- एक नए अध्ययन में पाया गया है कि कर्नाटक में जयमंगली कृष्ण मृग रिजर्व के बाहर काले हिरणों की संख्या संरक्षित क्षेत्र के मुकाबले दोगुनी है।
- काले हिरण सवाना घास के मैदानों में फलते-फूलते हैं, लेकिन इस रिजर्व के अंदर सबसे ज्यादा झाड़ियां और फिर पेड़ हैं। सवाना घास के मैदानों के संरक्षण पर ध्यान नहीं देने से शायद काले हिरणों पर असर पड़ा है।
- अध्ययन के लेखकों ने रिजर्व के अंदर घास के मैदानों को पनपने देने के लिए यूकेलिप्टस के पेड़ों की संख्या कम करने तथा प्रजातियों की सुरक्षा के लिए इको-टूरिज्म का सुझाव दिया है।
काले हिरण कभी पूरे भारत में व्यापक रूप से फैले हुए थे। लेकिन, अब इनकी आबादी कुछ खास इलाकों तक ही सीमित हो गई है। इस आबादी के लिए सबसे बड़ा खतरा सवाना घास के मैदान वाले उनके प्राकृतिक आवासों का खत्म होना है। हालांकि, पिछले कई सालों में इनकी तादाद बढ़ाने के लिए संरक्षित क्षेत्र बनाए गए हैं। फिर भी कर्नाटक के तुमकुर जिले में जयमंगली कृष्ण मृग संरक्षण रिजर्व में इनकी तादाद पर केंद्रित नए अध्ययन में चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है। रिजर्व के बाहर संरक्षित क्षेत्र के मुकाबले काले हिरणों की संख्या दोगुनी है।
जर्नल फॉर नेचर कंजर्वेशन में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि संरक्षित क्षेत्र के अंदर सवाना घास के मैदान का आवास झाड़ियों व यूकेलिप्टस के बागानों और इसके बाहर कृषि भूमि के कारण पूरी तरह बंट गया है।
साल 2007 में मधुगिरि तालुका में 798 एकड़ (3.1 वर्ग किलोमीटर) क्षेत्र को जयमंगली कृष्णमृग संरक्षण रिजर्व (जेबीसीआर) के रूप में अधिसूचित किया गया था। यह तुमकुर जिले में पहला संरक्षित क्षेत्र था। बेंगलुरु स्थित अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) के संकाय सदस्य और अध्ययन के लेखकों में से एक केएस. शेषाद्रि ने इस जगह के अपने सालाना दौरे के दौरान अभयारण्य के बाहर ज्यादा संख्या में काले हिरणों को घूमते हुए देखा।
साल 2023 में एटीआरईई (अब स्नातक) में स्नातकोत्तर के छात्र बीआर मनोज कुमार ने जेबीसीआर में काले हिरणों की मौजूदगी का पता लगाने में दिलचस्पी दिखाई और तब जाकर यह अध्ययन आगे बढ़ा। शेषाद्रि कहते हैं, “हम यह देखना चाहते थे कि काले हिरणों के वितरण को कौन-से कारक प्रभावित करते हैं और वास्तव में क्या यह संरक्षण रिजर्व प्रभावी है।”
भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासी काले हिरण 13 राज्यों में पाए जाते हैं। पिछले कुछ सालों में इनकी तादाद में कमी आई है। साल 2016 के नए आकलन के अनुसार इनकी संख्या लगभग 35,000 है। अध्ययन के अनुसार, इन्हें आईयूसीएन की लाल सूची में सबसे कम चिंता वाली प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है, लेकिन भारत में वन्यजीव (संरक्षण) कानून, 1972 के तहत इन्हें संरक्षित किया गया है।
भारत में कुछ अभयारण्य खास तौर पर काले हिरणों के संरक्षण के लिए बनाए गए हैं। इनमें जेबीसीआर और कर्नाटक स्थित रानीबेन्नूर कृष्ण मृग अभयारण्य शामिल हैं। हालांकि, इस बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है कि काले हिरण इन अभयारण्यों और उनके आसपास के आवासों का इस्तेमाल किस तरह करते हैं और नए अध्ययन में इस कमी को दूर किया गया है।

