने पश्चिमी घाट की इको-सेंसिटिविटी पर गाडगिल और कस्तूरीरंगन की रिपोर्टों को “अव्यावहारिक” बताते हुए खारिज कर दिया था। 2024 के भूस्खलन के बाद, मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा था, “इन रिपोर्टों में अधिकांश सिफारिशें अव्यावहारिक थीं और सामाजिक आकांक्षाओं और जमीनी हकीकतों पर विचार नहीं किया गया था।”
हालांकि, 2024 में वायनाड में हुए भूस्खलन के बाद, एक अन्य विशेषज्ञ समिति ने तत्काल कार्रवाई की गुजारिश और सिफारिश करते हुए कहा था कि जिन क्षेत्रों को असुरक्षित घोषित किया गया है, उन्हें आबादी से मुक्त रखा जाए और उन क्षेत्रों में निर्माण और अन्य मानवीय हस्तक्षेप को प्रतिबंधित किया जाए।

आगे की राह
कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते, वैज्ञानिक स्थानीय समुदायों से संरक्षण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आगे आने का आग्रह कर रहे हैं। मोंगाबे इंडिया से बात करते हुए गाडगिल ने पश्चिमी घाट के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा में स्थानीय शासन की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “पंचायतें पर्यावरण को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।” उन्होंने जैव विविधता अधिनियम का भी जिक्र किया, जिसके तहत पंचायतों, नगर पालिकाओं और महानगर पालिकाओं को जैव विविधता प्रबंधन समितियां बनानी होती हैं।
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गाडगिल ने जोर देकर कहा, “इन समितियों को संरक्षण और उचित योजना बनाने की दिशा में सक्रिय रूप से काम करना होगा। उन्होंने सार्थक बदलाव लाने के लिए स्थानीय निकायों की शक्ति पर जोर दिया। उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि संरक्षण का मतलब राज्य वन विभागों को अधिक अधिकार देना नहीं है, बल्कि स्थानीय लोगों को अधिक अधिकार देना है। चूंकि यह क्षेत्र बढ़ते पारिस्थितिक खतरों का सामना कर रहा है, इसलिए समुदाय द्वारा संचालित समाधानों की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक जरूरी हो गई है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 29 जनवरी 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: पश्चिमी घाट का नजारा। 2011 की गाडगिल समिति ने क्षेत्र के सतत विकास के लिए एक रूपरेखा प्रस्तावित की थी। तस्वीर- योगेश्वर पटनाला, विकिमीडिया कॉमन्स (CC-BY-SA-4.0)