रिजर्व के बाहर
जेबीसीआर में फिलहाल घास के मैदान, सवाना-वुडलैंड, यूकेलिप्टस व अकेशिया ऑरिक्युलिफोर्मिस (बबूल की एक प्रजाति) जैसे पेड़ हैं। साथ ही विलायती बबूल (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) जैसे आक्रामक विदेशी पौधे भी हैं।
अध्ययन क्षेत्र 26.6 वर्ग किलोमीटर में फैला था। इसमें जेबीसीआर का 3.1 वर्ग किलोमीटर और आसपास का 2 किलोमीटर के बफर क्षेत्र का 23.5 वर्ग किमी शामिल था। शोधकर्ताओं ने गूगल अर्थ के आंकड़ों का इस्तेमाल करके जेबीसीआर और उसके आसपास की भूमि उपयोग और भूमि आवरण का वर्गीकरण किया। उन्होंने दो मौसमों, मार्च-अप्रैल 2023 और फिर सितंबर 2023 में काले हिरणों की मौजूदगी का अध्ययन किया।
उन्होंने खोज के लिए ऑक्यूपेंसी फ्रेमवर्क का इस्तेमाल किया गया और इससे पता चला कि इस रिजर्व के बाहर, अंदर की तुलना में काले हिरणों के पाए जाने की संभावना ज्यादा थी। दोनों मौसमों में रिजर्व के बाहर 74% (102 में से 75) ग्रिड में काले हिरण के छर्रे पाए गए और अंदर सिर्फ 36% (65 में से 23) ग्रिड में ही ऐसा देखा गया। इसके अलावा, अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं को 14 ग्रिड में 180 काले हिरणों का प्रत्यक्ष रूप से सामना भी हुआ और इनमें से 13 रिजर्व के बाहर थे।
शेषाद्रि कहते हैं, “हम यह नतीजा नहीं निकाल सकते कि रिजर्व काले हिरणों के संरक्षण में मदद नहीं करता है। हालांकि, हमने नकारात्मक संबंध भी देखा, क्योंकि काले हिरण रिजर्व के बाहर ज्यादा पाए जाते हैं।” अध्ययन के मानचित्रों को देखें तो जहां 60% से 100% तक काले हिरण पाए गए, वे क्षेत्र ज्यादातर रिजर्व के बाहर हैं।
इससे यह संकेत मिल सकता है कि मुख्य तौर पर झाड़ियां और पेड़ वाला रिजर्व के अंदर का आवास उनके लिए अनुपयुक्त हो सकता है। रिजर्व के अंदर सबसे ज्यादा जमीन झाड़ियों से ढकी है, जो रिजर्व का 48% हिस्सा घेरती है। इसके बाद पेड़ (29%) आते हैं। काले हिरण सवाना घास के मैदानों में फलते-फूलते हैं, जो रिजर्व क्षेत्र का महज 23% ही है।
शेषाद्रि बताते हैं, “यहां कई पेड़ यूकेलिप्टस के हैं, जो शायद रिजर्व घोषित होने से पहले से ही मौजूद हैं। काले हिरणों के जीव विज्ञान को समझने से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे पेड़ों का इस्तेमाल सिर्फ आश्रय के लिए ही करते हैं, क्योंकि वे खुले आवास वाली प्रजातियां हैं।”
शेषाद्रि बताते हैं कि अध्ययन में विलायती बबूल की बहुत ज्यादा मौजूदगी देखी गई, जिसे काले हिरण नहीं खाते। दरअसल, 2021 के एक अध्ययन में पाया गया कि विलायती बबूल ने पॉइंट कैलिमेरे वन्यजीव अभयारण्य, गिंडी राष्ट्रीय उद्यान और तमिलनाडु के सत्यमंगलम टाइगर रिजर्व में काले हिरणों पर नकारात्मक प्रभाव डाला। इस विदेशी प्रजाति ने घास के मैदान, घास के बायोमास और आवास के खुलेपन को काफी हद तक कम कर दिया।
अध्ययन में कहा गया है कि काले हिरणों की संख्या और उनका वितरण झाड़ियों और पशुधन की संख्या से भी प्रभावित होता है। शेषाद्रि बताते हैं, “पशुधन ने पहचान को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया, लेकिन जहां झाड़ियां और पेड़ ज्यादा थे, वहां हमें कम छर्रे मिले।”

सवाना घास के मैदानों की अहमियत
सवाना-घास वाले मैदानों के आवास काले हिरण जैसे स्थानीय जानवरों के अस्तित्व के लिए अहम हैं। भारत के 17% भूभाग में इस घास के मैदान हैं, लेकिन अध्ययन में कहा गया है कि उनमें से सिर्फ छोटा-सा हिस्सा ही संरक्षित है।
खुले प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों के संरक्षण के लिए काम करने वाले पुणे स्थित संगठन द ग्रासलैंड्स ट्रस्ट-इंडिया के संस्थापक मिहिर गोडबोले कहते हैं, “अंग्रेज सवाना घास के मैदानों को बंजर भूमि मानते थे, क्योंकि अमीरों को इनसे कोई आमदनी नहीं होती थी। यह सोच आज भी बनी हुई है। आज भी घास के इन मैदानों को पारिस्थितिक मूल्य वाली भूमि के बजाय विकास परियोजनाओं, आवासीय योजनाओं या यहां तक कि औद्योगिक क्षेत्रों के रूप में देखा जाता है।”
उन्होंने कहा कि उपनिवेशवादियों ने खुले आवासों के विशाल क्षेत्रों को बागानों में बदल दिया और सवाना घास के मैदानों के सदियों पुराने कम मूल्यांकन के कारण वे खराब हो गए।
गोडबोले बताते हैं, “महाराष्ट्र में किए गए हमारे हालिया बेसलाइन सर्वे में हमने पाया कि एक या दो वनस्पति प्रजातिया घास के मैदानों में प्रमुखता से मौजूद हैं, जिनमें पोषण या प्रोटीन की मात्रा बहुत अधिक नहीं होती। अगर अलग-अलग तरह की घासों का मिश्रण नहीं होगा, तो ऐसे क्षेत्र इन पर निर्भर जीवों के लिए लाभकारी स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र नहीं बना पाएंगे।”
खास तौर पर पेड़ों का बहुत ज्यादा घनत्व काले हिरणों के जीवित रहने पर बड़ा असर डाल सकता है। उदाहरण के लिए, अप्रैल 2022 में तमिलनाडु में चेन्नई स्थित राजभवन परिसर में लगभग 20 काले हिरणों की मौत की सूचना मिली थी। ये मौत इमारतों के पास घास के मैदानों को विदेशी घास के सुंदर लॉन में बदलने और पेड़ों के अतिक्रमण से हुई भुखमरी से जुड़ी थी।
काले हिरण पूरी तरह से घास के मैदानों पर निर्भर हैं। गोडबोले बताते हैं कि उन्हें मध्य भारत के कई जंगलों में फिर से बसाया गया, लेकिन वे जीवित नहीं रह पाए। गोडबोले कहते हैं, “पक्षियों में लेसर फ्लोरिकन और शाकाहारी जीवों में काले हिरण जैसी कुछ प्रजातियां इस बात का बड़ा सबूत हैं कि घास के मैदान की प्रजातियां किसी अन्य आवास में अच्छी तरह से नहीं फल-फूल सकतीं।”
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जेबीसीआर में अध्ययन संबंधी मानचित्रों से पता चलता है कि आसपास का परिदृश्य झाड़ियों, परती भूमि, घास के मैदानों, पेड़ों, आर्द्रभूमि और कृषि क्षेत्रों में बंटा हुआ है। रिजर्व के अंदर घास के मैदानों की कम मौजूदगी काले हिरणों को भोजन के लिए बाहर धकेल सकती है। गोडबोले इसे कृषि क्षेत्रों में बेहतर संसाधनों से भी जोड़ते हैं। “कृषि क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलें सवाना घास के मैदानों की तुलना में कहीं ज्यादा पौष्टिक होती हैं। इसके अलावा, खेतों में पानी की उपलब्धता भी बेहतर होती है।”

कार्रवाई के योग्य सुझाव
अध्ययन में लेखकों ने सुझाव दिया है कि समुदाय-आधारित संरक्षण जेबीसीआर में काले हिरणों से जुड़ी संरक्षण कोशिशों को बेहतर बना सकता है। शेषाद्रि बताते हैं, “भारत में, सिर्फ सरकारी स्वामित्व वाली भूमि को ही संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जा सकता है। अगर हमें इस जेबीसीआर क्षेत्र का विस्तार करना है, तो एक विकल्प यह है कि इसे सामुदायिक संरक्षित के रूप में विकसित करना या इस पर नए सिरे से सोचना और इस स्थिति में समुदाय ही इस क्षेत्र का प्रबंधन करता है।”
उनके मुताबिक दूसरा सुझाव यह है कि संरक्षण क्षेत्र के आसपास की जमीन को वन्यजीव अभयारण्य की तरह संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया जाए। वे आगे कहते हैं, “लेकिन इन दोनों ही विकल्पों में जटिलताएं हैं।”
शोधकर्ता इको-टूरिज्म को भी व्यावहारिक विकल्प के रूप में देखते हैं। शेषाद्रि वायंड वन्यजीव अभयारण्य की ओर इशारा करते हैं, जहां आस-पास के गांव मानव-वन्यजीव संघर्ष के कारण कोई भी फसल नहीं उगा पाते थे। इसलिए, खाली पड़े धान के खेतों को घास के मैदान या दलदल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और स्थानीय लोगों के घरों को छोटे-छोटे होमस्टे में बदल दिया गया है। वे कहते हैं, “वहां रहने और वन्यजीवों को देखने के लिए सैलानियों से अच्छे-खासे पैसे लिए जाते हैं।”
गोडबोले को कृषि-पर्यटन के साथ-साथ इको-टूरिज्म में भी संभावनाएं नजर आती हैं, जिससे उन्हें लगता है कि सामुदायिक अभयारण्यों के संरक्षण के साथ-साथ कृषि के ज्यादा टिकाऊ तरीकों को अपनाने में मदद मिल सकती है। वे आगे कहते हैं, “इससे होने वाली आय टिकाऊ होगी और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए स्थानीय समुदाय को दी जाएगी।”
हालांकि, अनियंत्रित पर्यटन और उपलब्ध संसाधनों पर दबाव समस्या बनकर उभर सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि इन विकल्पों को लोगों के अधिकारों को प्रभावित करने या पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाने से बचने के लिए सावधानीपूर्वक लागू करना जरूरी है। शेषाद्रि कहते हैं, “कारगर सुझाव यह है कि रिजर्व के अंदर पेड़ों की संख्या कम की जाए। यूकेलिप्टस के कुछ पेड़ों को हटाने से घास के मैदानों को पनपने में मदद मिल सकती है।”
वैसे देखा जाए तो भारत में काले हिरणों के लिए रिजर्व क्षेत्र स्थापित किए गए हैं, लेकिन जेबीसीआर में किए गए इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैव विविधता के संरक्षण में सवाना घास के मैदानों की भूमिका को पहचानना बहुत जरूरी है, खास तौर पर उन मैदानों को जो संरक्षित क्षेत्रों से बाहर हैं। ऐसा करना जैव-विविधता के संरक्षण के लिए बहुत जरूरी है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 3 21 अगस्त, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: जेबीसीआर रिजर्व के अंदर घास के मैदानों की कम मौजूदगी काले हिरणों को भोजन की तलाश में बाहर जाने पर मजबूर कर सकती है। तस्वीर: शेषाद्रि के.एस।